भागसूचना
चतुर्थोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका दिव्यलोकमें श्रीकृष्ण, अर्जुन आदिका दर्शन करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा देवैः सर्षिमरुद्गणैः।
स्तूयमानो ययौ तत्र यत्र ते कुरुपुङ्गवाः ॥ १ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा देवैः सर्षिमरुद्गणैः।
स्तूयमानो ययौ तत्र यत्र ते कुरुपुङ्गवाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर देवताओं, ऋषियों और मरुद्गणोंके मुँहसे अपनी प्रशंसा सुनते हुए राजा युधिष्ठिर क्रमशः उस स्थानपर जा पहुँचे जहाँ वे कुरुश्रेष्ठ भीमसेन और अर्जुन आदि विराजमान थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श तत्र गोविन्दं ब्राह्मेण वपुषान्वितम्।
तेनैव दृष्टपूर्वेण सादृश्येनैव सूचितम् ॥ २ ॥
मूलम्
ददर्श तत्र गोविन्दं ब्राह्मेण वपुषान्वितम्।
तेनैव दृष्टपूर्वेण सादृश्येनैव सूचितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने ब्राह्मविग्रहसे सम्पन्न हैं। पहलेके देखे गये सादृश्यसे ही वे पहचाने जाते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीप्यमानं स्ववपुषा दिव्यैरस्त्रैरुपस्थितम् ।
चक्रप्रभृतिभिर्घोरैर्दिव्यैः पुरुषविग्रहैः ॥ ३ ॥
मूलम्
दीप्यमानं स्ववपुषा दिव्यैरस्त्रैरुपस्थितम् ।
चक्रप्रभृतिभिर्घोरैर्दिव्यैः पुरुषविग्रहैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके श्रीविग्रहसे अद्भुत दीप्ति छिटक रही है। चक्र आदि दिव्य एवं भयंकर अस्त्र-शस्त्र दिव्य पुरुषविग्रह धारण करके उनकी सेवामें उपस्थित हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपास्यमानं वीरेण फाल्गुनेन सुवर्चसा।
तथास्वरूपं कौन्तेयो ददर्श मधुसूदनम ॥ ४ ॥
मूलम्
उपास्यमानं वीरेण फाल्गुनेन सुवर्चसा।
तथास्वरूपं कौन्तेयो ददर्श मधुसूदनम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त तेजस्वी वीरवर अर्जुन भगवान्की आराधनामें लगे हुए हैं। कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने भगवान् मधुसूदनका उसी स्वरूपमें दर्शन किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ समुद्वीक्ष्य युधिष्ठिरम्।
यथावत् प्रतिपेदाते पूजया देवपूजितौ ॥ ५ ॥
मूलम्
तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ समुद्वीक्ष्य युधिष्ठिरम्।
यथावत् प्रतिपेदाते पूजया देवपूजितौ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह अर्जुन और श्रीकृष्ण देवताओंद्वारा पूजित थे। इन दोनोंने युधिष्ठिरको उपस्थित देख उनका यथावत् सम्मान किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरस्मिन्नथोद्देशे कर्णं शस्त्रभृतां वरम्।
द्वादशादित्यसहितं ददर्श कुरुनन्दनः ॥ ६ ॥
मूलम्
अपरस्मिन्नथोद्देशे कर्णं शस्त्रभृतां वरम्।
द्वादशादित्यसहितं ददर्श कुरुनन्दनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद दूसरी ओर दृष्टि डालनेपर कुरुनन्दन युधिष्ठिरने शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ कर्णको देखा जो बारह आदित्योंके साथ (तेजोमय स्वरूप धारण किये) विराजमान थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरस्मिन्नुद्देशे मरुद्गणवृतं विभुम् ।
भीमसेनमथापश्यत् तेनैव वपुषान्वितम् ॥ ७ ॥
वायोर्मूर्तिमतः पार्श्वे दिव्यमूर्तिसमन्वितम् ।
श्रिया परमया युक्तं सिद्धिं परमिकां गतम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अथापरस्मिन्नुद्देशे मरुद्गणवृतं विभुम् ।
भीमसेनमथापश्यत् तेनैव वपुषान्वितम् ॥ ७ ॥
वायोर्मूर्तिमतः पार्श्वे दिव्यमूर्तिसमन्वितम् ।
श्रिया परमया युक्तं सिद्धिं परमिकां गतम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर दूसरे स्थानमें उन्होंने दिव्यरूपधारी भीमसेनको देखा जो पहलेहीके समान शरीर धारण किये मूर्तिमान् वायुदेवताके पास बैठे थे। उन्हें सब ओरसे मरुद्गणोंने घेर रखा था। वे उत्तम कान्तिसे सुशोभित एवं उत्कृष्ट सिद्धिको प्राप्त थे॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्विनोस्तु तथा स्थाने दीप्यमानौ स्वतेजसा।
नकुलं सहदेवं च ददर्श कुरुनन्दनः ॥ ९ ॥
मूलम्
अश्विनोस्तु तथा स्थाने दीप्यमानौ स्वतेजसा।
नकुलं सहदेवं च ददर्श कुरुनन्दनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन युधिष्ठिरने नकुल और सहदेवको अश्विनीकुमारोंके स्थानमें विराजमान देखा जो अपने तेजसे उद्दीप्त हो रहे थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा ददर्श पाञ्चालीं कमलोत्पलमालिनीम्।
वपुषा स्वर्गमाक्रम्य तिष्ठन्तीमर्कवर्चसम् ॥ १० ॥
मूलम्
तथा ददर्श पाञ्चालीं कमलोत्पलमालिनीम्।
वपुषा स्वर्गमाक्रम्य तिष्ठन्तीमर्कवर्चसम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्होंने कमलोंकी मालासे अलंकृत पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदीको देखा जो अपने तेजस्वी स्वरूपसे स्वर्गलोकको अभिभूत करके विराज रही थीं। उनकी दिव्य कान्ति सूर्यदेवकी भाँति प्रकाशित हो रही थी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखिलं सहसा राजा प्रष्टुमैच्छद् युधिष्ठिरः।
ततोऽस्य भगवानिन्द्रः कथयामास देवराट् ॥ ११ ॥
मूलम्
अखिलं सहसा राजा प्रष्टुमैच्छद् युधिष्ठिरः।
ततोऽस्य भगवानिन्द्रः कथयामास देवराट् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने इन सबके विषयमें सहसा प्रश्न करनेका विचार किया। तब देवराज भगवान् इन्द्र स्वयं ही उन्हें सबका परिचय देने लगे—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीरेषा द्रौपदीरूपा त्वदर्थे मानुषं गता।
अयोनिजा लोककान्ता पुण्यगन्धा युधिष्ठिर ॥ १२ ॥
मूलम्
श्रीरेषा द्रौपदीरूपा त्वदर्थे मानुषं गता।
अयोनिजा लोककान्ता पुण्यगन्धा युधिष्ठिर ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युधिष्ठिर! ये जो लोककमनीय विग्रहसे युक्त पवित्र गन्धवाली देवी दिखायी दे रही हैं, साक्षात् भगवती लक्ष्मी हैं। ये ही तुम्हारे लिये मनुष्यलोकमें जाकर अयोनिसम्भूता द्रौपदीके रूपमें अवतीर्ण हुई थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्यर्थं भवतां ह्येषा निर्मिता शूलपाणिना।
द्रुपदस्य कुले जाता भवद्भिश्चोपजीविता ॥ १३ ॥
मूलम्
रत्यर्थं भवतां ह्येषा निर्मिता शूलपाणिना।
द्रुपदस्य कुले जाता भवद्भिश्चोपजीविता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वयं भगवान् शंकरने तुमलोगोंकी प्रसन्नताके लिये इन्हें प्रकट किया था और ये ही द्रुपदके कुलमें जन्म धारणकर तुम सब भाइयोंके द्वारा अनुगृहीत हुई थीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते पञ्च महाभागा गन्धर्वाः पावकप्रभाः।
द्रौपद्यास्तनया राजन् युष्माकममितौजसः ॥ १४ ॥
मूलम्
एते पञ्च महाभागा गन्धर्वाः पावकप्रभाः।
द्रौपद्यास्तनया राजन् युष्माकममितौजसः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! ये जो अग्निके समान तेजस्वी और महान् सौभाग्यशाली पाँच गन्धर्व दिखायी देते हैं, ये ही तुमलोगोंके वीर्यसे उत्पन्न हुए द्रौपदीके अनन्त बलशाली पुत्र हुए थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य गन्धर्वराजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
एनं च त्वं विजानीहि भ्रातरं पूर्वजं पितुः ॥ १५ ॥
मूलम्
पश्य गन्धर्वराजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।
एनं च त्वं विजानीहि भ्रातरं पूर्वजं पितुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन मनीषी गन्धर्वराज धृतराष्ट्रका दर्शन करो और इन्हींको अपने पिताका बड़ा भाई समझो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ते पूर्वजो भ्राता कौन्तेयः पावकद्युतिः।
सूतपुत्राग्रजः श्रेष्ठो राधेय इति विश्रुतः ॥ १६ ॥
मूलम्
अयं ते पूर्वजो भ्राता कौन्तेयः पावकद्युतिः।
सूतपुत्राग्रजः श्रेष्ठो राधेय इति विश्रुतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये रहे तुम्हारे बड़े भाई कुन्तीकुमार कर्ण जो अग्नितुल्य तेजसे प्रकाशित हो रहे हैं। ये ही सूतपुत्रोंके श्रेष्ठ अग्रज थे और ये ही राधापुत्रके नामसे विख्यात हुए थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यसहितो याति पश्यैनं पुरुषर्षभम्।
मूलम्
आदित्यसहितो याति पश्यैनं पुरुषर्षभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन पुरुषप्रवर कर्णका दर्शन करो, ये आदित्योंके साथ जा रहे हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्यानामथ देवानां विश्वेषां मरुतामपि ॥ १७ ॥
गणेषु पश्य राजेन्द्र वृष्ण्यन्धकमहारथान्।
सात्यकिप्रमुखान् वीरान् भोजांश्चैव महाबलान् ॥ १८ ॥
मूलम्
साध्यानामथ देवानां विश्वेषां मरुतामपि ॥ १७ ॥
गणेषु पश्य राजेन्द्र वृष्ण्यन्धकमहारथान्।
सात्यकिप्रमुखान् वीरान् भोजांश्चैव महाबलान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र! उधर वृष्णि और अन्धककुलके सात्यकि आदि वीर महारथियों और महान् बलशाली भोजोंको देखो। वे साध्यों, विश्वेदेवों तथा मरुद्गणोंमें विराजमान हैं॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमेन सहितं पश्य सौभद्रमपराजितम्।
अभिमन्युं महेष्वासं निशाकरसमद्युतिम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सोमेन सहितं पश्य सौभद्रमपराजितम्।
अभिमन्युं महेष्वासं निशाकरसमद्युतिम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इधर किसीसे परास्त न होनेवाले महाधनुर्धर सुभद्राकुमार अभिमन्युकी ओर दृष्टि डालो। यह चन्द्रमाके साथ इन्हींके समान कान्ति धारण किये बैठा है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पाण्डुर्महेष्वासः कुन्त्या माद्र्या च संगतः।
विमानेन सदाभ्येति पिता तव ममान्तिकम् ॥ २० ॥
मूलम्
एष पाण्डुर्महेष्वासः कुन्त्या माद्र्या च संगतः।
विमानेन सदाभ्येति पिता तव ममान्तिकम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये महाधनुर्धर राजा पाण्डु हैं जो कुन्ती और माद्री दोनोंके साथ हैं। ये तुम्हारे पिता पाण्डु विमानद्वारा सदा मेरे पास आया करते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुभिः सहितं पश्य भीष्मं शान्तनवं नृपम्।
द्रोणं बृहस्पतेः पार्श्वे गुरुमेनं निशामय ॥ २१ ॥
मूलम्
वसुभिः सहितं पश्य भीष्मं शान्तनवं नृपम्।
द्रोणं बृहस्पतेः पार्श्वे गुरुमेनं निशामय ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शान्तनुनन्दन राजा भीष्मका दर्शन करो, ये वसुओंके साथ विराज रहे हैं। द्रोणाचार्य बृहस्पतिके साथ हैं। अपने इन गुरुदेवको अच्छी तरह देख लो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये महीपाला योधास्तव च पाण्डव।
गन्धर्वसहिता यान्ति यक्षपुण्यजनैस्तथा ॥ २२ ॥
मूलम्
एते चान्ये महीपाला योधास्तव च पाण्डव।
गन्धर्वसहिता यान्ति यक्षपुण्यजनैस्तथा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डुनन्दन! ये तुम्हारे पक्षके दूसरे भूपाल योद्धा गन्धर्वों, यक्षों तथा पुण्यजनोंके साथ जा रहे हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुह्यकानां गतिं चापि केचित् प्राप्ता नराधिपाः।
त्यक्त्वा देहं जितः स्वर्गः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मभिः ॥ २३ ॥
मूलम्
गुह्यकानां गतिं चापि केचित् प्राप्ता नराधिपाः।
त्यक्त्वा देहं जितः स्वर्गः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मभिः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘किन्हीं-किन्हीं राजाओंको गुह्यकोंकी गति प्राप्त हुई है। ये सब युद्धमें शरीर त्यागकर अपनी पवित्र वाणी, बुद्धि और कर्मोंके द्वारा स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर चुके हैं‘॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि द्रौपद्यादिस्वस्वस्थानगमने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्वर्गारोहणपर्वमें द्रौपदी आदिका अपने-अपने स्थानमें गमनविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥४॥