भागसूचना
तृतीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्र और धर्मका युधिष्ठिरको सान्त्वना देना तथा युधिष्ठिरका शरीर त्यागकर दिव्य लोकको जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिते मुहूर्तं पार्थे तु धर्मराजे युधिष्ठिरे।
आजग्मुस्तत्र कौरव्य देवाः शक्रपुरोगमाः ॥ १ ॥
मूलम्
स्थिते मुहूर्तं पार्थे तु धर्मराजे युधिष्ठिरे।
आजग्मुस्तत्र कौरव्य देवाः शक्रपुरोगमाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीकुमार धर्मराज युधिष्ठिरको उस स्थानपर खड़े हुए अभी दो ही घड़ी बीतने पायी थी कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता वहाँ आ पहुँचे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च विग्रहवान् धर्मो राजानं प्रसमीक्षितुम्।
तत्राजगाम यत्रासौ कुरुराजो युधिष्ठिरः ॥ २ ॥
मूलम्
स च विग्रहवान् धर्मो राजानं प्रसमीक्षितुम्।
तत्राजगाम यत्रासौ कुरुराजो युधिष्ठिरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साक्षात् धर्म भी शरीर धारण करके राजासे मिलनेके लिये उस स्थानपर आये जहाँ वे कुरुराज युधिष्ठिर विद्यमान थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु भासुरदेहेषु पुण्याभिजनकर्मसु ।
समागतेषु देवेषु व्यगमत् तत् तमो नृप ॥ ३ ॥
मूलम्
तेषु भासुरदेहेषु पुण्याभिजनकर्मसु ।
समागतेषु देवेषु व्यगमत् तत् तमो नृप ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जिनके कुल और कर्म पवित्र हैं, उन तेजस्वी शरीरवाले देवताओंके आते ही वहाँका सारा अन्धकार दूर हो गया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नादृश्यन्त च तास्तत्र यातनाः पापकर्मिणाम्।
नदी वैतरणी चैव कूटशाल्मलिना सह ॥ ४ ॥
लोहकुम्भ्यः शिलाश्चैव नादृश्यन्त भयानकाः।
मूलम्
नादृश्यन्त च तास्तत्र यातनाः पापकर्मिणाम्।
नदी वैतरणी चैव कूटशाल्मलिना सह ॥ ४ ॥
लोहकुम्भ्यः शिलाश्चैव नादृश्यन्त भयानकाः।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पापकर्मी पुरुषोंको जो यातनाएँ दी जाती थीं वे सहसा अदृश्य हो गयीं। न वैतरणी नदी रह गयी, न कूटशाल्मलि वृक्ष। लोहेके कुम्भ और लोहमयी भयंकर तप्त शिलाएँ भी नहीं दिखायी देती थीं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकृतानि शरीराणि यानि तत्र समन्ततः ॥ ५ ॥
ददर्श राजा कौरव्यस्तान्यदृश्यानि चाभवन्।
ततो वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ॥ ६ ॥
ववौ देवसमीपस्थः शीतलोऽतीव भारत।
मूलम्
विकृतानि शरीराणि यानि तत्र समन्ततः ॥ ५ ॥
ददर्श राजा कौरव्यस्तान्यदृश्यानि चाभवन्।
ततो वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ॥ ६ ॥
ववौ देवसमीपस्थः शीतलोऽतीव भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलनन्दन राजा युधिष्ठिरने वहाँ चारों ओर जो विकृत शरीर देखे थे वे सभी अदृश्य हो गये। तदनन्तर वहाँ पावन सुगन्ध लेकर बहनेवाली पवित्र सुखदायिनी वायु चलने लगी। भारत! देवताओंके समीप बहती हुई वह वायु अत्यन्त शीतल प्रतीत होती थी॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरुतः सह शक्रेण वसवश्चाश्विनौ सह ॥ ७ ॥
साध्या रुद्रास्तथाऽऽदित्या ये चान्येऽपि दिवौकसः।
सर्वे तत्र समाजग्मुः सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ ८ ॥
यत्र राजा महातेजा धर्मपुत्रः स्थितोऽभवत्।
मूलम्
मरुतः सह शक्रेण वसवश्चाश्विनौ सह ॥ ७ ॥
साध्या रुद्रास्तथाऽऽदित्या ये चान्येऽपि दिवौकसः।
सर्वे तत्र समाजग्मुः सिद्धाश्च परमर्षयः ॥ ८ ॥
यत्र राजा महातेजा धर्मपुत्रः स्थितोऽभवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके साथ मरुद्गण, वसुगण, दोनों अश्विनीकुमार, साध्यगण, रुद्रगण, आदित्यगण, अन्यान्य देवलोकवासी सिद्ध और महर्षि सभी उस स्थानपर आये जहाँ महातेजस्वी धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर खड़े थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शक्रः सुरपतिः श्रिया परमया युतः ॥ ९ ॥
युधिष्ठिरमुवाचेदं सान्त्वपूर्वमिदं वचः ।
मूलम्
ततः शक्रः सुरपतिः श्रिया परमया युतः ॥ ९ ॥
युधिष्ठिरमुवाचेदं सान्त्वपूर्वमिदं वचः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उत्तम शोभासे सम्पन्न देवराज इन्द्रने युधिष्ठिरको सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिर महाबाहो लोकाश्चाप्यक्षयास्तव ॥ १० ॥
एह्येहि पुरुषव्याघ्र कृतमेतावता विभो।
सिद्धिः प्राप्ता महाबाहो लोकाश्चाप्यक्षयास्तव ॥ ११ ॥
मूलम्
युधिष्ठिर महाबाहो लोकाश्चाप्यक्षयास्तव ॥ १० ॥
एह्येहि पुरुषव्याघ्र कृतमेतावता विभो।
सिद्धिः प्राप्ता महाबाहो लोकाश्चाप्यक्षयास्तव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हें अक्षयलोक प्राप्त हुए हैं। पुरुषसिंह! प्रभो! अबतक जो हुआ सो हुआ। अब अधिक कष्ट उठानेकी आवश्यकता नहीं है। आओ हमारे साथ चलो। महाबाहो! तुम्हें बहुत बड़ी सिद्धि मिली है; साथ ही अक्षयलोकोंकी भी प्राप्ति हुई है॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च मन्युस्त्वया कार्यः शृणु चेदं वचो मम।
अवश्यं नरकस्तात द्रष्टव्यः सर्वराजभिः ॥ १२ ॥
मूलम्
न च मन्युस्त्वया कार्यः शृणु चेदं वचो मम।
अवश्यं नरकस्तात द्रष्टव्यः सर्वराजभिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! तुम्हें जो नरक देखना पड़ा है इसके लिये क्रोध न करना। मेरी यह बात सुनो! समस्त राजाओंको निश्चय ही नरक देखना पड़ता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभानामशुभानां च द्वौ राशी पुरुषर्षभ।
यः पूर्वं सुकृतं भुङ्क्ते पश्चान्निरयमेव सः ॥ १३ ॥
मूलम्
शुभानामशुभानां च द्वौ राशी पुरुषर्षभ।
यः पूर्वं सुकृतं भुङ्क्ते पश्चान्निरयमेव सः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषप्रवर! मनुष्यके जीवनमें शुभ और अशुभ कर्मोंकी दो राशियाँ सञ्चित होती हैं। जो पहले ही शुभ कर्म भोग लेता है उसे पीछे नरकमें ही जाना पड़ता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं नरकभाग् यस्तु पश्चात् स्वर्गमुपैति सः।
भूयिष्ठं पापकर्मा यः स पूर्वं स्वर्गमश्नुते ॥ १४ ॥
मूलम्
पूर्वं नरकभाग् यस्तु पश्चात् स्वर्गमुपैति सः।
भूयिष्ठं पापकर्मा यः स पूर्वं स्वर्गमश्नुते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु जो पहले नरक भोग लेता है वह पीछे स्वर्गमें जाता है। जिसके पास पापकर्मोंका संग्रह अधिक है वह पहले ही स्वर्ग भोग लेता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन त्वमेवं गमितो मया श्रेयोऽर्थिना नृप।
व्याजेन हि त्वया द्रोण उपचीर्णः सुतं प्रति ॥ १५ ॥
व्याजेनैव ततो राजन् दर्शितो नरकस्तव।
मूलम्
तेन त्वमेवं गमितो मया श्रेयोऽर्थिना नृप।
व्याजेन हि त्वया द्रोण उपचीर्णः सुतं प्रति ॥ १५ ॥
व्याजेनैव ततो राजन् दर्शितो नरकस्तव।
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! मैंने तुम्हारे कल्याणकी इच्छासे तुम्हें पहले ही इस प्रकार नरकका दर्शन करानेके लिये यहाँ भेज दिया है। राजन्! तुमने गुरुपुत्र अश्वत्थामाके विषयमें छलसे काम लेकर द्रोणाचार्यको उनके पुत्रकी मृत्युका विश्वास दिलाया था, इसलिये तुम्हें भी छलसे ही नरक दिखलाया गया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव त्वं तथा भीमस्तथा पार्थो यमौ तथा ॥ १६ ॥
द्रौपदी च तथा कृष्णा व्याजेन नरकं गताः।
मूलम्
यथैव त्वं तथा भीमस्तथा पार्थो यमौ तथा ॥ १६ ॥
द्रौपदी च तथा कृष्णा व्याजेन नरकं गताः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे तुम यहाँ लाये गये थे उसी प्रकार भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा द्रुपदकुमारी कृष्णा—ये सभी छलसे नरकके निकट लाये गये थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगच्छ नरशार्दूल मुक्तास्ते चैव कल्मषात् ॥ १७ ॥
स्वपक्ष्याश्चैव ये तुभ्यं पार्थिवा निहता रणे।
सर्वे स्वर्गमनुप्राप्तास्तान् पश्य भरतर्षभ ॥ १८ ॥
मूलम्
आगच्छ नरशार्दूल मुक्तास्ते चैव कल्मषात् ॥ १७ ॥
स्वपक्ष्याश्चैव ये तुभ्यं पार्थिवा निहता रणे।
सर्वे स्वर्गमनुप्राप्तास्तान् पश्य भरतर्षभ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह! आओ, वे सभी पापसे मुक्त हो गये हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे पक्षके जो-जो राजा युद्धमें मारे गये हैं वे सभी स्वर्गलोकमें आ पहुँचे हैं। चलो, उनका दर्शन करो॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णश्चैव महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
स गतः परमां सिद्धिं यदर्थं परितप्यसे ॥ १९ ॥
मूलम्
कर्णश्चैव महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
स गतः परमां सिद्धिं यदर्थं परितप्यसे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम जिनके लिये सदा संतप्त रहते हो वे सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर कर्ण भी परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पश्य पुरुषव्याघ्रमादित्यतनयं विभो।
स्वस्थानस्थं महाबाहो जहि शोकं नरर्षभ ॥ २० ॥
मूलम्
तं पश्य पुरुषव्याघ्रमादित्यतनयं विभो।
स्वस्थानस्थं महाबाहो जहि शोकं नरर्षभ ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! नरश्रेष्ठ! महाबाहो! तुम पुरुषसिंह सूर्यकुमार कर्णका दर्शन करो। वे अपने स्थानमें स्थित हैं। तुम उनके लिये शोक त्याग दो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातॄंश्चान्यांस्तथा पश्य स्वपक्ष्याश्चैव पार्थिवान्।
स्वं स्वं स्थानमनुप्राप्तान् व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ २१ ॥
मूलम्
भ्रातॄंश्चान्यांस्तथा पश्य स्वपक्ष्याश्चैव पार्थिवान्।
स्वं स्वं स्थानमनुप्राप्तान् व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने दूसरे भाइयोंको तथा पाण्डवपक्षके अन्यान्य राजाओंको भी देखो। वे सब अपने-अपने योग्य स्थानको प्राप्त हुए हैं। उन सबकी सद्गतिके विषयमें अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृच्छ्रं पूर्वं चानुभूय इतःप्रभृति कौरव।
विहरस्व मया साधे गतशोको निरामयः ॥ २२ ॥
मूलम्
कृच्छ्रं पूर्वं चानुभूय इतःप्रभृति कौरव।
विहरस्व मया साधे गतशोको निरामयः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुनन्दन! पहले कष्टका अनुभव करके अबसे तुम मेरे साथ रहकर रोग-शोकसे रहित हो स्वच्छन्द विहार करो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणां तात पुण्यानां जितानां तपसा स्वयम्।
दानानां च महाबाहो फलं प्राप्नुहि पार्थिव ॥ २३ ॥
मूलम्
कर्मणां तात पुण्यानां जितानां तपसा स्वयम्।
दानानां च महाबाहो फलं प्राप्नुहि पार्थिव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! महाबाहु! पृथ्वीनाथ! अपने किये हुए पुण्यकर्मोंका, तपस्यासे जीते हुए लोकोंका और दानींका फल भोगो॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य त्वां देवगन्धर्वा दिव्याश्चाप्सरसो दिवि।
उपसेवन्तु कल्याण्यो विरजोऽम्बरभूषणाः ॥ २४ ॥
मूलम्
अद्य त्वां देवगन्धर्वा दिव्याश्चाप्सरसो दिवि।
उपसेवन्तु कल्याण्यो विरजोऽम्बरभूषणाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजसे देव, गन्धर्व तथा कल्याणस्वरूपा दिव्य अप्सराएँ स्वच्छ वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित हो स्वर्गलोकमें तुम्हारी सेवा करें॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसूयजिताल्ँलोकानश्वमेधाभिवर्धितान् ।
प्राप्नुहि त्वं महाबाहो तपसश्च महाफलम् ॥ २५ ॥
मूलम्
राजसूयजिताल्ँलोकानश्वमेधाभिवर्धितान् ।
प्राप्नुहि त्वं महाबाहो तपसश्च महाफलम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! राजसूय यज्ञद्वारा जीते हुए तथा अश्वमेध यज्ञद्वारा वृद्धिको प्राप्त हुए पुण्य लोकोंको प्राप्त करो और अपने तपके महान् फलको भोगो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपर्युपरि राज्ञां हि तव लोका युधिष्ठिर।
हरिश्चन्द्रसमाः पार्थ येषु त्वं विहरिष्यसि ॥ २६ ॥
मूलम्
उपर्युपरि राज्ञां हि तव लोका युधिष्ठिर।
हरिश्चन्द्रसमाः पार्थ येषु त्वं विहरिष्यसि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम्हें प्राप्त हुए सम्पूर्ण लोक राजा हरिश्चन्द्रके लोकोंकी भाँति सब राजाओंके लोकोंसे ऊपर हैं; जिनमें तुम विचरण करोगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान्धाता यत्र राजर्षिर्यत्र राजा भगीरथः।
दौष्यन्तिर्यत्र भरतस्तत्र त्वं विहरिष्यसि ॥ २७ ॥
मूलम्
मान्धाता यत्र राजर्षिर्यत्र राजा भगीरथः।
दौष्यन्तिर्यत्र भरतस्तत्र त्वं विहरिष्यसि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ राजर्षि मान्धाता, राजा भगीरथ और दुष्यन्तकुमार भरत गये हैं, उन्हीं लोकोंमें तुम भी विहार करोगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा देवनदी पुण्या पार्थ त्रैलोक्यपावनी।
आकाशगङ्गा राजेन्द्र तत्राप्लुत्य गमिष्यसि ॥ २८ ॥
मूलम्
एषा देवनदी पुण्या पार्थ त्रैलोक्यपावनी।
आकाशगङ्गा राजेन्द्र तत्राप्लुत्य गमिष्यसि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! ये तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली पुण्यसलिला देवनदी आकाशगङ्गा हैं। राजेन्द्र! इनके जलमें गोता लगाकर तुम दिव्य लोकोंमें जा सकोगे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र स्नातस्य भावस्ते मानुषो विगमिष्यति।
गतशोको निरायासो मुक्तवैरो भविष्यसि ॥ २९ ॥
मूलम्
अत्र स्नातस्य भावस्ते मानुषो विगमिष्यति।
गतशोको निरायासो मुक्तवैरो भविष्यसि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मन्दाकिनीके इस पवित्र जलमें स्नान कर लेनेपर तुम्हारा मानव-स्वभाव दूर हो जायगा। तुम शोक, संताप और वैरभावसे छुटकारा पा जाओगे’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवति देवेन्द्रे कौरवेन्द्रं युधिष्ठिरम्।
धर्मो विग्रहवान् साक्षादुवाच सुतमात्मनः ॥ ३० ॥
मूलम्
एवं ब्रुवति देवेन्द्रे कौरवेन्द्रं युधिष्ठिरम्।
धर्मो विग्रहवान् साक्षादुवाच सुतमात्मनः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्र जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय शरीर धारण करके आये हुए साक्षात् धर्मने अपने पुत्र कौरवराज युधिष्ठिरसे कहा—॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो राजन् महाप्राज्ञ प्रीतोऽस्मि तव पुत्रक।
मद्भक्त्या सत्यवाक्यैश्च क्षमया च दमेन च ॥ ३१ ॥
मूलम्
भो भो राजन् महाप्राज्ञ प्रीतोऽस्मि तव पुत्रक।
मद्भक्त्या सत्यवाक्यैश्च क्षमया च दमेन च ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाप्राज्ञ नरेश! मेरे पुत्र! तुम्हारे धर्मविषयक अनुराग, सत्यभाषण, क्षमा और इन्द्रियसंयम आदि गुणोंसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा तृतीया जिज्ञासा तव राजन् कृता मया।
न शक्यसे चालयितुं स्वभावात् पार्थ हेतुतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
एषा तृतीया जिज्ञासा तव राजन् कृता मया।
न शक्यसे चालयितुं स्वभावात् पार्थ हेतुतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यह मैंने तीसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। पार्थ! किसी भी युक्तिसे कोई तुम्हें अपने स्वभावसे विचलित नहीं कर सकता॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं परीक्षितो हि त्वं प्रश्नाद् द्वैतवने मया।
अरणीसहितस्यार्थे तच्च निस्तीर्णवानसि ॥ ३३ ॥
मूलम्
पूर्वं परीक्षितो हि त्वं प्रश्नाद् द्वैतवने मया।
अरणीसहितस्यार्थे तच्च निस्तीर्णवानसि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्वैतवनमें अरणिकाष्ठका अपहरण करनेके पश्चात् जब यक्षके रूपमें मैंने तुमसे कई प्रश्न किये थे वह मेरे द्वारा तुम्हारी पहली परीक्षा थी। उसमें तुम भलीभाँति उत्तीर्ण हो गये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोदर्येषु विनष्टेषु द्रौपद्या तत्र भारत।
श्वरूपधारिणा तत्र पुनस्त्वं मे परीक्षितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
सोदर्येषु विनष्टेषु द्रौपद्या तत्र भारत।
श्वरूपधारिणा तत्र पुनस्त्वं मे परीक्षितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भारत! फिर द्रौपदीसहित तुम्हारे सभी भाइयोंकी मृत्यु हो जानेपर कुत्तेका रूप धारण करके मैंने दूसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। उसमें भी तुम सफल हुए॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तृतीयं भ्रातॄणामर्थे यत् स्थातुमिच्छसि।
विशुद्धोऽसि महाभाग सुखी विगतकल्मषः ॥ ३५ ॥
मूलम्
इदं तृतीयं भ्रातॄणामर्थे यत् स्थातुमिच्छसि।
विशुद्धोऽसि महाभाग सुखी विगतकल्मषः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब यह तुम्हारी परीक्षाका तीसरा अवसर था; किंतु इस बार भी तुम अपने सुखकी परवा न करके भाइयोंके हितके लिये नरकमें रहना चाहते थे, अतः महाभाग! तुम इस तरहसे शुद्ध प्रमाणित हुए। तुममें पापका नाम भी नहीं है; अतः सुखी होओ॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च ते भ्रातरः पार्थ नरकार्हा विशाम्पते।
मायैषा देवराजेन महेन्द्रेण प्रयोजिता ॥ ३६ ॥
मूलम्
न च ते भ्रातरः पार्थ नरकार्हा विशाम्पते।
मायैषा देवराजेन महेन्द्रेण प्रयोजिता ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! प्रजानाथ! तुम्हारे भाई नरकमें रहनेके योग्य नहीं हैं। तुमने जो उन्हें नरक भोगते देखा है वह देवराज इन्द्रद्वारा प्रकट की हुई माया थी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं नरकास्तात द्रष्टव्याः सर्वराजभिः।
ततस्त्वया प्राप्तमिदं मुहूर्तं दुःखमुत्तमम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
अवश्यं नरकास्तात द्रष्टव्याः सर्वराजभिः।
ततस्त्वया प्राप्तमिदं मुहूर्तं दुःखमुत्तमम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! समस्त राजाओंको नरकका दर्शन अवश्य करना पड़ता है; इसलिये तुमने दो घड़ीतक यह महान् दुःख प्राप्त किया है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सव्यसाची भीमो वा यमौ वा पुरुषर्षभौ।
कर्णो वा सत्यवाक् शूरो नरकार्हाश्चिरं नृप ॥ ३८ ॥
मूलम्
न सव्यसाची भीमो वा यमौ वा पुरुषर्षभौ।
कर्णो वा सत्यवाक् शूरो नरकार्हाश्चिरं नृप ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! सव्यसाची अर्जुन, भीमसेन, पुरुषप्रवर नकुल-सहदेव अथवा सत्यवादी शूरवीर कर्ण—इनमेंसे कोई भी चिरकालतक नरकमें रहनेके योग्य नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कृष्णा राजपुत्री च नरकार्हा कथंचन।
एह्येहि भरतश्रेष्ठ पश्य गङ्गां त्रिलोकगाम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
न कृष्णा राजपुत्री च नरकार्हा कथंचन।
एह्येहि भरतश्रेष्ठ पश्य गङ्गां त्रिलोकगाम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! राजकुमारी कृष्णा भी किसी तरह नरकमें जानेयोग्य नहीं है। आओ, त्रिभुवनगामिनी गंगाजीका दर्शन करो’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स राजर्षिस्तव पूर्वपितामहः।
जगाम सह धर्मेण सर्वैश्च त्रिदिवालयैः ॥ ४० ॥
गङ्गां देवनदीं पुण्यां पावनीमृषिसंस्तुताम्।
अवगाह्य ततो राजा तनुं तत्याज मानुषीम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स राजर्षिस्तव पूर्वपितामहः।
जगाम सह धर्मेण सर्वैश्च त्रिदिवालयैः ॥ ४० ॥
गङ्गां देवनदीं पुण्यां पावनीमृषिसंस्तुताम्।
अवगाह्य ततो राजा तनुं तत्याज मानुषीम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! धर्मके यों कहनेपर तुम्हारे पूर्वपितामह राजर्षि युधिष्ठिरने धर्म तथा समस्त स्वर्गवासी देवताओंके साथ जाकर मुनिजनवन्दित परम पावन पुण्यसलिला देवनदी गङ्गाजीमें स्नान किया। स्नान करके राजाने तत्काल अपने मानवशरीरको त्याग दिया॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिव्यवपुर्भूत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
निर्वैरो गतसंतापो जले तस्मिन् समाप्लुतः ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततो दिव्यवपुर्भूत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
निर्वैरो गतसंतापो जले तस्मिन् समाप्लुतः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् दिव्यदेह धारण करके धर्मराज युधिष्ठिर वैरभावसे रहित हो गये। मन्दाकिनीके शीतल जलमें स्नान करते ही उनका सारा संताप दूर हो गया॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ययौ वृतो देवैः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
धर्मेण सहितो धीमान् स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ४३ ॥
यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शूरा विगतमन्यवः।
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च स्वानि स्थानानि भेजिरे ॥ ४४ ॥
मूलम्
ततो ययौ वृतो देवैः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
धर्मेण सहितो धीमान् स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ४३ ॥
यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शूरा विगतमन्यवः।
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च स्वानि स्थानानि भेजिरे ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् देवताओंसे घिरे हुए बुद्धिमान् कुरुराज युधिष्ठिर महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए धर्मके साथ उस स्थानको गये जहाँ वे पुरुषसिंह शूरवीर पाण्डव और धृतराष्ट्रपुत्र क्रोध त्यागकर आनन्दपूर्वक अपने-अपने स्थानोंपर रहते थे॥४३-४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि युधिष्ठिरतनुत्यागे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्वर्गारोहणपर्वमें युधिष्ठिरका देहत्यागविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥