भागसूचना
द्वितीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
देवदूतका युधिष्ठिरको नरकका दर्शन कराना तथा भाइयोंका करुण-क्रन्दन सुनकर उनका वहीं रहनेका निश्चय करना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेह पश्यामि विबुधा राधेयममितौजसम्।
भ्रातरौ च महात्मानौ युधामन्यूत्तमौजसौ ॥ १ ॥
मूलम्
नेह पश्यामि विबुधा राधेयममितौजसम्।
भ्रातरौ च महात्मानौ युधामन्यूत्तमौजसौ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— देवताओ! मैं यहाँ अमित-तेजस्वी राधानन्दन कर्णको क्यों नहीं देख रहा हूँ? दोनों भाई महामनस्वी युधामन्यु और उत्तमौजा कहाँ हैं? वे भी नहीं दिखायी देते॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुहुवुर्ये शरीराणि रणवह्नौ महारथाः।
राजानो राजपुत्राश्च ये मदर्थे हता रणे ॥ २ ॥
क्व ते महारथाः सर्वे शार्दूलसमविक्रमाः।
तैरप्ययं जितो लोकः कच्चित् पुरुषसत्तमैः ॥ ३ ॥
मूलम्
जुहुवुर्ये शरीराणि रणवह्नौ महारथाः।
राजानो राजपुत्राश्च ये मदर्थे हता रणे ॥ २ ॥
क्व ते महारथाः सर्वे शार्दूलसमविक्रमाः।
तैरप्ययं जितो लोकः कच्चित् पुरुषसत्तमैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महारथियोंने समराग्निमें अपने शरीरोंकी आहुति दे दी, जो राजा और राजकुमार रणभूमिमें मेरे लिये मारे गये वे सिंहके समान पराक्रमी समस्त महारथी वीर कहाँ हैं? क्या उन पुरुषप्रवर वीरोंने भी इस स्वर्गलोकपर विजय पायी है?॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि लोकानिमान् प्राप्तास्ते च सर्वे महारथाः।
स्थितं वित्त हि मां देवाः सहितं तैर्महात्मभिः ॥ ४ ॥
मूलम्
यदि लोकानिमान् प्राप्तास्ते च सर्वे महारथाः।
स्थितं वित्त हि मां देवाः सहितं तैर्महात्मभिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओ! यदि वे सम्पूर्ण महारथी इन लोकोंमें आये हैं तो आप समझ लें कि मैं उन महात्माओंके साथ रहूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिन्न तैरवाप्तोऽयं नृपैर्लोकोऽक्षयः शुभः।
न तैरहं विना रंस्ये भ्रातृभिर्ज्ञातिभिस्तथा ॥ ५ ॥
मूलम्
कच्चिन्न तैरवाप्तोऽयं नृपैर्लोकोऽक्षयः शुभः।
न तैरहं विना रंस्ये भ्रातृभिर्ज्ञातिभिस्तथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु यदि उन नरेशोंने यह शुभ एवं अक्षयलोक नहीं प्राप्त किया है तो मैं उन जाति-भाइयोंके बिना यहाँ नहीं रहूँगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातुर्हि वचनं श्रुत्वा तदा सलिलकर्मणि।
कर्णस्य क्रियतां तोयमिति तप्यामि तेन वै ॥ ६ ॥
मूलम्
मातुर्हि वचनं श्रुत्वा तदा सलिलकर्मणि।
कर्णस्य क्रियतां तोयमिति तप्यामि तेन वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके बाद जब मैं अपने मृत सम्बन्धियोंको जलाञ्जलि दे रहा था उस समय मेरी माता कुन्तीने कहा था—‘बेटा! कर्णको भी जलाञ्जलि देना।’ माताकी यह बात सुनकर मुझे मालूम हुआ कि महात्मा कर्ण मेरे ही भाई थे। तबसे मुझे उनके लिये बड़ा दुःख होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं च परितप्यामि पुनः पुनरहं सुराः।
यन्मातुः सदृशौ पादौ तस्याहममितात्मनः ॥ ७ ॥
दृष्ट्वैव तौ नानुगतः कर्णं परबलार्दनम्।
न हृस्मान् कर्णसहितान् जयेच्छक्रोऽपि संयुगे ॥ ८ ॥
मूलम्
इदं च परितप्यामि पुनः पुनरहं सुराः।
यन्मातुः सदृशौ पादौ तस्याहममितात्मनः ॥ ७ ॥
दृष्ट्वैव तौ नानुगतः कर्णं परबलार्दनम्।
न हृस्मान् कर्णसहितान् जयेच्छक्रोऽपि संयुगे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओ! यह सोचकर तो मैं और भी पश्चात्ताप करता रहता हूँ कि ‘महामना कर्णके दोनों चरणोंको माता कुन्तीके चरणोंके समान देखकर भी मैं क्यों नहीं शत्रुदलमर्दन कर्णका अनुगामी हो गया?’ यदि कर्ण हमारे साथ होते तो हमें इन्द्र भी युद्धमें परास्त नहीं कर सकते॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमहं यत्र तत्रस्थं द्रष्टुमिच्छामि सूर्यजम्।
अविज्ञातो मया योऽसौ घातितः सव्यसाचिना ॥ ९ ॥
मूलम्
तमहं यत्र तत्रस्थं द्रष्टुमिच्छामि सूर्यजम्।
अविज्ञातो मया योऽसौ घातितः सव्यसाचिना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सूर्यनन्दन कर्ण जहाँ कहीं भी हों मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ; जिन्हें न जाननेके कारण मैंने अर्जुनद्वारा उनका वध करवा दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमं च भीमविक्रान्तं प्राणेभ्योऽपि प्रियं मम।
अर्जुनं चेन्द्रसंकाशं यमौ चैव यमोपमौ ॥ १० ॥
द्रष्टुमिच्छामि तां चाहं पाञ्चालीं धर्मचारिणीम्।
न चेह स्थातुमिच्छामि सत्यमेवं ब्रवीमि वः ॥ ११ ॥
मूलम्
भीमं च भीमविक्रान्तं प्राणेभ्योऽपि प्रियं मम।
अर्जुनं चेन्द्रसंकाशं यमौ चैव यमोपमौ ॥ १० ॥
द्रष्टुमिच्छामि तां चाहं पाञ्चालीं धर्मचारिणीम्।
न चेह स्थातुमिच्छामि सत्यमेवं ब्रवीमि वः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अपने प्राणोंसे भी प्रियतम भयंकर पराक्रमी भाई भीमसेनको, इन्द्रतुल्य तेजस्वी अर्जुनको, यमराजके समान अजेय नकुल-सहदेवको तथा धर्मपरायणा देवी द्रौपदीको भी देखना चाहता हूँ। यहाँ रहनेकी मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। मैं आप लोगोंसे यह सच्ची बात कहता हूँ॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं मे भ्रातृविहीनस्य स्वर्गेण सुरसत्तमाः।
यत्र ते मम स स्वर्गो नायं स्वर्गो मतो मम॥१२॥
मूलम्
किं मे भ्रातृविहीनस्य स्वर्गेण सुरसत्तमाः।
यत्र ते मम स स्वर्गो नायं स्वर्गो मतो मम॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरश्रेष्ठगण! अपने भाइयोंसे अलग रहकर इस स्वर्गसे भी मुझे क्या लेना है? जहाँ मेरे भाई हैं वहीं मेरा स्वर्ग है। उनके बिना मैं इस लोकको स्वर्ग नहीं मानता॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वै तत्र ते श्रद्धा गम्यतां पुत्र मा चिरम्।
प्रिये हि तव वर्तामो देवराजस्य शासनात् ॥ १३ ॥
मूलम्
यदि वै तत्र ते श्रद्धा गम्यतां पुत्र मा चिरम्।
प्रिये हि तव वर्तामो देवराजस्य शासनात् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता बोले— वत्स! यदि उन लोगोंमें तुम्हारी श्रद्धा है तो चलो, विलम्ब न करो। हम लोग देवराजकी आज्ञासे सर्वथा तुम्हारा प्रिय करना चाहते हैं॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तं ततो देवा देवदूतमुपादिशन्।
युधिष्ठिरस्य सुहृदो दर्शयेति परंतप ॥ १४ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तं ततो देवा देवदूतमुपादिशन्।
युधिष्ठिरस्य सुहृदो दर्शयेति परंतप ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— शत्रुओंको संताप देनेवाले जनमेजय! युधिष्ठिरसे ऐसा कहकर देवताओंने देवदूतको आज्ञा दी—‘तुम युधिष्ठिरको इनके सुहृदोंका दर्शन कराओ’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कुन्तीसुतो राजा देवदूतश्च जग्मतुः।
सहितौ राजशार्दूल यत्र ते पुरुषर्षभाः ॥ १५ ॥
मूलम्
ततः कुन्तीसुतो राजा देवदूतश्च जग्मतुः।
सहितौ राजशार्दूल यत्र ते पुरुषर्षभाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! तब कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर और देवदूत दोनों साथ-साथ उस स्थानकी ओर चले जहाँ वे पुरुषप्रवर भीमसेन आदि थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्रतो देवदूतश्च ययौ राजा च पृष्ठतः।
पन्थानमशुभं दुर्गं सेवितं पापकर्मभिः ॥ १६ ॥
मूलम्
अग्रतो देवदूतश्च ययौ राजा च पृष्ठतः।
पन्थानमशुभं दुर्गं सेवितं पापकर्मभिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगे-आगे देवदूत जा रहा था और पीछे-पीछे राजा युधिष्ठिर। दोनों ऐसे दुर्गम मार्गपर जा पहुँचे जो बहुत ही अशुभ था। पापाचारी मनुष्य ही यातना भोगनेके लिये उसपर आते-जाते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमसा संवृतं घोरं केशशैवलशाद्वलम्।
युक्तं पापकृतां गन्धैर्मांसशोणितकर्दमम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तमसा संवृतं घोरं केशशैवलशाद्वलम्।
युक्तं पापकृतां गन्धैर्मांसशोणितकर्दमम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ घोर अन्धकार छा रहा था। केश, सेवार और घास इन्हींसे वह मार्ग भरा हुआ था। वह पापियोंके ही योग्य था। वहाँ दुर्गन्ध फैल रही थी। मांस और रक्तकी कीच जमी हुई थी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दंशोत्पातकभल्लूकमक्षिकामशकावृतम् ।
इतश्चेतश्च कुणपैः समन्तात् परिवारितम् ॥ १८ ॥
मूलम्
दंशोत्पातकभल्लूकमक्षिकामशकावृतम् ।
इतश्चेतश्च कुणपैः समन्तात् परिवारितम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रास्तेपर डाँस, मच्छर, मक्खी, उत्पाती जीवजन्तु और भालू आदि फैले हुए थे। इधर-उधर सब ओर सड़े मुर्दे पड़े हुए थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्थिकेशसमाकीर्णं कृमिकीटसमाकुलम् ।
ज्वलनेन प्रदीप्तेन समन्तात् परिवेष्टितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्थिकेशसमाकीर्णं कृमिकीटसमाकुलम् ।
ज्वलनेन प्रदीप्तेन समन्तात् परिवेष्टितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हड्डियाँ और केश चारों ओर फैले हुए थे। कृमि और कीटोंसे वह मार्ग भरा हुआ था। उसे चारों ओरसे जलती आगने घेर रखा था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोमुखैश्च काकाद्यैर्गृघ्रैश्च समभिद्रुतम् ।
सूचीमुखैस्तथा प्रेतैर्विन्ध्यशैलोपमैर्वृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
अयोमुखैश्च काकाद्यैर्गृघ्रैश्च समभिद्रुतम् ।
सूचीमुखैस्तथा प्रेतैर्विन्ध्यशैलोपमैर्वृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोहेकी-सी चोंचवाले कौए और गीध आदि पक्षी मँडरा रहे थे। सूईके समान चुभते हुए मुखोंवाले और विन्ध्यपर्वतके समान विशालकाय प्रेत वहाँ सब ओर घूम रहे थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेदोरुधिरयुक्तैश्च च्छिन्नबाहूरुपाणिभिः ।
निकृत्तोदरपादैश्च तत्र तत्र प्रवेरितैः ॥ २१ ॥
मूलम्
मेदोरुधिरयुक्तैश्च च्छिन्नबाहूरुपाणिभिः ।
निकृत्तोदरपादैश्च तत्र तत्र प्रवेरितैः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ यत्र-तत्र बहुत-से मुर्दे बिखरे पड़े थे, उनमेंसे किसीके शरीरसे रुधिर और मेद बहते थे, किसीके बाहु, ऊरु, पेट और हाथ-पैर कट गये थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्कुणपदुर्गन्धमशिवं लोमहर्षणम् ।
जगाम राजा धर्मात्मा मध्ये बहु विचिन्तयन् ॥ २२ ॥
मूलम्
स तत्कुणपदुर्गन्धमशिवं लोमहर्षणम् ।
जगाम राजा धर्मात्मा मध्ये बहु विचिन्तयन् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर मन-ही-मन बहुत चिन्ता करते हुए उसी मार्गके बीचसे होकर निकले जहाँ सड़े मुर्दोंकी बदबू फैल रही थी और अमंगलकारी बीभत्स दृश्य दिखायी देता था। वह भयंकर मार्ग रोंगटे खड़े कर देनेवाला था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्शोष्णोदकैः पूर्णां नदीं चापि सुदुर्गमाम्।
असिपत्रवनं चैव निशितं क्षुरसंवृतम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ददर्शोष्णोदकैः पूर्णां नदीं चापि सुदुर्गमाम्।
असिपत्रवनं चैव निशितं क्षुरसंवृतम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगे जाकर उन्होंने देखा, खौलते हुए पानीसे भरी हुई एक नदी बह रही है, जिसके पार जाना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखी तलवारों या छूरोंके-से पत्तोंसे परिपूर्ण तेज धारवाला असिपत्र नामक वन है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम्भवालुकास्तप्ता आयसीश्च शिलाःपृथक् ।
लोहकुम्भीश्च तैलस्य क्वाथ्यमानाः समन्ततः ॥ २४ ॥
मूलम्
करम्भवालुकास्तप्ता आयसीश्च शिलाःपृथक् ।
लोहकुम्भीश्च तैलस्य क्वाथ्यमानाः समन्ततः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं गरम-गरम बालू बिछी है तो कहीं तपाये हुए लोहेकी बड़ी-बड़ी चट्टानें रखी गयी हैं। चारों ओर लोहेके कलशोंमें तेल खौलाया जा रहा है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूटशाल्मलिकं चापि दुःस्पर्शं तीक्ष्णकण्टकम्।
ददर्श चापि कौन्तेयो यातनाः पापकर्मिणाम् ॥ २५ ॥
मूलम्
कूटशाल्मलिकं चापि दुःस्पर्शं तीक्ष्णकण्टकम्।
ददर्श चापि कौन्तेयो यातनाः पापकर्मिणाम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ-तहाँ पैने काँटोंसे भरे हुए सेमलके वृक्ष हैं, जिनको हाथसे छूना भी कठिन है। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने यह भी देखा कि वहाँ पापाचारी जीवोंको बड़ी कठोर यातनाएँ दी जा रही हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं दुर्गन्धमालक्ष्य देवदूतमुवाच ह।
कियदध्वानमस्माभिर्गन्तव्यमिममीदृशम् ॥ २६ ॥
क्व च ते भ्रातरो मह्यं तन्ममाख्यातुमर्हसि।
देशोऽयं कश्च देवानामेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ २७ ॥
मूलम्
स तं दुर्गन्धमालक्ष्य देवदूतमुवाच ह।
कियदध्वानमस्माभिर्गन्तव्यमिममीदृशम् ॥ २६ ॥
क्व च ते भ्रातरो मह्यं तन्ममाख्यातुमर्हसि।
देशोऽयं कश्च देवानामेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँकी दुर्गन्धका अनुभव करके उन्होंने देवदूतसे पूछा—‘भैया! ऐसे रास्तेपर अभी हमलोगोंको कितनी दूर और चलना है? तथा मेरे वे भाई कहाँ हैं? यह तुम्हें मुझे बता देना चाहिये। देवताओंका यह कौन-सा देश है, इस बातको मैं जानना चाहता हूँ’॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संनिववृते श्रुत्वा धर्मराजस्य भाषितम्।
देवदूतोऽब्रवीच्चैनमेतावद् गमनं तव ॥ २८ ॥
मूलम्
स संनिववृते श्रुत्वा धर्मराजस्य भाषितम्।
देवदूतोऽब्रवीच्चैनमेतावद् गमनं तव ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराजकी यह बात सुनकर देवदूत लौट पड़ा और बोला—‘बस, यहींतक आपको आना था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तितव्यो हि मया तथास्म्युक्तो दिवौकसैः।
यदि श्रान्तोऽसि राजेन्द्र त्वमथागन्तुमर्हसि ॥ २९ ॥
मूलम्
निवर्तितव्यो हि मया तथास्म्युक्तो दिवौकसैः।
यदि श्रान्तोऽसि राजेन्द्र त्वमथागन्तुमर्हसि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! देवताओंने मुझसे कहा है कि जब युधिष्ठिर थक जायँ तब उन्हें वापस लौटा लाना; अतः अब मुझे आपको लौटा ले चलना है। यदि आप थक गये हों तो मेरे साथ आइये’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्तु निर्विण्णस्तेन गन्धेन मूर्च्छितः।
निवर्तने धृतमनाः पर्यावर्तत भारत ॥ ३० ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्तु निर्विण्णस्तेन गन्धेन मूर्च्छितः।
निवर्तने धृतमनाः पर्यावर्तत भारत ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! युधिष्ठिर वहाँकी दुर्गन्धसे घबरा गये थे। उन्हें मूर्च्छा-सी आने लगी थी। इसलिये उन्होंने मनमें लौट जानेका ही निश्चय किया और उस निश्चयके अनुसार वे लौट पड़े॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संनिवृत्तो धर्मात्मा दुःखशोकसमाहतः।
शुश्राव तत्र वदतां दीना वाचः समन्ततः ॥ ३१ ॥
मूलम्
स संनिवृत्तो धर्मात्मा दुःखशोकसमाहतः।
शुश्राव तत्र वदतां दीना वाचः समन्ततः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुःख और शोकसे पीड़ित हुए धर्मात्मा युधिष्ठिर ज्यों ही वहाँसे लौटने लगे त्यों ही उन्हें चारों ओरसे पुकारनेवाले आर्त मनुष्योंकी दीन वाणी सुनायी पड़ी—॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो धर्मज राजर्षे पुण्याभिजन पाण्डव।
अनुग्रहार्थमस्माकं तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
भो भो धर्मज राजर्षे पुण्याभिजन पाण्डव।
अनुग्रहार्थमस्माकं तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे धर्मनन्दन! हे राजर्षे! हे पवित्र कुलमें उत्पन्न पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर! आप हमलोगोंपर कृपा करनेके लिये दो घड़ीतक यहीं ठहरिये॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयाति त्वयि दुर्धर्षे वाति पुण्यः समीरणः।
तव गन्धानुगस्तात येनास्मान् सुखमागमत् ॥ ३३ ॥
मूलम्
आयाति त्वयि दुर्धर्षे वाति पुण्यः समीरणः।
तव गन्धानुगस्तात येनास्मान् सुखमागमत् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप दुर्धर्ष महापुरुषके आते ही परम पवित्र हवा चलने लगी है। तात! वह हवा आपके शरीरकी सुगन्ध लेकर आ रही है जिससे हमलोगोंको बड़ा सुख मिला है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं पार्थ दीर्घस्य कालस्य पुरुषर्षभ।
सुखमासादयिष्यामस्त्वां दृष्ट्वा राजसत्तम ॥ ३४ ॥
मूलम्
ते वयं पार्थ दीर्घस्य कालस्य पुरुषर्षभ।
सुखमासादयिष्यामस्त्वां दृष्ट्वा राजसत्तम ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषप्रवर! कुन्तीकुमार! नृपश्रेष्ठ! आज दीर्घकालके पश्चात् आपका दर्शन पाकर हम सुखका अनुभव करेंगे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतिष्ठस्व महाबाहो मुहूर्तमपि भारत।
त्वयि तिष्ठति कौरव्य यातनास्मान् न बाधते ॥ ३५ ॥
मूलम्
संतिष्ठस्व महाबाहो मुहूर्तमपि भारत।
त्वयि तिष्ठति कौरव्य यातनास्मान् न बाधते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु भरतनन्दन! हो सके तो दो घड़ी भी ठहर जाइये। कुरुनन्दन! आपके रहनेसे यहाँकी यातना हमें कष्ट नहीं दे रही है’॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधा वाचः कृपणा वेदनावताम्।
तस्मिन् देशे स शुश्राव समन्ताद् वदतां नृप ॥ ३६ ॥
मूलम्
एवं बहुविधा वाचः कृपणा वेदनावताम्।
तस्मिन् देशे स शुश्राव समन्ताद् वदतां नृप ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इस प्रकार वहाँ कष्ट पानेवाले दुखी प्राणियोंके भाँति-भाँतिके दीन वचन उस प्रदेशमें उन्हें चारों ओरसे सुनायी देने लगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु वचनं श्रुत्वा दयावान् दीनभाषिणाम्।
अहो कृच्छ्रमिति प्राह तस्थौ स च युधिष्ठिरः ॥ ३७ ॥
मूलम्
तेषां तु वचनं श्रुत्वा दयावान् दीनभाषिणाम्।
अहो कृच्छ्रमिति प्राह तस्थौ स च युधिष्ठिरः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीनतापूर्ण वचन कहनेवाले उन प्राणियोंकी बातें सुनकर दयालु राजा युधिष्ठिर वहाँ खड़े हो गये। उनके मुँहसे सहसा निकल पड़ा—‘अहो! इन बेचारोंको बड़ा कष्ट है’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ता गिरः पुरस्ताद् वै श्रुतपूर्वा पुनः पुनः।
ग्लानानां दुःखितानां च नाभ्यजानत पाण्डवः ॥ ३८ ॥
मूलम्
स ता गिरः पुरस्ताद् वै श्रुतपूर्वा पुनः पुनः।
ग्लानानां दुःखितानां च नाभ्यजानत पाण्डवः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् कष्ट और दुःखमें पड़े हुए प्राणियोंकी वे ही पहलेकी सुनी हुई करुणाजनक बातें सामनेकी ओरसे बारंबार उनके कानोंमें पड़ने लगीं तो भी वे पाण्डुकुमार उन्हें पहचान न सके॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबुध्यमानस्ता वाचो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
उवाच के भवन्तो वै किमर्थमिह तिष्ठथ ॥ ३९ ॥
मूलम्
अबुध्यमानस्ता वाचो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
उवाच के भवन्तो वै किमर्थमिह तिष्ठथ ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी वे बातें पूर्णरूपसे न समझकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने पूछा—‘आपलोग कौन हैं और किसलिये यहाँ रहते हैं?’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तास्ते ततः सर्वे समन्तादवभाषिरे।
कर्णोऽहं भीमसेनोऽहमर्जुनोऽहमिति प्रभो ॥ ४० ॥
नकुलः सहदेवोऽहं धृष्टद्युम्नोऽहमित्युत ।
द्रौपदी द्रौपदेयाश्च इत्येवं ते विचुक्रुशुः ॥ ४१ ॥
मूलम्
इत्युक्तास्ते ततः सर्वे समन्तादवभाषिरे।
कर्णोऽहं भीमसेनोऽहमर्जुनोऽहमिति प्रभो ॥ ४० ॥
नकुलः सहदेवोऽहं धृष्टद्युम्नोऽहमित्युत ।
द्रौपदी द्रौपदेयाश्च इत्येवं ते विचुक्रुशुः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इस प्रकार पूछनेपर वे सब चारों ओरसे बोलने लगे—‘प्रभो! मैं कर्ण हूँ। मैं भीमसेन हूँ। मैं अर्जुन हूँ। मैं नकुल हूँ। मैं सहदेव हूँ। मैं धृष्टद्युम्न हूँ। मैं द्रौपदी हूँ और हमलोग द्रौपदीके पुत्र हैं।’ इस प्रकार वे सब लोग चिल्ला-चिल्लाकर अपना-अपना नाम बताने लगे॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता वाचः स तदा श्रुत्वा तद्देशसदृशीर्नृप।
ततो विममृशे राजा किं त्विदं दैवकारितम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ता वाचः स तदा श्रुत्वा तद्देशसदृशीर्नृप।
ततो विममृशे राजा किं त्विदं दैवकारितम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! उस देशके अनुरूप उन बातोंको सुनकर राजा युधिष्ठिर मन-ही-मन विचार करने लगे कि दैव-का यह कैसा विधान है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं तु तत् कलुषं कर्म कृतमेभिर्महात्मभिः।
कर्णेन द्रौपदेयैर्वा पाञ्चाल्या वा सुमध्यया ॥ ४३ ॥
य इमे पापगन्धेऽस्मिन् देशे सन्ति सुदारुणे।
नाहं जानामि सर्वेषां दुष्कृतं पुण्यकर्मणाम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
किं तु तत् कलुषं कर्म कृतमेभिर्महात्मभिः।
कर्णेन द्रौपदेयैर्वा पाञ्चाल्या वा सुमध्यया ॥ ४३ ॥
य इमे पापगन्धेऽस्मिन् देशे सन्ति सुदारुणे।
नाहं जानामि सर्वेषां दुष्कृतं पुण्यकर्मणाम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे इन महामना भाइयोंने, कर्णने, द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंने अथवा स्वयं सुमध्यमा द्रौपदीने भी कौन-सा ऐसा पाप किया था जिससे ये लोग इस दुर्गन्धपूर्ण भयंकर स्थानमें निवास करते हैं। इन समस्त पुण्यात्मा पुरुषोंने कभी कोई पाप किया था, इसे मैं नहीं जानता॥४३-४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कृत्वा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो राजा सुयोधनः।
तथा श्रिया युतः पापैः सह सर्वैः पदानुगैः ॥ ४५ ॥
मूलम्
किं कृत्वा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो राजा सुयोधनः।
तथा श्रिया युतः पापैः सह सर्वैः पदानुगैः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृतराष्ट्रका पुत्र राजा सुयोधन कौन-सा पुण्यकर्म करके अपने समस्त पापी सेवकोंके साथ वैसी अद्भुत शोभा और सम्पत्तिसे संयुक्त हुआ है?॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेन्द्र इव लक्ष्मीवानास्ते परमपूजिताः।
कस्येदानीं विकारोऽयं य इमे नरकं गताः ॥ ४६ ॥
मूलम्
महेन्द्र इव लक्ष्मीवानास्ते परमपूजिताः।
कस्येदानीं विकारोऽयं य इमे नरकं गताः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह तो यहाँ अत्यन्त सम्मानित होकर महेन्द्रके समान राजलक्ष्मीसे सम्पन्न हुआ है। इधर यह किस कर्मका फल है कि मेरे सगे-सम्बन्धी नरकमें पड़े हुए हैं?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वधर्मविदः शूराः सत्यागमपरायणाः ।
क्षत्रधर्मरताः सन्तो यज्वानो भूरिदक्षिणाः ॥ ४७ ॥
मूलम्
सर्वधर्मविदः शूराः सत्यागमपरायणाः ।
क्षत्रधर्मरताः सन्तो यज्वानो भूरिदक्षिणाः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे भाई सम्पूर्ण धर्मके ज्ञाता, शूरवीर, सत्यवादी तथा शास्त्रके अनुकूल चलनेवाले थे। इन्होंने क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर रहकर बड़े-बड़े यज्ञ किये और बहुत-सी दक्षिणाएँ दी हैं (तथापि इनकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई)?॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु सुप्तोऽस्मि जागर्मि चेतयामि न चेतये।
अहो चित्तविकारोऽयं स्याद् वा मे चित्तविभ्रमः ॥ ४८ ॥
मूलम्
किं नु सुप्तोऽस्मि जागर्मि चेतयामि न चेतये।
अहो चित्तविकारोऽयं स्याद् वा मे चित्तविभ्रमः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या मैं सोता हूँ या जागता हूँ? मुझे चेत है या नहीं? अहो! यह मेरे चित्तका विकार तो नहीं है, अथवा हो सकता है यह मेरे मनका भ्रम हो’॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधं राजा विममर्श युधिष्ठिरः।
दुःखशोकसमाविष्टश्चिन्ताव्याकुलितेन्द्रियः ॥ ४९ ॥
मूलम्
एवं बहुविधं राजा विममर्श युधिष्ठिरः।
दुःखशोकसमाविष्टश्चिन्ताव्याकुलितेन्द्रियः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुःख और शोकके आवेशसे युक्त हो राजा युधिष्ठिर इस तरह नाना प्रकारसे विचार करने लगे। उस समय उनकी सारी इन्द्रियाँ चिन्तासे व्याकुल हो गयी थीं॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधमाहारयच्चैव तीव्रं धर्मसुतो नृपः।
देवांश्च गर्हयामास धर्मं चैव युधिष्ठिरः ॥ ५० ॥
मूलम्
क्रोधमाहारयच्चैव तीव्रं धर्मसुतो नृपः।
देवांश्च गर्हयामास धर्मं चैव युधिष्ठिरः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरके मनमें तीव्र रोष जाग उठा। वे देवताओं और धर्मको कोसने लगे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तीव्रगन्धसंतप्तो देवदूतमुवाच ह।
गम्यतां तत्र येषां त्वं दूतस्तेषामुपान्तिकम् ॥ ५१ ॥
न ह्यहं तत्र यास्यामि स्थितोऽस्मीति निवेद्यताम्।
मत्संश्रयादिमे दूताः सुखिनो भ्रातरो हि मे ॥ ५२ ॥
मूलम्
स तीव्रगन्धसंतप्तो देवदूतमुवाच ह।
गम्यतां तत्र येषां त्वं दूतस्तेषामुपान्तिकम् ॥ ५१ ॥
न ह्यहं तत्र यास्यामि स्थितोऽस्मीति निवेद्यताम्।
मत्संश्रयादिमे दूताः सुखिनो भ्रातरो हि मे ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वहाँकी दुःसह दुर्गन्धसे संतप्त होकर देवदूतसे कहा—‘तुम जिनके दूत हो उनके पास लौट जाओ। मैं वहाँ नहीं चलूँगा। यहीं ठहर गया हूँ, अपने मालिकोंको इसकी सूचना दे देना। यहाँ ठहरनेका कारण यह है कि मेरे निकट रहनेसे यहाँ मेरे इन दुखी भाई-बन्धुओंको सुख मिलता है’॥५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तदा दूतः पाण्डुपुत्रेण धीमता।
जगाम तत्र यत्रास्ते देवराजः शतक्रतुः ॥ ५३ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तदा दूतः पाण्डुपुत्रेण धीमता।
जगाम तत्र यत्रास्ते देवराजः शतक्रतुः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् पाण्डुपुत्रके ऐसा कहनेपर देवदूत उस समय उस स्थानको चला गया जहाँ सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले देवराज इन्द्र विराजमान थे॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेदयामास च तद् धर्मराजचिकीर्षितम्।
यथोक्तं धर्मपुत्रेण सर्वमेव जनाधिप ॥ ५४ ॥
मूलम्
निवेदयामास च तद् धर्मराजचिकीर्षितम्।
यथोक्तं धर्मपुत्रेण सर्वमेव जनाधिप ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! दूतने वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिरकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं और यह भी निवेदन कर दिया कि वे क्या करना चाहते हैं॥५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि युधिष्ठिरनरकदर्शने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्वर्गारोहणपर्वमें युधिष्ठिरको नरकका दर्शनविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥