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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
सूचना (हिन्दी)
श्रीमहाभारतम्
भागसूचना
स्वर्गारोहणपर्व
प्रथमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्वर्गमें नारद और युधिष्ठिरकी बातचीत
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
मूलम्
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य मम पूर्वपितामहाः।
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च कानि स्थानानि भेजिरे ॥ १ ॥
मूलम्
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य मम पूर्वपितामहाः।
पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च कानि स्थानानि भेजिरे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— मुने! मेरे पूर्वपितामह पाण्डव और धृतराष्ट्रके पुत्र स्वर्गलोकमें पहुँचकर किन-किन स्थानोंको प्राप्त हुए?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वविच्चासि मे मतः।
महर्षिणाभ्यनुज्ञातो व्यासेनाद्भुतकर्मणा ॥ २ ॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वविच्चासि मे मतः।
महर्षिणाभ्यनुज्ञातो व्यासेनाद्भुतकर्मणा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। आप अद्भुतकर्मा महर्षि व्यासकी आज्ञा पाकर सर्वज्ञ हो गये हैं—ऐसा मेरा विश्वास है॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य तव पूर्वपितामहाः।
युधिष्ठिरप्रभृतयो यदकुर्वत तच्छृणु ॥ ३ ॥
मूलम्
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य तव पूर्वपितामहाः।
युधिष्ठिरप्रभृतयो यदकुर्वत तच्छृणु ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— जनमेजय! जहाँ तीनों लोकोंका अन्तर्भाव है, उस स्वर्गमें पहुँचकर तुम्हारे पूर्वपितामह युधिष्ठिर आदिने जो कुछ किया, वह बताया जाता है, सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य धर्मराजो युधिष्ठिरः।
दुर्योधनं श्रिया जुष्टं ददर्शासीनमासने ॥ ४ ॥
भ्राजमानमिवादित्यं वीरलक्ष्म्याभिसंवृतम् ।
देवैर्भ्राजिष्णुभिः साध्यैः सहितं पुण्यकर्मभिः ॥ ५ ॥
मूलम्
स्वर्गं त्रिविष्टपं प्राप्य धर्मराजो युधिष्ठिरः।
दुर्योधनं श्रिया जुष्टं ददर्शासीनमासने ॥ ४ ॥
भ्राजमानमिवादित्यं वीरलक्ष्म्याभिसंवृतम् ।
देवैर्भ्राजिष्णुभिः साध्यैः सहितं पुण्यकर्मभिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गलोकमें पहुँचकर धर्मराज युधिष्ठिरने देखा कि दुर्योधन स्वर्गीय शोभासे सम्पन्न हो तेजस्वी देवताओं तथा पुण्यकर्मा साध्यगणोंके साथ एक दिव्य सिंहासनपर बैठकर वीरोचित शोभासे संयुक्त हो सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा है॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा दुर्योधनममर्षितः।
सहसा संनिवृत्तोऽभूच्छ्रियं दृष्ट्वा सुयोधने ॥ ६ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा दुर्योधनममर्षितः।
सहसा संनिवृत्तोऽभूच्छ्रियं दृष्ट्वा सुयोधने ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनको ऐसी अवस्थामें देख उसे मिली हुई शोभा और सम्पत्तिका अवलोकन कर राजा युधिष्ठिर अमर्षसे भर गये और सहसा दूसरी ओर लौट पड़े॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रुवन्नुच्चैर्वचस्तान् वै नाहं दुर्योधनेन वै।
सहितः कामये लोकाल्ँलुब्धेनादीर्घदर्शिना ॥ ७ ॥
यत्कृते पृथिवी सर्वा सुहृदो बान्धवास्तथा।
हतास्माभिः प्रसह्याजौ क्लिष्टैः पूर्वं महावने ॥ ८ ॥
द्रौपदी च सभामध्ये पाञ्चाली धर्मचारिणी।
पर्याकृष्टानवद्याङ्गी पत्नी नो गुरुसंनिधौ ॥ १ ॥
मूलम्
ब्रुवन्नुच्चैर्वचस्तान् वै नाहं दुर्योधनेन वै।
सहितः कामये लोकाल्ँलुब्धेनादीर्घदर्शिना ॥ ७ ॥
यत्कृते पृथिवी सर्वा सुहृदो बान्धवास्तथा।
हतास्माभिः प्रसह्याजौ क्लिष्टैः पूर्वं महावने ॥ ८ ॥
द्रौपदी च सभामध्ये पाञ्चाली धर्मचारिणी।
पर्याकृष्टानवद्याङ्गी पत्नी नो गुरुसंनिधौ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उच्चस्वरसे उन सब लोगोंसे बोले—‘देवताओ! जिसके कारण हमने अपने समस्त सुहृदों और बन्धुओंका हठपूर्वक युद्धमें संहार कर डाला और सारी पृथ्वी उजाड़ डाली, जिसने पहले हमलोगोंको महान् वनमें भारी क्लेश पहुँचाया था तथा जो निर्दोष अंगोंवाली हमारी धर्मपरायणा पत्नी पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदीको भरी सभामें गुरुजनोंके समीप घसीट लाया था, उस लोभी और अदूरदर्शी दुर्योधनके साथ रहकर मैं इन पुण्यलोकोंको पानेकी इच्छा नहीं रखता॥७—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति देवा न मे कामः सुयोधनमुदीक्षितुम्।
तत्राहं गन्तुमिच्छामि यत्र ते भ्रातरो मम ॥ १० ॥
मूलम्
अस्ति देवा न मे कामः सुयोधनमुदीक्षितुम्।
तत्राहं गन्तुमिच्छामि यत्र ते भ्रातरो मम ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवगण! मैं दुर्योधनको देखना भी नहीं चाहता; मेरी तो वहीं जानेकी इच्छा है, जहाँ मेरे भाई हैं’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवमित्यब्रवीत् तं तु नारदः प्रहसन्निव।
स्वर्गे निवासे राजेन्द्र विरुद्धं चापि नश्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
नैवमित्यब्रवीत् तं तु नारदः प्रहसन्निव।
स्वर्गे निवासे राजेन्द्र विरुद्धं चापि नश्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर नारदजी उनसे हँसते हुए-से बोले, ‘नहीं-नहीं ऐसा न कहो; स्वर्गमें निवास करनेपर पहलेका वैर-विरोध शान्त हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिर महाबाहो मैवं वोचः कथंचन।
दुर्योधनं प्रति नृपं शृणु चेदं वचो मम ॥ १२ ॥
मूलम्
युधिष्ठिर महाबाहो मैवं वोचः कथंचन।
दुर्योधनं प्रति नृपं शृणु चेदं वचो मम ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हें राजा दुर्योधनके प्रति किसी तरह ऐसी बात मुँहसे नहीं निकालनी चाहिये। मेरी इस बातको ध्यान देकर सुनो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष दुर्योधनो राजा पूज्यते त्रिदशैः सह।
सद्भिश्च राजप्रवरैर्य इमे स्वर्गवासिनः ॥ १३ ॥
मूलम्
एष दुर्योधनो राजा पूज्यते त्रिदशैः सह।
सद्भिश्च राजप्रवरैर्य इमे स्वर्गवासिनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये राजा दुर्योधन देवताओंसहित उन श्रेष्ठ नरेशोंद्वारा भी पूजित एवं सम्मानित होते हैं, जो कि ये चिरकालसे स्वर्गलोकमें निवास करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरलोकगतिः प्राप्ता युद्धे हुत्वाऽऽत्मनस्तनुम्।
यूयं सर्वे सुरसमा येन युद्धे समासिताः ॥ १४ ॥
स एष क्षत्रधर्मेण स्थानमेतदवाप्तवान्।
भये महति योऽभीतो बभूव पृथिवीपतिः ॥ १५ ॥
मूलम्
वीरलोकगतिः प्राप्ता युद्धे हुत्वाऽऽत्मनस्तनुम्।
यूयं सर्वे सुरसमा येन युद्धे समासिताः ॥ १४ ॥
स एष क्षत्रधर्मेण स्थानमेतदवाप्तवान्।
भये महति योऽभीतो बभूव पृथिवीपतिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्होंने युद्धमें अपने शरीरकी आहुति देकर वीरोंकी गति पायी है। जिन्होंने युद्धमें देवतुल्य तेजस्वी तुम समस्त भाइयोंका डटकर सामना किया है, जो पृथ्वीपति दुर्योधन महान् भयके समय भी निर्भय बने रहे, उन्होंने क्षत्रियधर्मके अनुसार यह स्थान प्राप्त किया है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तन्मनसि कर्तव्यं पुत्र यद् द्यूतकारितम्।
द्रौपद्याश्च परिक्लेशं न चिन्तयितुमर्हसि ॥ १६ ॥
मूलम्
न तन्मनसि कर्तव्यं पुत्र यद् द्यूतकारितम्।
द्रौपद्याश्च परिक्लेशं न चिन्तयितुमर्हसि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! इनके द्वारा जुएमें जो अपराध हुआ है, उसे अब तुम्हें मनमें नहीं लाना चाहिये। द्रौपदीको भी इनसे जो क्लेश प्राप्त हुआ है इसे अब तुम्हें भुला देना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चान्येऽपि परिक्लेशा युष्माकं ज्ञातिकारिताः।
संग्रामेष्वथ वान्यत्र न तान् संस्मर्तुमर्हसि ॥ १७ ॥
मूलम्
ये चान्येऽपि परिक्लेशा युष्माकं ज्ञातिकारिताः।
संग्रामेष्वथ वान्यत्र न तान् संस्मर्तुमर्हसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम लोगोंको अपने भाई-बन्धुओंसे युद्धमें या अन्यत्र और भी जो कष्ट उठाने पड़े हैं, उन सबको यहाँ याद रखना तुम्हारे लिये उचित नहीं है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समागच्छ यथान्यायं राज्ञा दुर्योधनेन वै।
स्वर्गोऽयं नेह वैराणि भवन्ति मनुजाधिप ॥ १८ ॥
मूलम्
समागच्छ यथान्यायं राज्ञा दुर्योधनेन वै।
स्वर्गोऽयं नेह वैराणि भवन्ति मनुजाधिप ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तुम राजा दुर्योधनके साथ न्यायपूर्वक मिलो। नरेश्वर! यह स्वर्गलोक है, यहाँ पहलेके वैर-विरोध नहीं रहते हैं’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदेनैवमुक्तस्तु कुरुराजो युधिष्ठिरः ।
भ्रातॄन् पप्रच्छ मेधावी वाक्यमेतदुवाच ह ॥ १९ ॥
मूलम्
नारदेनैवमुक्तस्तु कुरुराजो युधिष्ठिरः ।
भ्रातॄन् पप्रच्छ मेधावी वाक्यमेतदुवाच ह ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीके ऐसा कहनेपर बुद्धिमान् कुरुराज युधिष्ठिरने अपने भाइयोंका पता पूछा और यह बात कही—॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि दुर्योधनस्यैते वीरलोकाः सनातनाः।
अधर्मज्ञस्य पापस्य पृथिवीसुहृदां द्रुहः ॥ २० ॥
यत्कृते पृथिवी नष्टा सहया सनरद्विपा।
वयं च मन्युना दग्धा वैरं प्रतिचिकीर्षवः ॥ २१ ॥
ये ते वीरा महात्मानो भ्रातरो मे महाव्रताः।
सत्यप्रतिज्ञा लोकस्य शूरा वै सत्यवादिनः ॥ २२ ॥
तेषामिदानीं के लोका द्रष्टुमिच्छामि तानहम्।
कर्णं चैव महात्मानं कौन्तेयं सत्यसंगरम् ॥ २३ ॥
मूलम्
यदि दुर्योधनस्यैते वीरलोकाः सनातनाः।
अधर्मज्ञस्य पापस्य पृथिवीसुहृदां द्रुहः ॥ २० ॥
यत्कृते पृथिवी नष्टा सहया सनरद्विपा।
वयं च मन्युना दग्धा वैरं प्रतिचिकीर्षवः ॥ २१ ॥
ये ते वीरा महात्मानो भ्रातरो मे महाव्रताः।
सत्यप्रतिज्ञा लोकस्य शूरा वै सत्यवादिनः ॥ २२ ॥
तेषामिदानीं के लोका द्रष्टुमिच्छामि तानहम्।
कर्णं चैव महात्मानं कौन्तेयं सत्यसंगरम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवर्षे! जिसके कारण घोड़े, हाथी और मनुष्योंसहित सारी पृथ्वी नष्ट हो गयी, जिसके वैरका बदला लेनेकी इच्छासे हमें भी क्रोधकी आगमें जलना पड़ा, जो धर्मका नाम भी नहीं जानता था, जिसने जीवनभर भूमण्डलके समस्त सुहृदोंके साथ द्रोह ही किया है, उस पापी दुर्योधनको यदि ये सनातन वीरलोक प्राप्त हुए हैं तो जो वे वीर, महात्मा, महान् व्रतधारी, सत्यप्रतिज्ञ विश्वविख्यात शूर और सत्यवादी मेरे भाई हैं उन्हें इस समय कौन-से लोक प्राप्त हुए हैं? मैं उनको देखना चाहता हूँ। कुन्तीके सत्यप्रतिज्ञ पुत्र महात्मा कर्णसे भी मिलना चाहता हूँ॥२०—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टद्युम्नं सात्यकिं च धृष्टद्युम्नस्य चात्मजान्।
ये च शस्त्रैर्वधं प्राप्ताः क्षत्रधर्मेण पार्थिवाः ॥ २४ ॥
क्व नु ते पार्थिवान् ब्रह्मन्नैतान् पश्यामि नारद।
विराटद्रुपदौ चैव धृष्टकेतुमुखांश्च तान् ॥ २५ ॥
शिखण्डिनं च पाञ्चाल्यं द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
अभिमन्युं च दुर्धर्षं द्रष्टुमिच्छामि नारद ॥ २६ ॥
मूलम्
धृष्टद्युम्नं सात्यकिं च धृष्टद्युम्नस्य चात्मजान्।
ये च शस्त्रैर्वधं प्राप्ताः क्षत्रधर्मेण पार्थिवाः ॥ २४ ॥
क्व नु ते पार्थिवान् ब्रह्मन्नैतान् पश्यामि नारद।
विराटद्रुपदौ चैव धृष्टकेतुमुखांश्च तान् ॥ २५ ॥
शिखण्डिनं च पाञ्चाल्यं द्रौपदेयांश्च सर्वशः।
अभिमन्युं च दुर्धर्षं द्रष्टुमिच्छामि नारद ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृष्टद्युम्न, सात्यकि तथा धृष्टद्युम्नके पुत्रोंको भी देखना चाहता हूँ। ब्रह्मन्! नारदजी! जो भूपाल क्षत्रियधर्मके अनुसार शस्त्रोंद्वारा वधको प्राप्त हुए हैं, वे कहाँ हैं? मैं इन राजाओंको यहाँ नहीं देखता हूँ। मैं इन समस्त राजाओंसे मिलना चाहता हूँ। विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु आदि पाञ्चालराजकुमार शिखण्डी, द्रौपदीके सभी पुत्रों तथा दुर्धर्ष वीर अभिमन्युको भी मैं देखना चाहता हूँ”॥२४—२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि स्वर्गे नारदयुधिष्ठिरसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्वर्गारोहणपर्वमें स्वर्गमें नारद और युधिष्ठिरका संवादविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥