००३

भागसूचना

तृतीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका इन्द्र और धर्म आदिके साथ वार्तालाप, युधिष्ठिरका अपने धर्ममें दृढ़ रहना तथा सदेह स्वर्गमें जाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सन्नादयन् शक्रो दिवं भूमिं च सर्वशः।
रथेनोपययौ पार्थमारोहेत्यब्रवीच्च तम् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः सन्नादयन् शक्रो दिवं भूमिं च सर्वशः।
रथेनोपययौ पार्थमारोहेत्यब्रवीच्च तम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर आकाश और पृथ्वीको सब ओरसे प्रतिध्वनित करते हुए देवराज इन्द्र रथके साथ युधिष्ठिरके पास आ पहुँचे और उनसे बोले—‘कुन्तीनन्दन! तुम इस रथपर सवार हो जाओ’॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभातॄन् पतितान् दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अब्रवीच्छोकसंतप्तः सहस्राक्षमिदं वचः ॥ २ ॥

मूलम्

स्वभातॄन् पतितान् दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अब्रवीच्छोकसंतप्तः सहस्राक्षमिदं वचः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने भाइयोंको धराशायी हुआ देख धर्मराज युधिष्ठिर शोकसे संतप्त हो इन्द्रसे इस प्रकार बोले—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातरः पतिता मेऽत्र गच्छेयुस्ते मया सह।
न विना भ्रातृभिः स्वर्गमिच्छे गन्तुं सुरेश्वर ॥ ३ ॥

मूलम्

भ्रातरः पतिता मेऽत्र गच्छेयुस्ते मया सह।
न विना भ्रातृभिः स्वर्गमिच्छे गन्तुं सुरेश्वर ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवेश्वर! मेरे भाई मार्गमें गिरे पड़े हैं। वे भी मेरे साथ चलें, इसकी व्यवस्था कीजिये; क्योंकि मैं भाइयोंके बिना स्वर्गमें जाना नहीं चाहता॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकुमारी सुखार्हा च राजपुत्री पुरंदर।
सास्माभिः सह गच्छेत तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ४ ॥

मूलम्

सुकुमारी सुखार्हा च राजपुत्री पुरंदर।
सास्माभिः सह गच्छेत तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरन्दर! राजकुमारी द्रौपदी सुकुमारी है। वह सुख पानेके योग्य है। वह भी हमलोगोंके साथ चले, इसकी अनुमति दीजिये’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातॄन् द्रक्ष्यसि स्वर्गे त्वमग्रतस्त्रिदिवं गतान्।
कृष्णया सहितान् सर्वान् मा शुचो भरतर्षभ ॥ ५ ॥

मूलम्

भ्रातॄन् द्रक्ष्यसि स्वर्गे त्वमग्रतस्त्रिदिवं गतान्।
कृष्णया सहितान् सर्वान् मा शुचो भरतर्षभ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे सभी भाई तुमसे पहले ही स्वर्गमें पहुँच गये हैं। उनके साथ द्रौपदी भी है। वहाँ चलनेपर वे सब तुम्हें मिलेंगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निक्षिप्य मानुषं देहं गतास्ते भरतर्षभ।
अनेन त्वं शरीरेण स्वर्गे गन्ता न संशयः ॥ ६ ॥

मूलम्

निक्षिप्य मानुषं देहं गतास्ते भरतर्षभ।
अनेन त्वं शरीरेण स्वर्गे गन्ता न संशयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! वे मानवशरीरका परित्याग करके स्वर्गमें गये हैं; किंतु तुम इसी शरीरसे वहाँ चलोगे, इसमें संशय नहीं है॥६॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं श्वा भूतभव्येश भक्तो मां नित्यमेव ह।
स गच्छेत मया सार्धमानृशंस्या हि मे मतिः ॥ ७ ॥

मूलम्

अयं श्वा भूतभव्येश भक्तो मां नित्यमेव ह।
स गच्छेत मया सार्धमानृशंस्या हि मे मतिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— भूत और वर्तमानके स्वामी देवराज! यह कुत्ता मेरा बड़ा भक्त है। इसने सदा ही मेरा साथ दिया है; अतः यह भी मेरे साथ चले—ऐसी आज्ञा दीजिये; क्योंकि मेरी बुद्धिमें निष्ठुरताका अभाव है॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर्त्यत्वं मत्समत्वं च राजन्
श्रियं कृत्स्नां महतीं चैव सिद्धिम्।
संप्राप्तोऽद्य स्वर्गसुखानि च त्वं
त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति ॥ ८ ॥

मूलम्

अमर्त्यत्वं मत्समत्वं च राजन्
श्रियं कृत्स्नां महतीं चैव सिद्धिम्।
संप्राप्तोऽद्य स्वर्गसुखानि च त्वं
त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— राजन्! तुम्हें अमरता, मेरी समानता, पूर्ण लक्ष्मी और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई है, साथ ही तुम्हें स्वर्गीय सुख भी उपलब्ध हुए हैं; अतः इस कुत्तेको छोड़ो और मेरे साथ चलो। इसमें कोई कठोरता नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनार्यमार्येण सहस्रनेत्र
शक्यं कर्तुं दुष्करमेतदार्य ।
मा मे श्रिया सङ्गमनं तयास्तु
यस्याः कृते भक्तजनं त्यजेयम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अनार्यमार्येण सहस्रनेत्र
शक्यं कर्तुं दुष्करमेतदार्य ।
मा मे श्रिया सङ्गमनं तयास्तु
यस्याः कृते भक्तजनं त्यजेयम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— सहस्रनेत्रधारी देवराज! किसी आर्यपुरुषके द्वारा निम्न श्रेणीका काम होना अत्यन्त कठिन है। मुझे ऐसी लक्ष्मीकी प्राप्ति कभी न हो जिसके लिये भक्तजनका त्याग करना पड़े॥९॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गे लोके श्ववतां नास्ति धिष्ण्य-
मिष्टापूर्तं क्रोधवशा हरन्ति ।
ततो विचार्य क्रियतां धर्मराज
त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति ॥ १० ॥

मूलम्

स्वर्गे लोके श्ववतां नास्ति धिष्ण्य-
मिष्टापूर्तं क्रोधवशा हरन्ति ।
ततो विचार्य क्रियतां धर्मराज
त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— धर्मराज! कुत्ता रखनेवालोंके लिये स्वर्गलोकमें स्थान नहीं है। उनके यज्ञ करने और कुआँ, बावड़ी आदि बनवानेका जो पुण्य होता है उसे क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं; इसलिये सोच-विचारकर काम करो। छोड़ दो इस कुत्तेको। ऐसा करनेमें कोई निर्दयता नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्तत्यागं प्राहुरत्यन्तपापं
तुल्यं लोके ब्रह्मवध्याकृतेन ।
तस्मान्नाहं जातु कथंचनाद्य
त्यक्ष्याम्येनं स्वसुखार्थी महेन्द्र ॥ ११ ॥

मूलम्

भक्तत्यागं प्राहुरत्यन्तपापं
तुल्यं लोके ब्रह्मवध्याकृतेन ।
तस्मान्नाहं जातु कथंचनाद्य
त्यक्ष्याम्येनं स्वसुखार्थी महेन्द्र ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— महेन्द्र! भक्तका त्याग करनेसे जो पाप होता है, उसका अन्त कभी नहीं होता—ऐसा महात्मा पुरुष कहते हैं। संसारमें भक्तका त्याग ब्रह्महत्याके समान माना गया है; अतः मैं अपने सुखके लिये कभी किसी तरह भी आज इस कुत्तेका त्याग नहीं करूँगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतं भक्तं नान्यदस्तीति चार्तं
प्राप्तं क्षीणं रक्षणे प्राणलिप्सुम्।
प्राणत्यागादप्यहं नैव मोक्तुं
यतेयं वै नित्यमेतद् व्रतं मे ॥ १२ ॥

मूलम्

भीतं भक्तं नान्यदस्तीति चार्तं
प्राप्तं क्षीणं रक्षणे प्राणलिप्सुम्।
प्राणत्यागादप्यहं नैव मोक्तुं
यतेयं वै नित्यमेतद् व्रतं मे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो डरा हुआ हो, भक्त हो, मेरा दूसरा कोई सहारा नहीं है—ऐसा कहते हुए आर्तभावसे शरणमें आया हो, अपनी रक्षामें असमर्थ—दुर्बल हो और अपने प्राण बचाना चाहता हो, ऐसे पुरुषको प्राण जानेपर भी मैं नहीं छोड़ सकता; यह मेरा सदाका व्रत है॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुना दृष्टं क्रोधवशा हरन्ति
यद्दत्तमिष्टं विवृतमथो हुतं च।
तस्माच्छुनस्त्यागमिमं कुरुष्व
शुनस्त्यागाद् प्राप्स्यसे देवलोकम् ॥ १३ ॥

मूलम्

शुना दृष्टं क्रोधवशा हरन्ति
यद्दत्तमिष्टं विवृतमथो हुतं च।
तस्माच्छुनस्त्यागमिमं कुरुष्व
शुनस्त्यागाद् प्राप्स्यसे देवलोकम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— वीरवर! मनुष्य जो कुछ दान, यज्ञ, स्वाध्याय और हवन आदि पुण्यकर्म करता है, उसपर यदि कुत्तेकी दृष्टि भी पड़ जाय तो उसके फलको क्रोधवश नामक राक्षस हर ले जाते हैं; इसलिये इस कुत्तेका त्याग कर दो। कुत्तेको त्याग देनेसे ही तुम देवलोकमें पहुँच सकोगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा भ्रातॄन् दयितां चापि कृष्णां
प्राप्तो लोकः कर्मणा स्वेन वीर।
श्वानं चैनं न त्यजसे कथं नु
त्यागं कृत्स्नं चास्थितो मुह्यसेऽद्य ॥ १४ ॥

मूलम्

त्यक्त्वा भ्रातॄन् दयितां चापि कृष्णां
प्राप्तो लोकः कर्मणा स्वेन वीर।
श्वानं चैनं न त्यजसे कथं नु
त्यागं कृत्स्नं चास्थितो मुह्यसेऽद्य ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर! तुमने अपने भाइयों तथा प्यारी पत्नी द्रौपदीका परित्याग करके अपने किये हुए पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप देवलोकको प्राप्त किया है। फिर तुम इस कुत्तेको क्यों नहीं त्याग देते? सब कुछ छोड़कर अब कुत्तेके मोहमें कैसे पड़ गये॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विद्यते संधिरथापि विग्रहो
मृतैर्मर्त्यैरिति लोकेषु निष्ठा ।
न ते मया जीवयितुं हि शक्या-
स्ततस्त्यागस्तेषु कृतो न जीवताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

न विद्यते संधिरथापि विग्रहो
मृतैर्मर्त्यैरिति लोकेषु निष्ठा ।
न ते मया जीवयितुं हि शक्या-
स्ततस्त्यागस्तेषु कृतो न जीवताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— भगवन्! संसारमें यह निश्चित बात है कि मरे हुए मनुष्योंके साथ न तो किसीका मेल होता है न विरोध ही। द्रौपदी तथा अपने भाइयोंको जीवित करना मेरे वशकी बात नहीं है; अतः मर जानेपर मैंने उनका त्याग किया है, जीवितावस्थामें नहीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतिप्रदानं शरणागतस्य
स्त्रिया वधो ब्राह्मणस्वापहारः ।
मित्रद्रोहस्तानि चत्वारि शक्र
भक्तत्यागश्चैव समो मतो मे ॥ १६ ॥

मूलम्

भीतिप्रदानं शरणागतस्य
स्त्रिया वधो ब्राह्मणस्वापहारः ।
मित्रद्रोहस्तानि चत्वारि शक्र
भक्तत्यागश्चैव समो मतो मे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरणमें आये हुए को भय देना, स्त्रीका वध करना, ब्राह्मणका धन लूटना और मित्रोंके साथ द्रोह करना—ये चार अधर्म एक ओर और भक्तका त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझमें यह अकेला ही उन चारोंके बराबर है॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् धर्मराजस्य वचो निशम्य
धर्मस्वरूपी भगवानुवाच ।
युधिष्ठिरं प्रीतियुक्तो नरेन्द्रं
श्लक्ष्णैर्वाक्यैः संस्तवसम्प्रयुक्तैः ॥ १७ ॥

मूलम्

तद् धर्मराजस्य वचो निशम्य
धर्मस्वरूपी भगवानुवाच ।
युधिष्ठिरं प्रीतियुक्तो नरेन्द्रं
श्लक्ष्णैर्वाक्यैः संस्तवसम्प्रयुक्तैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिरका यह कथन सुनकर कुत्तेका रूप धारण करके आये हुए धर्मस्वरूपी भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और राजा युधिष्ठिरकी प्रशंसा करते हुए मधुर वचनोंद्वारा उनसे इस प्रकार बोले—॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

धर्मराज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिजातोऽसि राजेन्द्र पितुर्वृत्तेन मेधया।
अनुक्रोशेन चानेन सर्वभूतेषु भारत ॥ १८ ॥

मूलम्

अभिजातोऽसि राजेन्द्र पितुर्वृत्तेन मेधया।
अनुक्रोशेन चानेन सर्वभूतेषु भारत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् धर्मराजने कहा— राजेन्द्र! भरतनन्दन! तुम अपने सदाचार, बुद्धि तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति होनेवाली इस दयाके कारण वास्तवमें सुयोग्य पिताके उत्तम कुलमें उत्पन्न सिद्ध हो रहे हो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा द्वैतवने चासि मया पुत्र परीक्षितः।
पानीयार्थे पराक्रान्ता यत्र ते भ्रातरो हताः ॥ १९ ॥

मूलम्

पुरा द्वैतवने चासि मया पुत्र परीक्षितः।
पानीयार्थे पराक्रान्ता यत्र ते भ्रातरो हताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! पूर्वकालमें द्वैतवनके भीतर रहते समय भी एक बार मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी; जब कि तुम्हारे सभी भाई पानी लानेके लिये उद्योग करते हुए मारे गये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमार्जुनौ परित्यज्य यत्र त्वं भ्रातरावुभौ।
मात्रोः साम्यमभीप्सन् वै नकुलं जीवमिच्छसि ॥ २० ॥

मूलम्

भीमार्जुनौ परित्यज्य यत्र त्वं भ्रातरावुभौ।
मात्रोः साम्यमभीप्सन् वै नकुलं जीवमिच्छसि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय तुमने कुन्ती और माद्री दोनों माताओंमें समानताकी इच्छा रखकर अपने सगे भाई भीम और अर्जुनको छोड़ केवल नकुलको जीवित करना चाहा था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं श्वा भक्त इत्येवं त्यक्तो देवरथस्त्वया।
तस्मात् स्वर्गे न ते तुल्यः कश्चिदस्ति नराधिपः ॥ २१ ॥

मूलम्

अयं श्वा भक्त इत्येवं त्यक्तो देवरथस्त्वया।
तस्मात् स्वर्गे न ते तुल्यः कश्चिदस्ति नराधिपः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय भी ‘यह कुत्ता मेरा भक्त है’ ऐसा सोचकर तुमने देवराज इन्द्रके भी रथका परित्याग कर दिया है; अतः स्वर्गलोकमें तुम्हारे समान दूसरा कोई राजा नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्तवाक्षया लोकाः स्वशरीरेण भारत।
प्राप्तोऽसि भरतश्रेष्ठ दिव्यां गतिमनुत्तमाम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अतस्तवाक्षया लोकाः स्वशरीरेण भारत।
प्राप्तोऽसि भरतश्रेष्ठ दिव्यां गतिमनुत्तमाम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भरतश्रेष्ठ! यही कारण है कि तुम्हें अपने इसी शरीरसे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हुई है। तुम परम उत्तम दिव्य गतिको पा गये हो॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धर्मश्च शक्रश्च मरुतश्चाश्विनावपि।
देवा देवर्षयश्चैव रथमारोप्य पाण्डवम् ॥ २३ ॥
प्रययुः स्वैर्विमानैस्ते सिद्धाः कामविहारिणः।
सर्वे विरजसः पुण्याः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मिणः ॥ २४ ॥

मूलम्

ततो धर्मश्च शक्रश्च मरुतश्चाश्विनावपि।
देवा देवर्षयश्चैव रथमारोप्य पाण्डवम् ॥ २३ ॥
प्रययुः स्वैर्विमानैस्ते सिद्धाः कामविहारिणः।
सर्वे विरजसः पुण्याः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मिणः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— यों कहकर धर्म, इन्द्र, मरुद्‌गण, अश्विनीकुमार, देवता तथा देवर्षियोंने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको रथपर बिठाकर अपने-अपने विमानोंद्वारा स्वर्गलोकको प्रस्थान किया। वे सब-के-सब इच्छानुसार विचरनेवाले, रजोगुणशून्य पुण्यात्मा, पवित्र वाणी, बुद्धि और कर्मवाले तथा सिद्ध थे॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं रथं समास्थाय राजा कुरुकुलोद्वहः।
ऊर्ध्वमाचक्रमे शीघ्रं तेजसाऽऽवृत्य रोदसी ॥ २५ ॥

मूलम्

स तं रथं समास्थाय राजा कुरुकुलोद्वहः।
ऊर्ध्वमाचक्रमे शीघ्रं तेजसाऽऽवृत्य रोदसी ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलतिलक राजा युधिष्ठिर उस रथमें बैठकर अपने तेजसे पृथ्वी और आकाशको व्याप्त करते हुए तीव्र गतिसे ऊपरकी ओर जाने लगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवनिकायस्थो नारदः सर्वलोकवित्।
उवाचोच्चैस्तदा वाक्यं बृहद्वादी बृहत्तपाः ॥ २६ ॥

मूलम्

ततो देवनिकायस्थो नारदः सर्वलोकवित्।
उवाचोच्चैस्तदा वाक्यं बृहद्वादी बृहत्तपाः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सम्पूर्ण लोकोंका वृत्तान्त जाननेवाले, बोलनेमें कुशल तथा महान् तपस्वी देवर्षि नारदजीने देवमण्डलमें स्थित हो उच्च स्वरसे कहा—॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽपि राजर्षयः सर्वे ते चापि समुपस्थिताः।
कीर्तिं प्रच्छाद्य तेषां वै कुरुराजोऽधितिष्ठति ॥ २७ ॥

मूलम्

येऽपि राजर्षयः सर्वे ते चापि समुपस्थिताः।
कीर्तिं प्रच्छाद्य तेषां वै कुरुराजोऽधितिष्ठति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जितने राजर्षि स्वर्गमें आये हैं, वे सभी यहाँ उपस्थित हैं, किंतु कुरुराज युधिष्ठिर अपने सुयशसे उन सबकी कीर्तिको आच्छादित करके विराजमान हो रहे हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकानावृत्य यशसा तेजसा वृत्तसम्पदा।
स्वशरीरेण सम्प्राप्तं नान्यं शुश्रुम पाण्डवात् ॥ २८ ॥

मूलम्

लोकानावृत्य यशसा तेजसा वृत्तसम्पदा।
स्वशरीरेण सम्प्राप्तं नान्यं शुश्रुम पाण्डवात् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने यश, तेज और सदाचाररूप सम्पत्तिसे तीनों लोकोंको आवृत करके अपने भौतिक शरीरसे स्वर्गलोकमें आनेका सौभाग्य पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके सिवा और किसी राजाको प्राप्त हुआ हो, ऐसा हमने कभी नहीं सुना है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजांसि यानि दृष्टानि भूमिष्ठेन त्वया विभो।
वेश्मानि भुवि देवानां पश्यामूनि सहस्रशः ॥ २९ ॥

मूलम्

तेजांसि यानि दृष्टानि भूमिष्ठेन त्वया विभो।
वेश्मानि भुवि देवानां पश्यामूनि सहस्रशः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! युधिष्ठिर! पृथ्वीपर रहते हुए तुमने आकाशमें नक्षत्र और ताराओंके रूपमें जितने तेज देखे हैं, वे इन देवताओंके सहस्रों लोक हैं; इनकी ओर देखो’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदस्य वचः श्रुत्वा राजा वचनमब्रवीत्।
देवानामन्त्र्य धर्मात्मा स्वपक्षांश्चैव पार्थिवान् ॥ ३० ॥

मूलम्

नारदस्य वचः श्रुत्वा राजा वचनमब्रवीत्।
देवानामन्त्र्य धर्मात्मा स्वपक्षांश्चैव पार्थिवान् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीकी बात सुनकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरने देवताओं तथा अपने पक्षके राजाओंकी अनुमति लेकर कहा—॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभं वा यदि वा पापं भ्रातॄणां स्थानमद्य मे।
तदेव प्राप्तुमिच्छामि लोकानन्यान्न कामये ॥ ३१ ॥

मूलम्

शुभं वा यदि वा पापं भ्रातॄणां स्थानमद्य मे।
तदेव प्राप्तुमिच्छामि लोकानन्यान्न कामये ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवेश्वर! मेरे भाइयोंको शुभ या अशुभ जो भी स्थान प्राप्त हुआ हो उसीको मैं भी पाना चाहता हूँ। उसके सिवा दूसरे लोकोंमें जानेकी मेरी इच्छा नहीं है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा देवराजः पुरंदरः।
आनृशंस्यसमायुक्तं प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा देवराजः पुरंदरः।
आनृशंस्यसमायुक्तं प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी बात सुनकर देवराज इन्द्रने युधिष्ठिरसे कोमल वाणीमें कहा—॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थानेऽस्मिन् वस राजेन्द्र कर्मभिर्निर्जिते शुभैः।
किं त्वं मानुष्यकं स्नेहमद्यापि परिकर्षसि ॥ ३३ ॥

मूलम्

स्थानेऽस्मिन् वस राजेन्द्र कर्मभिर्निर्जिते शुभैः।
किं त्वं मानुष्यकं स्नेहमद्यापि परिकर्षसि ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! तुम अपने शुभ कर्मोंद्वारा प्राप्त हुए इस स्वर्गलोकमें निवास करो। मनुष्यलोकके स्नेहपाशको क्यों अभीतक खींचे ला रहे हो?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धिं प्राप्तोऽसि परमां यथा नान्यः पुमान् क्वचित्।
नैव ते भ्रातरः स्थानं सम्प्राप्ताः कुरुनन्दन ॥ ३४ ॥

मूलम्

सिद्धिं प्राप्तोऽसि परमां यथा नान्यः पुमान् क्वचित्।
नैव ते भ्रातरः स्थानं सम्प्राप्ताः कुरुनन्दन ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! तुम्हें वह उत्तम सिद्धि प्राप्त हुई है जिसे दूसरा मनुष्य कभी और कहीं नहीं पा सका। तुम्हारे भाई ऐसा स्थान नहीं पा सके हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यापि मानुषो भावः स्पृशते त्वां नराधिप।
स्वर्गोऽयं पश्य देवर्षीन् सिद्धांश्च त्रिदिवालयान् ॥ ३५ ॥

मूलम्

अद्यापि मानुषो भावः स्पृशते त्वां नराधिप।
स्वर्गोऽयं पश्य देवर्षीन् सिद्धांश्च त्रिदिवालयान् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! क्या अब भी मानवभाव तुम्हारा स्पर्श कर रहा है? राजन्! यह स्वर्गलोक है। इन स्वर्गवासी देवर्षियों तथा सिद्धोंका दर्शन करो’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु देवेन्द्रमेवंवादिनमीश्वरम् ।
पुनरेवाब्रवीद् धीमानिदं वचनमर्थवत् ॥ ३६ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु देवेन्द्रमेवंवादिनमीश्वरम् ।
पुनरेवाब्रवीद् धीमानिदं वचनमर्थवत् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी बात कहते हुए ऐश्वर्यशाली देवराजसे बुद्धिमान् युधिष्ठिरने पुनः यह अर्थयुक्त वचन कहा—॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैर्विना नोत्सहे वस्तुमिह दैत्यनिबर्हण।
गन्तुमिच्छामि तत्राहं यत्र ते भ्रातरो गताः ॥ ३७ ॥
यत्र सा बृहती श्यामा बुद्धिसत्त्वगुणान्विता।
द्रौपदी योषितां श्रेष्ठा यत्र चैव गता मम ॥ ३८ ॥

मूलम्

तैर्विना नोत्सहे वस्तुमिह दैत्यनिबर्हण।
गन्तुमिच्छामि तत्राहं यत्र ते भ्रातरो गताः ॥ ३७ ॥
यत्र सा बृहती श्यामा बुद्धिसत्त्वगुणान्विता।
द्रौपदी योषितां श्रेष्ठा यत्र चैव गता मम ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दैत्यसूदन! अपने भाइयोंके बिना मुझे यहाँ रहनेका उत्साह नहीं होता; अतः मैं वहीं जाना चाहता हूँ, जहाँ मेरे भाई गये हैं तथा जहाँ ऊँचे कदवाली, श्यामवर्णा, बुद्धिमती सत्त्वगुणसम्पन्ना एवं युवतियोंमें श्रेष्ठ मेरी द्रौपदी गयी है॥३७-३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते महाप्रस्थानिके पर्वणि युधिष्ठिरस्वर्गारोहे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत महाप्रस्थानिकपर्वमें युधिष्ठिरका स्वर्गारोहणविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥

सूचना (हिन्दी)

॥ महाप्रस्थानिकपर्व सम्पूर्ण ॥