भागसूचना
द्वितीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मार्गमें द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीमसेनका गिरना तथा युधिष्ठिरद्वारा प्रत्येकके गिरनेका कारण बताया जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते नियतात्मान उदीचीं दिशमास्थिताः।
ददृशुर्योगयुक्ताश्च हिमवन्तं महागिरिम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्ते नियतात्मान उदीचीं दिशमास्थिताः।
ददृशुर्योगयुक्ताश्च हिमवन्तं महागिरिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! मनको संयममें रखकर उत्तर दिशाका आश्रय लेनेवाले योगयुक्त पाण्डवोंने मार्गमें महापर्वत हिमालयका दर्शन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चाप्यतिक्रमन्तस्ते ददृशुर्वालुकार्णवम् ।
अवैक्षन्त महाशैलं मेरुं शिखरिणां वरम् ॥ २ ॥
मूलम्
तं चाप्यतिक्रमन्तस्ते ददृशुर्वालुकार्णवम् ।
अवैक्षन्त महाशैलं मेरुं शिखरिणां वरम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे भी लाँघकर जब वे आगे बढ़े तब उन्हें बालूका समुद्र दिखायी दिया। साथ ही उन्होंने पर्वतोंमें श्रेष्ठ महागिरि मेरुका दर्शन किया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु गच्छतां शीघ्रं सर्वेषां योगधर्मिणाम्।
याज्ञसेनी भ्रष्टयोगा निपपात महीतले ॥ ३ ॥
मूलम्
तेषां तु गच्छतां शीघ्रं सर्वेषां योगधर्मिणाम्।
याज्ञसेनी भ्रष्टयोगा निपपात महीतले ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब पाण्डव योगधर्ममें स्थित हो बड़ी शीघ्रतासे चल रहे थे। उनमेंसे द्रुपदकुमारी कृष्णाका मन योगसे विचलित हो गया; अतः वह लड़खड़ाकर पृथ्वीपर गिर पड़ी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तु प्रपतितां दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः।
उवाच धर्मराजानं याज्ञसेनीमवेक्ष्य ह ॥ ४ ॥
मूलम्
तां तु प्रपतितां दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः।
उवाच धर्मराजानं याज्ञसेनीमवेक्ष्य ह ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे नीचे गिरी देख महाबली भीमसेनने धर्मराजसे पूछा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाधर्मश्चरितः कश्चिद् राजपुत्र्या परंतप।
कारणं किं नु तद् ब्रूहि यत् कृष्णा पतिता भुवि॥५॥
मूलम्
नाधर्मश्चरितः कश्चिद् राजपुत्र्या परंतप।
कारणं किं नु तद् ब्रूहि यत् कृष्णा पतिता भुवि॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतप! राजकुमारी द्रौपदीने कभी कोई पाप नहीं किया था। फिर बताइये, कौन-सा कारण है, जिससे वह नीचे गिर गयी?’॥५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षपातो महानस्या विशेषेण धनंजये।
तस्यैतत् फलमद्यैषा भुङ्क्ते पुरुषसत्तम ॥ ६ ॥
मूलम्
पक्षपातो महानस्या विशेषेण धनंजये।
तस्यैतत् फलमद्यैषा भुङ्क्ते पुरुषसत्तम ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पुरुषप्रवर! उसके मनमें अर्जुनके प्रति विशेष पक्षपात था; आज यह उसीका फल भोग रही है॥६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वानवेक्ष्यैनां ययौ भरतसत्तमः ।
समाधाय मनो धीमान् धर्मात्मा पुरुषर्षभः ॥ ७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वानवेक्ष्यैनां ययौ भरतसत्तमः ।
समाधाय मनो धीमान् धर्मात्मा पुरुषर्षभः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर उसकी ओर देखे बिना ही भरतभूषण नरश्रेष्ठ बुद्धिमान् धर्मात्मा युधिष्ठिर मनको एकाग्र करके आगे बढ़ गये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवस्ततो विद्वान् निपपात महीतले।
तं चापि पतितं दृष्ट्वा भीमो राजानमब्रवीत् ॥ ८ ॥
मूलम्
सहदेवस्ततो विद्वान् निपपात महीतले।
तं चापि पतितं दृष्ट्वा भीमो राजानमब्रवीत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
थोड़ी देर बाद विद्वान् सहदेव भी धरतीपर गिर पड़े। उन्हें भी गिरा देख भीमसेनने राजासे पूछा—॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽयमस्मासु सर्वेषु शुश्रूषुरनहंकृतः ।
सोऽयं माद्रवतीपुत्रः कस्मान् निपतितो भुवि ॥ ९ ॥
मूलम्
योऽयमस्मासु सर्वेषु शुश्रूषुरनहंकृतः ।
सोऽयं माद्रवतीपुत्रः कस्मान् निपतितो भुवि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! जो सदा हमलोगोंकी सेवा किया करता था और जिसमें अहंकारका नाम भी नहीं था, यह माद्रीनन्दन सहदेव किस दोषके कारण धराशायी हुआ है?’॥९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनः सदृशं प्राज्ञं नैषोऽमन्यत कंचन।
तेन दोषेण पतितस्तस्मादेष नृपात्मजः ॥ १० ॥
मूलम्
आत्मनः सदृशं प्राज्ञं नैषोऽमन्यत कंचन।
तेन दोषेण पतितस्तस्मादेष नृपात्मजः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— यह राजकुमार सहदेव किसीको अपने-जैसा विद्वान् या बुद्धिमान् नहीं समझता था; अतः उसी दोषसे इसका पतन हुआ है॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तं समुत्सृज्य सहदेवं ययौ तदा।
भ्रातृभिः सह कौन्तेयः शुना चैव युधिष्ठिरः ॥ ११ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तं समुत्सृज्य सहदेवं ययौ तदा।
भ्रातृभिः सह कौन्तेयः शुना चैव युधिष्ठिरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर सहदेवको भी छोड़कर शेष भाइयों और एक कुत्तेके साथ कुन्तीकुमार युधिष्ठिर आगे बढ़ गये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णां निपतितां दृष्ट्वा सहदेवं च पाण्डवम्।
आर्तो बन्धुप्रियः शूरो नकुलो निपपात ह ॥ १२ ॥
मूलम्
कृष्णां निपतितां दृष्ट्वा सहदेवं च पाण्डवम्।
आर्तो बन्धुप्रियः शूरो नकुलो निपपात ह ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णा और पाण्डव सहदेवको गिरे देख शोकसे आर्त हो बन्धुप्रेमी शूरवीर नकुल भी गिर पड़े॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् निपतिते वीरे नकुले चारुदर्शने।
पुनरेव तदा भीमो राजानमिदमब्रवीत् ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्मिन् निपतिते वीरे नकुले चारुदर्शने।
पुनरेव तदा भीमो राजानमिदमब्रवीत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनोहर दिखायी देनेवाले वीर नकुलके धराशायी होनेपर भीमसेनने पुनः राजा युधिष्ठिरसे यह प्रश्न किया—॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽयमक्षतधर्मात्मा भ्राता वचनकारकः ।
रूपेणाप्रतिमो लोके नकुलः पतितो भुवि ॥ १४ ॥
मूलम्
योऽयमक्षतधर्मात्मा भ्राता वचनकारकः ।
रूपेणाप्रतिमो लोके नकुलः पतितो भुवि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! संसारमें जिसके रूपकी समानता करनेवाला कोई नहीं था तो भी जिसने कभी अपने धर्ममें त्रुटि नहीं आने दी तथा जो सदा हमलोगोंकी आज्ञाका पालन करता था, वह हमारा प्रियबन्धु नकुल क्यों पृथ्वीपर गिरा है?’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो भीमसेनेन प्रत्युवाच युधिष्ठिरः।
नकुलं प्रति धर्मात्मा सर्वबुद्धिमतां वरः ॥ १५ ॥
मूलम्
इत्युक्तो भीमसेनेन प्रत्युवाच युधिष्ठिरः।
नकुलं प्रति धर्मात्मा सर्वबुद्धिमतां वरः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनके इस प्रकार पूछनेपर समस्त बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ धर्मात्मा युधिष्ठिरने नकुलके विषयमें इस प्रकार उत्तर दिया—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपेण मत्समो नास्ति कश्चिदित्यस्य दर्शनम्।
अधिकश्चाहमेवैक इत्यस्य मनसि स्थितम् ॥ १६ ॥
नकुलः पतितस्तस्मादागच्छ त्वं वृकोदर।
यस्य यद् विहितं वीर सोऽवश्यं तदुपाश्नुते ॥ १७ ॥
मूलम्
रूपेण मत्समो नास्ति कश्चिदित्यस्य दर्शनम्।
अधिकश्चाहमेवैक इत्यस्य मनसि स्थितम् ॥ १६ ॥
नकुलः पतितस्तस्मादागच्छ त्वं वृकोदर।
यस्य यद् विहितं वीर सोऽवश्यं तदुपाश्नुते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेन! नकुलकी दृष्टि सदा ऐसी रही है कि रूपमें मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। इसके मनमें यही बात बैठी रहती थी कि ‘एकमात्र मैं ही सबसे अधिक रूपवान् हूँ।’ इसीलिये नकुल नीचे गिरा है। तुम आओ। वीर! जिसकी जैसी करनी है वह उसका फल अवश्य भोगता है॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु प्रपतितान् दृष्ट्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः।
पपात शोकसन्तप्तस्ततो नु परवीरहा ॥ १८ ॥
मूलम्
तांस्तु प्रपतितान् दृष्ट्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः।
पपात शोकसन्तप्तस्ततो नु परवीरहा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी तथा नकुल और सहदेव तीनों गिर गये, यह देखकर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले श्वेत-वाहन पाण्डुपुत्र अर्जुन शोकसे संतप्त हो स्वयं भी गिर पड़े॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्रे पतिते शक्रतेजसि।
म्रियमाणे दुराधर्षे भीमो राजानमब्रवीत् ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्रे पतिते शक्रतेजसि।
म्रियमाणे दुराधर्षे भीमो राजानमब्रवीत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके समान तेजस्वी दुर्धर्ष वीर पुरुषसिंह अर्जुन जब पृथ्वीपर गिरकर प्राणत्याग करने लगे उस समय भीमसेनने राजा युधिष्ठिरसे पूछा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृतं न स्मराम्यस्य स्वैरेष्वपि महात्मनः।
अथ कस्य विकारोऽयं येनायं पतितो भुवि ॥ २० ॥
मूलम्
अनृतं न स्मराम्यस्य स्वैरेष्वपि महात्मनः।
अथ कस्य विकारोऽयं येनायं पतितो भुवि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! महात्मा अर्जुन कभी परिहासमें भी झूठ बोले हों—ऐसा मुझे याद नहीं आता। फिर यह किस कर्मका फल है जिससे इन्हें पृथ्वीपर गिरना पड़ा?’॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाह्ना निर्दहेयं वै शत्रूनित्यर्जुनोऽब्रवीत्।
न च तत् कृतवानेष शूरमानी ततोऽपतत् ॥ २१ ॥
मूलम्
एकाह्ना निर्दहेयं वै शत्रूनित्यर्जुनोऽब्रवीत्।
न च तत् कृतवानेष शूरमानी ततोऽपतत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— अर्जुनको अपनी शूरताका अभिमान था। इन्होंने कहा था कि ‘मैं एक ही दिनमें शत्रुओंको भस्म कर डालूँगा’; किंतु ऐसा किया नहीं; इसीसे आज इन्हें धराशायी होना पड़ा है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमेने धनुर्ग्राहानेष सर्वांश्च फाल्गुनः।
तथा चैतन्न तु तथा कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ २२ ॥
मूलम्
अवमेने धनुर्ग्राहानेष सर्वांश्च फाल्गुनः।
तथा चैतन्न तु तथा कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने सम्पूर्ण धनुर्धरोंका अपमान भी किया था; अतः अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको ऐसा नहीं करना चाहिये॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्रस्थितो राजा भीमोऽथ निपपात ह।
पतितश्चाब्रवीद् भीमो धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ २३ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्रस्थितो राजा भीमोऽथ निपपात ह।
पतितश्चाब्रवीद् भीमो धर्मराजं युधिष्ठिरम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यों कहकर राजा युधिष्ठिर आगे बढ़ गये। इतनेहीमें भीमसेन भी गिर पड़े। गिरनेके साथ ही भीमने धर्मराज युधिष्ठिरको पुकारकर पूछा॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो राजन्नवेक्षस्व पतितोऽहं प्रियस्तव।
किं निमित्तं च पतनं ब्रूहि मे यदि वेत्थ ह॥२४॥
मूलम्
भो भो राजन्नवेक्षस्व पतितोऽहं प्रियस्तव।
किं निमित्तं च पतनं ब्रूहि मे यदि वेत्थ ह॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! जरा मेरी ओर तो देखिये, मैं आपका प्रिय भीमसेन यहाँ गिर पड़ा हूँ। यदि जानते हों तो बताइये, मेरे इस पतनका क्या कारण है?’॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिभुक्तं च भवता प्राणेन च विकत्थसे।
अनवेक्ष्य परं पार्थ तेनासि पतितः क्षितौ ॥ २५ ॥
मूलम्
अतिभुक्तं च भवता प्राणेन च विकत्थसे।
अनवेक्ष्य परं पार्थ तेनासि पतितः क्षितौ ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— भीमसेन! तुम बहुत खाते थे और दूसरोंको कुछ भी न समझकर अपने बलकी डींग हाँका करते थे; इसीसे तुम्हें भी धराशायी होना पड़ा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तं महाबाहुर्जगामानवलोकयन् ।
श्वाप्येकोऽनुययौ यस्ते बहुशः कीर्तितो मया ॥ २६ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तं महाबाहुर्जगामानवलोकयन् ।
श्वाप्येकोऽनुययौ यस्ते बहुशः कीर्तितो मया ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कहकर महाबाहु युधिष्ठिर उनकी ओर देखे बिना ही आगे चल दिये। एक कुत्ता भी बराबर उनका अनुसरण करता रहा जिसकी चर्चा मैंने तुमसे अनेक बार की है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते महाप्रस्थानिके पर्वणि द्रौपद्यादिपतने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत महाप्रस्थानिकपर्वमें द्रौपदी आदिका पतनविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥