भागसूचना
अष्टमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुन और व्यासजीकी बातचीत
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविशन्नर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः ।
ददर्शासीनमेकान्ते मुनिं सत्यवतीसुतम् ॥ १ ॥
मूलम्
प्रविशन्नर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः ।
ददर्शासीनमेकान्ते मुनिं सत्यवतीसुतम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! सत्यवादी व्यासजीके आश्रममें प्रवेश करके अर्जुनने देखा कि सत्यवतीनन्दन मुनिवर व्यास एकान्तमें बैठे हुए हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम्।
अर्जुनोऽस्मीति नामास्मै निवेद्याभ्यवदत् ततः ॥ २ ॥
मूलम्
स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम्।
अर्जुनोऽस्मीति नामास्मै निवेद्याभ्यवदत् ततः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् व्रतधारी तथा धर्मके ज्ञाता व्यासजीके पास पहुँचकर ‘मैं अर्जुन हूँ’ ऐसा कहते हुए धनंजयने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर वे उनके पास ही खड़े हो गये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वागतं तेऽस्त्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः।
आस्यतामिति होवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः ॥ ३ ॥
मूलम्
स्वागतं तेऽस्त्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः।
आस्यतामिति होवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय प्रसन्नचित्त हुए महामुनि सत्यवती-नन्दन व्यासने अर्जुनसे कहा—‘बेटा! तुम्हारा स्वागत है; आओ यहाँ बैठो’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
निर्विण्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनः पुनः।
निर्विण्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनका मन अशान्त था। वे बारंबार लंबी साँस खींच रहे थे। उनका चित्त खिन्न एवं विरक्त हो चुका था। उन्हें इस अवस्थामें देखकर व्यासजीने पूछा—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नखकेशदशाकुम्भवारिणा किं समुक्षितः ।
आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया ॥ ५ ॥
मूलम्
नखकेशदशाकुम्भवारिणा किं समुक्षितः ।
आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पार्थ! क्या तुमने नख, बाल अथवा अधोवस्त्र (धोती)-की कोर पड़ जानेसे अशुद्ध हुए घड़ेके जलसे स्नान कर लिया है? अथवा तुमने रजस्वला स्त्रीसे समागम या किसी ब्राह्मणका वध तो नहीं किया है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धे पराजितो वासि गतश्रीरिव लक्ष्यसे।
न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ ॥ ६ ॥
श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षिप्रमाख्यातुमर्हसि।
मूलम्
युद्धे पराजितो वासि गतश्रीरिव लक्ष्यसे।
न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ ॥ ६ ॥
श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षिप्रमाख्यातुमर्हसि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कहीं तुम युद्धमें परास्त तो नहीं हो गये? क्योंकि श्रीहीन-से दिखायी देते हो। भरतश्रेष्ठ! तुम कभी पराजित हुए हो—यह मैं नहीं जानता; फिर तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है? पार्थ! यदि मेरे सुननेयोग्य हो तो अपनी इस मलिनताका कारण मुझे शीघ्र बताओ’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स मेघवपुः श्रीमान् बृहत्पङ्कजलोचनः ॥ ७ ॥
स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।
मूलम्
यः स मेघवपुः श्रीमान् बृहत्पङ्कजलोचनः ॥ ७ ॥
स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— भगवन्! जिनका सुन्दर विग्रह मेघके समान श्याम था और जिनके नेत्र विशाल कमलदलके समान शोभा पाते थे वे श्रीमान् भगवान् कृष्ण बलरामजीके साथ देहत्याग करके अपने परम धामको पधार गये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तद्वाक्यस्पर्शनालोकसुखं त्वमृतसंनिभम् ।
संस्मृत्य देवदेवस्य प्रमुह्याम्यमृतात्मनः ॥)
मूलम्
(तद्वाक्यस्पर्शनालोकसुखं त्वमृतसंनिभम् ।
संस्मृत्य देवदेवस्य प्रमुह्याम्यमृतात्मनः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके भी देवता, अमृतस्वरूप श्रीकृष्णके मधुर वचनोंको सुनने, उनके श्रीअंगोंका स्पर्श करने और उन्हें देखनेका जो अमृतके समान सुख था, उसे बार-बार याद करके मैं अपनी सुध-बुध खो बैठता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मौसले वृष्णिवीराणां विनाशो ब्रह्मशापजः ॥ ८ ॥
बभूव वीरान्तकरः प्रभासे लोमहर्षणः।
मूलम्
मौसले वृष्णिवीराणां विनाशो ब्रह्मशापजः ॥ ८ ॥
बभूव वीरान्तकरः प्रभासे लोमहर्षणः।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंके शापसे मौसलयुद्धमें वृष्णिवंशी वीरोंका विनाश हो गया। बड़े-बड़े वीरोंका अन्त कर देनेवाला वह रोमाञ्चकारी संग्राम प्रभासक्षेत्रमें घटित हुआ था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते शूरा महात्मानः सिंहदर्पा महाबलाः ॥ ९ ॥
भोजवृष्ण्यन्धका ब्रह्मन्नन्योन्यं तैर्हतं युधि।
मूलम्
एते शूरा महात्मानः सिंहदर्पा महाबलाः ॥ ९ ॥
भोजवृष्ण्यन्धका ब्रह्मन्नन्योन्यं तैर्हतं युधि।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके ये महा-मनस्वी शूरवीर सिंहके समान दर्पशाली और महान् बलवान् थे; परन्तु वे गृहयुद्धमें एक-दूसरेके द्वारा मार डाले गये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः ॥ १० ॥
त एरकाभिर्निहताः पश्य कालस्य पर्ययम्।
मूलम्
गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः ॥ १० ॥
त एरकाभिर्निहताः पश्य कालस्य पर्ययम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो गदा, परिघ और शक्तियोंकी मार सह सकते थे वे परिघके समान सुदृढ़ बाहोंवाले यदुवंशी एरका नामक तृणविशेषके द्वारा मारे गये—यह समयका उलट-फेर तो देखिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतं पञ्चशतं तेषां सहस्रं बाहुशालिनाम् ॥ ११ ॥
निधनं समनुप्राप्तं समासाद्येतरेतरम् ।
मूलम्
हतं पञ्चशतं तेषां सहस्रं बाहुशालिनाम् ॥ ११ ॥
निधनं समनुप्राप्तं समासाद्येतरेतरम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
अपने बाहुबलसे शोभा पानेवाले पाँच लाख वीर आपसमें ही लड़-भिड़कर मर मिटे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनः पुनर्न मृष्यामि विनाशममितौजसाम् ॥ १२ ॥
चिन्तयानो यदूनां च कृष्णस्य च यशस्विनः।
शोषणं सागरस्येव पर्वतस्येव चालनम् ॥ १३ ॥
नभसः पतनं चैव शैत्यमग्नेस्तथैव च।
अश्रद्धेयमहं मन्ये विनाशं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १४ ॥
मूलम्
पुनः पुनर्न मृष्यामि विनाशममितौजसाम् ॥ १२ ॥
चिन्तयानो यदूनां च कृष्णस्य च यशस्विनः।
शोषणं सागरस्येव पर्वतस्येव चालनम् ॥ १३ ॥
नभसः पतनं चैव शैत्यमग्नेस्तथैव च।
अश्रद्धेयमहं मन्ये विनाशं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अमित तेजस्वी वीरोंके विनाशका दुःख मुझसे किसी तरह सहा नहीं जाता। मैं बार-बार उस दुःखसे व्यथित हो जाता हूँ। यशस्वी श्रीकृष्ण और यदुवंशियोंके परलोक-गमनकी बात सोचकर तो मुझे ऐसा जान पड़ता है, मानो समुद्र सूख गया, पर्वत हिलने लगे, आकाश फट पड़ा और अग्निके स्वभावमें शीतलता आ गयी। शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले श्रीकृष्ण भी मृत्युके अधीन हुए होंगे—यह बात विश्वासके योग्य नहीं है। मैं इसे नहीं मानता॥१२—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चेह स्थातुमिच्छामि लोके कृष्णविनाकृतः।
इतः कष्टतरं चान्यच्छृणु तद् वै तपोधन ॥ १५ ॥
मूलम्
न चेह स्थातुमिच्छामि लोके कृष्णविनाकृतः।
इतः कष्टतरं चान्यच्छृणु तद् वै तपोधन ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर चले गये। मैं इस संसारमें उनके बिना नहीं रहना चाहता। तपोधन! इसके सिवा जो दूसरी घटना घटित हुई है वह इससे भी अधिक कष्टदायक है। आप इसे सुनिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मुहुः।
पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन् सहस्रशः ॥ १६ ॥
आभीरैरनुसृत्याजौ हृताः पञ्चनदालयैः ।
मूलम्
मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मुहुः।
पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन् सहस्रशः ॥ १६ ॥
आभीरैरनुसृत्याजौ हृताः पञ्चनदालयैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जब मैं उस घटनाका चिन्तन करता हूँ तब बारंबार मेरा हृदय विदीर्ण होने लगता है। ब्रह्मन्! पंजाबके अहीरोंने मुझसे युद्ध ठानकर मेरे देखते-देखते वृष्णिवंशकी हजारों स्त्रियोंका अपहरण कर लिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुरादाय तत्राहं नाशकं तस्य पूरणे ॥ १७ ॥
यथा पुरा च मे वीर्यं भुजयोर्न तथाभवत्।
मूलम्
धनुरादाय तत्राहं नाशकं तस्य पूरणे ॥ १७ ॥
यथा पुरा च मे वीर्यं भुजयोर्न तथाभवत्।
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने धनुष लेकर उनका सामना करना चाहा परंतु मैं उसे चढ़ा न सका। मेरी भुजाओंमें पहले-जैसा बल था वैसा अब नहीं रहा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्राणि मे प्रणष्टानि विविधानि महामुने ॥ १८ ॥
शराश्च क्षयमापन्नाः क्षणेनैव समन्ततः।
मूलम्
अस्त्राणि मे प्रणष्टानि विविधानि महामुने ॥ १८ ॥
शराश्च क्षयमापन्नाः क्षणेनैव समन्ततः।
अनुवाद (हिन्दी)
महामुने! मेरा नाना प्रकारके अस्त्रोंका ज्ञान विलुप्त हो गया। मेरे सभी बाण सब ओर जाकर क्षणभरमें नष्ट हो गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषश्चाप्रमेयात्मा शङ्खचक्रगदाधरः ॥ १९ ॥
चतुर्भुजः पीतवासाः श्यामः पद्मदलेक्षणः।
यश्च याति पुरस्तान्मे रथस्य सुमहाद्युतिः ॥ २० ॥
प्रदहन् रिपुसैन्यानि न पश्याम्यहमच्युतम्।
मूलम्
पुरुषश्चाप्रमेयात्मा शङ्खचक्रगदाधरः ॥ १९ ॥
चतुर्भुजः पीतवासाः श्यामः पद्मदलेक्षणः।
यश्च याति पुरस्तान्मे रथस्य सुमहाद्युतिः ॥ २० ॥
प्रदहन् रिपुसैन्यानि न पश्याम्यहमच्युतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका स्वरूप अप्रमेय है, जो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले, चतुर्भुज, पीताम्बरधारी, श्यामसुन्दर तथा कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले हैं, जो महातेजस्वी प्रभु शत्रुओंकी सेनाओंको भस्म करते हुए मेरे रथके आगे-आगे चलते थे, उन्हीं भगवान् अच्युतको अब मैं नहीं देख पाता हूँ॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन पूर्वं प्रदग्धानि शत्रुसैन्यानि तेजसा ॥ २१ ॥
शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैरहं पश्चाच्च नाशयम् ।
तमपश्यन् विषीदामि घूर्णामीव च सत्तम ॥ २२ ॥
मूलम्
येन पूर्वं प्रदग्धानि शत्रुसैन्यानि तेजसा ॥ २१ ॥
शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैरहं पश्चाच्च नाशयम् ।
तमपश्यन् विषीदामि घूर्णामीव च सत्तम ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुशिरोमणे! जो पहले स्वयं ही अपने तेजसे शत्रुसेनाओंको दग्ध कर देते थे, उसके बाद मैं गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा उन शत्रुओंका नाश करता था, उन्हीं भगवान्को आज न देखनेके कारण मैं विषादमें डूबा हुआ हूँ। मुझे चक्कर-सा आ रहा है॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिनिर्विण्णचेताश्च शान्तिं नोपलभेऽपि च।
(देवकीनन्दनं देवं वासुदेवमजं प्रभुम्।)
विना जनार्दनं वीरं नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २३ ॥
मूलम्
परिनिर्विण्णचेताश्च शान्तिं नोपलभेऽपि च।
(देवकीनन्दनं देवं वासुदेवमजं प्रभुम्।)
विना जनार्दनं वीरं नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे चित्तमें निर्वेद छा गया है। मुझे शान्ति नहीं मिलती है। मैं देवस्वरूप, अजन्मा, भगवान् देवकीनन्दन वासुदेव वीर जनार्दनके बिना अब जीवित रहना नहीं चाहता॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैव हि गतं विष्णुं ममापि मुमुहुर्दिशः।
प्रणष्टज्ञातिवीर्यस्य शून्यस्य परिधावतः ॥ २४ ॥
उपदेष्टुं मम श्रेयो भवानर्हति सत्तम।
मूलम्
श्रुत्वैव हि गतं विष्णुं ममापि मुमुहुर्दिशः।
प्रणष्टज्ञातिवीर्यस्य शून्यस्य परिधावतः ॥ २४ ॥
उपदेष्टुं मम श्रेयो भवानर्हति सत्तम।
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये, यह बात सुनते ही मुझे सम्पूर्ण दिशाओंका ज्ञान भूल जाता है। मेरे भी जाति-भाइयोंका नाश तो पहले ही हो गया था, अब मेरा पराक्रम भी नष्ट हो गया; अतः शून्यहृदय होकर इधर-उधर दौड़ लगा रहा हूँ। संतोंमें श्रेष्ठ महर्षे! आप कृपा करके मुझे यह उपदेश दें कि मेरा कल्याण कैसे होगा?॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(देवांशा देवदेवेन सम्मतास्ते गताः सह।
धर्मव्यवस्थारक्षार्थं देवेन समुपेक्षिताः ॥)
मूलम्
(देवांशा देवदेवेन सम्मतास्ते गताः सह।
धर्मव्यवस्थारक्षार्थं देवेन समुपेक्षिताः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी बोले— कुन्तीकुमार! वे समस्त यदुवंशी देवताओंके अंश थे। वे देवाधिदेव श्रीकृष्णके साथ ही यहाँ आये थे और साथ ही चले गये। उनके रहनेसे धर्मकी मर्यादाके भंग होनेका डर था; अतः भगवान् श्रीकृष्णने धर्म-व्यवस्थाकी रक्षाके लिये उन मरते हुए यादवोंकी उपेक्षा कर दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मशापविनिर्दग्धा वृष्ण्यन्धकमहारथाः ॥ २५ ॥
विनष्टाः कुरुशार्दूल न तान् शोचितुमर्हसि।
भवितव्यं तथा तच्च दिष्टमेतन्महात्मनाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
ब्रह्मशापविनिर्दग्धा वृष्ण्यन्धकमहारथाः ॥ २५ ॥
विनष्टाः कुरुशार्दूल न तान् शोचितुमर्हसि।
भवितव्यं तथा तच्च दिष्टमेतन्महात्मनाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! वृष्णि और अन्धकवंशके महारथी ब्राह्मणोंके शापसे दग्ध होकर नष्ट हुए हैं; अतः तुम उनके लिये शोक न करो। उन महामनस्वी वीरोंकी भवितव्यता ही ऐसी थी। उनका प्रारब्ध ही वैसा बन गया था॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपेक्षितं च कृष्णेन शक्तेनापि व्यपोहितुम्।
त्रैलोक्यमपि गोविन्दः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् ॥ २७ ॥
प्रसहेदन्यथाकर्तुं कुतः शापं महात्मनाम्।
मूलम्
उपेक्षितं च कृष्णेन शक्तेनापि व्यपोहितुम्।
त्रैलोक्यमपि गोविन्दः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् ॥ २७ ॥
प्रसहेदन्यथाकर्तुं कुतः शापं महात्मनाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण उनके संकटको टाल सकते थे तथापि उन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी। श्रीकृष्ण तो सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंकी गतिको पलट सकते हैं, फिर उन महामनस्वी वीरोंको प्राप्त हुए शापको पलट देना उनके लिये कौन बड़ी बात थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(स्त्रियश्च ताः पुरा शप्ताः प्रहासकुपितेन वै।
अष्टावक्रेण मुनिना तदर्थं त्वद्बलक्षयः॥)
मूलम्
(स्त्रियश्च ताः पुरा शप्ताः प्रहासकुपितेन वै।
अष्टावक्रेण मुनिना तदर्थं त्वद्बलक्षयः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
(तुम्हारे देखते-देखते स्त्रियोंका जो अपहरण हुआ है, उसमें भी देवताओंका एक रहस्य है।) वे स्त्रियाँ पूर्वजन्ममें अप्सराएँ थीं। उन्होंने अष्टावक्र मुनिके रूपका उपहास किया था। मुनिने शाप दिया था (कि ‘तुमलोग मानवी हो जाओ और दस्युओंके हाथमें पड़नेपर तुम्हारा इस शापसे उद्धार होगा।’) इसीलिये तुम्हारे बलका क्षय हुआ (जिससे वे डाकुओंके हाथमें पड़कर उस शापसे छुटकारा पा जायँ), (अब वे अपना पूर्वरूप और स्थान पा चुकी हैं, अतः उनके लिये भी शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथस्य पुरतो याति यः स चक्रगदाधरः ॥ २८ ॥
तव स्नेहात् पुराणर्षिर्वासुदेवश्चतुर्भुजः ।
मूलम्
रथस्य पुरतो याति यः स चक्रगदाधरः ॥ २८ ॥
तव स्नेहात् पुराणर्षिर्वासुदेवश्चतुर्भुजः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्नेहवश तुम्हारे रथके आगे चलते थे (सारथिका काम करते थे), वे वासुदेव कोई साधारण पुरुष नहीं, साक्षात् चक्र-गदाधारी पुरातन ऋषि चतुर्भुज नारायण थे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा भारावतरणं पृथिव्याः पृथुलोचनः ॥ २९ ॥
मोक्षयित्वा तनुं प्राप्तः कृष्णः स्वस्थानमुत्तमम्।
मूलम्
कृत्वा भारावतरणं पृथिव्याः पृथुलोचनः ॥ २९ ॥
मोक्षयित्वा तनुं प्राप्तः कृष्णः स्वस्थानमुत्तमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वे विशाल नेत्रोंवाले श्रीकृष्ण इस पृथ्वीका भार उतारकर शरीर त्याग अपने उत्तम परम धामको जा पहुँचे हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयापीह महत् कर्म देवानां पुरुषर्षभ ॥ ३० ॥
कृतं भीमसहायेन यमाभ्यां च महाभुज।
मूलम्
त्वयापीह महत् कर्म देवानां पुरुषर्षभ ॥ ३० ॥
कृतं भीमसहायेन यमाभ्यां च महाभुज।
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! महाबाहो! तुमने भी भीमसेन और नकुल-सहदेवकी सहायतासे देवताओंका महान् कार्य सिद्ध किया है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतकृत्यांश्च वो मन्ये संसिद्धान् कुरुपुङ्गव ॥ ३१ ॥
गमनं प्राप्तकालं व इदं श्रेयस्करं विभो।
मूलम्
कृतकृत्यांश्च वो मन्ये संसिद्धान् कुरुपुङ्गव ॥ ३१ ॥
गमनं प्राप्तकालं व इदं श्रेयस्करं विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! मैं समझता हूँ कि अब तुमलोगोंने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है। तुम्हें सब प्रकारसे सफलता प्राप्त हो चुकी है। प्रभो! अब तुम्हारे परलोक-गमनका समय आया है और यही तुमलोगोंके लिये श्रेयस्कर है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बुद्धिश्च तेजश्च प्रतिपत्तिश्च भारत ॥ ३२ ॥
भवन्ति भवकालेषु विपद्यन्ते विपर्यये।
मूलम्
एवं बुद्धिश्च तेजश्च प्रतिपत्तिश्च भारत ॥ ३२ ॥
भवन्ति भवकालेषु विपद्यन्ते विपर्यये।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जब उद्भवका समय आता है तब इसी प्रकार मनुष्यकी बुद्धि, तेज और ज्ञानका विकास होता है और जब विपरीत समय उपस्थित होता है तब इन सबका नाश हो जाता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालमूलमिदं सर्वं जगद्बीजं धनंजय ॥ ३३ ॥
काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया।
मूलम्
कालमूलमिदं सर्वं जगद्बीजं धनंजय ॥ ३३ ॥
काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया।
अनुवाद (हिन्दी)
धनंजय! काल ही इन सबकी जड़ है। संसारकी उत्पत्तिका बीज भी काल ही है और काल ही फिर अकस्मात् सबका संहार कर देता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव बलवान् भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः ॥ ३४ ॥
स एवेशश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः।
मूलम्
स एव बलवान् भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः ॥ ३४ ॥
स एवेशश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वही बलवान् होकर फिर दुर्बल हो जाता है और वही एक समय दूसरोंका शासक होकर कालान्तरमें स्वयं दूसरोंका आज्ञापालक हो जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतकृत्यानि चास्त्राणि गतान्यद्य यथागतम् ॥ ३५ ॥
पुनरेष्यन्ति ते हस्ते यदा कालो भविष्यति।
मूलम्
कृतकृत्यानि चास्त्राणि गतान्यद्य यथागतम् ॥ ३५ ॥
पुनरेष्यन्ति ते हस्ते यदा कालो भविष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोजन भी पूरा हो गया है; इसलिये वे जैसे मिले थे वैसे ही चले गये। जब उपयुक्त समय होगा तब वे फिर तुम्हारे हाथमें आयेंगे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालो गन्तुं गतिं मुख्यां भवतामपि भारत ॥ ३६ ॥
एतत् श्रेयो हि वो मन्ये परमं भरतर्षभ।
मूलम्
कालो गन्तुं गतिं मुख्यां भवतामपि भारत ॥ ३६ ॥
एतत् श्रेयो हि वो मन्ये परमं भरतर्षभ।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अब तुमलोगोंके उत्तम गति प्राप्त करनेका समय उपस्थित है। भरतश्रेष्ठ! मुझे इसीमें तुमलोगोंका परम कल्याण जान पड़ता है॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वचनमाज्ञाय व्यासस्यामिततेजसः ॥ ३७ ॥
अनुज्ञातो ययौ पार्थो नगरं नागसाह्वयम्।
मूलम्
एतद् वचनमाज्ञाय व्यासस्यामिततेजसः ॥ ३७ ॥
अनुज्ञातो ययौ पार्थो नगरं नागसाह्वयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अमिततेजस्वी व्यासजीके इस वचनका तत्त्व समझकर अर्जुन उनकी आज्ञा ले हस्तिनापुरको चले गये॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य च पुरीं वीरः समासाद्य युधिष्ठिरम्।
आचष्ट तद् यथावृत्तं वृष्ण्यन्धककुलं प्रति ॥ ३८ ॥
मूलम्
प्रविश्य च पुरीं वीरः समासाद्य युधिष्ठिरम्।
आचष्ट तद् यथावृत्तं वृष्ण्यन्धककुलं प्रति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगरमें प्रवेश करके वीर अर्जुन युधिष्ठिरसे मिले और वृष्णि तथा अन्धकवंशका यथावत् समाचार उन्होंने कह सुनाया॥३८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि व्यासार्जुनसंवादे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसलपर्वमें व्यास और अर्जुनका संवादविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ४१ श्लोक हैं)
॥ मौसलपर्व सम्पूर्ण ॥