००७

भागसूचना

सप्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वसुदेवजी तथा मौसलयुद्धमें मरे हुए यादवोंका अन्त्येष्टि संस्कार करके अर्जुनका द्वारकावासी स्त्री-पुरुषोंको अपने साथ ले जाना, समुद्रका द्वारकाको डुबो देना और मार्गमें अर्जुनपर डाकुओंका आक्रमण, अवशिष्ट यादवोंको अपनी राजधानीमें बसा देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स बीभत्सुर्मातुलेन परंतप।
दुर्मना दीनवदनो वसुदेवमुवाच ह ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स बीभत्सुर्मातुलेन परंतप।
दुर्मना दीनवदनो वसुदेवमुवाच ह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते है— परंतप! अपने मामा वसुदेवजीके ऐसा कहनेपर अर्जुन मन-ही-मन बहुत दुखी हुए। उनका मुख मलिन हो गया। वे वसुदेवजीसे इस प्रकार बोले—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं वृष्णिप्रवीरेण बन्धुभिश्चैव मातुल।
विहीनां पृथिवीं द्रष्टुं शक्यामीह कथंचन ॥ २ ॥

मूलम्

नाहं वृष्णिप्रवीरेण बन्धुभिश्चैव मातुल।
विहीनां पृथिवीं द्रष्टुं शक्यामीह कथंचन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मामाजी! वृष्णिवंशके प्रमुख वीर भगवान् श्रीकृष्ण तथा अपने भाइयोंसे हीन हुई यह पृथ्वी मुझसे अब किसी तरह देखी नहीं जा सकेगी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा च भीमसेनश्च सहदेवश्च पाण्डवः।
नकुलो याज्ञसेनी च षडेकमनसो वयम् ॥ ३ ॥

मूलम्

राजा च भीमसेनश्च सहदेवश्च पाण्डवः।
नकुलो याज्ञसेनी च षडेकमनसो वयम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, पाण्डव सहदेव, नकुल, द्रौपदी तथा मैं—ये छः व्यक्ति एक ही हृदय रखते हैं (इनमेंसे कोई भी अब यहाँ रहना नहीं चाहेगा)॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञः संक्रमणे चापि कालोऽयं वर्तते ध्रुवम्।
तमिमं विद्धि सम्प्राप्तं कालं कालविदां वर ॥ ४ ॥

मूलम्

राज्ञः संक्रमणे चापि कालोऽयं वर्तते ध्रुवम्।
तमिमं विद्धि सम्प्राप्तं कालं कालविदां वर ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा युधिष्ठिरके भी परलोक-गमनका समय निश्चय ही आ गया है। कालज्ञोंमें श्रेष्ठ मामाजी! यह वही काल प्राप्त हुआ है—ऐसा समझें॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा वृष्णिदारास्तु बालं वृद्धं तथैव च।
नयिष्ये परिगृह्याहमिन्द्रप्रस्थमरिंदम ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वथा वृष्णिदारास्तु बालं वृद्धं तथैव च।
नयिष्ये परिगृह्याहमिन्द्रप्रस्थमरिंदम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! अब मैं वृष्णिवंशकी स्त्रियों, बालकों और बूढ़ोंको अपने साथ ले जाकर इन्द्रप्रस्थ पहुँचाऊँगा’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा दारुकमिदं वाक्यमाह धनंजयः।
अमात्यान् वृष्णिवीराणां द्रष्टुमिच्छामि मा चिरम् ॥ ६ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा दारुकमिदं वाक्यमाह धनंजयः।
अमात्यान् वृष्णिवीराणां द्रष्टुमिच्छामि मा चिरम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मामासे यों कहकर अर्जुनने दारुकसे कहा—‘अब मैं वृष्णिवंशी वीरोंके मन्त्रियोंसे शीघ्र मिलना चाहता हूँ’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा वचनं सुधर्मां यादवीं सभाम्।
प्रविवेशार्जुनः शूरः शोचमानो महारथान् ॥ ७ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा वचनं सुधर्मां यादवीं सभाम्।
प्रविवेशार्जुनः शूरः शोचमानो महारथान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर शूरवीर अर्जुन यादव महारथियोंके लिये शोक करते हुए यादवोंकी सुधर्मा नामक सभामें प्रविष्ट हुए॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमासनगतं तत्र सर्वाः प्रकृतयस्तथा।
ब्राह्मणा नैगमास्तत्र परिवार्योपतस्थिरे ॥ ८ ॥

मूलम्

तमासनगतं तत्र सर्वाः प्रकृतयस्तथा।
ब्राह्मणा नैगमास्तत्र परिवार्योपतस्थिरे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ एक सिंहासनपर बैठे हुए अर्जुनके पास मन्त्री आदि समस्त प्रकृतिवर्गके लोग तथा वेदवेत्ता ब्राह्मण आये और उन्हें सब ओरसे घेरकर पास ही बैठ गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् दीनमनसः सर्वान् विमूढान् गतचेतसः।
उवाचेदं वचः काले पार्थो दीनतरस्तथा ॥ ९ ॥

मूलम्

तान् दीनमनसः सर्वान् विमूढान् गतचेतसः।
उवाचेदं वचः काले पार्थो दीनतरस्तथा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके मनमें दीनता छा गयी थी। सभी किंकर्तव्यविमूढ़ एवं अचेत हो रहे थे। अर्जुनकी दशा तो उनसे भी अधिक दयनीय थी। वे उन सभासदोंसे समयोचित वचन बोले—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्रप्रस्थमहं नेष्ये वृष्ण्यन्धकजनं स्वयम्।
इदं तु नगरं सर्वं समुद्रः प्लावयिष्यति ॥ १० ॥
सज्जीकुरुत यानानि रत्नानि विविधानि च।
वज्रोऽयं भवतां राजा शक्रप्रस्थे भविष्यति ॥ ११ ॥

मूलम्

शक्रप्रस्थमहं नेष्ये वृष्ण्यन्धकजनं स्वयम्।
इदं तु नगरं सर्वं समुद्रः प्लावयिष्यति ॥ १० ॥
सज्जीकुरुत यानानि रत्नानि विविधानि च।
वज्रोऽयं भवतां राजा शक्रप्रस्थे भविष्यति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मन्त्रियो! मैं वृष्णि और अन्धकवंशके लोगोंको अपने साथ इन्द्रप्रस्थ ले जाऊँगा; क्योंकि समुद्र अब इस सारे नगरको डुबो देगा; अतः तुमलोग तरह-तरहके वाहन और रत्न लेकर तैयार हो जाओ। इन्द्रप्रस्थमें चलनेपर ये श्रीकृष्ण-पौत्र वज्र तुमलोगोंके राजा बनाये जायँगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तमे दिवसे चैव रवौ विमल उद्‌गते।
बहिर्वत्स्यामहे सर्वे सज्जीभवत मा चिरम् ॥ १२ ॥

मूलम्

सप्तमे दिवसे चैव रवौ विमल उद्‌गते।
बहिर्वत्स्यामहे सर्वे सज्जीभवत मा चिरम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आजके सातवें दिन निर्मल सूर्योदय होते ही हम सब लोग इस नगरसे बाहर हो जायँगे। इसलिये सब लोग शीघ्र तैयार हो जाओ, विलम्ब न करो’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तास्तेन ते सर्वे पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा।
सज्जमाशु ततश्चक्रुः स्वसिद्ध्यर्थं समुत्सुकाः ॥ १३ ॥

मूलम्

इत्युक्तास्तेन ते सर्वे पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा।
सज्जमाशु ततश्चक्रुः स्वसिद्ध्यर्थं समुत्सुकाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनायास ही महान् कर्म करनेवाले अर्जुनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर समस्त मन्त्रियोंने अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये अत्यन्त उत्सुक होकर शीघ्र ही तैयारी आरम्भ कर दी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां रात्रिमवसत् पार्थः केशवस्य निवेशने।
महता शोकमोहेन सहसाभिपरिप्लुतः ॥ १४ ॥

मूलम्

तां रात्रिमवसत् पार्थः केशवस्य निवेशने।
महता शोकमोहेन सहसाभिपरिप्लुतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णके महलमें ही उस रातको निवास किया। वे वहाँ पहुँचते ही सहसा महान् शोक और मोहमें डूब गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वोभूतेऽथ ततः शौरिर्वसुदेवः प्रतापवान्।
युक्त्वाऽऽत्मानं महातेजा जगाम गतिमुत्तमाम् ॥ १५ ॥

मूलम्

श्वोभूतेऽथ ततः शौरिर्वसुदेवः प्रतापवान्।
युक्त्वाऽऽत्मानं महातेजा जगाम गतिमुत्तमाम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबेरा होते ही महातेजस्वी शूरनन्दन प्रतापी वसुदेवजीने अपने चित्तको परमात्मामें लगाकर योगके द्वारा उत्तम गति प्राप्त की॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शब्दो महानासीद् वसुदेवनिवेशने।
दारुणः क्रोशतीनां च रुदतीनां च योषिताम् ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः शब्दो महानासीद् वसुदेवनिवेशने।
दारुणः क्रोशतीनां च रुदतीनां च योषिताम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो वसुदेवजीके महलमें बड़ा भारी कुहराम मचा। रोती-चिल्लाती हुई स्त्रियोंका आर्तनाद बड़ा भयंकर प्रतीत होता था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकीर्णमूर्धजाः सर्वा विमुक्ताभरणस्रजः ।
उरांसि पाणिभिर्घ्नन्त्यो व्यलपन् करुणं स्त्रियः ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रकीर्णमूर्धजाः सर्वा विमुक्ताभरणस्रजः ।
उरांसि पाणिभिर्घ्नन्त्यो व्यलपन् करुणं स्त्रियः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके बाल खुले हुए थे। उन्होंने आभूषण और मालाएँ तोड़कर फेंक दी थीं और वे सारी स्त्रियाँ अपने हाथोंसे छाती पीटती हुई करुणाजनक विलाप कर रही थीं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा।
अन्वारोहन्त च तदा भर्तारं योषितां वराः ॥ १८ ॥

मूलम्

तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा।
अन्वारोहन्त च तदा भर्तारं योषितां वराः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युवतियोंमें श्रेष्ठ देवकी, भद्रा, रोहिणी तथा मदिरा—ये सब-की-सब अपने पतिके साथ चितापर आरूढ़ होनेको उद्यत हो गयीं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शौरिं नृयुक्तेन बहुमूल्येन भारत।
यानेन महता पार्थो बहिर्निष्क्रामयत् तदा ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः शौरिं नृयुक्तेन बहुमूल्येन भारत।
यानेन महता पार्थो बहिर्निष्क्रामयत् तदा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर अर्जुनने एक बहुमूल्य विमान सजाकर उसपर वसुदेवजीके शवको सुलाया और मनुष्योंके कंधोंपर उठवाकर वे उसे नगरसे बाहर ले गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमन्वयुस्तत्र तत्र दुःखशोकसमन्विताः ।
द्वारकावासिनः सर्वे पौरजानपदा हिताः ॥ २० ॥

मूलम्

तमन्वयुस्तत्र तत्र दुःखशोकसमन्विताः ।
द्वारकावासिनः सर्वे पौरजानपदा हिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय समस्त द्वारकावासी तथा आनर्त जनपदके लोग जो यादवोंके हितैषी थे, वहाँ दुःख-शोकमें मग्न होकर वसुदेवजीके शवके पीछे-पीछे गये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याश्वमेधिकं छत्रं दीप्यमानाश्च पावकाः।
पुरस्तात् तस्य यानस्य याजकाश्च ततो ययुः ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्याश्वमेधिकं छत्रं दीप्यमानाश्च पावकाः।
पुरस्तात् तस्य यानस्य याजकाश्च ततो ययुः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी अरथीके आगे-आगे अश्वमेध-यज्ञमें उपयोग किया हुआ छत्र तथा अग्निहोत्रकी प्रज्वलित अग्नि लिये याजक ब्राह्मण चल रहे थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजग्मुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलंकृताः।
स्त्रीसहस्रैः परिवृता वधूभिश्च सहस्रशः ॥ २२ ॥

मूलम्

अनुजग्मुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलंकृताः।
स्त्रीसहस्रैः परिवृता वधूभिश्च सहस्रशः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर वसुदेवजीकी पत्नियाँ वस्त्र और आभूषणोंसे सज-धजकर हजारों पुत्रवधुओं तथा अन्य स्त्रियोंके साथ अपने पतिकी अरथीके पीछे-पीछे जा रही थीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु देशः प्रियस्तस्य जीवतोऽभून्महात्मनः।
तत्रैनमुपसंकल्प्य पितृमेधं प्रचक्रिरे ॥ २३ ॥

मूलम्

यस्तु देशः प्रियस्तस्य जीवतोऽभून्महात्मनः।
तत्रैनमुपसंकल्प्य पितृमेधं प्रचक्रिरे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा वसुदेवजीको अपने जीवनकालमें जो स्थान विशेष प्रिय था, वहीं ले जाकर अर्जुन आदिने उनका पितृमेधकर्म (दाह-संस्कार) किया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं वराङ्गनाः।
ततोऽन्वारुरुहुः पत्न्यश्चतस्रः पतिलोकगाः ॥ २४ ॥

मूलम्

तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं वराङ्गनाः।
ततोऽन्वारुरुहुः पत्न्यश्चतस्रः पतिलोकगाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चिताकी प्रज्वलित अग्निमें सोये हुए वीर शूरपुत्र वसुदेवजीके साथ उनकी पूर्वोक्त चारों पत्नियाँ भी चितापर जा बैठीं और उन्हींके साथ भस्म हो पतिलोकको प्राप्त हुईं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वै चतसृभिः स्त्रीभिरन्वितं पाण्डुनन्दनः।
अदाहयच्चन्दनैश्च गन्धैरुच्चावचैरपि ॥ २५ ॥

मूलम्

तं वै चतसृभिः स्त्रीभिरन्वितं पाण्डुनन्दनः।
अदाहयच्चन्दनैश्च गन्धैरुच्चावचैरपि ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों पत्नियोंसे संयुक्त हुए वसुदेवजीके शवका पाण्डुनन्दन अर्जुनने चन्दनकी लकड़ियों तथा नाना प्रकारके सुगन्धित पदार्थोंद्वारा दाह किया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रादुरभूच्छब्दः समिद्धस्य विभावसोः।
सामगानां च निर्घोषो नराणां रुदतामपि ॥ २६ ॥

मूलम्

ततः प्रादुरभूच्छब्दः समिद्धस्य विभावसोः।
सामगानां च निर्घोषो नराणां रुदतामपि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय प्रज्वलित अग्निका चट-चट शब्द, सामगान करनेवाले ब्राह्मणोंके वेदमन्त्रोच्चारणका गम्भीर घोष तथा रोते हुए मनुष्योंका आर्तनाद एक साथ ही प्रकट हुआ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वज्रप्रधानास्ते वृष्ण्यन्धककुमारकाः ।
सर्वे चैवोदकं चक्रुः स्त्रियश्चैव महात्मनः ॥ २७ ॥

मूलम्

ततो वज्रप्रधानास्ते वृष्ण्यन्धककुमारकाः ।
सर्वे चैवोदकं चक्रुः स्त्रियश्चैव महात्मनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वज्र आदि वृष्णि और अन्धकवंशके कुमारों तथा स्त्रियोंने महात्मा वसुदेवजीको जलांजलि दी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलुप्तधर्मस्तं धर्मं कारयित्वा स फाल्गुनः।
जगाम वृष्णयो यत्र विनष्टा भरतर्षभ ॥ २८ ॥

मूलम्

अलुप्तधर्मस्तं धर्मं कारयित्वा स फाल्गुनः।
जगाम वृष्णयो यत्र विनष्टा भरतर्षभ ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! अर्जुनने कभी धर्मका लोप नहीं किया था। वह धर्मकृत्य पूर्ण कराकर अर्जुन उस स्थानपर गये जहाँ वृष्णियोंका संहार हुआ था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तान्‌ दृष्ट्वा निपतितान् कदने भृशदुःखितः।
बभूवातीव कौरव्यः प्राप्तकालं चकार ह ॥ २९ ॥
यथा प्रधानतश्चैव चक्रे सर्वास्तथा क्रियाः।
ये हता ब्रह्मशापेन मुसलैरेरकोद्भवैः ॥ ३० ॥

मूलम्

स तान्‌ दृष्ट्वा निपतितान् कदने भृशदुःखितः।
बभूवातीव कौरव्यः प्राप्तकालं चकार ह ॥ २९ ॥
यथा प्रधानतश्चैव चक्रे सर्वास्तथा क्रियाः।
ये हता ब्रह्मशापेन मुसलैरेरकोद्भवैः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भीषण मारकाटमें मरकर धराशायी हुए यादवोंको देखकर कुरुकुलनन्दन अर्जुनको बड़ा भारी दुःख हुआ। उन्होंने ब्रह्मशापके कारण एरकासे उत्पन्न हुए मूसलोंद्वारा मारे गये यदुवंशी वीरोंके बड़े-छोटेके क्रमसे सारे समयोचित कार्य (अन्त्येष्टि कर्म) सम्पन्न किये॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः।
अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः।
अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर विश्वस्त पुरुषोंद्वारा बलराम तथा वसुदेव-नन्दन श्रीकृष्ण दोनोंके शरीरोंकी खोज कराकर अर्जुनने उनका भी दाह-संस्कार किया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेषां विधिवत् कृत्वा प्रेतकार्याणि पाण्डवः।
सप्तमे दिवसे प्रायाद् रथमारुह्य सत्वरः ॥ ३२ ॥

मूलम्

स तेषां विधिवत् कृत्वा प्रेतकार्याणि पाण्डवः।
सप्तमे दिवसे प्रायाद् रथमारुह्य सत्वरः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन अर्जुन उन सबके प्रेतकर्म विधिपूर्वक सम्पन्न करके तुरन्त रथपर आरूढ़ हो सातवें दिन द्वारकासे चल दिये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि ।
स्त्रियस्ता वृष्णिवीराणां रुदत्यः शोककर्शिताः ॥ ३३ ॥
अनुजग्मुर्महात्मानं पाण्डुपुत्रं धनंजयम् ।

मूलम्

अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि ।
स्त्रियस्ता वृष्णिवीराणां रुदत्यः शोककर्शिताः ॥ ३३ ॥
अनुजग्मुर्महात्मानं पाण्डुपुत्रं धनंजयम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके साथ घोड़े, बैल, गधे और ऊँटोंसे जुते हुए रथोंपर बैठकर शोकसे दुर्बल हुई वृष्णिवंशी वीरोंकी पत्नियाँ रोती हुई चलीं। उन सबने पाण्डुपुत्र महात्मा अर्जुनका अनुगमन किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृत्याश्चान्धकवृष्णीनां सादिनो रथिनश्च ये ॥ ३४ ॥
वीरहीनं वृद्धबालं पौरजानपदास्तथा ।
ययुस्ते परिवार्याथ कलत्रं पार्थशासनात् ॥ ३५ ॥

मूलम्

भृत्याश्चान्धकवृष्णीनां सादिनो रथिनश्च ये ॥ ३४ ॥
वीरहीनं वृद्धबालं पौरजानपदास्तथा ।
ययुस्ते परिवार्याथ कलत्रं पार्थशासनात् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनकी आज्ञासे अन्धकों और वृष्णियोंके नौकर, घुड़सवार, रथी तथा नगर और प्रान्तके लोग बूढ़े और बालकोंसे युक्त विधवा स्त्रियोंको चारों ओरसे घेरकर चलने लगे॥३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुञ्जरैश्च गजारोहा ययुः शैलनिभैस्तथा।
सपादरक्षैः संयुक्ताः सान्तरायुधिका ययुः ॥ ३६ ॥

मूलम्

कुञ्जरैश्च गजारोहा ययुः शैलनिभैस्तथा।
सपादरक्षैः संयुक्ताः सान्तरायुधिका ययुः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथीसवार पर्वताकार हाथियोंद्वारा गुप्तरूपसे अस्त्र-शस्त्र धारण किये यात्रा करने लगे। उनके साथ हाथियोंके पादरक्षक भी थे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रताः ।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव महाधनाः ॥ ३७ ॥
दश षट् च सहस्राणि वासुदेवावरोधनम्।
पुरस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्रं कृष्णस्य धीमतः ॥ ३८ ॥

मूलम्

पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रताः ।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव महाधनाः ॥ ३७ ॥
दश षट् च सहस्राणि वासुदेवावरोधनम्।
पुरस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्रं कृष्णस्य धीमतः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्धक और वृष्णिवंशके समस्त बालक अर्जुनके प्रति श्रद्धा रखनेवाले थे। वे तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, महाधनी शूद्र और भगवान् श्रीकृष्णकी सोलह हजार स्त्रियाँ—ये सब-की-सब बुद्धिमान् श्रीकृष्णके पौत्र वज्रको आगे करके चल रहे थे॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
भोजवृष्ण्यन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययुः ॥ ३९ ॥
तत्सागरसमप्रख्यं वृष्णिचक्रं महर्धिमत् ।
उवाह रथिनां श्रेष्ठः पार्थः परपुरंजयः ॥ ४० ॥

मूलम्

बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
भोजवृष्ण्यन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययुः ॥ ३९ ॥
तत्सागरसमप्रख्यं वृष्णिचक्रं महर्धिमत् ।
उवाह रथिनां श्रेष्ठः पार्थः परपुरंजयः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोज, वृष्णि और अन्धक कुलकी अनाथ स्त्रियोंकी संख्या कई हजारों, लाखों और अर्वुदोंतक पहुँच गयी थी। वे सब द्वारकापुरीसे बाहर निकलीं। वृष्णियोंका वह महान् समृद्धिशाली मण्डल महासागरके समान जान पड़ता था। शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन उसे अपने साथ लेकर चले॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्याते तु जने तस्मिन् सागरो मकरालयः।
द्वारकां रत्नसम्पूर्णां जलेनाप्लावयत् तदा ॥ ४१ ॥

मूलम्

निर्याते तु जने तस्मिन् सागरो मकरालयः।
द्वारकां रत्नसम्पूर्णां जलेनाप्लावयत् तदा ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस जनसमुदायके निकलते ही मगरों और घड़ियालोंके निवासस्थान समुद्रने रत्नोंसे भरी-पूरी द्वारका नगरीको जलसे डुबो दिया॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमेस्तस्या व्यमुञ्चत।
तत् तत् सम्प्लावयामास सलिलेन स सागरः ॥ ४२ ॥

मूलम्

यद् यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमेस्तस्या व्यमुञ्चत।
तत् तत् सम्प्लावयामास सलिलेन स सागरः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह अर्जुनने उस नगरका जो-जो भाग छोड़ा, उसे समुद्रने अपने जलसे आप्लावित कर दिया॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्‌भुतमभिप्रेक्ष्य द्वारकावासिनो जनाः ।
तूर्णात् तूर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तदद्‌भुतमभिप्रेक्ष्य द्वारकावासिनो जनाः ।
तूर्णात् तूर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अद्‌भुत दृश्य देखकर द्वारकावासी मनुष्य बड़ी तेजीसे चलने लगे। उस समय उनके मुखसे बारंबार यही निकलता था कि ‘दैवकी लीला विचित्र है’॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च।
निवसन्नानयामास वृष्णिदारान् धनंजयः ॥ ४४ ॥

मूलम्

काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च।
निवसन्नानयामास वृष्णिदारान् धनंजयः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन रमणीय काननों, पर्वतों और नदियोंके तटपर निवास करते हुए वृष्णिवंशकी स्त्रियोंको ले जा रहे थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत् ।
देशो गोपशुधान्याढ्ये निवासमकरोत् प्रभुः ॥ ४५ ॥

मूलम्

स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत् ।
देशो गोपशुधान्याढ्ये निवासमकरोत् प्रभुः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चलते-चलते बुद्धिमान् एवं सामर्थ्यशाली अर्जुनने अत्यन्त समृद्धिशाली पंचनद देशमें पहुँचकर जो गौ, पशु तथा धन-धान्यसे सम्पन्न था, ऐसे प्रदेशमें पड़ाव डाला॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो लोभः समभवद् दस्यूनां निहतेश्वराः।
दृष्ट्वा स्त्रियो नीयमानाः पार्थेनैकेन भारत ॥ ४६ ॥

मूलम्

ततो लोभः समभवद् दस्यूनां निहतेश्वराः।
दृष्ट्वा स्त्रियो नीयमानाः पार्थेनैकेन भारत ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! एकमात्र अर्जुनके संरक्षणमें ले जायी जाती हुई इतनी अनाथ स्त्रियोंको देखकर वहाँ रहने-वाले लुटेरोंके मनमें लोभ पैदा हुआ॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः ।
आभीरा मन्त्रयामासुः समेत्याशुभदर्शनाः ॥ ४७ ॥

मूलम्

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः ।
आभीरा मन्त्रयामासुः समेत्याशुभदर्शनाः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभसे उनके चित्तकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरोंने परस्पर मिलकर सलाह की॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमेकोऽर्जुनो धन्वी वृद्धबालं हतेश्वरम्।
नयत्यस्मानतिक्रम्य योधाश्चेमे हतौजसः ॥ ४८ ॥

मूलम्

अयमेकोऽर्जुनो धन्वी वृद्धबालं हतेश्वरम्।
नयत्यस्मानतिक्रम्य योधाश्चेमे हतौजसः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाइयो! देखो, यह अकेला धनुर्धर अर्जुन और ये हतोत्साह सैनिक हमलोगोंको लाँघकर वृद्धों और बालकोंके इस अनाथ समुदायको लिये जा रहे हैं (अतः इनपर आक्रमण करना चाहिये)’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रशः।
अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिणः ॥ ४९ ॥

मूलम्

ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रशः।
अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिणः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा निश्चय करके लूटका माल उड़ानेवाले वे लट्ठधारी लुटेरे वृष्णिवंशियोंके उस समुदायपर हजारोंकी संख्यामें टूट पड़े॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महता सिंहनादेन त्रासयन्तः पृथग्जनम्।
अभिपेतुर्वधार्थं ते कालपर्यायचोदिताः ॥ ५० ॥

मूलम्

महता सिंहनादेन त्रासयन्तः पृथग्जनम्।
अभिपेतुर्वधार्थं ते कालपर्यायचोदिताः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समयके उलट-फेरसे प्रेरणा पाकर वे लुटेरे उन सबके वधके लिये उतारू हो अपने महान् सिंहनादसे साधारण लोगोंको डराते हुए उनकी ओर दौड़े॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निवृत्तः कौन्तेयः सहसा सपदानुगः।
उवाच तान् महाबाहुरर्जुनः प्रहसन्निव ॥ ५१ ॥

मूलम्

ततो निवृत्तः कौन्तेयः सहसा सपदानुगः।
उवाच तान् महाबाहुरर्जुनः प्रहसन्निव ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आक्रमणकारियोंको पीछेकी ओरसे धावा करते देख कुन्तीकुमार महाबाहु अर्जुन सेवकोंसहित सहसा लौट पड़े और उनसे हँसते हुए-से-बोले—॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि जीवितुमिच्छथ ।
इदानीं शरनिर्भिन्नाः शोचध्वं निहता मया ॥ ५२ ॥

मूलम्

निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि जीवितुमिच्छथ ।
इदानीं शरनिर्भिन्नाः शोचध्वं निहता मया ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मको न जाननेवाले पापियो! यदि जीवित रहना चाहते हो तो लौट जाओ; नहीं तो मेरे द्वारा मारे जाकर या मेरे बाणोंसे विदीर्ण होकर इस समय तुम बड़े शोकमें पड़ जाओगे’॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथोक्तास्तेन वीरेण कदर्थीकृत्य तद्‌वचः।
अभिपेतुर्जनं मूढा वार्यमाणाः पुनः पुनः ॥ ५३ ॥

मूलम्

तथोक्तास्तेन वीरेण कदर्थीकृत्य तद्‌वचः।
अभिपेतुर्जनं मूढा वार्यमाणाः पुनः पुनः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरवर अर्जुनके ऐसा कहनेपर उनकी बातोंकी अवहेलना करके वे मूर्ख अहीर उनके बारंबार मना करनेपर भी उस जनसमुदायपर टूट पड़े॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं महत्।
आरोपयितुमारेभे यत्नादिव कथंचन ॥ ५४ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं महत्।
आरोपयितुमारेभे यत्नादिव कथंचन ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने अपने दिव्य एवं कभी जीर्ण न होनेवाले विशाल धनुष गाण्डीवको चढ़ाना आस्मभ किया और बड़े प्रयत्नसे किसी तरह उसे चढ़ा दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चकार सज्जं कृच्छ्रेण सम्भ्रमे तुमुले सति।
चिन्तयामास शस्त्राणि न च सस्मार तान्यपि ॥ ५५ ॥

मूलम्

चकार सज्जं कृच्छ्रेण सम्भ्रमे तुमुले सति।
चिन्तयामास शस्त्राणि न च सस्मार तान्यपि ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयंकर मार-काट छिड़नेपर बड़ी कठिनाईसे उन्होंने धनुषपर प्रत्यञ्चा तो चढ़ा दी; परंतु जब वे अपने अस्त्र-शस्त्रोंका चिन्तन करने लगे तब उन्हें उनकी याद बिलकुल नहीं आयी॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैकृतं तन्महद् दृष्ट्वा भुजवीर्ये तथा युधि।
दिव्यानां च महास्त्राणां विनाशाद् व्रीडितोऽभवत् ॥ ५६ ॥

मूलम्

वैकृतं तन्महद् दृष्ट्वा भुजवीर्ये तथा युधि।
दिव्यानां च महास्त्राणां विनाशाद् व्रीडितोऽभवत् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धके अवसरपर अपने बाहुबलमें यह महान् विकार आया देख और महान् दिव्यास्त्रोंका विस्मरण हुआ जान वे लज्जित हो गये॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृष्णियोधाश्च ते सर्वे गजाश्वरथयोधिनः।
न शेकुरावर्तयितुं ह्रियमाणं च तं जनम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

वृष्णियोधाश्च ते सर्वे गजाश्वरथयोधिनः।
न शेकुरावर्तयितुं ह्रियमाणं च तं जनम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी, घोड़े और रथपर बैठकर युद्ध करनेवाले समस्त वृष्णिसैनिक भी उन डाकुओंके हाथमें पड़े हुए अपने मनुष्योंको लौटा न सके॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलत्रस्य बहुत्वाद्धि सम्पतत्सु ततस्ततः।
प्रयत्नमकरोत् पार्थों जनस्य परिरक्षणे ॥ ५८ ॥

मूलम्

कलत्रस्य बहुत्वाद्धि सम्पतत्सु ततस्ततः।
प्रयत्नमकरोत् पार्थों जनस्य परिरक्षणे ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समुदायमें स्त्रियोंकी संख्या बहुत थी; इसलिये डाकू कई ओरसे उनपर धावा करने लगे तो भी अर्जुन उनकी रक्षाका यथासाध्य प्रयत्न करते रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिषतां सर्वयोधानां ततस्ताः प्रमदोत्तमाः।
समन्ततोऽवकृष्यन्त कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः ॥ ५९ ॥

मूलम्

मिषतां सर्वयोधानां ततस्ताः प्रमदोत्तमाः।
समन्ततोऽवकृष्यन्त कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब योद्धाओंके देखते-देखते वे डाकू उन सुन्दरी स्त्रियोंको चारों ओरसे खींच-खींचकर ले जाने लगे। दूसरी स्त्रियाँ उनके स्पर्शके भयसे उनकी इच्छाके अनुसार चुपचाप उनके साथ चली गयीं॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो धनंजयः।
जधान दस्यून् सोद्वेगो वृष्णिभृत्यैः सहस्रशः ॥ ६० ॥

मूलम्

ततो गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो धनंजयः।
जधान दस्यून् सोद्वेगो वृष्णिभृत्यैः सहस्रशः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब कुन्तीकुमार अर्जुन उद्विग्न होकर सहस्रों वृष्णिसैनिकोंको साथ ले गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा उन लुटेरोंके प्राण लेने लगे॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणेन तस्य ते राजन् क्षयं जग्मुरजिह्मगाः।
अक्षया हि पुरा भूत्वा क्षीणाः क्षतजभोजनाः ॥ ६१ ॥

मूलम्

क्षणेन तस्य ते राजन् क्षयं जग्मुरजिह्मगाः।
अक्षया हि पुरा भूत्वा क्षीणाः क्षतजभोजनाः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अर्जुनके सीधे जानेवाले बाण क्षणभरमें क्षीण हो गये। जो रक्तभोगी बाण पहले अक्षय थे वे ही उस समय सर्वथा क्षयको प्राप्त हो गये॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शरक्षयमासाद्य दुःखशोकसमाहतः ।
धनुष्कोट्या तदा दस्यूनवधीत् पाकशासनिः ॥ ६२ ॥

मूलम्

स शरक्षयमासाद्य दुःखशोकसमाहतः ।
धनुष्कोट्या तदा दस्यूनवधीत् पाकशासनिः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंके समाप्त हो जानेपर दुःख और शोकके आघात सहते हुए इन्द्रकुमार अर्जुन धनुषकी नोकसे ही उन डाकुओंका वध करने लगे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेक्षतस्त्वेव पार्थस्य वृष्ण्यन्धकवरस्त्रियः ।
जग्मुरादाय ते म्लेच्छाः समन्ताज्जनमेजय ॥ ६३ ॥

मूलम्

प्रेक्षतस्त्वेव पार्थस्य वृष्ण्यन्धकवरस्त्रियः ।
जग्मुरादाय ते म्लेच्छाः समन्ताज्जनमेजय ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! अर्जुन देखते ही रह गये और वे म्लेच्छ डाकू सब ओरसे वृष्णि और अन्धकवंशकी सुन्दरी स्त्रियोंको लूट ले गये॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजयस्तु दैवं तन्मनसाऽचिन्तयत् प्रभुः।
दुःखशोकसमाविष्टो निःश्वासपरमोऽभवत् ॥ ६४ ॥

मूलम्

धनंजयस्तु दैवं तन्मनसाऽचिन्तयत् प्रभुः।
दुःखशोकसमाविष्टो निःश्वासपरमोऽभवत् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभावशाली अर्जुनने मन-ही-मन इसे दैवका विधान समझा और दुःख-शोकमें डूबकर वे लंबी साँस लेने लगे॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्राणां च प्रणाशेन बाहुवीर्यस्य संक्षयात्।
धनुषश्चाविधेयत्वाच्छराणां संक्षयेण च ॥ ६५ ॥
बभूव विमनाः पार्थो दैवमित्यनुचिन्तयन्।

मूलम्

अस्त्राणां च प्रणाशेन बाहुवीर्यस्य संक्षयात्।
धनुषश्चाविधेयत्वाच्छराणां संक्षयेण च ॥ ६५ ॥
बभूव विमनाः पार्थो दैवमित्यनुचिन्तयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान लुप्त हो गया। भुजाओंका बल भी घट गया। धनुष भी काबूके बाहर हो गया और अक्षयबाणोंका भी क्षय हो गया। इन सब बातोंसे अर्जुनका मन उदास हो गया। वे इन सब घटनाओंको दैवका विधान मानने लगे॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यवर्तत ततो राजन् नेदमस्तीति चाब्रवीत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

न्यवर्तत ततो राजन् नेदमस्तीति चाब्रवीत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर अर्जुन युद्धसे निवृत्त हो गये और बोले—‘यह अस्त्रज्ञान आदि कुछ भी नित्य नहीं है’॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शेषं समादाय कलत्रस्य महामतिः।
हृतभूयिष्ठरत्नस्य कुरुक्षेत्रमवातरत् ॥ ६७ ॥

मूलम्

ततः शेषं समादाय कलत्रस्य महामतिः।
हृतभूयिष्ठरत्नस्य कुरुक्षेत्रमवातरत् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर अपहरणसे बची हुई स्त्रियों और जिनका अधिक भाग लूट लिया गया था ऐसे बचे-खुचे रत्नोंको साथ लेकर परम बुद्धिमान् अर्जुन कुरुक्षेत्रमें उतरे॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कलत्रमानीय वृष्णीनां हृतशेषितम्।
न्यवेशयत कौरव्यस्तत्र तत्र धनंजयः ॥ ६८ ॥

मूलम्

एवं कलत्रमानीय वृष्णीनां हृतशेषितम्।
न्यवेशयत कौरव्यस्तत्र तत्र धनंजयः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपहरणसे बची हुई वृष्णिवंशकी स्त्रियोंको ले आकर कुरुनन्दन अर्जुनने उनको जहाँ-तहाँ बसा दिया॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरे मार्तिकावते।
भोजराजकलत्रं च हृतशेषं नरोत्तमः ॥ ६९ ॥

मूलम्

हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरे मार्तिकावते।
भोजराजकलत्रं च हृतशेषं नरोत्तमः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृतवर्माके पुत्रको और भोजराजके परिवारकी अपहरणसे बची हुई स्त्रियोंको नरश्रेष्ठ अर्जुनने मार्तिकावत नगरमें बसा दिया॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डवः।
वीरैर्विहीनान् सर्वांस्तान् शक्रप्रस्थे न्यवेशयत् ॥ ७० ॥

मूलम्

ततो वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डवः।
वीरैर्विहीनान् सर्वांस्तान् शक्रप्रस्थे न्यवेशयत् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वीरविहीन समस्त वृद्धों, बालकों तथा अन्य स्त्रियोंको साथ लेकर वे इन्द्रप्रस्थ आये और उन सबको वहाँका निवासी बना दिया॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यौयुधानिं सरस्वत्यां पुत्रं सात्यकिनः प्रियम्।
न्यवेशयत धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

यौयुधानिं सरस्वत्यां पुत्रं सात्यकिनः प्रियम्।
न्यवेशयत धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मा अर्जुनने सात्यकिके प्रिय पुत्र यौयुधानिको सरस्वतीके तटवर्ती देशका अधिकारी एवं निवासी बना दिया और वृद्धों तथा बालकोंको उसके साथ कर दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं वज्राय परवीरहा।
वज्रेणाक्रूरदारास्तु वार्यमाणाः प्रवव्रजुः ॥ ७२ ॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं वज्राय परवीरहा।
वज्रेणाक्रूरदारास्तु वार्यमाणाः प्रवव्रजुः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनने व्रजको इन्द्रप्रस्थका राज्य दे दिया। अक्रूरजीकी स्त्रियाँ वज्रके बहुत रोकनेपर भी वनमें तपस्या करनेके लिये चली गयीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मिणी त्वथ गान्धारी शैव्या हैमवतीत्यपि।
देवी जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम् ॥ ७३ ॥,

मूलम्

रुक्मिणी त्वथ गान्धारी शैव्या हैमवतीत्यपि।
देवी जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम् ॥ ७३ ॥,

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणी, गान्धारी, शैव्या, हैमवती तथा जाम्बवती देवीने पतिलोककी प्राप्तिके लिये अग्निमें प्रवेश किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यभामा तथैवान्या देव्यः कृष्णस्य सम्मताः।
वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चयाः ॥ ७४ ॥

मूलम्

सत्यभामा तथैवान्या देव्यः कृष्णस्य सम्मताः।
वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चयाः ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! श्रीकृष्णप्रिया सत्यभामा तथा अन्य देवियाँ तपस्याका निश्चय करके वनमें चलीं गयीं॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वारकावासिनो ये तु पुरुषाः पार्थमभ्ययुः।
यथार्हं संविभज्यैनान् वज्रे पर्यददज्जयः ॥ ७५ ॥

मूलम्

द्वारकावासिनो ये तु पुरुषाः पार्थमभ्ययुः।
यथार्हं संविभज्यैनान् वज्रे पर्यददज्जयः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो-जो द्वारकावासी मनुष्य पार्थके साथ आये थे, उन सबका यथायोग्य विभाग करके अर्जुनने उन्हें वज्रको सौंप दिया॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्‌ कृत्वा प्राप्तकालं बाष्पेणापिहितोऽर्जुनः।
कृष्णद्वैपायनं व्यासं ददर्शासीनमाश्रमे ॥ ७६ ॥

मूलम्

स तत्‌ कृत्वा प्राप्तकालं बाष्पेणापिहितोऽर्जुनः।
कृष्णद्वैपायनं व्यासं ददर्शासीनमाश्रमे ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समयोचित व्यवस्था करके अर्जुन नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए महर्षि व्यासके आश्रमपर गये और वहाँ बैठे हुए महर्षिका उन्होंने दर्शन किया॥७६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि वृष्णिकलत्राद्यानयने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसलपर्वमें अर्जुनद्वारा वृष्णिवंशकी स्त्रियों और बालकोंका आनयनविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥