००५

भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका द्वारकामें आना और द्वारका तथा श्रीकृष्ण-पत्नियोंकी दशा देखकर दुखी होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुकोऽपि कुरून् गत्वा दृष्ट्वा पार्थान्‌ महारथान्।
आचष्ट मौसले वृष्णीनन्योन्येनोपसंहृतान् ॥ १ ॥

मूलम्

दारुकोऽपि कुरून् गत्वा दृष्ट्वा पार्थान्‌ महारथान्।
आचष्ट मौसले वृष्णीनन्योन्येनोपसंहृतान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दारुकने भी कुरुदेशमें जाकर महारथी कुन्तीकुमारोंका दर्शन किया और उन्हें यह बताया कि समस्त वृष्णिवंशी मौसलयुद्धमें एक-दूसरेके द्वारा मार डाले गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा विनष्टान्‌ वार्ष्णेयान् सभोजान्धककौकुरान्।
पाण्डवाः शोकसंतप्ता वित्रस्तमनसोऽभवन् ॥ २ ॥

मूलम्

श्रुत्वा विनष्टान्‌ वार्ष्णेयान् सभोजान्धककौकुरान्।
पाण्डवाः शोकसंतप्ता वित्रस्तमनसोऽभवन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णि, भोज, अन्धक और कुकुरवंशके वीरोंका विनाश हुआ सुनकर समस्त पाण्डव शोकसे संतप्त हो उठे। वे मन-ही-मन संत्रस्त हो गये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्जुनस्तानामन्त्र्य केशवस्य प्रियः सखा।
प्रययौ मातुलं द्रष्टुं नेदमस्तीति चाब्रवीत् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततोऽर्जुनस्तानामन्त्र्य केशवस्य प्रियः सखा।
प्रययौ मातुलं द्रष्टुं नेदमस्तीति चाब्रवीत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् श्रीकृष्णके प्रिय सखा अर्जुन अपने भाइयोंसे पूछकर मामासे मिलनेके लिये चल दिये और बोले—‘ऐसा नहीं हुआ होगा (समस्त यदुवंशियोंका एक साथ विनाश असम्भव है)’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वृष्णिनिलयं गत्वा दारुकेण सह प्रभो।
ददर्श द्वारकां वीरो मृतनाथामिव स्त्रियम् ॥ ४ ॥

मूलम्

स वृष्णिनिलयं गत्वा दारुकेण सह प्रभो।
ददर्श द्वारकां वीरो मृतनाथामिव स्त्रियम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! दारुकके साथ वृष्णियोंके निवासस्थानपर पहुँचकर वीर अर्जुनने देखा कि द्वारका नगरी विधवा स्त्रीकी भाँति श्रीहीन हो गयी है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याः स्म ता लोकनाथेन नाथवत्यः पुराभवन्।
तास्त्वनाथास्तदा नाथं पार्थं दृष्ट्वा विचुक्रुशुः ॥ ५ ॥
षोडशस्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः ।

मूलम्

याः स्म ता लोकनाथेन नाथवत्यः पुराभवन्।
तास्त्वनाथास्तदा नाथं पार्थं दृष्ट्वा विचुक्रुशुः ॥ ५ ॥
षोडशस्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः ।

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें लोकनाथ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित होनेके कारण जो सबसे अधिक सनाथा थीं, वे ही भगवान् श्रीकृष्णकी सोलह हजार अनाथा स्त्रियाँ अर्जुनको रक्षकके रूपमें आया देख उच्चस्वरसे करुण क्रन्दन करने लगीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासामासीन्महान् नादो दृष्ट्वैवार्जुनमागतम् ॥ ६ ॥
तास्तु दृष्ट्वैव कौरव्यो बाष्पेणापिहितेक्षणः।
हीनाः कृष्णेन पुत्रैश्च नाशकत्‌ सोऽभिवीक्षितुम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तासामासीन्महान् नादो दृष्ट्वैवार्जुनमागतम् ॥ ६ ॥
तास्तु दृष्ट्वैव कौरव्यो बाष्पेणापिहितेक्षणः।
हीनाः कृष्णेन पुत्रैश्च नाशकत्‌ सोऽभिवीक्षितुम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पधारे हुए अर्जुनको देखते ही उन स्त्रियोंका आर्तनाद बहुत बढ़ गया। उन सबपर दृष्टि पड़ते ही अर्जुनकी आँखोंमें आँसू भर आये। पुत्रों और श्रीकृष्णसे हीन हुई उन अनाथ अबलाओंकी ओर उनसे देखा नहीं गया॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तां वृष्ण्यन्धकजलां हयमीनां रथोडुपाम्।
वादित्ररथघोषौघां वेश्मतीर्थमहाह्रदाम् ॥ ८ ॥
रत्नशैवलसंघातां वज्रप्राकारमालिनीम् ।
रथ्यास्रोतोजलावर्तां चत्वरस्तिमितह्रदाम् ॥ ९ ॥
रामकृष्णमहाग्राहां द्वारकां सरितं तदा।
कालपाशग्रहां भीमां नदीं वैतरणीमिव ॥ १० ॥
ददर्श वासविर्धीमान् विहीनां वृष्णिपुङ्गवैः।
गतश्रियं निरानन्दां पद्मिनीं शिशिरे यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

स तां वृष्ण्यन्धकजलां हयमीनां रथोडुपाम्।
वादित्ररथघोषौघां वेश्मतीर्थमहाह्रदाम् ॥ ८ ॥
रत्नशैवलसंघातां वज्रप्राकारमालिनीम् ।
रथ्यास्रोतोजलावर्तां चत्वरस्तिमितह्रदाम् ॥ ९ ॥
रामकृष्णमहाग्राहां द्वारकां सरितं तदा।
कालपाशग्रहां भीमां नदीं वैतरणीमिव ॥ १० ॥
ददर्श वासविर्धीमान् विहीनां वृष्णिपुङ्गवैः।
गतश्रियं निरानन्दां पद्मिनीं शिशिरे यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारकापुरी एक नदीके समान थी। वृष्णि और अन्धकवंशके लोग उसके भीतर जलके समान थे। घोड़े मछलीके समान थे। रथ नावका काम करते थे। वाद्योंकी ध्वनि और रथकी घरघराहट मानो उस नदीके बहते हुए जलका कलकल नाद थी। लोगोंके घर ही तीर्थ एवं बड़े-बड़े जलाशय थे। रत्नोंकी राशि ही वहाँ सेवारसमूहके समान शोभा पाती थी। वज्र नामक मणिकी बनी हुई चहारदीवारी ही उसकी तटपंक्ति थी। सड़कें और गलियाँ उसमें जलके सोते और भँवरें थीं, चौराहे मानो उसके स्थिर जलवाले तालाब थे। बलराम और श्रीकृष्ण उसके भीतर दो बड़े-बड़े ग्राह थे। कालपाश ही उसमें मगर और घड़ियालके समान था। ऐसी द्वारकारूपी नदीको बुद्धिमान् अर्जुनने वृष्णिवीरोंसे रहित हो जानेके कारण वैतरणीके समान भयानक देखा। वह शिशिर कालकी कमलिनीके समान श्रीहीन तथा आनन्दशून्य जान पड़ती थी॥८—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां दृष्ट्वा द्वारकां पार्थस्ताश्च कृष्णस्य योषितः।
सस्वनं बाष्पमुत्सृज्य निपपात महीतले ॥ १२ ॥

मूलम्

तां दृष्ट्वा द्वारकां पार्थस्ताश्च कृष्णस्य योषितः।
सस्वनं बाष्पमुत्सृज्य निपपात महीतले ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैसी द्वारकाको और उन श्रीकृष्णकी पत्नियोंको देखकर अर्जुन आँसू बहाते हुए फूट-फूटकर रोने लगे और मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्राजिती ततः सत्या रुक्मिणी च विशाम्पते।
अभिपत्य प्ररुरुदुः परिवार्य धनंजयम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सात्राजिती ततः सत्या रुक्मिणी च विशाम्पते।
अभिपत्य प्ररुरुदुः परिवार्य धनंजयम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! तब सत्राजित्‌की पुत्री सत्यभामा तथा रुक्मिणी आदि रानियाँ वहाँ दौड़ी आयीं और अर्जुनको घेरकर उच्च स्वरसे विलाप करने लगीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं काञ्चने पीठे समुत्थाप्योपवेश्य च।
अब्रुवन्त्यो महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे ॥ १४ ॥

मूलम्

ततस्तं काञ्चने पीठे समुत्थाप्योपवेश्य च।
अब्रुवन्त्यो महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अर्जुनको उठाकर उन्होंने सोनेकी चौकीपर बिठाया और उन महात्माको घेरकर बिना कुछ बोले उनके पास बैठ गयीं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संस्तूय गोविन्दं कथयित्वा च पाण्डवः।
आश्वास्य ताः स्त्रियश्चापि मातुलं द्रष्टुमभ्यगात् ॥ १५ ॥

मूलम्

ततः संस्तूय गोविन्दं कथयित्वा च पाण्डवः।
आश्वास्य ताः स्त्रियश्चापि मातुलं द्रष्टुमभ्यगात् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए उनकी कथा कही और उन रानियोंको आश्वासन देकर वे अपने मामासे मिलनेके लिये गये॥१५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि अर्जुनागमने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसलपर्वमें अर्जुनका आगमनविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥