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भागसूचना

द्वितीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्वारकामें भयंकर उत्पात देखकर भगवान् श्रीकृष्णका यदुवंशियोंको तीर्थयात्राके लिये आदेश देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रयतमानानां वृष्णीनामन्धकैः सह।
कालो गृहाणि सर्वेषां परिचक्राम नित्यशः ॥ १ ॥

मूलम्

एवं प्रयतमानानां वृष्णीनामन्धकैः सह।
कालो गृहाणि सर्वेषां परिचक्राम नित्यशः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार वृष्णि और अन्धकवंशके लोग अपने ऊपर आनेवाले संकटका निवारण करनेके लिये भाँति-भाँतिके प्रयत्न कर रहे थे और उधर काल प्रतिदिन सबके घरोंमें चक्कर लगाया करता था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करालो विकटो मुण्डः पुरुषः कृष्णपिङ्गलः।
गृहाण्यावेक्ष्य वृष्णीनां नादृश्यत क्वचित् क्वचित् ॥ २ ॥

मूलम्

करालो विकटो मुण्डः पुरुषः कृष्णपिङ्गलः।
गृहाण्यावेक्ष्य वृष्णीनां नादृश्यत क्वचित् क्वचित् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका स्वरूप विकराल और वेश विकट था। उसके शरीरका रंग काला और पीला था। वह मूँड़ मुड़ाये हुए पुरुषके रूपमें वृष्णिवंशियोंके घरोंमें प्रवेश करके सबको देखता और कभी-कभी अदृश्य हो जाता था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमघ्नन्त महेष्वासाः शरैः शतसहस्रशः।
न चाशक्यत वेद्‌धुं स सर्वभूतात्ययस्तदा ॥ ३ ॥

मूलम्

तमघ्नन्त महेष्वासाः शरैः शतसहस्रशः।
न चाशक्यत वेद्‌धुं स सर्वभूतात्ययस्तदा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे देखनेपर बड़े-बड़े धनुर्धर वीर उसके ऊपर लाखों बाणोंका प्रहार करते थे; परंतु सम्पूर्ण भूतोंका विनाश करनेवाले उस कालको वे वेध नहीं पाते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पेदिरे महावाता दारुणाश्च दिने दिने।
वृष्ण्यन्धकविनाशाय बहवो लोमहर्षणाः ॥ ४ ॥

मूलम्

उत्पेदिरे महावाता दारुणाश्च दिने दिने।
वृष्ण्यन्धकविनाशाय बहवो लोमहर्षणाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब प्रतिदिन अनेक बार भयंकर आँधी उठने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाली थी। उससे वृष्णियों और अन्धकोंके विनाशकी सूचना मिल रही थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवृद्धमूषिका रथ्या विभिन्नमणिकास्तथा ।
केशा नखाश्च सुप्तानामद्यन्ते मूषिकैर्निशि ॥ ५ ॥

मूलम्

विवृद्धमूषिका रथ्या विभिन्नमणिकास्तथा ।
केशा नखाश्च सुप्तानामद्यन्ते मूषिकैर्निशि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चूहे इतने बढ़ गये थे कि वे सड़कोंपर छाये रहते थे। मिट्टीके बरतनोंमें छेद कर देते थे तथा रातमें सोये हुए मनुष्योंके केश और नख कुतरकर खा जाया करते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चीचीकूचीति वाशन्ति सारिका वृष्णिवेश्मसु।
नोपशाम्यति शब्दश्च स दिवारात्रमेव हि ॥ ६ ॥

मूलम्

चीचीकूचीति वाशन्ति सारिका वृष्णिवेश्मसु।
नोपशाम्यति शब्दश्च स दिवारात्रमेव हि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णिवंशियोंके घरोंमें मैनाएँ दिन-रात चें-चें किया करती थीं। उनकी आवाज कभी एक क्षणके लिये भी बंद नहीं होती थी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्वकुर्वन्नुलूकानां सारसा विरुतं तथा।
अजाः शिवानां विरुतमन्वकुर्वत भारत ॥ ७ ॥

मूलम्

अन्वकुर्वन्नुलूकानां सारसा विरुतं तथा।
अजाः शिवानां विरुतमन्वकुर्वत भारत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! सारस उल्लुओंकी और बकरे गीदड़ोंकी बोलीकी नकल करने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुरा रक्तपादाश्च विहगाः कालचोदिताः।
वृष्ण्यन्धकानां गेहेषु कपोता व्यचरंस्तदा ॥ ८ ॥

मूलम्

पाण्डुरा रक्तपादाश्च विहगाः कालचोदिताः।
वृष्ण्यन्धकानां गेहेषु कपोता व्यचरंस्तदा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालकी प्रेरणासे वृष्णियों और अन्धकोंके घरोंमें सफेद पंख और लाल पैरोंवाले कबूतर घूमने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यजायन्त खरा गोषु करभाऽश्वतरीषु च।
शुनीष्वपि बिडालाश्च मूषिका नकुलीषु च ॥ ९ ॥

मूलम्

व्यजायन्त खरा गोषु करभाऽश्वतरीषु च।
शुनीष्वपि बिडालाश्च मूषिका नकुलीषु च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंके पेटसे गदहे, खच्चरियोंसे हाथी, कुतियोंसे बिलाव और नेवलियोंके गर्भसे चूहे पैदा होने लगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापत्रपन्त पापानि कुर्वन्तो वृष्णयस्तदा।
प्राद्विषन् ब्राह्मणांश्चापि पितॄन् देवांस्तथैव च ॥ १० ॥

मूलम्

नापत्रपन्त पापानि कुर्वन्तो वृष्णयस्तदा।
प्राद्विषन् ब्राह्मणांश्चापि पितॄन् देवांस्तथैव च ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दिनों वृष्णिवंशी खुल्लमखुल्ला पाप करते और उसके लिये लज्जित नहीं होते थे। वे ब्राह्मणों, देवताओं और पितरोंसे भी द्वेष रखने लगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरूंश्चाप्यवमन्यन्ते न तु रामजनार्दनौ।
पत्न्यः पतीनुच्चरन्त पत्नीश्च पतयस्तथा ॥ ११ ॥

मूलम्

गुरूंश्चाप्यवमन्यन्ते न तु रामजनार्दनौ।
पत्न्यः पतीनुच्चरन्त पत्नीश्च पतयस्तथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, वे गुरुजनोंका भी अपमान करते थे। केवल बलराम और श्रीकृष्णका ही तिरस्कार नहीं करते थे। पत्नियाँ पतियोंको और पति अपनी पत्नियोंको धोखा देने लगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभावसुः प्रज्वलितो वामं विपरिवर्तते।
नीललोहितमञ्जिष्ठा विसृजन्नर्चिषः पृथक् ॥ १२ ॥

मूलम्

विभावसुः प्रज्वलितो वामं विपरिवर्तते।
नीललोहितमञ्जिष्ठा विसृजन्नर्चिषः पृथक् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेव प्रज्वलित होकर अपनी लपटोंको वामावर्त घुमाते थे। उनसे कभी नीले रंगकी, कभी रक्तवर्णकी और कभी मजीठके रंगकी पृथक्-पृथक् लपटें निकलती थीं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदयास्तमने नित्यं पुर्यां तस्यां दिवाकरः।
व्यदृश्यतासकृत् पुम्भिः कबन्धैः परिवारितः ॥ १३ ॥

मूलम्

उदयास्तमने नित्यं पुर्यां तस्यां दिवाकरः।
व्यदृश्यतासकृत् पुम्भिः कबन्धैः परिवारितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नगरीमें रहनेवाले लोगोंको उदय और अस्तके समय सूर्यदेव प्रतिदिन बारंबार कबन्धोंसे घिरे दिखायी देते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानसेषु सिद्धेषु संस्कृतेऽतीव भारत।
आहार्यमाणे कृमयो व्यदृश्यन्त सहस्रशः ॥ १४ ॥

मूलम्

महानसेषु सिद्धेषु संस्कृतेऽतीव भारत।
आहार्यमाणे कृमयो व्यदृश्यन्त सहस्रशः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छी तरह छौंक-बघारकर जो रसोइयाँ तैयार की जाती थीं, उन्हें परोसकर जब लोग भोजनके लिये बैठते थे तब उनमें हजारों कीड़े दिखायी देने लगते थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्याहे वाच्यमाने तु जपत्सु च महात्मसु।
अभिधावन्तः श्रूयन्ते न चादृश्यत कश्चन ॥ १५ ॥

मूलम्

पुण्याहे वाच्यमाने तु जपत्सु च महात्मसु।
अभिधावन्तः श्रूयन्ते न चादृश्यत कश्चन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पुण्याहवाचन किया जाता और महात्मा पुरुष जप करने लगते थे, उस समय कुछ लोगोंके दौड़नेकी आवाज सुनायी देती थी; परंतु कोई दिखायी नहीं देता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्परं च नक्षत्रं हन्यमानं पुनः पुनः।
ग्रहैरपश्यन् सर्वे ते नात्मनस्तु कथंचन ॥ १६ ॥

मूलम्

परस्परं च नक्षत्रं हन्यमानं पुनः पुनः।
ग्रहैरपश्यन् सर्वे ते नात्मनस्तु कथंचन ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग बारंबार यह देखते थे कि नक्षत्र आपसमें तथा ग्रहोंके साथ भी टकरा जाते हैं, परन्तु कोई भी किसी तरह अपने नक्षत्रको नहीं देख पाता था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदन्तं पाञ्चजन्यं च वृष्ण्यन्धकनिवेशने।
समन्तात् पर्यवाशन्त रासभा दारुणस्वराः ॥ १७ ॥

मूलम्

नदन्तं पाञ्चजन्यं च वृष्ण्यन्धकनिवेशने।
समन्तात् पर्यवाशन्त रासभा दारुणस्वराः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् श्रीकृष्णका पाञ्चजन्य शंख बजता था, तब वृष्णियों और अन्धकोंके घरके आस-पास चारों ओर भयंकर स्वरवाले गदहे रेंकने लगते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पश्यन् हृषीकेशः सम्प्राप्तं कालपर्ययम्।
त्रयोदश्याममावास्यां तान्‌ दृष्ट्वा प्राब्रवीदिदम् ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं पश्यन् हृषीकेशः सम्प्राप्तं कालपर्ययम्।
त्रयोदश्याममावास्यां तान्‌ दृष्ट्वा प्राब्रवीदिदम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह कालका उलट-फेर प्राप्त हुआ देख और त्रयोदशी तिथिको अमावास्याका संयोग जान भगवान् श्रीकृष्णने सब लोगोंसे कहा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्दशी पञ्चदशी कृतेयं राहुणा पुनः।
प्राप्ते वै भारते युद्धे प्राप्ता चाद्य क्षयाय नः॥१९॥

मूलम्

चतुर्दशी पञ्चदशी कृतेयं राहुणा पुनः।
प्राप्ते वै भारते युद्धे प्राप्ता चाद्य क्षयाय नः॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीरो! इस समय राहुने फिर चतुर्दशीको ही अमावास्या बना दिया है। महाभारतयुद्धके समय जैसा योग था वैसा ही आज भी है। यह सब हमलोगोंके विनाशका सूचक है’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमृशन्नेव कालं तं परिचिन्त्य जनार्दनः।
मेने प्राप्तं स षट्‌त्रिंशं वर्षं वै केशिसूदनः ॥ २० ॥

मूलम्

विमृशन्नेव कालं तं परिचिन्त्य जनार्दनः।
मेने प्राप्तं स षट्‌त्रिंशं वर्षं वै केशिसूदनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समयका विचार करते हुए केशिहन्ता श्रीकृष्णने जब उसका विशेष चिन्तन किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि महाभारतयुद्धके बाद यह छत्तीसवाँ वर्ष आ पहुँचा॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रशोकाभिसंतप्ता गान्धारी हतबान्धवा ।
यदनुव्याजहारार्ता तदिदं समुपागमत् ॥ २१ ॥

मूलम्

पुत्रशोकाभिसंतप्ता गान्धारी हतबान्धवा ।
यदनुव्याजहारार्ता तदिदं समुपागमत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले—‘बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेपर पुत्रशोकसे संतप्त हुई गान्धारी देवीने अत्यन्त व्यथित होकर हमारे कुलके लिये जो शाप दिया था उसके सफल होनेका यह समय आ गया है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं च तदनुप्राप्तमब्रवीद् यद् युधिष्ठिरः।
पुरा व्यूढेष्वनीकेषु दृष्ट्वोत्पातान् सुदारुणान् ॥ २२ ॥

मूलम्

इदं च तदनुप्राप्तमब्रवीद् यद् युधिष्ठिरः।
पुरा व्यूढेष्वनीकेषु दृष्ट्वोत्पातान् सुदारुणान् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालमें कौरव-पाण्डवोंकी सेनाएँ जब व्यूहबद्ध होकर आमने-सामने खड़ी हुईं, उस समय भयानक उत्पातोंको देखकर युधिष्ठिरने जो कुछ कहा था, वैसा ही लक्षण इस समय भी उपस्थित है’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा वासुदेवस्तु चिकीर्षुः सत्यमेव तत्।
आज्ञापयामास तदा तीर्थयात्रामरिंदमः ॥ २३ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा वासुदेवस्तु चिकीर्षुः सत्यमेव तत्।
आज्ञापयामास तदा तीर्थयात्रामरिंदमः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर शत्रुदमन भगवान् श्रीकृष्णने गान्धारीके उस कथनको सत्य करनेकी इच्छासे यदुवंशियोंको उस समय तीर्थयात्राके लिये आज्ञा दी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अघोषयन्त पुरुषास्तत्र केशवशासनात् ।
तीर्थयात्रा समुद्रे वः कार्येति पुरुषर्षभाः ॥ २४ ॥

मूलम्

अघोषयन्त पुरुषास्तत्र केशवशासनात् ।
तीर्थयात्रा समुद्रे वः कार्येति पुरुषर्षभाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके आदेशसे राजकीय पुरुषोंने उस पुरीमें यह घोषणा कर दी कि ‘पुरुषप्रवर यादवो! तुम्हें समुद्रमें ही तीर्थयात्राके लिये चलना चाहिये। अर्थात् सबको प्रभासक्षेत्रमें उपस्थित होना चाहिये’॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि उत्पातदर्शने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत मौसलपर्वमें उत्पातदर्शनविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥