भागसूचना
अष्टात्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदजीके सम्मुख युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र आदिके लौकिक अग्निमें दग्ध हो जानेका वर्णन करते हुए विलाप और अन्य पाण्डवोंका भी रोदन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा महात्मनस्तस्य तपस्युग्रे च वर्ततः।
अनाथस्येव निधनं तिष्ठत्स्वास्मासु बन्धुषु ॥ १ ॥
मूलम्
तथा महात्मनस्तस्य तपस्युग्रे च वर्ततः।
अनाथस्येव निधनं तिष्ठत्स्वास्मासु बन्धुषु ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— भगवन्! हम-जैसे बन्धु-बान्धवोंके रहते हुए भी कठोर तपस्यामें लगे हुए महामना धृतराष्ट्रकी अनाथके समान मृत्यु हुई, यह कितने दुःखकी बात है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्विज्ञेया गतिर्ब्रह्मन् पुरुषाणां मतिर्मम।
यत्र वैचित्रवीर्योऽसौ दग्ध एवं वनाग्निना ॥ २ ॥
मूलम्
दुर्विज्ञेया गतिर्ब्रह्मन् पुरुषाणां मतिर्मम।
यत्र वैचित्रवीर्योऽसौ दग्ध एवं वनाग्निना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! मेरा तो ऐसा मत है कि मनुष्योंकी गतिका ठीक-ठीक ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है; जब कि विचित्रवीर्यकुमार धृतराष्ट्रको इस तरह दावानलसे दग्ध होकर मरना पड़ा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य पुत्रशतं श्रीमदभवद् बाहुशालिनः।
नागायुतबलो राजा स दग्धो हि दवाग्निना ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्य पुत्रशतं श्रीमदभवद् बाहुशालिनः।
नागायुतबलो राजा स दग्धो हि दवाग्निना ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन बाहुबलशाली नरेशके सौ पुत्र थे, जो स्वयं भी दस हजार हाथियोंके समान बलवान् थे, वे ही दावानलसे जलकर मरे हैं, यह कितने दुःखकी बात है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं पुरा पर्यवीजन्त तालवृन्तैर्वरस्त्रियः।
तं गृध्राः पर्यवीजन्त दावाग्निपरिकालितम् ॥ ४ ॥
मूलम्
यं पुरा पर्यवीजन्त तालवृन्तैर्वरस्त्रियः।
तं गृध्राः पर्यवीजन्त दावाग्निपरिकालितम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें सुन्दरी स्त्रियाँ जिन्हें सब ओरसे ताड़के पंखोंद्वारा हवा करती थीं, उन्हें दावानलसे दग्ध हो जानेपर गीधोंने अपनी पाँखोंसे हवा की है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतमागधसंघैश्च शयानो यः प्रबोध्यते।
धरण्यां स नृपः शेते पापस्य मम कर्मभिः ॥ ५ ॥
मूलम्
सूतमागधसंघैश्च शयानो यः प्रबोध्यते।
धरण्यां स नृपः शेते पापस्य मम कर्मभिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बहुमूल्य शय्यापर सोते थे और जिन्हें सूत तथा मागधोंके समुदाय मधुर गीतोंद्वारा जगाया करते थे, वे ही महाराज मुझ पापीकी करतूतोंसे पृथ्वीपर सो रहे हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च शोचामि गान्धारीं हतपुत्रां यशस्विनीम्।
पतिलोकमनुप्राप्तां तथा भर्तृव्रते स्थिताम् ॥ ६ ॥
मूलम्
न च शोचामि गान्धारीं हतपुत्रां यशस्विनीम्।
पतिलोकमनुप्राप्तां तथा भर्तृव्रते स्थिताम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे पुत्रहीना यशस्विनी गान्धारीके लिये उतना शोक नहीं है, क्योंकि वे पातिव्रत्य-धर्मका पालन करती थीं; अतः पतिलोकमें गयी हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथामेव च शोचामि या पुत्रैश्वर्यमृद्धिमत्।
उत्सृज्य सुमहद् दीप्तं वनवासमरोचयत् ॥ ७ ॥
मूलम्
पृथामेव च शोचामि या पुत्रैश्वर्यमृद्धिमत्।
उत्सृज्य सुमहद् दीप्तं वनवासमरोचयत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो उन माता कुन्तीके लिये ही अधिक शोक करता हूँ, जिन्होंने पुत्रोंके समृद्धिशाली एवं परम समुज्ज्वल ऐश्वर्यको ठुकराकर वनमें रहना पसंद किया था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिग् राज्यमिदमस्माकं धिग् बलं धिक् पराक्रमम्।
क्षत्रधर्मं च धिग् यस्मान्मृता जीवामहे वयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
धिग् राज्यमिदमस्माकं धिग् बलं धिक् पराक्रमम्।
क्षत्रधर्मं च धिग् यस्मान्मृता जीवामहे वयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे इस राज्यको धिक्कार है, बल और पराक्रमको धिक्कार है तथा इस क्षत्रिय-धर्मको भी धिक्कार है! जिससे आज हमलोग मृतकतुल्य जीवन बिता रहे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुसूक्ष्मा किल कालस्य गतिर्द्विजवरोत्तम।
यत् समुत्सृज्य राज्यं सा वनवासमरोचयत् ॥ ९ ॥
मूलम्
सुसूक्ष्मा किल कालस्य गतिर्द्विजवरोत्तम।
यत् समुत्सृज्य राज्यं सा वनवासमरोचयत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! कालकी गति अत्यन्त सूक्ष्म है, जिससे प्रेरित होकर माता कुन्तीने राज्य त्यागकर वनमें ही रहना ठीक समझा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्य जननी भीमस्य विजयस्य च।
अनाथवत् कथं दग्धा इति मुह्यामि चिन्तयन् ॥ १० ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्य जननी भीमस्य विजयस्य च।
अनाथवत् कथं दग्धा इति मुह्यामि चिन्तयन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुनकी माता अनाथकी भाँति कैसे जल गयी, यह सोचकर मैं मोहित हो जाता हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृथा संतर्पितो वह्निः खाण्डवे सव्यसाचिना।
उपकारमजानन् स कृतघ्न इति मे मतिः ॥ ११ ॥
मूलम्
वृथा संतर्पितो वह्निः खाण्डवे सव्यसाचिना।
उपकारमजानन् स कृतघ्न इति मे मतिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सव्यसाची अर्जुनने जो खाण्डववनमें अग्निदेवको तृप्त किया था, वह व्यर्थ हो गया। वे उस उपकारको याद न रखनेके कारण कृतघ्न हैं—ऐसी मेरी धारणा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रादहत् स भगवान् मातरं सव्यसाचिनः।
कृत्वा यो ब्राह्मणच्छद्म भिक्षार्थी समुपागतः ॥ १२ ॥
धिगग्निं धिक् च पार्थस्य विश्रुतां सत्यसंधताम्।
मूलम्
यत्रादहत् स भगवान् मातरं सव्यसाचिनः।
कृत्वा यो ब्राह्मणच्छद्म भिक्षार्थी समुपागतः ॥ १२ ॥
धिगग्निं धिक् च पार्थस्य विश्रुतां सत्यसंधताम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो एक दिन ब्राह्मणका वेश बनाकर अर्जुनसे भीख माँगने आये थे, उन्हीं भगवान् अग्निदेवने अर्जुनकी माँको जलाकर भस्म कर दिया। अग्निदेवको धिक्कार है! अर्जुनकी जो सुप्रसिद्ध सत्यप्रतिज्ञता है, उसको भी धिक्कार है!॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं कष्टतरं चान्यद् भगवन् प्रतिभाति मे ॥ १३ ॥
वृथाग्निना समायोगो यदभूत् पृथिवीपतेः।
मूलम्
इदं कष्टतरं चान्यद् भगवन् प्रतिभाति मे ॥ १३ ॥
वृथाग्निना समायोगो यदभूत् पृथिवीपतेः।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! राजा धृतराष्ट्रके शरीरको जो व्यर्थ (लौकिक) अग्निका संयोग प्राप्त हुआ, यह दूसरी अत्यन्त कष्ट देनेवाली बात जान पड़ती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तपस्विनस्तस्य राजर्षेः कौरवस्य ह ॥ १४ ॥
कथमेवंविधो मृत्युः प्रशास्य पृथिवीमिमाम्।
मूलम्
तथा तपस्विनस्तस्य राजर्षेः कौरवस्य ह ॥ १४ ॥
कथमेवंविधो मृत्युः प्रशास्य पृथिवीमिमाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने पहले इस पृथ्वीका शासन करके अन्तमें वैसी कठोर तपस्याका आश्रय लिया था, उन कुरुवंशी राजर्षिको ऐसी मृत्यु क्यों प्राप्त हुई?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठत्सु मन्त्रपूतेषु तस्याग्निषु महावने ॥ १५ ॥
वृथाग्निना समायुक्तो निष्ठां प्राप्तः पिता मम।
मूलम्
तिष्ठत्सु मन्त्रपूतेषु तस्याग्निषु महावने ॥ १५ ॥
वृथाग्निना समायुक्तो निष्ठां प्राप्तः पिता मम।
अनुवाद (हिन्दी)
हाय, उस महान् वनमें मन्त्रोंसे पवित्र हुई अग्नियोंके रहते हुए भी मेरे ताऊ लौकिक अग्निसे दग्ध होकर क्यों मृत्युको प्राप्त हुए?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये पृथा वेपमाना कृशा धमनिसंतता ॥ १६ ॥
हा तात! धर्मराजेति समाक्रन्दन्महाभये।
मूलम्
मन्ये पृथा वेपमाना कृशा धमनिसंतता ॥ १६ ॥
हा तात! धर्मराजेति समाक्रन्दन्महाभये।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो समझता हूँ कि अत्यन्त दुर्बल हो जानेके कारण जिनके शरीरमें फैली हुई नस-नाड़ियाँतक स्पष्ट दिखायी देती थीं, वे मेरी माता कुन्ती अग्निका महान् भय उपस्थित होनेपर ‘हा तात! हा धर्मराज!’ कहकर कातर पुकार मचाने लगी होंगी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीम पर्याप्नुहि भयादिति चैवाभिवाशती ॥ १७ ॥
समन्ततः परिक्षिप्ता माताभून्मे दवाग्निना।
मूलम्
भीम पर्याप्नुहि भयादिति चैवाभिवाशती ॥ १७ ॥
समन्ततः परिक्षिप्ता माताभून्मे दवाग्निना।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेन! इस भयसे मुझे बचाओ, ऐसा कहकर चारों ओर चीखती-चिल्लाती हुई मेरी माताको दावानलने जलाकर भस्म कर दिया होगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवः प्रियस्तस्याः पुत्रेभ्योऽधिक एव तु ॥ १८ ॥
न चैनां मोक्षयामास वीरो माद्रवतीसुतः।
मूलम्
सहदेवः प्रियस्तस्याः पुत्रेभ्योऽधिक एव तु ॥ १८ ॥
न चैनां मोक्षयामास वीरो माद्रवतीसुतः।
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेव मेरी माताको अपने सभी पुत्रोंसे अधिक प्रिय था; परंतु वह वीर माद्रीकुमार भी माँको उस संकटसे बचा न सका॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा रुरुदुः सर्वे समालिङ्ग्य परस्परम् ॥ १९ ॥
पाण्डवाः पञ्च दुःखार्ता भूतानीव युगक्षये।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा रुरुदुः सर्वे समालिङ्ग्य परस्परम् ॥ १९ ॥
पाण्डवाः पञ्च दुःखार्ता भूतानीव युगक्षये।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर समस्त पाण्डव एक-दूसरेको हृदयसे लगाकर रोने लगे। जैसे प्रलयकालमें पाँचों भूत पीडित हो जाते हैं, उसी प्रकार उस समय पाँचों पाण्डव दुःखसे आतुर हो उठे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु पुरुषेन्द्राणां रुदतां रुदितस्वनः ॥ २० ॥
प्रासादाभोगसंरुद्धे अन्वरौत्सीत् स रोदसी ॥ २१ ॥
मूलम्
तेषां तु पुरुषेन्द्राणां रुदतां रुदितस्वनः ॥ २० ॥
प्रासादाभोगसंरुद्धे अन्वरौत्सीत् स रोदसी ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ रोदन करते हुए उन पुरुषप्रवर पाण्डवोंके रोनेका शब्द महलके विस्तारसे अवरुद्ध हुए भूतल और आकाशमें गूँजने लगा॥२०-२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि नारदागमनपर्वणि युधिष्ठिरविलापे अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत नारदागमनपर्वमें युधिष्ठिरका विलापविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३८॥