भागसूचना
(नारदागमनपर्व)
सप्तत्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदजीसे धृतराष्ट्र आदिके दावानलमें दग्ध हो जानेका हाल जानकर युधिष्ठिर आदिका शोक करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विवर्षोपनिवृत्तेषु पाण्डवेषु यदृच्छया ।
देवर्षिर्नारदो राजन्नाजगाम युधिष्ठिरम् ॥ १ ॥
मूलम्
द्विवर्षोपनिवृत्तेषु पाण्डवेषु यदृच्छया ।
देवर्षिर्नारदो राजन्नाजगाम युधिष्ठिरम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पाण्डवोंको तपोवनसे आये जब दो वर्ष व्यतीत हो गये, तब एक दिन देवर्षि नारद दैवेच्छासे घूमते-घामते राजा युधिष्ठिरके यहाँ आ पहुँचे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्यर्च्य महाबाहुः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
आसीनं परिविश्वस्तं प्रोवाच वदतां वरः ॥ २ ॥
मूलम्
तमभ्यर्च्य महाबाहुः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
आसीनं परिविश्वस्तं प्रोवाच वदतां वरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु कुरुराज युधिष्ठिरने नारदजीकी पूजा करके उन्हें आसनपर बिठाया। जब वे आसनपर बैठकर थोड़ी देर विश्राम कर चुके, तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरने उनसे इस प्रकार पूछा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरात्तु नानुपश्यामि भगवन्तमुपस्थितम् ।
कच्चित् ते कुशलं विप्र शुभं वा प्रत्युपस्थितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
चिरात्तु नानुपश्यामि भगवन्तमुपस्थितम् ।
कच्चित् ते कुशलं विप्र शुभं वा प्रत्युपस्थितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! इधर दीर्घकालसे मैं आपकी उपस्थिति यहाँ नहीं देखता हूँ। ब्रह्मन्! कुशल तो है न? अथवा आपको शुभकी ही प्राप्ति होती है न?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
के देशाः परिदृष्टास्ते किं च कार्यं करोमि ते।
तद् ब्रूहि द्विजमुख्य त्वं त्वं ह्यस्माकं परा गतिः॥४॥
मूलम्
के देशाः परिदृष्टास्ते किं च कार्यं करोमि ते।
तद् ब्रूहि द्विजमुख्य त्वं त्वं ह्यस्माकं परा गतिः॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवर! इस समय आपने किन-किन देशोंका निरीक्षण किया है? बताइये मैं आपकी क्या सेवा करूँ? क्योंकि आप हमलोगोंकी परम गति हैं’॥४॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरदृष्टोऽसि मेत्येवमागतोऽहं तपोवनात् ।
परिदृष्टानि तीर्थानि गङ्गा चैव मया नृप ॥ ५ ॥
मूलम्
चिरदृष्टोऽसि मेत्येवमागतोऽहं तपोवनात् ।
परिदृष्टानि तीर्थानि गङ्गा चैव मया नृप ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— नरेश्वर! बहुत दिन पहले मैंने तुम्हें देखा था, इसीलिये मैं तपोवनसे सीधे यहाँ चला आ रहा हूँ। रास्तेमें मैंने बहुत-से तीर्थों और गङ्गाजीका भी दर्शन किया है॥५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वदन्ति पुरुषा मेऽद्य गङ्गातीरनिवासिनः।
धृतराष्ट्रं महात्मानमास्थितं परमं तपः ॥ ६ ॥
मूलम्
वदन्ति पुरुषा मेऽद्य गङ्गातीरनिवासिनः।
धृतराष्ट्रं महात्मानमास्थितं परमं तपः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— भगवान्! गङ्गाके किनारे रहनेवाले मनुष्य मेरे पास आकर कहा करते हैं कि महामनस्वी महाराज धृतराष्ट्र इन दिनों बड़ी कठोर तपस्यामें लगे हुए हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि दृष्टस्त्वया तत्र कुशली स कुरूद्वहः।
गान्धारी च पृथा चैव सूतपुत्रश्च संजयः ॥ ७ ॥
मूलम्
अपि दृष्टस्त्वया तत्र कुशली स कुरूद्वहः।
गान्धारी च पृथा चैव सूतपुत्रश्च संजयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या आपने भी उन्हें देखा है? वे कुरुश्रेष्ठ वहाँ कुशलसे तो हैं न? गान्धारी, कुन्ती तथा सूतपुत्र संजय भी सकुशल हैं न?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं च वर्तते चाद्य पिता मम स पार्थिवः।
श्रोतुमिच्छामि भगवन् यदि दृष्टस्त्वया नृपः ॥ ८ ॥
मूलम्
कथं च वर्तते चाद्य पिता मम स पार्थिवः।
श्रोतुमिच्छामि भगवन् यदि दृष्टस्त्वया नृपः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आजकल मेरे ताऊ राजा धृतराष्ट्र कैसे रहते हैं? भगवन्! यदि आपने उन्हें देखा हो तो मैं उनका समाचार सुनना चाहता हूँ॥८॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिरीभूय महाराज शृणु वृत्तं यथातथम्।
यथा श्रुतं च दृष्टं च मया तस्मिंस्तपोवने ॥ ९ ॥
मूलम्
स्थिरीभूय महाराज शृणु वृत्तं यथातथम्।
यथा श्रुतं च दृष्टं च मया तस्मिंस्तपोवने ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— महाराज! मैंने उस तपोवनमें जो कुछ देखा और सुना है, वह सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बतला रहा हूँ। तुम स्थिरचित्त होकर सुनो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनवासनिवृत्तेषु भवत्सु कुरुनन्दन ।
कुरुक्षेत्रात् पिता तुभ्यं गङ्गाद्वारं ययौ नृप ॥ १० ॥
गान्धार्या सहितो धीमान् वध्वा कुन्त्या समन्वितः।
संजयेन च सूतेन साग्निहोत्रः सयाजकः ॥ ११ ॥
मूलम्
वनवासनिवृत्तेषु भवत्सु कुरुनन्दन ।
कुरुक्षेत्रात् पिता तुभ्यं गङ्गाद्वारं ययौ नृप ॥ १० ॥
गान्धार्या सहितो धीमान् वध्वा कुन्त्या समन्वितः।
संजयेन च सूतेन साग्निहोत्रः सयाजकः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले नरेश! जब तुमलोग वनसे लौट आये, तब तुम्हारे बुद्धिमान् ताऊ राजा धृतराष्ट्र गान्धारी, बहू कुन्ती, सूत संजय, अग्निहोत्र और पुरोहितके साथ कुरुक्षेत्रसे गङ्गाद्वार (हरिद्वार)-को चले गये॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतस्थे स तपस्तीव्रं पिता तव तपोधनः।
वीटां मुखे समाधाय वायुभक्षोऽभवन्मुनिः ॥ १२ ॥
मूलम्
आतस्थे स तपस्तीव्रं पिता तव तपोधनः।
वीटां मुखे समाधाय वायुभक्षोऽभवन्मुनिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर तपस्याके धनी तुम्हारे ताऊने कठोर तपस्या आरम्भ की। वे मुँहमें पत्थरका टुकड़ा रखकर वायुका आहार करते और मौन रहते थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने स मुनिभिः सर्वैः पूज्यमानो महातपाः।
त्वगस्थिमात्रशेषः स षण्मासानभवन्नृपः ॥ १३ ॥
मूलम्
वने स मुनिभिः सर्वैः पूज्यमानो महातपाः।
त्वगस्थिमात्रशेषः स षण्मासानभवन्नृपः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें जितने ऋषि रहते थे, वे लोग उनका विशेष सम्मान करने लगे। महातपस्वी धृतराष्ट्रके शरीरपर चमड़ेसे ढकी हुई हड्डियोंका ढाँचामात्र रह गया था। उस अवस्थामें उन्होंने छः महीने व्यतीत किये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धारी तु जलाहारी कुन्ती मासोपवासिनी।
संजयः षष्ठभूक्तेन वर्तयामास भारत ॥ १४ ॥
मूलम्
गान्धारी तु जलाहारी कुन्ती मासोपवासिनी।
संजयः षष्ठभूक्तेन वर्तयामास भारत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! गान्धारी केवल जल पीकर रहने लगीं। कुन्तीदेवी एक महीनेतक उपवास करके एक दिन भोजन करती थीं और संजय छठे समय अर्थात् दो दिन उपवास करके तीसरे दिन संध्याको आहार ग्रहण करते थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नींस्तु याजकास्तत्र जुहुवुर्विधिवत् प्रभो।
दृश्यतोऽदृश्यतश्चैव वने तस्मिन् नृपस्य वै ॥ १५ ॥
मूलम्
अग्नींस्तु याजकास्तत्र जुहुवुर्विधिवत् प्रभो।
दृश्यतोऽदृश्यतश्चैव वने तस्मिन् नृपस्य वै ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! राजा धृतराष्ट्र उस वनमें कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे। यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण वहाँ उनके द्वारा स्थापित की हुई अग्निमें विधिवत् हवन करते रहते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिकेतोऽथ राजा स बभूव वनगोचरः।
ते चापि सहिते देव्यौ संजयश्च तमन्वयुः ॥ १६ ॥
मूलम्
अनिकेतोऽथ राजा स बभूव वनगोचरः।
ते चापि सहिते देव्यौ संजयश्च तमन्वयुः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब राजाका कोई निश्चित स्थान नहीं रह गया। वे वनमें सब ओर विचरते रहते थे। गान्धारी और कुन्ती ये दोनों देवियाँ साथ रहकर राजाके पीछे-पीछे लगी रहती थीं। संजय भी उन्हींका अनुसरण करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजयो नृपतेर्नेता समेषु विषमेषु च।
गान्धार्याश्च पृथा चैव चक्षुरासीदनिन्दिता ॥ १७ ॥
मूलम्
संजयो नृपतेर्नेता समेषु विषमेषु च।
गान्धार्याश्च पृथा चैव चक्षुरासीदनिन्दिता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊँची-नीची भूमि आ जानेपर संजय ही राजा धृतराष्ट्रको चलाते थे और अनिन्दिता सती-साध्वी कुन्ती गान्धारीके लिये नेत्र बनी हुई थीं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचिद् गङ्गायाः कच्छे स नृपसत्तमः।
गङ्गायामाप्लुतो धीमानाश्रमाभिमुखोऽभवत् ॥ १८ ॥
मूलम्
ततः कदाचिद् गङ्गायाः कच्छे स नृपसत्तमः।
गङ्गायामाप्लुतो धीमानाश्रमाभिमुखोऽभवत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिनकी बात है, बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्रने गङ्गाके कछारमें जाकर उनके जलमें डुबकी लगायी और स्नानके पश्चात् वे अपने आश्रमकी ओर चल पड़े॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वायुः समुद्भूतो दावाग्निरभवन्महान्।
ददाह तद् वनं सर्वं परिगृह्य समन्ततः ॥ १९ ॥
मूलम्
अथ वायुः समुद्भूतो दावाग्निरभवन्महान्।
ददाह तद् वनं सर्वं परिगृह्य समन्ततः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें वहाँ बड़े जोरकी हवा चली। जिससे उस वनमें बड़ी भारी दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उसने चारों ओरसे उस सारे वनको जलाना आरम्भ किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह्यत्सु मृगयूथेषु द्विजिह्वेषु समन्ततः।
वराहाणां च यूथेषु संश्रयत्सु जलाशयान् ॥ २० ॥
मूलम्
दह्यत्सु मृगयूथेषु द्विजिह्वेषु समन्ततः।
वराहाणां च यूथेषु संश्रयत्सु जलाशयान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओर मृगोंके झुंड और सर्प दग्ध होने लगे। वनैले सूअर भाग-भागकर जलाशयोंकी शरण लेने लगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाविद्धे वने तस्मिन् प्राप्ते व्यसन उत्तमे।
निराहारतया राजन् मन्दप्राणविचेष्टितः ॥ २१ ॥
असमर्थोऽपसरणे सुकृशे मातरौ च ते।
मूलम्
समाविद्धे वने तस्मिन् प्राप्ते व्यसन उत्तमे।
निराहारतया राजन् मन्दप्राणविचेष्टितः ॥ २१ ॥
असमर्थोऽपसरणे सुकृशे मातरौ च ते।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सारा वन आगसे घिर गया और उन लोगोंपर बड़ा भारी संकट आ गया। उपवास करनेसे प्राणशक्ति क्षीण हो जानेके कारण राजा धृतराष्ट्र वहाँसे भागनेमें असमर्थ थे, तुम्हारी दोनों माताएँ भी अत्यन्त दुर्बल हो गयी थीं; अतः वे भी भागनेमें असमर्थ थीं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स नृपतिर्दृष्ट्वा वह्निमायान्तमन्तिकात् ॥ २२ ॥
इदमाह ततः सूतं संजयं जयतां वरः।
मूलम्
ततः स नृपतिर्दृष्ट्वा वह्निमायान्तमन्तिकात् ॥ २२ ॥
इदमाह ततः सूतं संजयं जयतां वरः।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर विजयी पुरुषोंमें श्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्रने उस अग्निको निकट आती जान सूत संजयसे इस प्रकार कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ संजय यत्राग्निर्न त्वां दहति कर्हिचित् ॥ २३ ॥
वयमत्राग्निना युक्ता गमिष्यामः परां गतिम्।
मूलम्
गच्छ संजय यत्राग्निर्न त्वां दहति कर्हिचित् ॥ २३ ॥
वयमत्राग्निना युक्ता गमिष्यामः परां गतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! तुम किसी ऐसे स्थानमें भाग जाओ, जहाँ यह दावाग्नि तुम्हें कदापि जला न सके। हमलोग तो अब यहीं अपनेको अग्निमें होम कर परम गति प्राप्त करेंगे’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच किलोद्विग्नः संजयो वदतां वरः ॥ २४ ॥
राजन् मृत्युरनिष्टोऽयं भविता ते वृथाग्निना।
न चोपायं प्रपश्यामि मोक्षणे जातवेदसः ॥ २५ ॥
मूलम्
तमुवाच किलोद्विग्नः संजयो वदतां वरः ॥ २४ ॥
राजन् मृत्युरनिष्टोऽयं भविता ते वृथाग्निना।
न चोपायं प्रपश्यामि मोक्षणे जातवेदसः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ संजयने अत्यन्त उद्विग्न होकर कहा—‘राजन्! इस लौकिक अग्निसे आपकी मृत्यु होना ठीक नहीं है, (आपके शरीरका दाह-संस्कार तो आहवनीय अग्निमें होना चाहिये।) किंतु इस समय इस दावानलसे छुटकारा पानेका कोई उपाय भी मुझे नहीं दिखायी देता॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदत्रानन्तरं कार्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति।
इत्युक्तः संजयेनेदं पुनराह स पार्थिवः ॥ २६ ॥
मूलम्
यदत्रानन्तरं कार्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति।
इत्युक्तः संजयेनेदं पुनराह स पार्थिवः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब इसके बाद क्या करना चाहिये—यह बतानेकी कृपा करें।’ संजयके ऐसा कहनेपर राजाने फिर कहा—॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैष मृत्युरनिष्टो नो निःसृतानां गृहात् स्वयम्।
जलमग्निस्तथा वायुरथवापि विकर्षणम् ॥ २७ ॥
तापसानां प्रशस्यन्ते गच्छ संजय मा चिरम्।
मूलम्
नैष मृत्युरनिष्टो नो निःसृतानां गृहात् स्वयम्।
जलमग्निस्तथा वायुरथवापि विकर्षणम् ॥ २७ ॥
तापसानां प्रशस्यन्ते गच्छ संजय मा चिरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! हमलोग स्वयं गृहस्थाश्रमका परित्याग करके चले आये हैं, अतः हमारे लिये इस तरहकी मृत्यु अनिष्टकारक नहीं हो सकती। जल, अग्नि तथा वायुके संयोगसे अथवा उपवास करके प्राण त्यागना तपस्वियोंके लिये प्रशंसनीय माना गया है; इसलिये अब तुम शीघ्र यहाँसे चले जाओ। विलम्ब न करो’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा संजयं राजा समाधाय मनस्तथा ॥ २८ ॥
प्राङ्मुखः सह गान्धार्या कुन्त्या चोपाविशत् तदा।
मूलम्
इत्युक्त्वा संजयं राजा समाधाय मनस्तथा ॥ २८ ॥
प्राङ्मुखः सह गान्धार्या कुन्त्या चोपाविशत् तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
संजयसे ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्रने मनको एकाग्र किया और गान्धारी तथा कुन्तीके साथ वे पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजयस्तं तथा दृष्ट्वा प्रदक्षिणमथाकरोत् ॥ २९ ॥
उवाच चैनं मेधावी युङ्क्ष्वात्मानमिति प्रभो।
मूलम्
संजयस्तं तथा दृष्ट्वा प्रदक्षिणमथाकरोत् ॥ २९ ॥
उवाच चैनं मेधावी युङ्क्ष्वात्मानमिति प्रभो।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें उस अवस्थामें देख मेधावी संजयने उनकी परिक्रमा की और कहा—‘महाराज! अब अपनेको योगयुक्त कीजिये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिपुत्रो मनीषी स राजा चक्रेऽस्य तद् वचः ॥ ३० ॥
सन्निरुध्येन्द्रियग्राममासीत् काष्ठोपमस्तदा ।
मूलम्
ऋषिपुत्रो मनीषी स राजा चक्रेऽस्य तद् वचः ॥ ३० ॥
सन्निरुध्येन्द्रियग्राममासीत् काष्ठोपमस्तदा ।
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि व्यासके पुत्र मनीषी राजा धृतराष्ट्रने संजयकी वह बात मान ली। वे इन्द्रियसमुदायको रोककर काष्ठकी भाँति निश्चेष्ट हो गये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धारी च महाभागा जननी च पृथा तव ॥ ३१ ॥
दावाग्निना समायुक्ते स च राजा पिता तव।
संजयस्तु महामात्रस्तस्माद् दावादमुच्यत ॥ ३२ ॥
मूलम्
गान्धारी च महाभागा जननी च पृथा तव ॥ ३१ ॥
दावाग्निना समायुक्ते स च राजा पिता तव।
संजयस्तु महामात्रस्तस्माद् दावादमुच्यत ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद महाभागा गान्धारी, तुम्हारी माता कुन्ती तथा तुम्हारे ताऊ राजा धृतराष्ट्र—ये तीनों ही दावाग्निमें जलकर भस्म हो गये; परंतु महामात्य संजय उस दावाग्निसे जीवित बच गये हैं॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गङ्गाकूले मया दृष्टस्तापसैः परिवारितः।
स तानामन्त्र्य तेजस्वी निवेद्यैतच्च सर्वशः ॥ ३३ ॥
प्रययौ संजयो धीमान् हिमवन्तं महीधरम्।
मूलम्
गङ्गाकूले मया दृष्टस्तापसैः परिवारितः।
स तानामन्त्र्य तेजस्वी निवेद्यैतच्च सर्वशः ॥ ३३ ॥
प्रययौ संजयो धीमान् हिमवन्तं महीधरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने संजयको गंगातटपर तापसोंसे घिरा देखा है। बुद्धिमान् और तेजस्वी संजय तापसोंको यह सब समाचार बताकर उनसे विदा ले हिमालयपर्वतपर चले गये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स निधनं प्राप्तः कुरुराजो महामनाः ॥ ३४ ॥
गान्धारी च पृथा चैव जनन्यौ ते विशाम्पते।
मूलम्
एवं स निधनं प्राप्तः कुरुराजो महामनाः ॥ ३४ ॥
गान्धारी च पृथा चैव जनन्यौ ते विशाम्पते।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! इस प्रकार महामनस्वी कुरुराज धृतराष्ट्र तथा तुम्हारी दोनों माताएँ गान्धारी और कुन्ती मृत्युको प्राप्त हो गयीं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदृच्छयानुव्रजता मया राज्ञः कलेवरम् ॥ ३५ ॥
तयोश्च देव्योरुभयोर्मया दृष्टानि भारत।
मूलम्
यदृच्छयानुव्रजता मया राज्ञः कलेवरम् ॥ ३५ ॥
तयोश्च देव्योरुभयोर्मया दृष्टानि भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वनमें घूमते समय अकस्मात् राजा धृतराष्ट्र तथा उन देवियोंके मृत शरीर मेरी दृष्टिमें पड़े थे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तपोवने तस्मिन् समाजग्मुस्तपोधनाः ॥ ३६ ॥
श्रुत्वा राज्ञस्तदा निष्ठां न त्वशोचन् गतीश्च ते।
मूलम्
ततस्तपोवने तस्मिन् समाजग्मुस्तपोधनाः ॥ ३६ ॥
श्रुत्वा राज्ञस्तदा निष्ठां न त्वशोचन् गतीश्च ते।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजाकी मृत्युका समाचार सुनकर बहुत-से तपोधन उस तपोवनमें आये। उन्होंने उनके लिये कोई शोक नहीं किया; क्योंकि उन तीनोंकी सद्गतिके विषयमें उनके मनमें संशय नहीं था॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राश्रौषमहं सर्वमेतत् पुरुषसत्तम ॥ ३७ ॥
यथा च नृपतिर्दग्धो देव्यौ ते चेति पाण्डव।
मूलम्
तत्राश्रौषमहं सर्वमेतत् पुरुषसत्तम ॥ ३७ ॥
यथा च नृपतिर्दग्धो देव्यौ ते चेति पाण्डव।
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर पाण्डव! जिस प्रकार राजा धृतराष्ट्र तथा उन दोनों देवियोंका दाह हुआ है, यह सारा समाचार मैंने वहीं सुना था॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शोचितव्यं राजेन्द्र स्वतः स पृथिवीपतिः ॥ ३८ ॥
प्राप्तवानग्निसंयोगं गान्धारी जननी च ते।
मूलम्
न शोचितव्यं राजेन्द्र स्वतः स पृथिवीपतिः ॥ ३८ ॥
प्राप्तवानग्निसंयोगं गान्धारी जननी च ते।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और तुम्हारी माता कुन्ती—तीनोंने स्वतः अग्निसंयोग प्राप्त किया था; अतः उनके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये॥३८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा च सर्वेषां पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ३९ ॥
निर्याणं धृतराष्ट्रस्य शोकः समभवन्महान्।
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा च सर्वेषां पाण्डवानां महात्मनाम् ॥ ३९ ॥
निर्याणं धृतराष्ट्रस्य शोकः समभवन्महान्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा धृतराष्ट्रका यह परलोकगमनका समाचार सुनकर उन सभी महामना पाण्डवोंको बड़ा शोक हुआ॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःपुराणां च तदा महानार्तस्वरोऽभवत् ॥ ४० ॥
पौराणां च महाराज श्रुत्वा राज्ञस्तदा गतिम्।
मूलम्
अन्तःपुराणां च तदा महानार्तस्वरोऽभवत् ॥ ४० ॥
पौराणां च महाराज श्रुत्वा राज्ञस्तदा गतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उनके अन्तःपुरमें उस समय महान् आर्तनाद होने लगा। राजाकी वैसी गति सुनकर पुरवासियोंमें भी हाहाकार मच गया॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो धिगिति राजा तु विक्रुश्य भृशदुःखितः ॥ ४१ ॥
ऊर्ध्वबाहुः स्मरन् मातुः प्ररुरोद युधिष्ठिरः।
मूलम्
अहो धिगिति राजा तु विक्रुश्य भृशदुःखितः ॥ ४१ ॥
ऊर्ध्वबाहुः स्मरन् मातुः प्ररुरोद युधिष्ठिरः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! धिक्कार है!’ इस प्रकार अपनी निन्दा करके राजा युधिष्ठिर बहुत दुःखी हो गये तथा दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर अपनी माताको याद करके फूट-फूटकर रोने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनपुरोगाश्च भ्रातरः सर्व एव ते ॥ ४२ ॥
अन्तःपुरेषु च तदा सुमहान् रुदितस्वनः।
प्रादुरासीन्महाराज पृथां श्रुत्वा तथागताम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
भीमसेनपुरोगाश्च भ्रातरः सर्व एव ते ॥ ४२ ॥
अन्तःपुरेषु च तदा सुमहान् रुदितस्वनः।
प्रादुरासीन्महाराज पृथां श्रुत्वा तथागताम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन आदि सभी भाई रोने लगे। महाराज! कुन्तीकी वैसी दशा सुनकर अन्तःपुरमें भी रोने-बिलखनेका महान् शब्द सुनायी देने लगा॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च वृद्धं तथा दग्धं हतपुत्रं नराधिपम्।
अन्वशोचन्त ते सर्वे गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
तं च वृद्धं तथा दग्धं हतपुत्रं नराधिपम्।
अन्वशोचन्त ते सर्वे गान्धारीं च तपस्विनीम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रहीन बूढ़े राजा धृतराष्ट्र तथा तपस्विनी गान्धारी-देवीको इस प्रकार दग्ध हुई सुनकर सब लोग बारंबार शोक करने लगे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नुपरते शब्दे मुहूर्तादिव भारत।
निगृह्य बाष्पं धैर्येण धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
तस्मिन्नुपरते शब्दे मुहूर्तादिव भारत।
निगृह्य बाष्पं धैर्येण धर्मराजोऽब्रवीदिदम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! दो घड़ी बाद जब रोने-धोनेकी आवाज बंद हुई, तब धर्मराज युधिष्ठिर धैर्यपूर्वक अपने आँसू पोंछकर नारदजीसे इस प्रकार कहने लगे॥४५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि नारदागमनपर्वणि दावाग्निना धृतराष्ट्रादिदाहे सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत नारदागमनपर्वमें धृतराष्ट्र आदिका दावाग्निसे दाहविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३७॥