भागसूचना
चतुस्त्रिंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मरे हुए पुरुषोंका अपने पूर्व शरीरसे ही यहाँ पुनः दर्शन देना कैसे सम्भव है, जनमेजयकी इस शंकाका वैशम्पायनद्वारा समाधान
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा नृपो विद्वान् हृष्टोऽभूज्जनमेजयः।
पितामहानां सर्वेषां गमनागमनं तदा ॥ १ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा नृपो विद्वान् हृष्टोऽभूज्जनमेजयः।
पितामहानां सर्वेषां गमनागमनं तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौति कहते हैं— अपने समस्त पितामहोंके इस प्रकार परलोकसे आने और जानेका वृत्तान्त सुनकर विद्वान् राजा जनमेजय बड़े प्रसन्न हुए॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीच्च मुदा युक्तः पुनरागमनं प्रति।
कथं नु त्यक्तदेहानां पुनस्तद्रूपदर्शनम् ॥ २ ॥
मूलम्
अब्रवीच्च मुदा युक्तः पुनरागमनं प्रति।
कथं नु त्यक्तदेहानां पुनस्तद्रूपदर्शनम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रसन्न होकर वे पुनरागमनके विषयमें संदेह करते हुए बोले—‘भला, जिन्होंने अपने शरीरका परित्याग कर दिया है, उन पुरुषोंका उसी रूपमें दर्शन कैसे हो सकता है?’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स द्विजश्रेष्ठो व्यासशिष्यः प्रतापवान्।
प्रोवाच वदतां श्रेष्ठस्तं नृपं जनमेजयम् ॥ ३ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स द्विजश्रेष्ठो व्यासशिष्यः प्रतापवान्।
प्रोवाच वदतां श्रेष्ठस्तं नृपं जनमेजयम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ प्रतापी व्यासशिष्य विप्रवर वैशम्पायनने उन राजा जनमेजयसे कहा॥३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविप्रणाशः सर्वेषां कर्मणामिति निश्चयः।
कर्मजानि शरीराणि तथैवाकृतयो नृप ॥ ४ ॥
मूलम्
अविप्रणाशः सर्वेषां कर्मणामिति निश्चयः।
कर्मजानि शरीराणि तथैवाकृतयो नृप ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी बोले— नरेश्वर! यह सिद्धान्त है कि समस्त कर्मोंका फल भोग किये बिना उनका नाश नहीं होता। जीवात्माको जो शरीर और नाना प्रकारकी आकृतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब कर्मजनित ही हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभूतानि नित्यानि भूताधिपतिसंश्रयात् ।
तेषां च नित्यसंवासो न विनाशो वियुज्यताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
महाभूतानि नित्यानि भूताधिपतिसंश्रयात् ।
तेषां च नित्यसंवासो न विनाशो वियुज्यताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूतनाथ भगवान्के आश्रयसे पाँचों महाभूत हमारे शरीरोंकी अपेक्षा नित्य हैं। उन नित्य महाभूतोंका अनित्य शरीरोंके साथ संसार-दशामें नित्य संयोग है। अनित्य शरीरोंका नाश होनेपर इन नित्य महाभूतोंका उनसे वियोगमात्र होता है, विनाश नहीं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनायासकृतं कर्म सत्यः श्रेष्ठः फलागमः।
आत्मा चैभिः समायुक्तः सुखदुःखमुपाश्नुते ॥ ६ ॥
मूलम्
अनायासकृतं कर्म सत्यः श्रेष्ठः फलागमः।
आत्मा चैभिः समायुक्तः सुखदुःखमुपाश्नुते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्तृत्व-अभिमानके बिना अनायास किये जानेवाले कर्मका जो फल प्राप्त होता है, वह सत्य और श्रेष्ठ है अर्थात् मुक्तिदायक है। कर्तृत्व-अभिमान और परिश्रमपूर्वक किये हुए कर्मोंसे बँधा हुआ जीवात्मा सुख-दुःखका उपभोग करता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविनाश्यस्तथायुक्तः क्षेत्रज्ञ इति निश्चयः।
भूतानामात्मको भावो यथासौ न वियुज्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
अविनाश्यस्तथायुक्तः क्षेत्रज्ञ इति निश्चयः।
भूतानामात्मको भावो यथासौ न वियुज्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षेत्रज्ञ इस प्रकार कर्मोंसे संयुक्त होकर भी वास्तवमें अविनाशी ही है, यह निश्चित है। किंतु भूतोंके साथ तादात्म्यभाव स्वीकार कर लेनेके कारण वह ज्ञानके बिना उनसे अलग नहीं हो पाता॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्न क्षीयते कर्म तावत् तस्य स्वरूपता।
क्षीणकर्मा नरो लोके रूपान्यत्वं नियच्छति ॥ ८ ॥
मूलम्
यावन्न क्षीयते कर्म तावत् तस्य स्वरूपता।
क्षीणकर्मा नरो लोके रूपान्यत्वं नियच्छति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक शरीरके प्रारब्ध-कर्मोंका क्षय नहीं होता तबतक उस जीवकी उस शरीरसे एकरूपता रहती है। जब कर्मोंका क्षय हो जाता है, तब वह दूसरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाभावास्तथैकत्वं शरीरं प्राप्य संहताः।
भवन्ति ते तथा नित्याः पृथग्भावं विजानताम् ॥ ९ ॥
मूलम्
नानाभावास्तथैकत्वं शरीरं प्राप्य संहताः।
भवन्ति ते तथा नित्याः पृथग्भावं विजानताम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत-इन्द्रिय आदि नाना प्रकारके पदार्थ शरीरको पाकर एकत्वको प्राप्त हो गये हैं। जो देह आदिको आत्मासे पृथक् जानते हैं, उन योगियोंके लिये वे सारे पदार्थ नित्य आत्मस्वरूप हो जाते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वमेधे श्रुतिश्चेयमश्वसंज्ञपनं प्रति ।
लोकान्तरगता नित्यं प्राणा नित्यं शरीरिणाम् ॥ १० ॥
मूलम्
अश्वमेधे श्रुतिश्चेयमश्वसंज्ञपनं प्रति ।
लोकान्तरगता नित्यं प्राणा नित्यं शरीरिणाम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्वमेध यज्ञमें जब अश्वका वध किया जाता है, उस समय जो ‘सूर्यं ते चक्षुः वातं प्राणः’ (तुम्हारे नेत्र सूर्यको और प्राण वायुको प्राप्त हों) इत्यादि मन्त्र पढ़े जाते हैं, उनसे यह सूचित होता है कि देहधारियोंके प्राण—इन्द्रियाँ निश्चितरूपसे सर्वदा लोकान्तरमें स्थित होती हैं। (अतः परलोकमें गये हुए जीवोंका वैसे ही रूपसे इस लोकमें पुनः प्रकट हो जाना असम्भव नहीं है)॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हितं वदाम्येतत् प्रियं चेत् तव पार्थिव।
देवयाना हि पन्थानः श्रुतास्ते यज्ञसंस्तरे ॥ ११ ॥
मूलम्
अहं हितं वदाम्येतत् प्रियं चेत् तव पार्थिव।
देवयाना हि पन्थानः श्रुतास्ते यज्ञसंस्तरे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! तुम्हें प्रिय लगे तो मैं तुम्हारे हितकी बात बताता हूँ। यज्ञ आरम्भ करते समय तुमने देवयान-मार्गोंकी बात सुनी होगी। वे ही तुम्हारे योग्य हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहृतो यत्र यज्ञस्ते तत्र देवा हितास्तव।
यदा समन्विता देवाः पशूनां गमनेश्वराः ॥ १२ ॥
मूलम्
आहृतो यत्र यज्ञस्ते तत्र देवा हितास्तव।
यदा समन्विता देवाः पशूनां गमनेश्वराः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब तुमने यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया, तभीसे देवतालोग तुम्हारे हितैषी सुहृद् हो गये। जब इस प्रकार देवता मित्रभावसे युक्त होते हैं, तब वे जीवोंको लोकान्तरकी प्राप्ति करानेमें समर्थ होनेके कारण उनपर अनुग्रह करके उन्हें अभीष्ट लोकोंकी प्राप्ति करा देते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतिमन्तश्च तेनेष्ट्वा नान्ये नित्या भवत्न्युत।
नित्येऽस्मिन् पञ्चके वर्गे नित्ये चात्मनि पूरुषः ॥ १३ ॥
अस्य नानासमायोगं यः पश्यति वृथामतिः।
वियोगे शोचतेऽत्यर्थं स बाल इति मे मतिः ॥ १४ ॥
मूलम्
गतिमन्तश्च तेनेष्ट्वा नान्ये नित्या भवत्न्युत।
नित्येऽस्मिन् पञ्चके वर्गे नित्ये चात्मनि पूरुषः ॥ १३ ॥
अस्य नानासमायोगं यः पश्यति वृथामतिः।
वियोगे शोचतेऽत्यर्थं स बाल इति मे मतिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये नित्य जीव यज्ञोंद्वारा देवताओंकी आराधना करके लोकान्तरमें जानेकी शक्ति पाते हैं। जो यज्ञ नहीं करते, वे वैसे नहीं हो पाते। यह पाञ्चभौतिक वर्ग नित्य है और आत्मा भी नित्य है। ऐसी दशामें जो मनुष्य उस आत्माका अनेक प्रकारके देहोंसे सम्बन्ध तथा उनके जन्म और नाशसे आत्माका भी जन्म और नाश समझता है, उसकी बुद्धि व्यर्थ है। इसी प्रकार किसीसे किसीका वियोग हो जानेपर जो अत्यन्त शोक करता है, वह भी मेरे मतमें बालक ही है॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वियोगे दोषदर्शी यः संयोगं स विसर्जयेत्।
असङ्गे सङ्गमो नास्ति दुःखं भूवि वियोगजम् ॥ १५ ॥
मूलम्
वियोगे दोषदर्शी यः संयोगं स विसर्जयेत्।
असङ्गे सङ्गमो नास्ति दुःखं भूवि वियोगजम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वियोगमें दोष देखता है, वह संयोगका त्याग कर दे; क्योंकि असंग आत्मामें संगम या संयोग नहीं है। जो उसमें संयोगका आरोप करता है, उसीको इस भूतलपर वियोगका दुःख सहना पड़ता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परापरज्ञस्त्वपरो नाभिमानादुदीरितः ।
अपरज्ञः परां बुद्धिं ज्ञात्वा मोहाद् विमुच्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
परापरज्ञस्त्वपरो नाभिमानादुदीरितः ।
अपरज्ञः परां बुद्धिं ज्ञात्वा मोहाद् विमुच्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरा जो अपने-परायेके ज्ञानमें ही उलझा रहता है, वह अभिमानसे ऊपर नहीं उठ पाता। जो किसीके लिये पराया नहीं है, उस परमात्माको जाननेवाला पुरुष उत्तम बुद्धिको पाकर मोहसे मुक्त हो जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः ।
नाहं तं वेद्मि नासौ मां न च मेऽस्ति विरागता॥१७॥
मूलम्
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः ।
नाहं तं वेद्मि नासौ मां न च मेऽस्ति विरागता॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मुक्त पुरुष अव्यक्तसे ही प्रकट हुआ था और पुनः अव्यक्तमें ही लीन हो गया। न मैं उसे जानता हूँ1 न वह मुझे2। (फिर तुम भी वैसे ही बन्धनमुक्त क्यों न हो गये? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं।) मुझमें वैराग्य नहीं है (पर वैराग्य ही मोक्षका मुख्य साधन है।)॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन शरीरेण करोत्ययमनीश्वरः।
तेन तेन शरीरेण तदवश्यमुपाश्नुते।
मानसं मनसाऽऽप्नोति शरीरं च शरीरवान् ॥ १८ ॥
मूलम्
येन येन शरीरेण करोत्ययमनीश्वरः।
तेन तेन शरीरेण तदवश्यमुपाश्नुते।
मानसं मनसाऽऽप्नोति शरीरं च शरीरवान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह पराधीन जीव जिस-जिस शरीरसे कर्म करता है, उस-उस शरीरसे उसका फल अवश्य भोगता है। मानस कर्मका फल मनसे और शारीरिक कर्मका फल शरीर धारण करके भोगता है॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि पुत्रदर्शनपर्वणि जनमेजयं प्रति वैशम्पायनवाक्ये चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत पुत्रदर्शनपर्वमें जनमेजयके प्रति वैशम्पायनका वाक्यविषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३४॥