०३० व्यासकुन्तीसंवादे

भागसूचना

त्रिंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुन्तीका कर्णके जन्मका गुप्त रहस्य बताना और व्यासजीका उन्हें सान्त्वना देना

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् श्वशुरो मेऽसि दैवतस्यापि दैवतम्।
स मे देवातिदेवस्त्वं शृणु सत्यां गिरं मम ॥ १ ॥

मूलम्

भगवन् श्वशुरो मेऽसि दैवतस्यापि दैवतम्।
स मे देवातिदेवस्त्वं शृणु सत्यां गिरं मम ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्ती बोली— भगवन्! आप मेरे श्वशुर हैं, मेरे देवताके भी देवता हैं; अतः मेरे लिये देवताओंसे भी बढ़कर हैं (आज मैं आपके सामने अपने जीवनका एक गुप्त रहस्य प्रकट करती हूँ)। मेरी यह सच्ची बात सुनिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपस्वी कोपनो विप्रो दुर्वासा नाम मे पितुः।
भिक्षामुपागतो भोक्तुं तमहं पर्यतोषयम् ॥ २ ॥

मूलम्

तपस्वी कोपनो विप्रो दुर्वासा नाम मे पितुः।
भिक्षामुपागतो भोक्तुं तमहं पर्यतोषयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, परम क्रोधी तपस्वी ब्राह्मण दुर्वासा मेरे पिताके यहाँ भिक्षाके लिये आये थे। मैंने उन्हें अपने द्वारा की गयी सेवाओंसे संतुष्ट कर लिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शौचेन त्वागसस्त्यागैः शुद्धेन मनसा तथा।
कोपस्थानेष्वपि महत्स्त्वकुप्यन्न कदाचन ॥ ३ ॥

मूलम्

शौचेन त्वागसस्त्यागैः शुद्धेन मनसा तथा।
कोपस्थानेष्वपि महत्स्त्वकुप्यन्न कदाचन ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं शौचाचारका पालन करती, अपराधसे बची रहती और शुद्ध हृदयसे उनकी आराधना करती थी। क्रोधके बड़े-से-बड़े कारण उपस्थित होनेपर भी मैंने कभी उनपर क्रोध नहीं किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्रीतो वरदो मेऽभूत् कृतकृत्यो महामुनिः।
अवश्यं ते गृहीतव्यमिति मां सोऽब्रवीद् वचः ॥ ४ ॥

मूलम्

स प्रीतो वरदो मेऽभूत् कृतकृत्यो महामुनिः।
अवश्यं ते गृहीतव्यमिति मां सोऽब्रवीद् वचः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे वे वरदायक महामुनि मुझपर बहुत प्रसन्न हुए। जब उनका कार्य पूरा हो गया तब वे बोले—‘तुम्हें मेरा दिया हुआ वरदान अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शापभयाद् विप्रमवोचं पुनरेव तम्।
एवमस्त्विति च प्राह पुनरेव स मे द्विजः ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः शापभयाद् विप्रमवोचं पुनरेव तम्।
एवमस्त्विति च प्राह पुनरेव स मे द्विजः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी बात सुनकर मैंने शापके भयसे पुनः उन ब्रह्मर्षिसे कहा—‘भगवन्! ऐसा ही हो।’ तब वे ब्राह्मणदेवता फिर मुझसे बोले—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य जननी भद्रे भवित्री त्वं शुभानने।
वशे स्थास्यन्ति ते देवा यांस्त्वमावाहयिष्यसि ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्मस्य जननी भद्रे भवित्री त्वं शुभानने।
वशे स्थास्यन्ति ते देवा यांस्त्वमावाहयिष्यसि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भद्रे! तुम धर्मकी जननी होओगी। शुभानने! तुम जिन देवताओंका आवाहन करोगी, वे तुम्हारे वशमें हो जायँगे’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वान्तर्हितो विप्रस्ततोऽहं विस्मिताभवम् ।
न च सर्वास्ववस्थासु स्मृतिर्मे विप्रणश्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वान्तर्हितो विप्रस्ततोऽहं विस्मिताभवम् ।
न च सर्वास्ववस्थासु स्मृतिर्मे विप्रणश्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों कहकर वे ब्रह्मर्षि अन्तर्धान हो गये। उस समय मैं वहाँ आश्चर्यसे चकित हो गयी। किसी भी अवस्थामें उनकी बात मुझे भूलती नहीं थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ हर्म्यतलस्थाहं रविमुद्यन्तमीक्षती ।
संस्मृत्य तदृषेर्वाक्यं स्पृहयन्ती दिवानिशम् ॥ ८ ॥

मूलम्

अथ हर्म्यतलस्थाहं रविमुद्यन्तमीक्षती ।
संस्मृत्य तदृषेर्वाक्यं स्पृहयन्ती दिवानिशम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन जब मैं अपने महलकी छतपर खड़ी थी, उगते हुए सूर्यपर मेरी दृष्टि पड़ी। महर्षि दुर्वासाके वचनोंका स्मरण करके मैं दिन-रात सूर्यदेवको चाहने लगी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिताऽहं बालभावेन तत्र दोषमबुद्‌ध्यती।
अथ देवः सहस्रांशुर्मत्समीपगतोभवत् ॥ ९ ॥

मूलम्

स्थिताऽहं बालभावेन तत्र दोषमबुद्‌ध्यती।
अथ देवः सहस्रांशुर्मत्समीपगतोभवत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मैं बाल-स्वभावसे युक्त थी। सूर्यदेवके आगमनसे किस दोषकी प्राप्ति होगी, इसे मैं नहीं समझ सकी। इधर मेरे आवाहन करते ही भगवान् सूर्य पास आकर खड़े हो गये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विधाकृत्वाऽऽत्मनो देहं भूमौ च गगनेऽपि च।
तताप लोकानेकेन द्वितीयेनागमत् स माम् ॥ १० ॥

मूलम्

द्विधाकृत्वाऽऽत्मनो देहं भूमौ च गगनेऽपि च।
तताप लोकानेकेन द्वितीयेनागमत् स माम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने दो शरीर बनाकर एकसे आकाशमें रहकर सम्पूर्ण विश्वको प्रकाशित करने लगे और दूसरेसे पृथ्वीपर मेरे पास आ गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मामुवाच वेपन्तीं वरं मत्तो वृणीष्व ह।
गम्यतामिति तं चाहं प्रणम्य शिरसावदम् ॥ ११ ॥

मूलम्

स मामुवाच वेपन्तीं वरं मत्तो वृणीष्व ह।
गम्यतामिति तं चाहं प्रणम्य शिरसावदम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उन्हें देखते ही काँपने लगी। वे बोले—‘देवि! मुझसे कोई वर माँगो।’ तब मैंने सिर झुकाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा—‘कृपया यहाँसे चले जाइये’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मामुवाच तिग्मांशुर्वृथाऽऽह्वानं न मे क्षमम्।
धक्ष्यामि त्वां च विप्रं च येन दत्तो वरस्तव॥१२॥

मूलम्

स मामुवाच तिग्मांशुर्वृथाऽऽह्वानं न मे क्षमम्।
धक्ष्यामि त्वां च विप्रं च येन दत्तो वरस्तव॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन प्रचण्डरश्मि सूर्यने मुझसे कहा—‘मेरा आवाहन व्यर्थ नहीं हो सकता। तुम कोई-न-कोई वर अवश्य माँग लो अन्यथा मैं तुमको और जिसने तुम्हें वर दिया है, उस ब्राह्मणको भी भस्म कर डालूँगा’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमहं रक्षती विप्रं शापादनपकारिणम्।
पुत्रो मे त्वत्समो देव भवेदिति ततोऽब्रवम् ॥ १३ ॥
ततो मां तेजसाऽऽविश्य मोहयित्वा च भानुमान्।
उवाच भविता पुत्रस्तवेत्यभ्यगमद् दिवम् ॥ १४ ॥

मूलम्

तमहं रक्षती विप्रं शापादनपकारिणम्।
पुत्रो मे त्वत्समो देव भवेदिति ततोऽब्रवम् ॥ १३ ॥
ततो मां तेजसाऽऽविश्य मोहयित्वा च भानुमान्।
उवाच भविता पुत्रस्तवेत्यभ्यगमद् दिवम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैं उन निरपराध ब्राह्मणको शापसे बचाती हुई बोली—‘देव! मुझे आपके समान पुत्र प्राप्त हो।’ इतना कहते ही सूर्यदेव मुझे मोहित करके अपने तेजके द्वारा मेरे शरीरमें प्रविष्ट हो गये। तत्पश्चात् बोले—‘तुम्हें एक तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा।’ ऐसा कहकर वे आकाशमें चले गये॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहमन्तर्भवने पितृर्वृत्तान्तरक्षिणी ।
गूढोत्पन्नं सुतं बालं जले कर्णमवासृजम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ततोऽहमन्तर्भवने पितृर्वृत्तान्तरक्षिणी ।
गूढोत्पन्नं सुतं बालं जले कर्णमवासृजम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तबसे मैं इस वृत्तान्तको पिताजीसे छिपाये रखनेके लिये महलके भीतर ही रहने लगी और जब गुप्तरूपसे बालक उत्पन्न हुआ तो उसे मैंने पानीमें बहा दिया। वही मेरा पुत्र कर्ण था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं तस्यैव देवस्य प्रसादात् पुनरेव तु।
कन्याहमभवं विप्र यथा प्राह स मामृषिः ॥ १६ ॥

मूलम्

नूनं तस्यैव देवस्य प्रसादात् पुनरेव तु।
कन्याहमभवं विप्र यथा प्राह स मामृषिः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! उसके जन्मके बाद पुनः उन्हीं भगवान् सूर्यकी कृपासे मैं कन्याभावको प्राप्त हो गयी। जैसा कि उन महर्षिने कहा था, वैसा ही हुआ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मया मूढया पुत्रो ज्ञायमानोऽप्युपेक्षितः।
तन्मां दहति विप्रर्षे यथा सुविदितं तव ॥ १७ ॥

मूलम्

स मया मूढया पुत्रो ज्ञायमानोऽप्युपेक्षितः।
तन्मां दहति विप्रर्षे यथा सुविदितं तव ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षे! मुझ मूढ़ नारीने अपने पुत्रको पहचान लिया तो भी उसकी उपेक्षा कर दी। यह भूल मुझे शोकाग्निसे दग्ध करती रहती है। आपको तो यह बात अच्छी तरह ज्ञात ही है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि पापमपापं वा तवैतद् विवृतं मया।
तन्मे दहन्तं भगवन् व्यपनेतुं त्वमर्हसि ॥ १८ ॥

मूलम्

यदि पापमपापं वा तवैतद् विवृतं मया।
तन्मे दहन्तं भगवन् व्यपनेतुं त्वमर्हसि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मेरा यह कार्य पाप हो या पुण्य, मैंने इसे आपके सामने प्रकट कर दिया। आप मेरे उस दाहक शोकको दूर कर दें॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चास्य राज्ञो विदितं हृदिस्थं भवतोऽनघ।
तं चायं लभतां काममद्यैव मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

मूलम्

यच्चास्य राज्ञो विदितं हृदिस्थं भवतोऽनघ।
तं चायं लभतां काममद्यैव मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप मुनिश्रेष्ठ! इन महाराजके हृदयमें जो बात है, वह भी आपको विदित ही है। ये अपने मनोरथको आज ही प्राप्त करें, ऐसी कृपा कीजिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं व्यासो वेदविदां वरः।
साधु सर्वमिदं भाव्यमेवमेतद् यथाऽऽत्थ माम् ॥ २० ॥

मूलम्

इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं व्यासो वेदविदां वरः।
साधु सर्वमिदं भाव्यमेवमेतद् यथाऽऽत्थ माम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके इस प्रकार कहनेपर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षि व्यासने कहा—‘बेटी! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है, ऐसी ही होनहार थी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपराधश्च ते नास्ति कन्याभावं गता ह्यसि।
देवाश्चैश्वर्यवन्तो वै शरीराण्याविशन्ति वै ॥ २१ ॥

मूलम्

अपराधश्च ते नास्ति कन्याभावं गता ह्यसि।
देवाश्चैश्वर्यवन्तो वै शरीराण्याविशन्ति वै ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है; क्योंकि उस समय तुम अभी कुमारी बालिका थी। देवतालोग अणिमा आदि ऐश्वर्योंसे सम्पन्न होते हैं; अतः दूसरेके शरीरोंमें प्रविष्ट हो जाते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ति देवनिकायाश्च संकल्पाज्जनयन्ति ये।
वाचा दृष्ट्‌या तथा स्पर्शात् संघर्षेणेति पञ्चधा ॥ २२ ॥

मूलम्

सन्ति देवनिकायाश्च संकल्पाज्जनयन्ति ये।
वाचा दृष्ट्‌या तथा स्पर्शात् संघर्षेणेति पञ्चधा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहुत-से ऐसे देवसमुदाय हैं, जो संकल्प, वचन, दृष्टि, स्पर्श तथा समागम—इन पाँचों प्रकारोंसे पुत्र उत्पन्न करते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यधर्मो दैवेन धर्मेण हि न दुष्यति।
इति कुन्ति विजानीहि व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ २३ ॥

मूलम्

मनुष्यधर्मो दैवेन धर्मेण हि न दुष्यति।
इति कुन्ति विजानीहि व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्ती! देवधर्मके द्वारा मनुष्यधर्म दूषित नहीं होता, इस बातको जान लो। अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं बलवतां पथ्यं सर्वं बलवतां शुचि।
सर्वं बलवतां धर्मः सर्वं बलवतां स्वकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

सर्वं बलवतां पथ्यं सर्वं बलवतां शुचि।
सर्वं बलवतां धर्मः सर्वं बलवतां स्वकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बलवानोंका सब कुछ ठीक या लाभदायक है। बलवानोंका सारा कार्य पवित्र है। बलवानोंका सब कुछ धर्म है और बलवानोंके लिये सारी वस्तुएँ अपनी हैं’॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि पुत्रदर्शनपर्वणि व्यासकुन्तीसंवादे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत पुत्रदर्शनपर्वमें व्यास और कुन्तीका संवादविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३०॥