०२८ व्यासवाक्ये

भागसूचना

अष्टाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

महर्षि व्यासका धृतराष्ट्रसे कुशल पूछते हुए विदुर और युधिष्ठिरकी धर्मरूपताका प्रतिपादन करना और उनसे अभीष्ट वस्तु माँगनेके लिये कहना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समुपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
व्यासः सत्यवतीपुत्र इदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः समुपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
व्यासः सत्यवतीपुत्र इदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर महात्मा पाण्डवोंके बैठ जानेपर सत्यवतीनन्दन व्यासने इस प्रकार पूछा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्र महाबाहो कच्चित् ते वर्धते तपः।
कच्चिन्मनस्ते प्रीणाति वनवासे नराधिप ॥ २ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्र महाबाहो कच्चित् ते वर्धते तपः।
कच्चिन्मनस्ते प्रीणाति वनवासे नराधिप ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु धृतराष्ट्र! तुम्हारी तपस्या बढ़ रही है न? नरेश्वर! वनवासमें तुम्हारा मन तो लगता है न?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिद् हृदि न ते शोको राजन् पुत्रविनाशजः।
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि सुप्रसन्नानि तेऽनघ ॥ ३ ॥

मूलम्

कच्चिद् हृदि न ते शोको राजन् पुत्रविनाशजः।
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि सुप्रसन्नानि तेऽनघ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! अब कभी तुम्हारे मनमें अपने पुत्रोंके मारे जानेका शोक तो नहीं होता? निष्पाप नरेश! तुम्हारी समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मल तो हो गयी हैं न?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिद् बुद्धिंदृढां कृत्वा चरस्यारण्यकं विधिम्।
कच्चिद् वधूश्च गान्धारी न शोकेनाभिभूयते ॥ ४ ॥

मूलम्

कच्चिद् बुद्धिंदृढां कृत्वा चरस्यारण्यकं विधिम्।
कच्चिद् वधूश्च गान्धारी न शोकेनाभिभूयते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या तुम अपनी बुद्धिको दृढ़ करके वनवासके कठोर नियमोंका पालन करते हो? बहू गान्धारी कभी शोकके वशीभूत तो नहीं होती?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाप्रज्ञा बुद्धिमती देवी धर्मार्थदर्शिनी।
आगमापायतत्त्वज्ञा कच्चिदेषा न शोचति ॥ ५ ॥

मूलम्

महाप्रज्ञा बुद्धिमती देवी धर्मार्थदर्शिनी।
आगमापायतत्त्वज्ञा कच्चिदेषा न शोचति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गान्धारी बड़ी बुद्धिमती और महाविदुषी है। यह देवी धर्म और अर्थको समझनेवाली तथा जन्म-मरणके तत्त्वको जाननेवाली है। इसे तो कभी शोक नहीं होता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित् कुन्ती च राजंस्त्वां शुश्रूषत्यनहंकृता।
या परित्यज्य स्वं पुत्रं गुरुशुश्रूषणे रता ॥ ६ ॥

मूलम्

कच्चित् कुन्ती च राजंस्त्वां शुश्रूषत्यनहंकृता।
या परित्यज्य स्वं पुत्रं गुरुशुश्रूषणे रता ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जो अपने पुत्रोंको त्यागकर गुरुजनोंकी सेवामें लगी हुई है, वह कुन्ती क्या अहंकारशून्य होकर तुम्हारी सेवा-शुश्रूषा करती है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिद् धर्मसुतो राजा त्वया प्रत्यभिनन्दितः।
भीमार्जुनयमाश्चैव कच्चिदेतेऽपि सान्त्विताः ॥ ७ ॥

मूलम्

कच्चिद् धर्मसुतो राजा त्वया प्रत्यभिनन्दितः।
भीमार्जुनयमाश्चैव कच्चिदेतेऽपि सान्त्विताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या तुमने धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरका अभिनन्दन किया है? भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेवको भी धीरज बँधाया है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिन्नन्दसि दृष्ट्वैतान् कच्चित् ते निर्मलं मनः।
कच्चिच्च शुद्धभावोऽसि जातज्ञानो नराधिप ॥ ८ ॥

मूलम्

कच्चिन्नन्दसि दृष्ट्वैतान् कच्चित् ते निर्मलं मनः।
कच्चिच्च शुद्धभावोऽसि जातज्ञानो नराधिप ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! क्या इन्हें देखकर तुम प्रसन्न होते हो? क्या इनकी ओरसे तुम्हारे मनकी मैल दूर हो गयी है? क्या ज्ञान-सम्पन्न होनेके कारण तुम्हारे हृदयका भाव शुद्ध हो गया है?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एव च ॥ ९ ॥

मूलम्

एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एव च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! भरतनन्दन! किसीसे वैर न रखना, सत्य बोलना और क्रोधको सर्वथा त्याग देना—से तीन गुण सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित् ते न च मोहोऽस्ति वनवासेन भारत।
स्ववशे वन्यमन्नं वा उपवासोऽपि वा भवेत् ॥ १० ॥

मूलम्

कच्चित् ते न च मोहोऽस्ति वनवासेन भारत।
स्ववशे वन्यमन्नं वा उपवासोऽपि वा भवेत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! वनमें उत्पन्न हुआ अन्न तुम्हारे वशमें रहे अथवा तुम्हें उपवास करना पड़े, सभी दशाओंसे वनवाससे तुम्हें मोह तो नहीं होता है?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदितं चापि राजेन्द्र विदुरस्य महात्मनः।
गमनं विधिनानेन धर्मस्य सुमहात्मनः ॥ ११ ॥

मूलम्

विदितं चापि राजेन्द्र विदुरस्य महात्मनः।
गमनं विधिनानेन धर्मस्य सुमहात्मनः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! महात्मा विदुरके, जो साक्षात् महामना धर्मके स्वरूप थे, इस विधिसे परलोकगमनका समाचार तो तुम्हें ज्ञात हुआ ही होगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माण्डव्यशापाद्धि स वै धर्मो विदुरतां गतः।
महाबुद्धिर्महायोगी महात्मा सुमहामनाः ॥ १२ ॥

मूलम्

माण्डव्यशापाद्धि स वै धर्मो विदुरतां गतः।
महाबुद्धिर्महायोगी महात्मा सुमहामनाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माण्डव्य मुनिके शापसे धर्म ही विदुररूपमें अवतीर्ण हुए थे। वे परम बुद्धिमान्, महान् योगी, महात्मा और महामनस्वी थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहस्पतिर्वा देवेषु शुक्रो वाप्यसुरेषु च।
न तथा बुद्धिसम्पन्नो यथा स पुरुषर्षभः ॥ १३ ॥

मूलम्

बृहस्पतिर्वा देवेषु शुक्रो वाप्यसुरेषु च।
न तथा बुद्धिसम्पन्नो यथा स पुरुषर्षभः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवताओंमें बृहस्पति और असुरोंमें शुक्राचार्य भी वैसे बुद्धिमान् नहीं हैं, जैसे पुरुषप्रवर विदुर थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपोबलव्ययं कृत्वा सुचिरात् सम्भृतं तदा।
माण्डव्येनर्षिणा धर्मो ह्यभिभूतः सनातनः ॥ १४ ॥

मूलम्

तपोबलव्ययं कृत्वा सुचिरात् सम्भृतं तदा।
माण्डव्येनर्षिणा धर्मो ह्यभिभूतः सनातनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माण्डव्य ऋषिने चिरकालसे संचित किये हुए तपोबलका क्षय करके सनातन धर्मदेवको (शाप देकर) पराभूत किया था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियोगाद् ब्रह्मणः पूर्वं मया स्वेन बलेन च।
वैचित्रवीर्यके क्षेत्रे जातः स सुमहामतिः ॥ १५ ॥

मूलम्

नियोगाद् ब्रह्मणः पूर्वं मया स्वेन बलेन च।
वैचित्रवीर्यके क्षेत्रे जातः स सुमहामतिः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने पूर्वकालमें ब्रह्माजीकी आज्ञाके अनुसार अपने तपोबलसे विचित्रवीर्यके क्षेत्र (भार्या) में उस परम बुद्धिमान् विदुरको उत्पन्न किया था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्राता तव महाराज देवदेवः सनातनः।
धारणान्मनसा ध्यानाद् यं धर्मं कवयो विदुः ॥ १६ ॥

मूलम्

भ्राता तव महाराज देवदेवः सनातनः।
धारणान्मनसा ध्यानाद् यं धर्मं कवयो विदुः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! तुम्हारे भाई विदुर देवताओंके भी देवता सनातन धर्म थे। मनके द्वारा धर्मका धारण और ध्यान किया जाता है, इसलिये विद्वान् पुरुष उन्हें धर्मके नामसे जानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्येन संवर्धयति यो दमेन शमेन च।
अहिंसया च दानेन तप्यमानः सनातनः ॥ १७ ॥

मूलम्

सत्येन संवर्धयति यो दमेन शमेन च।
अहिंसया च दानेन तप्यमानः सनातनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सत्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, अहिंसा और दानके रूपमें सेवित होनेपर जगत्‌के अभ्युदयका साधक होता है, वह सनातन धर्म विदुरसे भिन्न नहीं है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन योगबलाज्जातः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
धर्म इत्येष नृपते प्राज्ञेनामितबुद्धिना ॥ १८ ॥

मूलम्

येन योगबलाज्जातः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
धर्म इत्येष नृपते प्राज्ञेनामितबुद्धिना ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस अमित बुद्धिमान् और प्राज्ञ देवताने योगबलसे कुरुराज युधिष्ठिरको जन्म दिया था, वह धर्म विदुरका ही स्वरूप है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वह्निर्यथा वायुर्यथाऽऽपः पृथिवी यथा।
यथाऽऽकाशं तथा धर्म इह चामुत्र च स्थितः ॥ १९ ॥

मूलम्

यथा वह्निर्यथा वायुर्यथाऽऽपः पृथिवी यथा।
यथाऽऽकाशं तथा धर्म इह चामुत्र च स्थितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाशकी सत्ता इहलोक और परलोकमें भी है, उसी प्रकार धर्म भी उभय लोकमें व्याप्त है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वगश्चैव राजेन्द्र सर्वं व्याप्य चराचरम्।
दृश्यते देवदेवैः स सिद्धैर्निर्मुक्तकल्मषैः ॥ २० ॥

मूलम्

सर्वगश्चैव राजेन्द्र सर्वं व्याप्य चराचरम्।
दृश्यते देवदेवैः स सिद्धैर्निर्मुक्तकल्मषैः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! धर्मकी सर्वत्र गति है तथा वह सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को व्याप्त करके स्थित है। जिनके समस्त पाप धुल गये हैं, वे सिद्ध पुरुष तथा देवताओंके देवता ही धर्मका साक्षात्कार करते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि धर्मः स विदुरो विदुरो यः स पाण्डवः।
स एष राजन्‌ दृश्यस्ते पाण्डवः प्रेष्यवत् स्थितः ॥ २१ ॥

मूलम्

यो हि धर्मः स विदुरो विदुरो यः स पाण्डवः।
स एष राजन्‌ दृश्यस्ते पाण्डवः प्रेष्यवत् स्थितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन्हें धर्म कहते हैं वे ही विदुर थे और जो विदुर थे, वे ही ये पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर हैं, जो इस समय तुम्हारे सामने दासकी भाँति खड़े हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टः स महात्मानं भ्राता ते बुद्धिसत्तमः।
दृष्ट्वा महात्मा कौन्तेयं महायोगबलान्वितः ॥ २२ ॥

मूलम्

प्रविष्टः स महात्मानं भ्राता ते बुद्धिसत्तमः।
दृष्ट्वा महात्मा कौन्तेयं महायोगबलान्वितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महान् योगबलसे सम्पन्न और बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ तुम्हारे भाई महात्मा विदुर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको सामने देखकर इन्हींके शरीरमें प्रविष्ट हो गये हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां चापि श्रेयसा योक्ष्ये न चिराद् भरतर्षभ।
संशयच्छेदनार्थाय प्राप्तं मां विद्धि पुत्रक ॥ २३ ॥

मूलम्

त्वां चापि श्रेयसा योक्ष्ये न चिराद् भरतर्षभ।
संशयच्छेदनार्थाय प्राप्तं मां विद्धि पुत्रक ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! अब तुम्हें भी मैं शीघ्र ही कल्याणका भागी बनाऊँगा। बेटा! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि इस समय मैं तुम्हारे संशयोंका निवारण करनेके लिये आया हूँ॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कृतं यैः पुरा कैश्चित् कर्म लोके महर्षिभिः।
आश्चर्यभूतं तपसः फलं तद् दर्शयामि वः ॥ २४ ॥

मूलम्

न कृतं यैः पुरा कैश्चित् कर्म लोके महर्षिभिः।
आश्चर्यभूतं तपसः फलं तद् दर्शयामि वः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालके किन्हीं महर्षियोंने संसारमें अबतक जो चमत्कारपूर्ण कार्य नहीं किया था, वह भी आज मैं कर दिखाऊँगा। आज मैं तुम्हें अपनी तपस्याका आश्चर्यजनक फल दिखलाता हूँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिच्छसि महीपाल मत्तः प्राप्तुमभीप्सितम्।
द्रष्टुं स्प्रष्टुमथ श्रीतुं तत्कर्ताऽस्मि तवानघ ॥ २५ ॥

मूलम्

किमिच्छसि महीपाल मत्तः प्राप्तुमभीप्सितम्।
द्रष्टुं स्प्रष्टुमथ श्रीतुं तत्कर्ताऽस्मि तवानघ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप महीपाल! बताओ, तुम मुझसे कौन-सी अभीष्ट वस्तु पाना चाहते हो? किसको देखने, सुनने अथवा स्पर्श करनेकी तुम्हारी इच्छा है? मैं उसे पूर्ण करूँगा॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें व्यासवाक्यविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२८॥