भागसूचना
सप्तविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिर आदिका ऋषियोंके आश्रम देखना, कलश आदि बाँटना और धृतराष्ट्रके पास आकर बैठना, उन सबके पास अन्यान्य ऋषियोंसहित महर्षि व्यासका आगमन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु राजन्नेतेषामाश्रमे पुण्यकर्मणाम् ।
शिवा नक्षत्रसम्पन्ना सा व्यतीयाय शर्वरी ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्तु राजन्नेतेषामाश्रमे पुण्यकर्मणाम् ।
शिवा नक्षत्रसम्पन्ना सा व्यतीयाय शर्वरी ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर उस आश्रमपर निवास करनेवाले इन समस्त पुण्यकर्मा मनुष्योंकी नक्षत्र-मालाओंसे सुशोभित वह मंगलमयी रात्रि सकुशल व्यतीत हुई॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्र कथाश्चासंस्तेषां धर्मार्थलक्षणाः ।
विचित्रपदसंचारा नानाश्रुतिभिरन्विताः ॥ २ ॥
मूलम्
ततस्तत्र कथाश्चासंस्तेषां धर्मार्थलक्षणाः ।
विचित्रपदसंचारा नानाश्रुतिभिरन्विताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन लोगोंमें विचित्र पदों और नाना श्रुतियोंसे युक्त धर्म और अर्थ-सम्बन्धी चर्चाएँ होती रहीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवास्त्वभितो मातुर्धरण्यां सुषुपुस्तदा ।
उत्सृज्य तु महार्हाणि शयनानि नराधिप ॥ ३ ॥
मूलम्
पाण्डवास्त्वभितो मातुर्धरण्यां सुषुपुस्तदा ।
उत्सृज्य तु महार्हाणि शयनानि नराधिप ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पाण्डवलोग बहुमूल्य शय्याओंको छोड़कर अपनी माताके चारों ओर धरतीपर ही सोये थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाहारोऽभवद् राजा धृतराष्ट्रो महामनाः।
तदाहारा नृवीरास्ते न्यवसंस्तां निशां तदा ॥ ४ ॥
मूलम्
यदाहारोऽभवद् राजा धृतराष्ट्रो महामनाः।
तदाहारा नृवीरास्ते न्यवसंस्तां निशां तदा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी राजा धृतराष्ट्रने जिस वस्तुका आहार किया था, उसी वस्तुका आहार उस रातमें उन नरवीर पाण्डवोंने भी किया था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यतीतायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाह्णिकक्रियः।
भ्रातृभिः सहितो राजा ददर्शाश्रममण्डलम् ॥ ५ ॥
सान्तःपुरपरीवारः सभृत्यः सपुरोहितः ।
यथासुखं यथोद्देशं धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञया ॥ ६ ॥
मूलम्
व्यतीतायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाह्णिकक्रियः।
भ्रातृभिः सहितो राजा ददर्शाश्रममण्डलम् ॥ ५ ॥
सान्तःपुरपरीवारः सभृत्यः सपुरोहितः ।
यथासुखं यथोद्देशं धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञया ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात बीत जानेपर पूर्वाह्णकालिक नैत्यिक नियम पूरे करके राजा युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रकी आज्ञा ले भाइयों, अन्तःपुरकी स्त्रियों, सेवकों और पुरोहितोंके साथ सुखपूर्वक भिन्न-भिन्न स्थानोंमें घूम-फिरकर मुनियोंके आश्रम देखे॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श तत्र वेदीश्च संप्रज्वलितपावकाः।
कृताभिषेकैर्मुनिभिर्हुताग्निभिरुपस्थिताः ॥ ७ ॥
वानेयपुष्पनिकरैराज्यधूमोद्गमैरपि ।
ब्राह्मेण वपुषा युक्ता युक्तता मुनिगणस्य ताः ॥ ८ ॥
मूलम्
ददर्श तत्र वेदीश्च संप्रज्वलितपावकाः।
कृताभिषेकैर्मुनिभिर्हुताग्निभिरुपस्थिताः ॥ ७ ॥
वानेयपुष्पनिकरैराज्यधूमोद्गमैरपि ।
ब्राह्मेण वपुषा युक्ता युक्तता मुनिगणस्य ताः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने देखा, वहाँ आश्रमोंमें यज्ञकी वेदियाँ बनी हैं, जिनपर अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं। मुनिलोग स्नान करके उन वेदियोंके पास बैठे हैं और अग्निमें आहुति दे रहे हैं। वनके फूलों और घृतकी आहुतिसे उठे हुए धूमोंसे भी उन वेदियोंकी शोभा हो रही है। वहाँ निरन्तर वेदध्वनि होनेके कारण मानो वे वेदियाँ वेदमय शरीरसे संयुक्त जान पड़ती थीं। मुनियोंके समुदाय सदा उनसे सम्पर्क बनाये रखते थे॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगयूथैरनुद्विग्नैस्तत्र तत्र समाश्रितैः ।
अशङ्कितैः पक्षिगणैः प्रगीतैरिव च प्रभो ॥ ९ ॥
मूलम्
मृगयूथैरनुद्विग्नैस्तत्र तत्र समाश्रितैः ।
अशङ्कितैः पक्षिगणैः प्रगीतैरिव च प्रभो ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! उन आश्रमोंमें जहाँ-तहाँ मृगोंके झुंड निर्भय एवं शान्तचित्त होकर आरामसे बैठे थे। पक्षियोंके समुदाय निःशंक होकर उच्च स्वरसे कलरव करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केकाभिर्नीलकण्ठानां दात्यूहानां च कूजितैः।
कोकिलानां कुहुरवैः सुखैः श्रुतिमनोहरैः ॥ १० ॥
प्राधीतद्विजघोषैश्च क्वचित् क्वचिदलंकृतम् ।
फलमूलसमाहारैर्महद्भिश्चोपशोभितम् ॥ ११ ॥
मूलम्
केकाभिर्नीलकण्ठानां दात्यूहानां च कूजितैः।
कोकिलानां कुहुरवैः सुखैः श्रुतिमनोहरैः ॥ १० ॥
प्राधीतद्विजघोषैश्च क्वचित् क्वचिदलंकृतम् ।
फलमूलसमाहारैर्महद्भिश्चोपशोभितम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोरोंके मधुर केकारव, दात्यूह नामक पक्षियोंके कल-कूजन और कोयलोंकी कुहू-कुहू ध्वनि हो रही थी। उनके शब्द बड़े ही सुखद तथा कानों और मनको हर लेनेवाले थे। कहीं-कहीं स्वाध्यायशील ब्राह्मणोंके वेद-मन्त्रोंका गम्भीर घोष गूँज रहा था और इन सबके कारण उन आश्रमोंकी शोभा बहुत बढ़ गयी थी एवं वह आश्रम फल-मूलका आहार करनेवाले महापुरुषोंसे सुशोभित हो रहा था॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा प्रददौ तापसार्थमुपाहृतान्।
कलशान् काञ्चनान् राजंस्तथैवौदुम्बरानपि ॥ १२ ॥
अजिनानि प्रवेणीश्च स्रुक् स्रुवं च महीपतिः।
कमण्डलूंश्च स्थालीश्च पिठराणि च भारत ॥ १३ ॥
भाजनानि च लौहानि पात्रीश्च विविधा नृप।
यद् यदिच्छति यावच्च यच्चान्यदपि भाजनम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततः स राजा प्रददौ तापसार्थमुपाहृतान्।
कलशान् काञ्चनान् राजंस्तथैवौदुम्बरानपि ॥ १२ ॥
अजिनानि प्रवेणीश्च स्रुक् स्रुवं च महीपतिः।
कमण्डलूंश्च स्थालीश्च पिठराणि च भारत ॥ १३ ॥
भाजनानि च लौहानि पात्रीश्च विविधा नृप।
यद् यदिच्छति यावच्च यच्चान्यदपि भाजनम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय राजा युधिष्ठिरने तपस्वियोंके लिये लाये हुए सोने और ताँबेके कलश, मृगचर्म, कम्बल, स्रुक्, स्रुवा, कमण्डलु, बटलोई, कड़ाही, अन्यान्य लोहेके बने हुए पात्र तथा और भी भाँति-भाँतिके बर्तन बाँटे। जो जितना और जो-जो बर्तन चाहता था, उसको उतना ही और वही बर्तन दिया जाता था। दूसरा भी आवश्यक पात्र दे दिया जाता था॥१२—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स राजा धर्मात्मा परीत्याश्रममण्डलम्।
वसु विश्राण्य तत् सर्वं पुनरायान्महीपतिः ॥ १५ ॥
मूलम्
एवं स राजा धर्मात्मा परीत्याश्रममण्डलम्।
वसु विश्राण्य तत् सर्वं पुनरायान्महीपतिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धर्मात्मा राजा पृथ्वीपति युधिष्ठिर आश्रमोंमें घूम-घूमकर वह सारा धन बाँटनेके पश्चात् धृतराष्ट्रके आश्रमपर लौट आये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृताह्निकं च राजानं धृतराष्ट्रं महीपतिम्।
ददर्शासीनमव्यग्रं गान्धारीसहितं तदा ॥ १६ ॥
मातरं चाविदूरस्थां शिष्यवत् प्रणतां स्थिताम्।
कुन्तीं ददर्श धर्मात्मा शिष्टाचारसमन्विताम् ॥ १७ ॥
मूलम्
कृताह्निकं च राजानं धृतराष्ट्रं महीपतिम्।
ददर्शासीनमव्यग्रं गान्धारीसहितं तदा ॥ १६ ॥
मातरं चाविदूरस्थां शिष्यवत् प्रणतां स्थिताम्।
कुन्तीं ददर्श धर्मात्मा शिष्टाचारसमन्विताम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ आकर उन्होंने देखा कि राजा धृतराष्ट्र नित्य कर्म करके गान्धारीके साथ शान्त भावसे बैठे हुए हैं और उनसे थोड़ी ही दूरपर शिष्टाचारका पालन करनेवाली माता कुन्ती शिष्याकी भाँति विनीत भावसे खड़ी है॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तमभ्यर्च्य राजानं नाम संश्राव्य चात्मनः।
निषीदेत्यभ्यनुज्ञातो बृस्यामुपविवेश ह ॥ १८ ॥
मूलम्
स तमभ्यर्च्य राजानं नाम संश्राव्य चात्मनः।
निषीदेत्यभ्यनुज्ञातो बृस्यामुपविवेश ह ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने अपना नाम सुनाकर राजा धृतराष्ट्रका प्रणामपूर्वक पूजन किया और ‘बैठो’ यह आज्ञा मिलनेपर वे कुशके आसनपर बैठ गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनादयश्चैव पाण्डवा भरतर्षभ ।
अभिवाद्योपसंगृह्य निषेदुः पार्थिवाज्ञया ॥ १९ ॥
मूलम्
भीमसेनादयश्चैव पाण्डवा भरतर्षभ ।
अभिवाद्योपसंगृह्य निषेदुः पार्थिवाज्ञया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! भीमसेन आदि पाण्डव भी राजाके चरण छूकर प्रणाम करनेके पश्चात् उनकी आज्ञासे बैठ गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः परिवृतो राजा शुशुभेऽतीव कौरवः।
बिभ्रद् बाह्मीं श्रियं दीप्तां देवैरिव बृहस्पतिः ॥ २० ॥
मूलम्
स तैः परिवृतो राजा शुशुभेऽतीव कौरवः।
बिभ्रद् बाह्मीं श्रियं दीप्तां देवैरिव बृहस्पतिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनसे घिरे हुए कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र वैसी ही शोभा पा रहे थे, जैसे उज्ज्वल ब्रह्मतेज धारण करनेवाले बृहस्पति देवताओंसे घिरे हुए सुशोभित होते हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तेषूपविष्टेषु समाजग्मुर्महर्षयः ।
शतयूपप्रभृतयः कुरुक्षेत्रनिवासिनः ॥ २१ ॥
मूलम्
तथा तेषूपविष्टेषु समाजग्मुर्महर्षयः ।
शतयूपप्रभृतयः कुरुक्षेत्रनिवासिनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब लोग इस प्रकार बैठे ही थे कि कुरुक्षेत्र-निवासी शतयूप आदि महर्षि वहाँ आ पहुँचे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यासश्च भगवान् विप्रो देवर्षिगणसेवितः।
वृतः शिष्यैर्महातेजा दर्शयामास पार्थिवम् ॥ २२ ॥
मूलम्
व्यासश्च भगवान् विप्रो देवर्षिगणसेवितः।
वृतः शिष्यैर्महातेजा दर्शयामास पार्थिवम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवर्षियोंसे सेवित महातेजस्वी विप्रवर भगवान् व्यासने भी शिष्योंसहित आकर राजाको दर्शन दिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा कौरव्यः कुन्तीपुत्रश्च वीर्यवान्।
भीमसेनादयश्चैव प्रत्युत्थायाभ्यवादयन् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः स राजा कौरव्यः कुन्तीपुत्रश्च वीर्यवान्।
भीमसेनादयश्चैव प्रत्युत्थायाभ्यवादयन् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र, पराक्रमी कुन्तीकुमार युधिष्ठिर तथा भीमसेन आदिने उठकर समागत महर्षियोंको प्रणाम किया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समागतस्ततो व्यासः शतयूपादिभिर्वृतः ।
धृतराष्ट्रं महीपालमास्यतामित्यभाषत ॥ २४ ॥
मूलम्
समागतस्ततो व्यासः शतयूपादिभिर्वृतः ।
धृतराष्ट्रं महीपालमास्यतामित्यभाषत ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर शतयूप आदिसे घिरे हुए नवागत महर्षि व्यास राजा धृतराष्ट्रसे बोले—‘बैठ जाओ’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं तु विष्टरं कौश्यं कृष्णाजिनकुशोत्तरम्।
प्रतिपेदे तदा व्यासस्तदर्थमुपकल्पितम् ॥ २५ ॥
मूलम्
वरं तु विष्टरं कौश्यं कृष्णाजिनकुशोत्तरम्।
प्रतिपेदे तदा व्यासस्तदर्थमुपकल्पितम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद व्यासजी स्वयं एक सुन्दर कुशासनपर, जो काले मृगचर्मसे आच्छादित तथा उन्हींके लिये बिछाया गया था, विराजमान हुए॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठा विष्टरेषु समन्ततः।
द्वैपायनाभ्यनुज्ञाता निषेदुर्विपुलौजसः ॥ २६ ॥
मूलम्
ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठा विष्टरेषु समन्ततः।
द्वैपायनाभ्यनुज्ञाता निषेदुर्विपुलौजसः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर व्यासजीकी आज्ञासे अन्य सब महा-तेजस्वी श्रेष्ठ द्विजगण चारों ओर बिछे हुए कुशासनोंपर बैठ गये॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि व्यासागमने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें व्यासका आगमनविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२७॥