भागसूचना
षड्विंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्र और युधिष्ठिरकी बातचीत तथा विदुरजीका युधिष्ठिरके शरीरमें प्रवेश
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिर महाबाहो कच्चित् त्वं कुशली ह्यसि।
सहितो भ्रातृभिः सर्वैः पौरजानपदैस्तथा ॥ १ ॥
मूलम्
युधिष्ठिर महाबाहो कच्चित् त्वं कुशली ह्यसि।
सहितो भ्रातृभिः सर्वैः पौरजानपदैस्तथा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्रने पूछा— महाबाहो युधिष्ठिर! तुम नगर तथा जनपदकी समस्त प्रजाओं और भाइयोंसहित कुशलसे तो हो न?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च त्वामनुजीवन्ति कच्चित् तेऽपि निरामयाः।
सचिवा भृत्यवर्गाश्च गुरवश्चैव ते नृप ॥ २ ॥
मूलम्
ये च त्वामनुजीवन्ति कच्चित् तेऽपि निरामयाः।
सचिवा भृत्यवर्गाश्च गुरवश्चैव ते नृप ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जो तुम्हारे आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे मन्त्री, भृत्यवर्ग और गुरुजन भी सुखी और स्वस्थ तो हैं न?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् तेऽपि निरातङ्का वसन्ति विषये तव।
कच्चिद् वर्तसि पौराणीं वृत्तिं राजर्षिसेविताम् ॥ ३ ॥
मूलम्
कच्चित् तेऽपि निरातङ्का वसन्ति विषये तव।
कच्चिद् वर्तसि पौराणीं वृत्तिं राजर्षिसेविताम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या वे भी तुम्हारे राज्यमें निर्भय होकर रहते हैं? क्या तुम प्राचीन राजर्षियोंसे सेवित पुरानी रीति-नीतिका पालन करते हो?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिन्न्यायाननुच्छिद्य कोशस्तेऽभिप्रपूर्यते ।
अरिमध्यस्थमित्रेषु वर्तसे चानुरूपतः ॥ ४ ॥
मूलम्
कच्चिन्न्यायाननुच्छिद्य कोशस्तेऽभिप्रपूर्यते ।
अरिमध्यस्थमित्रेषु वर्तसे चानुरूपतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या तुम्हारा खजाना न्यायमार्गका उल्लंघन किये बिना ही भरा जाता है। क्या तुम शत्रु, मित्र और उदासीन पुरुषोंके प्रति यथायोग्य बर्ताव करते हो?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानग्रहारैर्वा यथावदनुपश्यसि ।
कच्चित् ते परितुष्यन्ति शीलेन भरतर्षभ ॥ ५ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानग्रहारैर्वा यथावदनुपश्यसि ।
कच्चित् ते परितुष्यन्ति शीलेन भरतर्षभ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! क्या तुम ब्राह्मणोंको माफी जमीन देकर उनपर यथोचित दृष्टि रखते हो? क्या तुम्हारे शील-स्वभावसे वे संतुष्ट रहते हैं?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रवोऽपि कुतः पौरा भृत्या वा स्वजनोऽपि वा।
कच्चिद् यजसि राजेन्द्र श्रद्धावान् पितृदेवताः ॥ ६ ॥
मूलम्
शत्रवोऽपि कुतः पौरा भृत्या वा स्वजनोऽपि वा।
कच्चिद् यजसि राजेन्द्र श्रद्धावान् पितृदेवताः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! पुरवासी स्वजनों और सेवकोंकी तो बात ही क्या है, क्या शत्रु भी तुम्हारे बर्तावसे संतुष्ट रहते हैं? क्या तुम श्रद्धापूर्वक देवताओं और पितरोंका यजन करते हो?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिथीनन्नपानेन कच्चिदर्चसि भारत ।
कच्चिन्नयपथे विप्राः स्वकर्मनिरतास्तव ॥ ७ ॥
क्षत्रिया वैश्यवर्गा वा शूद्रा वापि कुटुम्बिनः।
मूलम्
अतिथीनन्नपानेन कच्चिदर्चसि भारत ।
कच्चिन्नयपथे विप्राः स्वकर्मनिरतास्तव ॥ ७ ॥
क्षत्रिया वैश्यवर्गा वा शूद्रा वापि कुटुम्बिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! क्या तुम अन्न और जलके द्वारा अतिथियोंका सत्कार करते हो? क्या तुम्हारे राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा कुटुम्बीजन न्याय-मार्गका अवलम्बन करते हुए अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहते हैं?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् स्त्रीबालवृद्धं ते न शोचति न याचते ॥ ८ ॥
जामयः पूजिताः कच्चित् तव गेहे नरर्षभ।
मूलम्
कच्चित् स्त्रीबालवृद्धं ते न शोचति न याचते ॥ ८ ॥
जामयः पूजिताः कच्चित् तव गेहे नरर्षभ।
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! तुम्हारे राज्यमें स्त्रियों, बालकों और वृद्धोंको दुःख तो नहीं भोगना पड़ता? वे जीविकाके लिये भीख तो नहीं माँगते हैं? तुम्हारे घरमें सौभाग्यवती बहू-बेटियोंका आदर-सत्कार तो होता है न?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिद् राजर्षिवंशोऽयं त्वामासाद्य महीपतिम् ॥ ९ ॥
यथोचितं महाराज यशसा नावसीदति।
मूलम्
कच्चिद् राजर्षिवंशोऽयं त्वामासाद्य महीपतिम् ॥ ९ ॥
यथोचितं महाराज यशसा नावसीदति।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! राजर्षियोंका यह वंश तुम-जैसे राजाको पाकर यथोचित प्रतिष्ठाको प्राप्त होता है न? इसे यशसे वंचित होकर अपयशका भागी तो नहीं होना पड़ता है?॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवंवादिनं तं स न्यायवित् प्रत्यभाषत ॥ १० ॥
कुशलप्रश्नसंयुक्तं कुशलो वाक्यकर्मणि ।
मूलम्
इत्येवंवादिनं तं स न्यायवित् प्रत्यभाषत ॥ १० ॥
कुशलप्रश्नसंयुक्तं कुशलो वाक्यकर्मणि ।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धृतराष्ट्रके इस प्रकार कुशल-समाचार पूछनेपर बातचीत करनेमें कुशल न्याय-वेत्ता राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा—॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् ते वर्धते राजंस्तपो दमशमौ च ते ॥ ११ ॥
अपि मे जननी चेयं शुश्रूषुर्विगतक्लमा।
अथास्याः सफलो राजन् वनवासो भविष्यति ॥ १२ ॥
मूलम्
कच्चित् ते वर्धते राजंस्तपो दमशमौ च ते ॥ ११ ॥
अपि मे जननी चेयं शुश्रूषुर्विगतक्लमा।
अथास्याः सफलो राजन् वनवासो भविष्यति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— राजन्! (मेरे यहाँ सब कुशल है) आपके तप, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि सद्गुणोंकी वृद्धि तो हो रही है न? ये मेरी माता कुन्ती आपकी सेवा-शुश्रूषा करनेमें क्लेशका अनुभव तो नहीं करतीं? क्या इनका वनवास सफल होगा?॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं च माता ज्येष्ठा मे शीतवाताध्वकर्शिता।
घोरेण तपसा युक्ता देवी कच्चिन्न शोचति ॥ १३ ॥
हतान् पुत्रान् महावीर्यान् क्षत्रधर्मपरायणान्।
नापध्यायति वा कच्चिदस्मान् पापकृतः सदा ॥ १४ ॥
मूलम्
इयं च माता ज्येष्ठा मे शीतवाताध्वकर्शिता।
घोरेण तपसा युक्ता देवी कच्चिन्न शोचति ॥ १३ ॥
हतान् पुत्रान् महावीर्यान् क्षत्रधर्मपरायणान्।
नापध्यायति वा कच्चिदस्मान् पापकृतः सदा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये मेरी बड़ी माता गान्धारीदेवी सर्दी, हवा और रास्ता चलनेके परिश्रमसे कष्ट पाकर अत्यन्त दुबली हो गयी हैं घोर तपस्यामें लगी हुई हैं। ये देवी युद्धमें मारे गये अपने क्षत्रिय-धर्मपरायण महापराक्रमी पुत्रोंके लिये कभी शोक तो नहीं करतीं? और हम अपराधियोंका कभी कोई अनिष्ट तो नहीं सोचती हैं?॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व चासौ विदुरो राजन् नेमं पश्यामहे वयम्।
सञ्जयः कुशली चायं कच्चिन्नु तपसि स्थिरः ॥ १५ ॥
मूलम्
क्व चासौ विदुरो राजन् नेमं पश्यामहे वयम्।
सञ्जयः कुशली चायं कच्चिन्नु तपसि स्थिरः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ये संजय तो कुशलपूर्वक स्थिरभावसे तपस्यामें लगे हुए हैं न? इस समय विदुरजी कहाँ हैं? इन्हें हमलोग नहीं देख पा रहे हैं॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं धृतराष्ट्रो जनाधिपम्।
कुशली विदुरः पुत्र तपो घोरं समाश्रितः ॥ १६ ॥
मूलम्
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं धृतराष्ट्रो जनाधिपम्।
कुशली विदुरः पुत्र तपो घोरं समाश्रितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजा युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर धृतराष्ट्रने उनसे कहा—‘बेटा! विदुरजी कुशलपूर्वक हैं। वे बड़ी कठोर तपस्यामें लगे हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुभक्षो निराहारः कृशो धमनिसन्ततः।
कदाचिद् दृश्यते विप्रैः शून्येऽस्मिन् कानने क्वचित् ॥ १७ ॥
मूलम्
वायुभक्षो निराहारः कृशो धमनिसन्ततः।
कदाचिद् दृश्यते विप्रैः शून्येऽस्मिन् कानने क्वचित् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे निरन्तर उपवास करते और वायु पीकर रहते हैं, इसलिये अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उनके सारे शरीरमें व्याप्त हुई नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती हैं। इस सूने वनमें ब्राह्मणोंको कभी-कभी कहीं उनके दर्शन हो जाया करते हैं’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं ब्रुवतस्तस्य जटी वीटामुखः कृशः।
दिग्वासा मलदिग्धाङ्गो वनरेणुसमुक्षितः ॥ १८ ॥
दूरादालक्षितः क्षत्ता तत्राख्यातो महीपतेः।
निवर्तमानः सहसा राजन् दृष्ट्वाऽऽश्रमं प्रति ॥ १९ ॥
मूलम्
इत्येवं ब्रुवतस्तस्य जटी वीटामुखः कृशः।
दिग्वासा मलदिग्धाङ्गो वनरेणुसमुक्षितः ॥ १८ ॥
दूरादालक्षितः क्षत्ता तत्राख्यातो महीपतेः।
निवर्तमानः सहसा राजन् दृष्ट्वाऽऽश्रमं प्रति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्र इस प्रकार कह ही रहे थे कि मुखमें पत्थरका टुकड़ा लिये जटाधारी कृशकाय विदुरजी दूरसे आते दिखायी दिये। वे दिगम्बर (वस्त्रहीन) थे। उनके सारे शरीरमें मैल जमी हुई थी। वे वनमें उड़ती हुई धूलोंसे नहा गये थे। राजा युधिष्ठिरको उनके आनेकी सूचना दी गयी। राजन्! विदुरजी उस आश्रमकी ओर देखकर सहसा पीछेकी ओर लौट पड़े॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमन्वधावन्नृपतिरेक एव युधिष्ठिरः ।
प्रविशन्तं वनं घोरं लक्ष्यालक्ष्यं क्वचित् क्वचित् ॥ २० ॥
भो भो विदुर राजाहं दयितस्ते युधिष्ठिरः।
इति ब्रुवन्नरपतिस्तं यत्नादभ्यधावत ॥ २१ ॥
मूलम्
तमन्वधावन्नृपतिरेक एव युधिष्ठिरः ।
प्रविशन्तं वनं घोरं लक्ष्यालक्ष्यं क्वचित् क्वचित् ॥ २० ॥
भो भो विदुर राजाहं दयितस्ते युधिष्ठिरः।
इति ब्रुवन्नरपतिस्तं यत्नादभ्यधावत ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख राजा युधिष्ठिर अकेले ही उनके पीछे-पीछे दौड़े। विदुरजी कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे। जब वे एक घोर वनमें प्रवेश करने लगे, तब राजा युधिष्ठिर यत्नपूर्वक उनकी ओर दौड़े और इस प्रकार कहने लगे—‘ओ विदुरजी! मैं आपका परमप्रिय राजा युधिष्ठिर आपके दर्शनके लिये आया हूँ’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विविक्त एकान्ते तस्थौ बुद्धिमतां वरः।
विदुरो वृक्षमाश्रित्य कच्चित्तत्र वनान्तरे ॥ २२ ॥
मूलम्
ततो विविक्त एकान्ते तस्थौ बुद्धिमतां वरः।
विदुरो वृक्षमाश्रित्य कच्चित्तत्र वनान्तरे ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विदुरजी वनके भीतर एक परम पवित्र एकान्त प्रदेशमें किसी वृक्षका सहारा लेकर खड़े हो गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं राजा क्षीणभूयिष्ठमाकृतीमात्रसूचितम् ।
अभिजज्ञे महाबुद्धिं महाबुद्धिर्युधिष्ठिरः ॥ २३ ॥
मूलम्
तं राजा क्षीणभूयिष्ठमाकृतीमात्रसूचितम् ।
अभिजज्ञे महाबुद्धिं महाबुद्धिर्युधिष्ठिरः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बहुत ही दुर्बल हो गये थे। उनके शरीरका ढाँचामात्र रह गया था, इतनेहीसे उनके जीवित होनेकी सूचना मिलती थी। परम बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिरने उन महाबुद्धिमान् विदुरको पहचान लिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरोऽहमस्मीति वाक्यमुक्त्वाग्रतः स्थितः ।
विदुरस्य श्रवे राजा तं च प्रत्यभ्यपूजयत् ॥ २४ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरोऽहमस्मीति वाक्यमुक्त्वाग्रतः स्थितः ।
विदुरस्य श्रवे राजा तं च प्रत्यभ्यपूजयत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं युधिष्ठिर हूँ’ ऐसा कहकर वे उनके आगे खड़े हो गये। यह बात उन्होंने उतनी ही दूरसे कही थी, जहाँसे विदुरजी सुन सकें; फिर पास जाकर राजाने उनका बड़ा सत्कार किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सोऽनिमिषो भूत्वा राजानं तमुदैक्षत।
संयोज्य विदुरस्तस्मिन् दृष्टिं दृष्ट्या समाहितः ॥ २५ ॥
मूलम्
ततः सोऽनिमिषो भूत्वा राजानं तमुदैक्षत।
संयोज्य विदुरस्तस्मिन् दृष्टिं दृष्ट्या समाहितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महात्मा विदुरजी राजा युधिष्ठिरकी ओर एकटक देखने लगे। वे अपनी दृष्टिको उनकी दृष्टिसे जोड़कर एकाग्र हो गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवेश विदुरो धीमान् गात्रैर्गात्राणि चैव ह।
प्राणान् प्राणेषु च दधदिन्द्रियाणीन्द्रियेषु च ॥ २६ ॥
मूलम्
विवेश विदुरो धीमान् गात्रैर्गात्राणि चैव ह।
प्राणान् प्राणेषु च दधदिन्द्रियाणीन्द्रियेषु च ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् विदुर अपने शरीरको युधिष्ठिरके शरीरमें, प्राणोंको प्राणोंमें और इन्द्रियोंको उनकी इन्द्रियोंमें स्थापित करके उनके भीतर समा गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स योगबलमास्थाय विवेश नृपतेस्तनुम्।
विदुरो धर्मराजस्य तेजसा प्रज्वलन्निव ॥ २७ ॥
मूलम्
स योगबलमास्थाय विवेश नृपतेस्तनुम्।
विदुरो धर्मराजस्य तेजसा प्रज्वलन्निव ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय विदुरजी तेजसे प्रज्वलित हो रहे थे। उन्होंने योगबलका आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिरके शरीरमें प्रवेश किया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरस्य शरीरं तु तथैव स्तब्धलोचनम्।
वृक्षाश्रितं तदा राजा ददर्श गतचेतनम् ॥ २८ ॥
मूलम्
विदुरस्य शरीरं तु तथैव स्तब्धलोचनम्।
वृक्षाश्रितं तदा राजा ददर्श गतचेतनम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने देखा, विदुरजीका शरीर पूर्ववत् वृक्षके सहारे खड़ा है। उनकी आँखें अब भी उसी तरह निर्निमेष हैं, किंतु अब उनके शरीरमें चेतना नहीं रह गयी है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवन्तं तथाऽऽत्मानं मेने बहुगुणं तदा।
धर्मराजो महातेजास्तच्च सस्मार पाण्डवः ॥ २९ ॥
पौराणमात्मनः सर्वं विद्यावान् स विशाम्पते।
योगधर्मं महातेजा व्यासेन कथितं यथा ॥ ३० ॥
मूलम्
बलवन्तं तथाऽऽत्मानं मेने बहुगुणं तदा।
धर्मराजो महातेजास्तच्च सस्मार पाण्डवः ॥ २९ ॥
पौराणमात्मनः सर्वं विद्यावान् स विशाम्पते।
योगधर्मं महातेजा व्यासेन कथितं यथा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके विपरीत उन्होंने अपनेमें विशेष बल और अधिक गुणोंका अनुमान किया। प्रजानाथ! इसके बाद महातेजस्वी पाण्डुपुत्र विद्यावान् धर्मराज युधिष्ठिरने अपने समस्त पुरातन स्वरूपका स्मरण किया। (मैं और विदुरजी एक ही धर्मके अंशसे प्रकट हुए थे, इस बातका अनुभव किया)। इतना ही नहीं, उन महातेजस्वी नरेशने व्यासजीके बताये हुए योगधर्मका भी स्मरण कर लिया॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मराजश्च तत्रैव संचस्कारयिषुस्तदा ।
दग्धुकामोऽभवद् विद्वानथ वागभ्यभाषत ॥ ३१ ॥
भो भो राजन्न दग्धव्यमेतद् विदुरसंज्ञकम्।
कलेवरमिहैवं ते धर्म एष सनातनः ॥ ३२ ॥
लोकाः सान्तानिका नाम भविष्यन्त्यस्य भारत।
यतिधर्ममवाप्तोऽसौ नैष शोच्यः परंतप ॥ ३३ ॥
मूलम्
धर्मराजश्च तत्रैव संचस्कारयिषुस्तदा ।
दग्धुकामोऽभवद् विद्वानथ वागभ्यभाषत ॥ ३१ ॥
भो भो राजन्न दग्धव्यमेतद् विदुरसंज्ञकम्।
कलेवरमिहैवं ते धर्म एष सनातनः ॥ ३२ ॥
लोकाः सान्तानिका नाम भविष्यन्त्यस्य भारत।
यतिधर्ममवाप्तोऽसौ नैष शोच्यः परंतप ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब विद्वान् धर्मराजने वहीं विदुरके शरीरका दाह-संस्कार करनेका विचार किया। इतनेहीमें आकाशवाणी हुई—‘राजन्! शत्रुसंतापी भरतनन्दन! इस विदुर नामक शरीरका यहाँ दाह-संस्कार करना उचित नहीं है; क्योंकि वे संन्यास-धर्मका पालन करते थे। यहाँ उनका दाह न करना ही तुम्हारे लिये सनातन धर्म है। विदुरजीको सान्तानिक नामक लोकोंकी प्राप्ति होगी; अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये’॥३१—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो धर्मराजः स विनिवृत्य ततः पुनः।
राज्ञो वैचित्रवीर्यस्य तत् सर्वं प्रत्यवेदयत् ॥ ३४ ॥
मूलम्
इत्युक्तो धर्मराजः स विनिवृत्य ततः पुनः।
राज्ञो वैचित्रवीर्यस्य तत् सर्वं प्रत्यवेदयत् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशवाणीद्वारा ऐसी बात कही जानेपर धर्मराज युधिष्ठिर फिर वहाँसे लौट गये और राजा धृतराष्ट्रके पास जाकर उन्होंने वे सारी बातें उनसे बतायीं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा द्युतिमान् स च सर्वो जनस्तदा।
भीमसेनादयश्चैव परं विस्मयमागताः ॥ ३५ ॥
तच्छ्रुत्वा प्रीतिमान् राजा भूत्वा धर्मजमब्रवीत्।
आपो मूलं फलं चैव ममेदं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
ततः स राजा द्युतिमान् स च सर्वो जनस्तदा।
भीमसेनादयश्चैव परं विस्मयमागताः ॥ ३५ ॥
तच्छ्रुत्वा प्रीतिमान् राजा भूत्वा धर्मजमब्रवीत्।
आपो मूलं फलं चैव ममेदं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजीके देहत्यागका यह अद्भुत समाचार सुनकर तेजस्वी राजा धृतराष्ट्र तथा भीमसेन आदि सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ। इसके बाद राजाने प्रसन्न होकर धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा—‘बेटा! अब तुम मेरे दिये हुए इस फल-मूल और जलको ग्रहण करो॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थो हि नरो राजंस्तदर्थोऽस्यातिथिः स्मृतः।
इत्युक्तः स तथेत्येवं प्राह धर्मात्मजो नृपम् ॥ ३७ ॥
फलं मूलं च बुभुजे राज्ञा दत्तं सहानुजः।
ततस्ते वृक्षमूलेषु कृतवासपरिग्रहाः ।
तां रात्रिमवसन् सर्वे फलमूलजलाशनाः ॥ ३८ ॥
मूलम्
यदर्थो हि नरो राजंस्तदर्थोऽस्यातिथिः स्मृतः।
इत्युक्तः स तथेत्येवं प्राह धर्मात्मजो नृपम् ॥ ३७ ॥
फलं मूलं च बुभुजे राज्ञा दत्तं सहानुजः।
ततस्ते वृक्षमूलेषु कृतवासपरिग्रहाः ।
तां रात्रिमवसन् सर्वे फलमूलजलाशनाः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मनुष्य जिन वस्तुओंका स्वयं उपयोग करता है, उन्हीं वस्तुओंसे वह अतिथिका भी सत्कार करे—ऐसी शास्त्रकी आज्ञा है।’ उनके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और उनके दिये हुए फल-मूलका भाइयोंसहित भोजन किया। तदनन्तर उन सब लोगोंने फल-मूल और जलका ही आहार करके वृक्षोंके नीचे ही रहनेका निश्चय कर वहीं वह रात्रि व्यतीत की॥३७-३८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि विदुरनिर्याणे षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें विदुरका देहत्यागविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२६॥