भागसूचना
त्रयोविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सेनासहित पाण्डवोंकी यात्रा और उनका कुरुक्षेत्रमें पहुँचना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज्ञापयामास ततः सेनां भरतसत्तमः।
अर्जुनप्रमुखैर्गुप्तां लोकपालोपमैर्नरैः ॥ १ ॥
मूलम्
आज्ञापयामास ततः सेनां भरतसत्तमः।
अर्जुनप्रमुखैर्गुप्तां लोकपालोपमैर्नरैः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भरतकुलभूषण राजा युधिष्ठिरने लोकपालोंके समान पराक्रमी अर्जुन आदि वीरोंद्वारा सुरक्षित अपनी सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगो योग इति प्रीत्या ततः शब्दो महानभूत्।
क्रोशतां सादिनां तत्र युज्यतां युज्यतामिति ॥ २ ॥
मूलम्
योगो योग इति प्रीत्या ततः शब्दो महानभूत्।
क्रोशतां सादिनां तत्र युज्यतां युज्यतामिति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चलनेको तैयार हो जाओ, तैयार हो जाओ’ इस प्रकार उनका प्रेमपूर्ण आदेश प्राप्त होते ही घुड़सवार सब ओर पुकार-पुकारकर कहने लगे, ‘सवारियोंको जोतो, जोतो!’ इस तरहकी घोषणा करनेसे वहाँ महान् कोलाहल मच गया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिद् यानैर्नरा जग्मुः केचिदश्वैर्महाजवैः।
काञ्चनैश्च रथैः केचिज्ज्वलितज्वलनोपमैः ॥ ३ ॥
मूलम्
केचिद् यानैर्नरा जग्मुः केचिदश्वैर्महाजवैः।
काञ्चनैश्च रथैः केचिज्ज्वलितज्वलनोपमैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग पालकियोंपर सवार होकर चले और कुछ लोग महान् वेगशाली घोड़ोंद्वारा यात्रा करने लगे। कितने ही मनुष्य प्रज्वलित अग्निके समान चमकीले सुवर्णमय रथोंपर आरूढ़ होकर वहाँसे प्रस्थित हुए॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजेन्द्रैश्च तथैवान्ये केचिदुष्ट्रैर्नराधिप ।
पदातिनस्तथैवान्ये नखरप्रासयोधिनः ॥ ४ ॥
मूलम्
गजेन्द्रैश्च तथैवान्ये केचिदुष्ट्रैर्नराधिप ।
पदातिनस्तथैवान्ये नखरप्रासयोधिनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! कुछ लोग गजराजोंपर सवार थे और कुछ ऊँटोंपर। कितने ही बघनखों और भालोंसे युद्ध करनेवाले वीर पैदल ही चल रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरजानपदाश्चैव यानैर्बहुविधैस्तथा ।
अन्वयुः कुरुराजानं धृतराष्ट्रं दिदृक्षवः ॥ ५ ॥
मूलम्
पौरजानपदाश्चैव यानैर्बहुविधैस्तथा ।
अन्वयुः कुरुराजानं धृतराष्ट्रं दिदृक्षवः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगर और जनपदके लोग भी राजा धृतराष्ट्रको देखनेकी इच्छासे नाना प्रकारके वाहनोंद्वारा कुरुराज युधिष्ठिरका अनुसरण करते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चापि राजवचनादाचार्यो गौतमः कृपः।
सेनामादाय सेनानीः प्रययावाश्रमं प्रति ॥ ६ ॥
मूलम्
स चापि राजवचनादाचार्यो गौतमः कृपः।
सेनामादाय सेनानीः प्रययावाश्रमं प्रति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरके आदेशसे सेनापति कृपाचार्य भी सेनाको साथ लेकर आश्रमकी ओर चल दिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्विजैः परिवृतः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
संस्तूयमानो बहुभिः सूतमागधबन्दिभिः ॥ ७ ॥
पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि ।
रथानीकेन महता निर्जगाम कुरूद्वहः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो द्विजैः परिवृतः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
संस्तूयमानो बहुभिः सूतमागधबन्दिभिः ॥ ७ ॥
पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि ।
रथानीकेन महता निर्जगाम कुरूद्वहः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् ब्राह्मणोंसे घिरे हुए कुरुराज युधिष्ठिर बहुसंख्यक सूत, मागध और वन्दीजनोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए मस्तकपर श्वेत छत्र धारण किये विशाल रथ-सेनाके साथ वहाँसे चले॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजैश्चाचलसंकाशैर्भीमकर्मा वृकोदरः ।
सज्जयन्त्रायुधोपेतैः प्रययौ पवनात्मजः ॥ ९ ॥
मूलम्
गजैश्चाचलसंकाशैर्भीमकर्मा वृकोदरः ।
सज्जयन्त्रायुधोपेतैः प्रययौ पवनात्मजः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भयंकर पराक्रम करनेवाले पवनपुत्र भीमसेन पर्वताकार गजराजोंकी सेनाके साथ जा रहे थे। उन गजराजोंकी पीठपर अनेकानेक यन्त्र और आयुध सुसज्जित किये गये थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीपुत्रावपि तथा हयारोहौ सुसंवृतौ।
जग्मतुः शीघ्रगमनौ संनद्धकवचध्वजौ ॥ १० ॥
मूलम्
माद्रीपुत्रावपि तथा हयारोहौ सुसंवृतौ।
जग्मतुः शीघ्रगमनौ संनद्धकवचध्वजौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माद्रीकुमार नकुल और सहदेव भी घोड़ोंपर सवार थे और घुड़सवारोंसे ही घिरे हुए शीघ्रतापूर्वक चल रहे थे। उन्होंने अपने शरीरमें कवच और घोड़ोंकी पीठपर ध्वज बाँध रखे थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनश्च महातेजा रथेनादित्यवर्चसा ।
वशी श्वेतैर्हयैर्युक्तैर्दिव्येनान्वगमन्नृपम् ॥ ११ ॥
मूलम्
अर्जुनश्च महातेजा रथेनादित्यवर्चसा ।
वशी श्वेतैर्हयैर्युक्तैर्दिव्येनान्वगमन्नृपम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी जितेन्द्रिय अर्जुन श्वेत घोड़ोंसे जुते हुए सूर्यके समान तेजस्वी दिव्य रथपर आरूढ़ हो राजा युधिष्ठिरका अनुसरण करते थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदीप्रमुखाश्चापि स्त्रीसंघाः शिबिकायुताः ।
स्त्र्यध्यक्षगुप्ताः प्रययुर्विसृजन्तोऽमितं वसु ॥ १२ ॥
मूलम्
द्रौपदीप्रमुखाश्चापि स्त्रीसंघाः शिबिकायुताः ।
स्त्र्यध्यक्षगुप्ताः प्रययुर्विसृजन्तोऽमितं वसु ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रौपदी आदि स्त्रियाँ भी शिबिकाओंमें बैठकर दीन-दुखियोंको असंख्य धन बाँटती हुई जा रही थीं। रनिवासके अध्यक्ष सब ओरसे उनकी रक्षा कर रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समृद्धरथहस्त्यश्वं वेणुवीणानुनादितम् ।
शुशुभे पाण्डवं सैन्यं तत् तदा भरतर्षभ ॥ १३ ॥
मूलम्
समृद्धरथहस्त्यश्वं वेणुवीणानुनादितम् ।
शुशुभे पाण्डवं सैन्यं तत् तदा भरतर्षभ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंकी सेनामें रथ, हाथी और घोड़ोंकी अधिकता थी। उसमें कहीं वंशी बजती थी और कहीं वीणा। भरतश्रेष्ठ! इन वाद्योंकी ध्वनिसे निनादित होनेके कारण वह पाण्डव-सेना उस समय बड़ी शोभा पा रही थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीतीरेषु रम्येषु सरःसु च विशाम्पते।
वासान् कृत्वा क्रमेणाथ जग्मुस्ते कुरुपुङ्गवाः ॥ १४ ॥
मूलम्
नदीतीरेषु रम्येषु सरःसु च विशाम्पते।
वासान् कृत्वा क्रमेणाथ जग्मुस्ते कुरुपुङ्गवाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! वे कुरुश्रेष्ठ वीर नदियोंके रमणीय तटों तथा अनेक सरोवरोंपर पड़ाव डालते हुए क्रमशः आगे बढ़ते गये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युयुत्सुश्च महातेजा धौम्यश्चैव पुरोहितः।
युधिष्ठिरस्य वचनात् पुरगुप्तिं प्रचक्रतुः ॥ १५ ॥
मूलम्
युयुत्सुश्च महातेजा धौम्यश्चैव पुरोहितः।
युधिष्ठिरस्य वचनात् पुरगुप्तिं प्रचक्रतुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी युयुत्सु और पुरोहित धौम्य मुनि युधिष्ठिरके आदेशसे हस्तिनापुरमें ही रहकर राजधानीकी रक्षा करते थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा कुरुक्षेत्रमवातरत्।
क्रमेणोत्तीर्य यमुनां नदीं परमपावनीम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा कुरुक्षेत्रमवातरत्।
क्रमेणोत्तीर्य यमुनां नदीं परमपावनीम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर राजा युाधिष्ठिर क्रमशः आगे बढ़ते हुए परम पावन यमुना नदीको पार करके कुरुक्षेत्रमें जा पहुँचे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्शाश्रमं दूराद् राजर्षेस्तस्य धीमतः।
शतयूपस्य कौरव्य धृतराष्ट्रस्य चैव ह ॥ १७ ॥
मूलम्
स ददर्शाश्रमं दूराद् राजर्षेस्तस्य धीमतः।
शतयूपस्य कौरव्य धृतराष्ट्रस्य चैव ह ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! वहाँ पहुँचकर उन्होंने दूरसे ही बुद्धिमान् राजर्षि शतयूप तथा धृतराष्ट्रके आश्रमको देखा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रमुदितः सर्वो जनस्तद् वनमञ्जसा।
विवेश सुमहानादैरापूर्य भरतर्षभ ॥ १८ ॥
मूलम्
ततः प्रमुदितः सर्वो जनस्तद् वनमञ्जसा।
विवेश सुमहानादैरापूर्य भरतर्षभ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! इससे उन सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उस वनमें महान् कोलाहल फैलाते हुए अनायास ही प्रवेश किया॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि धृतराष्ट्राश्रमगमने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें युधिष्ठिर आदिका धृतराष्ट्रके आश्रमपर गमनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥