०२२ युधिष्ठिरयात्रायाम्

भागसूचना

द्वाविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

माताके लिये पाण्डवोंकी चिन्ता, युधिष्ठिरकी वनमें जानेकी इच्छा, सहदेव और द्रौपदीका साथ जानेका उत्साह तथा रनिवास और सेनासहित युधिष्ठिरका वनको प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते पुरुषव्याघ्राः पाण्डवा मातृनन्दनाः।
स्मरन्तो मातरं वीरा बभूवुर्भृशदुःखिताः ॥ १ ॥

मूलम्

एवं ते पुरुषव्याघ्राः पाण्डवा मातृनन्दनाः।
स्मरन्तो मातरं वीरा बभूवुर्भृशदुःखिताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अपनी माताको आनन्द प्रदान करनेवाले वे पुरुषसिंह वीर पाण्डव इस प्रकार माताकी याद करते हुए अत्यन्त दुखी हो गये थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये राजकार्येषु पुरा व्यासक्ता नित्यशोऽभवन्।
ते राजकार्याणि तदा नाकार्षुः सर्वतः पुरे ॥ २ ॥
प्रविष्टा इव शोकेन नाभ्यनन्दन्त किंचन।
सम्भाष्यमाणा अपि ते न किंचित् प्रत्यपूजयन् ॥ ३ ॥

मूलम्

ये राजकार्येषु पुरा व्यासक्ता नित्यशोऽभवन्।
ते राजकार्याणि तदा नाकार्षुः सर्वतः पुरे ॥ २ ॥
प्रविष्टा इव शोकेन नाभ्यनन्दन्त किंचन।
सम्भाष्यमाणा अपि ते न किंचित् प्रत्यपूजयन् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पहले प्रतिदिन राजकीय कार्योंमें निरन्तर आसक्त रहते थे, वे ही उन दिनों नगरमें कहीं कोई राजकाज नहीं करते थे। मानो उनके हृदयमें शोकने घर बना लिया था। वे किसी भी वस्तुको पाकर प्रसन्न नहीं होते थे। किसीके बातचीत करनेपर भी वे उस बातकी ओर न तो ध्यान देते और न उसकी सराहना करते थे॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते स्म वीरा दुराधर्षा गाम्भीर्ये सागरोपमाः।
शोकोपहतविज्ञाना नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥ ४ ॥

मूलम्

ते स्म वीरा दुराधर्षा गाम्भीर्ये सागरोपमाः।
शोकोपहतविज्ञाना नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रके समान गाम्भीर्यशाली दुर्धर्ष वीर पाण्डव उन दिनों शोकसे सुध-बुध खो जानेके कारण अचेत-से हो गये थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिन्तयंश्च जननीं ततस्ते पाण्डुनन्दनाः।
कथं नु वृद्धमिथुनं वहत्यतिकृशा पृथा ॥ ५ ॥

मूलम्

अचिन्तयंश्च जननीं ततस्ते पाण्डुनन्दनाः।
कथं नु वृद्धमिथुनं वहत्यतिकृशा पृथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर एक दिन पाण्डव अपनी माताके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे—‘हाय! मेरी माता कुन्ती अत्यन्त दुबली हो गयी होंगी। वे उन बूढ़े पति-पत्नी गान्धारी और धृतराष्ट्रकी सेवा कैसे निभाती होंगी?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च स महीपालो हतपुत्रो निराश्रयः।
पत्न्या सह वसत्येको वने श्वापदसेविते ॥ ६ ॥

मूलम्

कथं च स महीपालो हतपुत्रो निराश्रयः।
पत्न्या सह वसत्येको वने श्वापदसेविते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शिकारी जन्तुओंसे भरे हुए उस जंगलमें आश्रयहीन एवं पुत्ररहित राजा धृतराष्ट्र अपनी पत्नीके साथ अकेले कैसे रहते होंगे?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा च देवी महाभागा गान्धारी हतबान्धवा।
पतिमन्धं कथं वृद्धमन्वेति विजने वने ॥ ७ ॥

मूलम्

सा च देवी महाभागा गान्धारी हतबान्धवा।
पतिमन्धं कथं वृद्धमन्वेति विजने वने ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके बन्धु-बान्धव मारे गये हैं, वे महाभागा गान्धारी देवी, उस निर्जन वनमें अपने अन्धे और बूढ़े पतिका अनुसरण कैसे करती होंगी?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तेषां कथयतामौत्सुक्यमभवत् तदा।
गमने चाभवद् बुद्धिर्धृतराष्ट्रदिदृक्षया ॥ ८ ॥

मूलम्

एवं तेषां कथयतामौत्सुक्यमभवत् तदा।
गमने चाभवद् बुद्धिर्धृतराष्ट्रदिदृक्षया ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बात करते-करते उनके मनमें बड़ी उत्कण्ठा हो गयी और उन्होंने धृतराष्ट्रके दर्शनकी इच्छासे वनमें जानेका विचार कर लिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेवस्तु राजानं प्रणिपत्येदमब्रवीत् ।
अहो मे भवतो दृष्टं हृदयं गमनं प्रति ॥ ९ ॥

मूलम्

सहदेवस्तु राजानं प्रणिपत्येदमब्रवीत् ।
अहो मे भवतो दृष्टं हृदयं गमनं प्रति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सहदेवने राजा युधिष्ठिरको प्रणाम करके कहा—‘भैया, मुझे ऐसा दिखायी देता है कि आपका हृदय तपोवनमें जानेके लिये उत्सुक है—यह बड़े हर्षकी बात है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि त्वां गौरवेणाहमशकं वक्तुमञ्जसा।
गमनं प्रति राजेन्द्र तदिदं समुपस्थितम् ॥ १० ॥

मूलम्

न हि त्वां गौरवेणाहमशकं वक्तुमञ्जसा।
गमनं प्रति राजेन्द्र तदिदं समुपस्थितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! मैं आपके गौरवका खयाल करके संकोचवश वहाँ जानेकी बात स्पष्टरूपसे कह नहीं पाता था। आज सौभाग्यवश वह अवसर अपने-आप उपस्थित हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्‌या द्रक्ष्यामि तां कुन्तीं
वर्तयन्तीं तपस्विनीम् ।
जटिलां तापसीं वृद्धां
कुशकाशपरिक्षताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

दिष्ट्‌या द्रक्ष्यामि तां कुन्तीं
वर्तयन्तीं तपस्विनीम् ।
जटिलां तापसीं वृद्धां
कुशकाशपरिक्षताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा अहोभाग्य कि मैं तपस्यामें लगी हुई माता कुन्तीका दर्शन करूँगा। उनके सिरके बाल जटारूपमें परिणत हो गये होंगे! वे तपस्विनी बूढ़ी माता कुश और काशके आसनोंपर शयन करनेके कारण क्षत-विक्षत हो रही होंगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासादहर्म्यसंवृद्धामत्यन्तसुखभागिनीम् ।
कदा तु जननीं श्रान्तां द्रक्ष्यामि भृशदुःखिताम् ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रासादहर्म्यसंवृद्धामत्यन्तसुखभागिनीम् ।
कदा तु जननीं श्रान्तां द्रक्ष्यामि भृशदुःखिताम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो महलों और अट्टालिकाओंमें पलकर बड़ी हुई हैं, अत्यन्त सुखकी भागिनी रही हैं, वे ही माता कुन्ती अब थककर अत्यन्त दुःख उठाती होंगी! मुझे कब उनके दर्शन होंगे?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनित्याः खलु मर्त्यानां गतयो भरतर्षभ।
कुन्ती राजसुता यत्र वसत्यसुखिता वने ॥ १३ ॥

मूलम्

अनित्याः खलु मर्त्यानां गतयो भरतर्षभ।
कुन्ती राजसुता यत्र वसत्यसुखिता वने ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! मनुष्योंकी गतियाँ निश्चय ही अनित्य होती हैं, जिनमें पड़कर राजकुमारी कुन्ती सुखोंसे वञ्चित हो वनमें निवास करती हैं’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहदेववचः श्रुत्वा द्रौपदी योषितां वरा।
उवाच देवी राजानमभिपूज्याभिनन्द्य च ॥ १४ ॥

मूलम्

सहदेववचः श्रुत्वा द्रौपदी योषितां वरा।
उवाच देवी राजानमभिपूज्याभिनन्द्य च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेवकी बात सुनकर नारियोंमें श्रेष्ठ महारानी द्रौपदी राजाका सत्कार करके उन्हें प्रसन्न करती हुई बोली—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदा द्रक्ष्यामि तां देवीं यदि जीवति सा पृथा।
जीवन्त्या ह्यद्य मे प्रीतिर्भविष्यति जनाधिप ॥ १५ ॥

मूलम्

कदा द्रक्ष्यामि तां देवीं यदि जीवति सा पृथा।
जीवन्त्या ह्यद्य मे प्रीतिर्भविष्यति जनाधिप ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! मैं अपनी सास कुन्तीदेवीका दर्शन कब करूँगी? क्या वे अबतक जीवित होंगी? यदि वे जीवित हों तो आज उनका दर्शन पाकर मुझे असीम प्रसन्नता होगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा तेऽस्तु मतिर्नित्यं धर्मे ते रमतां मनः।
योऽद्यत्वमस्मान् राजेन्द्र श्रेयसा योजयिष्यसि ॥ १६ ॥

मूलम्

एषा तेऽस्तु मतिर्नित्यं धर्मे ते रमतां मनः।
योऽद्यत्वमस्मान् राजेन्द्र श्रेयसा योजयिष्यसि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! आपकी बुद्धि सदा ऐसी ही बनी रहे। आपका मन धर्ममें ही रमता रहे; क्योंकि आज आप हमलोगोंको माता कुन्तीका दर्शन कराकर परम कल्याणकी भागिनी बनायेंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रपादस्थितं चेमं विद्धि राजन् वधूजनम्।
काङ्क्षन्तं दर्शनं कुन्त्या गान्धार्याः श्वशुरस्य च ॥ १७ ॥

मूलम्

अग्रपादस्थितं चेमं विद्धि राजन् वधूजनम्।
काङ्क्षन्तं दर्शनं कुन्त्या गान्धार्याः श्वशुरस्य च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आपको विदित हो कि अन्तःपुरकी सभी बहुएँ वनमें जानेके लिये पैर आगे बढ़ाये खड़ी हैं। वे सब-की-सब कुन्ती, गान्धारी तथा ससुरजीके दर्शन करना चाहती हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स नृपो देव्या द्रौपद्या भरतर्षभ।
सेनाध्यक्षान् समानाय्य सर्वानिदमुवाच ह ॥ १८ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स नृपो देव्या द्रौपद्या भरतर्षभ।
सेनाध्यक्षान् समानाय्य सर्वानिदमुवाच ह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतभूषण! द्रौपदीदेवीके ऐसा कहनेपर राजा युधिष्ठिरने समस्त सेनापतियोंको बुलाकर कहा—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्यातयत मे सेनां प्रभूतरथकुञ्जराम्।
द्रक्ष्यामि वनसंस्थं च धृतराष्ट्रं महीपतिम् ॥ १९ ॥

मूलम्

निर्यातयत मे सेनां प्रभूतरथकुञ्जराम्।
द्रक्ष्यामि वनसंस्थं च धृतराष्ट्रं महीपतिम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमलोग बहुत-से रथ और हाथी-घोड़ोंसे सुसज्जित सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दो। मैं वनवासी महाराज धृतराष्ट्रके दर्शन करनेके लिये चलूँगा’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्र्यध्यक्षांश्चाब्रवीद् राजा यानानि विविधानि मे।
सज्जीक्रियन्तां सर्वाणि शिबिकाश्च सहस्रशः ॥ २० ॥

मूलम्

स्त्र्यध्यक्षांश्चाब्रवीद् राजा यानानि विविधानि मे।
सज्जीक्रियन्तां सर्वाणि शिबिकाश्च सहस्रशः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद राजाने रनिवासके अध्यक्षोंको आज्ञा दी—‘तुम सब लोग हमारे लिये भाँति-भाँतिके वाहन और पालकियोंको हजारोंकी संख्यामें तैयार करो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकटापणवेशाश्च कोशः शिल्पिन एव च।
निर्यान्तु कोषपालाश्च कुरुक्षेत्राश्रमं प्रति ॥ २१ ॥

मूलम्

शकटापणवेशाश्च कोशः शिल्पिन एव च।
निर्यान्तु कोषपालाश्च कुरुक्षेत्राश्रमं प्रति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आवश्यक सामानोंसे लदे हुए छकड़े, बाजार, दुकानें, खजाना, कारीगर और कोषाध्यक्ष—ये सब कुरुक्षेत्रके आश्रमकी ओर रवाना हो जायँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च पौरजनः कश्चिद् द्रष्टुमिच्छति पार्थिवम्।
अनावृतः सुविहितः स च यातु सुरक्षितः ॥ २२ ॥

मूलम्

यश्च पौरजनः कश्चिद् द्रष्टुमिच्छति पार्थिवम्।
अनावृतः सुविहितः स च यातु सुरक्षितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नगरवासियोंमेंसे जो कोई भी महाराजका दर्शन करना चाहता हो, उसे बेरोक-टोक सुविधापूर्वक सुरक्षितरूपसे चलने दिया जाय॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूदाः पौरोगवाश्चैव सर्वं चैव महानसम्।
विविधं भक्ष्यभोज्यं च शकटैरुह्यतां मम ॥ २३ ॥

मूलम्

सूदाः पौरोगवाश्चैव सर्वं चैव महानसम्।
विविधं भक्ष्यभोज्यं च शकटैरुह्यतां मम ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाकशालाके अध्यक्ष और रसोइये भोजन बनानेके सब सामानों तथा भाँति-भाँतिके भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंको मेरे छकड़ोंपर लादकर ले चलें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयाणं घुष्यतां चैव श्वोभूत इति मा चिरम्।
क्रियतां पथि चाप्यद्य वेश्मानि विविधानि च ॥ २४ ॥

मूलम्

प्रयाणं घुष्यतां चैव श्वोभूत इति मा चिरम्।
क्रियतां पथि चाप्यद्य वेश्मानि विविधानि च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नगरमें यह घोषणा करा दी जाय कि ‘कल सबेरे यात्रा की जायगी; इसलिये चलनेवालोंको विलम्ब नहीं करना चाहिये।’ मार्गमें हमलोगोंके ठहरनेके लिये आज ही कई तरहके डेरे तैयार कर दिये जायँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाज्ञाप्य राजा स भ्रातृभिः सहपाण्डवः।
श्वोभूते निर्ययौ राजन् सस्त्रीवृद्धपुरःसरः ॥ २५ ॥

मूलम्

एवमाज्ञाप्य राजा स भ्रातृभिः सहपाण्डवः।
श्वोभूते निर्ययौ राजन् सस्त्रीवृद्धपुरःसरः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार आज्ञा देकर सबेरा होते ही अपने भाई पाण्डवोंसहित राजा युधिष्ठिरने स्त्री और बूढ़ोंको आगे करके नगरसे प्रस्थान किया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स बहिर्दिवसानेव जनौघं परिपालयन्।
न्यवसन्नृपतिः पञ्च ततोऽगच्छद् वनं प्रति ॥ २६ ॥

मूलम्

स बहिर्दिवसानेव जनौघं परिपालयन्।
न्यवसन्नृपतिः पञ्च ततोऽगच्छद् वनं प्रति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाहर जाकर पुरवासी मनुष्योंकी प्रतीक्षा करते हुए वे पाँच दिनोंतक एक ही स्थानपर टिके रहे। फिर सबको साथ लेकर वनमें गये॥२६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि युधिष्ठिरयात्रायां द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें युधिष्ठिरकी वनको यात्राविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२॥