०२१

भागसूचना

एकविंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्र आदिके लिये पाण्डवों तथा पुरवासियोंकी चिन्ता

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनं गते कौरवेन्द्रे दुःखशोकसमन्विताः।
बभूवुः पाण्डवा राजन् मातृशोकेन चान्विताः ॥ १ ॥

मूलम्

वनं गते कौरवेन्द्रे दुःखशोकसमन्विताः।
बभूवुः पाण्डवा राजन् मातृशोकेन चान्विताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कौरवराज धृतराष्ट्रके वनमें चले जानेपर पाण्डव दुःख और शोकसे संतप्त रहने लगे। माताके विछोहका शोक उनके हृदयको दग्ध किये देता था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा पौरजनः सर्वः शोचन्नास्ते जनाधिपम्।
कुर्वाणाश्च कथास्तत्र ब्राह्मणा नृपतिं प्रति ॥ २ ॥

मूलम्

तथा पौरजनः सर्वः शोचन्नास्ते जनाधिपम्।
कुर्वाणाश्च कथास्तत्र ब्राह्मणा नृपतिं प्रति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार समस्त पुरवासी मनुष्य भी राजा धृतराष्ट्रके लिये निरन्तर शोकमग्न रहते थे तथा ब्राह्मणलोग सदा उन वृद्ध नरेशके विषयमें वहाँ इस प्रकार चर्चा किया करते थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु राजा वृद्धः स वने वसति निर्जने।
गान्धारी च महाभागा सा च कुन्ती पृथा कथम्॥३॥

मूलम्

कथं नु राजा वृद्धः स वने वसति निर्जने।
गान्धारी च महाभागा सा च कुन्ती पृथा कथम्॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! हमारे बूढ़े महाराज उस निर्जन वनमें कैसे रहते होंगे? महाभागा गान्धारी तथा कुन्तिभोजकुमारी पृथा देवी भी किस तरह वहाँ दिन बिताती होंगी?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखार्हः स हि राजर्षिरसुखी तद् वनं महत्।
किमवस्थः समासाद्य प्रज्ञाचक्षुर्हतात्मजः ॥ ४ ॥

मूलम्

सुखार्हः स हि राजर्षिरसुखी तद् वनं महत्।
किमवस्थः समासाद्य प्रज्ञाचक्षुर्हतात्मजः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके सारे पुत्र मारे गये, वे प्रज्ञाचक्षु राजर्षि धृतराष्ट्र सुख भोगनेके योग्य होकर भी उस विशाल वनमें जाकर किस अवस्थामें दुःखके दिन बिताते होंगे?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुदुष्कृतं कृतवती कुन्ती पुत्रानपश्यती।
राज्यश्रियं परित्यज्य वनं सा समरोचयत् ॥ ५ ॥

मूलम्

सुदुष्कृतं कृतवती कुन्ती पुत्रानपश्यती।
राज्यश्रियं परित्यज्य वनं सा समरोचयत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीदेवीने तो बड़ा ही दुष्कर कर्म किया। अपने पुत्रोंके दर्शनसे वंचित हो राज्यलक्ष्मीको ठुकराकर उन्होंने वनमें रहना पसंद किया है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरः किमवस्थश्च भ्रातुः शुश्रूषुरात्मवान्।
स च गावल्गणिर्धीमान् भर्तृपिण्डानुपालकः ॥ ६ ॥

मूलम्

विदुरः किमवस्थश्च भ्रातुः शुश्रूषुरात्मवान्।
स च गावल्गणिर्धीमान् भर्तृपिण्डानुपालकः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने भाईकी सेवामें लगे रहनेवाले मनस्वी विदुरजी किस अवस्थामें होंगे? अपने स्वामीके शरीरकी रक्षा करनेवाले बुद्धिमान् संजय भी कैसे होंगे?’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकुमारं च पौरास्ते चिन्ताशोकसमाहताः।
तत्र तत्र कथाश्चक्रुः समासाद्य परस्परम् ॥ ७ ॥

मूलम्

आकुमारं च पौरास्ते चिन्ताशोकसमाहताः।
तत्र तत्र कथाश्चक्रुः समासाद्य परस्परम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बच्चेसे लेकर बूढ़ेतक समस्त पुरवासी चिन्ता और शोकसे पीड़ित हो जहाँ-तहाँ एक-दूसरेसे मिलकर उपर्युक्त बातें ही किया करते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्चैव ते सर्वे भृशं शोकपरायणाः।
शोचन्तो मातरं वृद्धामूषुर्नातिचिरं पुरे ॥ ८ ॥

मूलम्

पाण्डवाश्चैव ते सर्वे भृशं शोकपरायणाः।
शोचन्तो मातरं वृद्धामूषुर्नातिचिरं पुरे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त पाण्डव तो निरन्तर अत्यन्त शोकमें ही डूबे रहते थे। वे अपनी बूढ़ी माताके लिये इतने चिन्तित हो गये कि अधिक कालतक नगरमें नहीं रह सके॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव वृद्धं पितरं हतपुत्रं जनेश्वरम्।
गान्धारीं च महाभागां विदुरं च महामतिम् ॥ ९ ॥
नैषां बभूव सम्प्रीतिस्तात् विचिन्तयतां तदा।
न राज्ये न च नारीषु न वेदाध्ययनेषु च॥१०॥

मूलम्

तथैव वृद्धं पितरं हतपुत्रं जनेश्वरम्।
गान्धारीं च महाभागां विदुरं च महामतिम् ॥ ९ ॥
नैषां बभूव सम्प्रीतिस्तात् विचिन्तयतां तदा।
न राज्ये न च नारीषु न वेदाध्ययनेषु च॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके पुत्र मारे गये थे, उन बूढ़े ताऊ महाराज धृतराष्ट्रकी, महाभागा गान्धारीकी और परम बुद्धिमान् विदुरकी अधिक चिन्ता करनेके कारण उन्हें कभी चैन नहीं पड़ती थी। न तो राजकाजमें उनका मन लगता था न स्त्रियोंमें। वेदाध्ययनमें भी उनकी रुचि नहीं होती थी॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं निर्वेदमगमंश्चिन्तयन्तो नराधिपम् ।
तं च ज्ञातिवधं घोरं संस्मरन्तः पुनः पुनः ॥ ११ ॥

मूलम्

परं निर्वेदमगमंश्चिन्तयन्तो नराधिपम् ।
तं च ज्ञातिवधं घोरं संस्मरन्तः पुनः पुनः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रको याद करके वे अत्यन्त खिन्न एवं विरक्त हो उठते थे। भाई-बन्धुओंके उस भयंकर वधका उन्हें बारंबार स्मरण हो आता था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्योश्च बालस्य विनाशं रणमूर्धनि।
कर्णस्य च महाबाहो संग्रामेष्वपलायिनः ॥ १२ ॥

मूलम्

अभिमन्योश्च बालस्य विनाशं रणमूर्धनि।
कर्णस्य च महाबाहो संग्रामेष्वपलायिनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु जनमेजय! युद्धके मुहानेपर जो बालक अभिमन्युका अन्यायपूर्वक विनाश किया गया, संग्राममें कभी पीठ न दिखानेवाले कर्णका (परिचय न होनेसे) जो वध किया गया—इन घटनाओंको याद करके वे बेचैन हो जाते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव द्रौपदेयानामन्येषां सृहृदामपि ।
वधं संस्मृत्य ते वीरा नातिप्रमनसोऽभवन् ॥ १३ ॥

मूलम्

तथैव द्रौपदेयानामन्येषां सृहृदामपि ।
वधं संस्मृत्य ते वीरा नातिप्रमनसोऽभवन् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार द्रौपदीके पुत्रों तथा अन्यान्य सुहृदोंके वधकी बात याद करके उनके मनकी सारी प्रसन्नता भाग जाती थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतप्रवीरां पृथिवीं हृतरत्नां च भारत।
सदैव चिन्तयन्तस्ते न शर्म चोपलेभिरे ॥ १४ ॥

मूलम्

हतप्रवीरां पृथिवीं हृतरत्नां च भारत।
सदैव चिन्तयन्तस्ते न शर्म चोपलेभिरे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जिसके प्रमुख वीर मारे गये तथा रत्नोंका अपहरण हो गया, उस पृथ्वीकी दुर्दशाका सदैव चिन्तन करते हुए पाण्डव कभी थोड़ी देरके लिये भी शान्ति नहीं पाते थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदी हतपुत्रा च सुभद्रा चैव भाविनी।
नातिप्रीतियुते देव्यौ तदाऽऽस्तामप्रहृष्ठवत् ॥ १५ ॥

मूलम्

द्रौपदी हतपुत्रा च सुभद्रा चैव भाविनी।
नातिप्रीतियुते देव्यौ तदाऽऽस्तामप्रहृष्ठवत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके बेटे मारे गये थे, वे द्रुपदकुमारी कृष्णा और भाविनी सुभद्रा दोनों देवियाँ निरन्तर अप्रसन्न और हर्षशून्य-सी होकर चुपचाप बैठी रहती थीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैराट्‌यास्तनयं दृष्ट्वा पितरं ते परीक्षितम्।
धारयन्ति स्म ते प्राणांस्तव पूर्वपितामहाः ॥ १६ ॥

मूलम्

वैराट्‌यास्तनयं दृष्ट्वा पितरं ते परीक्षितम्।
धारयन्ति स्म ते प्राणांस्तव पूर्वपितामहाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उन दिनों तुम्हारे पूर्व पितामह पाण्डव उत्तराके पुत्र और तुम्हारे पिता परीक्षित्‌को देखकर ही अपने प्राणोंको धारण करते थे॥१६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१॥