भागसूचना
एकोनविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्र आदिका गङ्गातटपर निवास करके वहाँसे कुरुक्षेत्रमें जाना और शतयूपके आश्रमपर निवास करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भागीरथीतीरे मेध्ये पुण्यजनोचिते।
निवासमकरोद् राजा विदुरस्य मते स्थितः ॥ १ ॥
मूलम्
ततो भागीरथीतीरे मेध्ये पुण्यजनोचिते।
निवासमकरोद् राजा विदुरस्य मते स्थितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर दूसरा दिन व्यतीत होनेपर राजा धृतराष्ट्रने विदुरजीकी बात मानकर पुण्यात्मा पुरुषोंके रहनेयोग्य भागीरथीके पावन-तटपर निवास किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैनं पर्युपातिष्ठन् ब्राह्मणा वनवासिनः।
क्षत्रविट्शूद्रसंघाश्च बहवो भरतर्षभ ॥ २ ॥
मूलम्
तत्रैनं पर्युपातिष्ठन् ब्राह्मणा वनवासिनः।
क्षत्रविट्शूद्रसंघाश्च बहवो भरतर्षभ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वहाँ वनवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बहुत बड़ी संख्यामें एकत्र होकर राजासे मिलनेको आये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैः परिवृतो राजा कथाभिः परिनन्द्य तान्।
अनुजज्ञे सशिष्यान् वै विधिवत् प्रतिपूज्य च ॥ ३ ॥
मूलम्
स तैः परिवृतो राजा कथाभिः परिनन्द्य तान्।
अनुजज्ञे सशिष्यान् वै विधिवत् प्रतिपूज्य च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबसे घिरे हुए राजा धृतराष्ट्रने अनेक प्रकारकी बातें करके सबको प्रसन्न किया और शिष्योंसहित ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें जानेकी अनुमति दी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायाह्ने स महीपालस्ततो गङ्गामुपेत्य च।
चकार विधिवच्छौचं गान्धारी च यशस्विनी ॥ ४ ॥
मूलम्
सायाह्ने स महीपालस्ततो गङ्गामुपेत्य च।
चकार विधिवच्छौचं गान्धारी च यशस्विनी ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सायंकालमें राजा तथा यशस्विनी गान्धारीदेवीने गङ्गाजीके जलमें प्रवेश करके विधिपूर्वक स्नान-कार्य सम्पन्न किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चैवान्ये पृथक् सर्वे तीर्थेष्वाप्लुत्य भारत।
चक्रुः सर्वाः क्रियास्तत्र पुरुषा विदुरादयः ॥ ५ ॥
मूलम्
ते चैवान्ये पृथक् सर्वे तीर्थेष्वाप्लुत्य भारत।
चक्रुः सर्वाः क्रियास्तत्र पुरुषा विदुरादयः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वे तथा विदुर आदि पुरुषवर्गके लोग सबने पृथक्-पृथक् घाटोंमें गोता लगाकर संध्योपासन आदि समस्त शुभ कार्य पूर्ण किये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतशौचं ततो वृद्धं श्वशुरं कुन्तिभोजजा।
गान्धारीं च पृथा राजन् गङ्गातीरमुपानयत् ॥ ६ ॥
मूलम्
कृतशौचं ततो वृद्धं श्वशुरं कुन्तिभोजजा।
गान्धारीं च पृथा राजन् गङ्गातीरमुपानयत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! स्नानादि कर लेनेके पश्चात् अपने बूढ़े श्वशुर धृतराष्ट्र और गान्धारीदेवीको कुन्तीदेवी गङ्गाके किनारे ले आयीं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञस्तु याजकैस्तत्र कृतो वेदीपरिस्तरः।
जुहाव तत्र वह्निं स नृपतिः सत्यसङ्गरः ॥ ७ ॥
मूलम्
राज्ञस्तु याजकैस्तत्र कृतो वेदीपरिस्तरः।
जुहाव तत्र वह्निं स नृपतिः सत्यसङ्गरः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ यज्ञ करानेवाले ब्राह्मणोंने राजाके लिये एक वेदी तैयार की, जिसपर अग्नि-स्थापना करके उस सत्यप्रतिज्ञ नरेशने विधिवत् अग्निहोत्र किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भागीरथीतीरात् कुरुक्षेत्रं जगाम सः।
सानुगो नृपतिर्वृद्धो नियतः संयतेन्द्रियः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो भागीरथीतीरात् कुरुक्षेत्रं जगाम सः।
सानुगो नृपतिर्वृद्धो नियतः संयतेन्द्रियः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार नित्यकर्मसे निवृत्त हो बूढ़े राजा धृतराष्ट्र इन्द्रियसंयमपूर्वक नियमपरायण हो सेवकों-सहित गङ्गातटसे चलकर कुरुक्षेत्रमें जा पहुँचे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राश्रमपदं धीमानभिगम्य स पार्थिवः।
आससादाथ राजर्षिं शतयूपं मनीषिणम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तत्राश्रमपदं धीमानभिगम्य स पार्थिवः।
आससादाथ राजर्षिं शतयूपं मनीषिणम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ बुद्धिमान् भूपाल एक आश्रमपर जाकर वहाँके मनीषी राजर्षि शतयूपसे मिले॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि राजा महानासीत् केकयेषु परंतपः।
स्वपुत्रं मनुजैश्वर्ये निवेश्य वनमाविशत् ॥ १० ॥
मूलम्
स हि राजा महानासीत् केकयेषु परंतपः।
स्वपुत्रं मनुजैश्वर्ये निवेश्य वनमाविशत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे परंतप राजा शतयूप कभी केकय देशके महाराज थे। अपने पुत्रको राजसिंहासनपर बिठाकर वनमें चले आये थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनासौ सहितो राजा ययौ व्यासाश्रमं प्रति।
तत्रैनं विधिवद् राजा प्रत्यगृह्णात् कुरूद्वहः ॥ ११ ॥
मूलम्
तेनासौ सहितो राजा ययौ व्यासाश्रमं प्रति।
तत्रैनं विधिवद् राजा प्रत्यगृह्णात् कुरूद्वहः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्र उन्हें साथ लेकर व्यास-आश्रमपर गये। वहाँ कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्रने विधिपूर्वक व्यासजीकी पूजा की॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दीक्षां तत्र सम्प्राप्य राजा कौरवनन्दनः।
शतयूपाश्रमे तस्मिन् निवासमकरोत् तदा ॥ १२ ॥
मूलम्
स दीक्षां तत्र सम्प्राप्य राजा कौरवनन्दनः।
शतयूपाश्रमे तस्मिन् निवासमकरोत् तदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन्हींसे वनवासकी दीक्षा लेकर कौरवनन्दन राजा धृतराष्ट्र पूर्वोक्त शतयूपके आश्रममें लौट आये और वहीं निवास करने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै सर्वं विधिं राज्ञे राजाऽऽचख्यौ महामतिः।
आरण्यकं महाराज व्यासस्यानुमते तदा ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्मै सर्वं विधिं राज्ञे राजाऽऽचख्यौ महामतिः।
आरण्यकं महाराज व्यासस्यानुमते तदा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वहाँ परम बुद्धिमान् राजा शतयूपने व्यासजीकी आज्ञासे धृतराष्ट्रको वनमें रहनेकी सम्पूर्ण विधि बतला दी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स तपसा राजन् धृतराष्ट्रो महामनाः।
योजयामास चात्मानं तांश्चाप्यनुचरांस्तदा ॥ १४ ॥
मूलम्
एवं स तपसा राजन् धृतराष्ट्रो महामनाः।
योजयामास चात्मानं तांश्चाप्यनुचरांस्तदा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार महामनस्वी राजा धृतराष्ट्रने अपने-आपको तथा साथ आये हुए लोगोंको भी तपस्यामें लगा दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव देवी गान्धारी वल्कलाजिनधारिणी।
कुन्त्या सह महाराज समानव्रतचारिणी ॥ १५ ॥
मूलम्
तथैव देवी गान्धारी वल्कलाजिनधारिणी।
कुन्त्या सह महाराज समानव्रतचारिणी ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इसी प्रकार वल्कल और मृगचर्म धारण करनेवाली गान्धारीदेवी भी कुन्तीके साथ रहकर धृतराष्ट्रके समान ही व्रतका पालन करने लगीं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा चैव ते नृप।
संनियम्येन्द्रियग्राममास्थिते परमं तपः ॥ १६ ॥
मूलम्
कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा चैव ते नृप।
संनियम्येन्द्रियग्राममास्थिते परमं तपः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! वे दोनों नारियाँ इन्द्रियोंको अपने अधीन करके मन, वाणी, कर्म तथा नेत्रोंके द्वारा भी उत्तम तपस्यामें संलग्न हो गयीं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वगस्थिभूतः परिशुष्कमांसो
जटाजिनी वल्कलसंवृताङ्गः ।
स पार्थिवस्तत्र तपश्चचार
महर्षिवत्तीव्रमपेतमोहः ॥ १७ ॥
मूलम्
त्वगस्थिभूतः परिशुष्कमांसो
जटाजिनी वल्कलसंवृताङ्गः ।
स पार्थिवस्तत्र तपश्चचार
महर्षिवत्तीव्रमपेतमोहः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्रके शरीरका मांस सूख गया। वे अस्थिचर्मावशिष्ट होकर मस्तकपर जटा और शरीरपर मृगछाला एवं वल्कल धारण किये महर्षियोंकी भाँति तीव्र तपस्यामें प्रवृत्त हो गये। उनके चित्तका सम्पूर्ण मोह दूर हो गया था॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्ता च धर्मार्थविदग्र्यबुद्धिः
ससंजयस्तं नृपतिं सदारम् ।
उपाचरद् घोरतपो जितात्मा
तदा कृशो वल्कलचीरवासाः ॥ १८ ॥
मूलम्
क्षत्ता च धर्मार्थविदग्र्यबुद्धिः
ससंजयस्तं नृपतिं सदारम् ।
उपाचरद् घोरतपो जितात्मा
तदा कृशो वल्कलचीरवासाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा उत्तम बुद्धिवाले विदुरजी भी संजयसहित वल्कल और चीरवस्त्र धारण किये गान्धारी और धृतराष्ट्रकी सेवा करने लगे। वे मनको वशमें करके अपने दुर्बल शरीरसे घोर तपस्यामें संलग्न रहते थे॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि शतयूपाश्रमनिवासे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें धृतराष्ट्रका शतयूपके आश्रमपर निवासविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९॥