भागसूचना
षोडशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रका पुरवासियोंको लौटाना और पाण्डवोंके अनुरोध करनेपर भी कुन्तीका वनमें जानेसे न रुकना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रासादहर्म्येषु वसुधायां च पार्थिव।
नारीणां च नराणां च निःस्वनः सुमहानभूत् ॥ १ ॥
मूलम्
ततः प्रासादहर्म्येषु वसुधायां च पार्थिव।
नारीणां च नराणां च निःस्वनः सुमहानभूत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— पृथ्वीनाथ! तदनन्तर महलों और अट्टालिकाओंमें तथा पृथ्वीपर भी रोते हुए नर-नारियोंका महान् कोलाहल छा गया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा राजमार्गेण नृनारीसंकुलेन च।
कथंचिन्निर्ययौ धीमान् वेपमानः कृताञ्जलिः ॥ २ ॥
मूलम्
स राजा राजमार्गेण नृनारीसंकुलेन च।
कथंचिन्निर्ययौ धीमान् वेपमानः कृताञ्जलिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारी सड़क पुरुषों और स्त्रियोंकी भीड़से भरी हुई थी। उसपर चलते हुए बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र बड़ी कठिनाईसे आगे बढ़ पाते थे। उनके दोनों हाथ जुड़े हुए थे और शरीर काँप रहा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वर्द्धमानद्वारेण निर्ययौ गजसाह्वयात्।
विसर्जयामास च तं जनौघं स मुहुर्मुहुः ॥ ३ ॥
मूलम्
स वर्द्धमानद्वारेण निर्ययौ गजसाह्वयात्।
विसर्जयामास च तं जनौघं स मुहुर्मुहुः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्र वर्धमान नामक द्वारसे होते हुए हस्तिनापुरसे बाहर निकले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने बारंबार आग्रह करके अपने साथ आये हुए जनसमूहको विदा किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनं गन्तुं च विदुरो राज्ञा सह कृतक्षणः।
संजयश्च महामात्रः सूतो गावल्गणिस्तथा ॥ ४ ॥
मूलम्
वनं गन्तुं च विदुरो राज्ञा सह कृतक्षणः।
संजयश्च महामात्रः सूतो गावल्गणिस्तथा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुर और गवल्गणकुमार महामात्र सूत संजयने राजाके साथ ही वनमें जानेका निश्चय कर लिया था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपं निवर्तयामास युयुत्सुं च महारथम्।
धृतराष्ट्रो महीपालः परिदाप्य युधिष्ठिरे ॥ ५ ॥
मूलम्
कृपं निवर्तयामास युयुत्सुं च महारथम्।
धृतराष्ट्रो महीपालः परिदाप्य युधिष्ठिरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज धृतराष्ट्रने कृपाचार्य और महारथी युयुत्सुको युधिष्ठिरके हाथों सौंपकर लौटाया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्ते पौरवर्गे च राजा सान्तःपुरस्तदा।
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो निवर्तितुमियेष ह ॥ ६ ॥
मूलम्
निवृत्ते पौरवर्गे च राजा सान्तःपुरस्तदा।
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो निवर्तितुमियेष ह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरवासियोंके लौट जानेपर अन्तःपुरकी रानियोंसहित राजा युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रकी आज्ञा लेकर लौट जानेका विचार किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽब्रवीन्मातरं कुन्तीं वनं तमनुजग्मुषीम्।
अहं राजानमन्विष्ये भवती विनिवर्तताम् ॥ ७ ॥
वधूपरिवृता राज्ञि नगरं गन्तुमर्हसि।
राजा यात्वेष धर्मात्मा तापस्ये कृतनिश्चयः ॥ ८ ॥
मूलम्
सोऽब्रवीन्मातरं कुन्तीं वनं तमनुजग्मुषीम्।
अहं राजानमन्विष्ये भवती विनिवर्तताम् ॥ ७ ॥
वधूपरिवृता राज्ञि नगरं गन्तुमर्हसि।
राजा यात्वेष धर्मात्मा तापस्ये कृतनिश्चयः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन्होंने वनकी ओर जाती हुई अपनी माता कुन्तीसे कहा—‘रानी मा! आप अपनी पुत्र-वधुओंके साथ लौटिये, नगरको जाइये। मैं राजाके पीछे-पीछे जाऊँगा; क्योंकि ये धर्मात्मा नरेश तपस्याके लिये निश्चय करके वनमें जा रहे हैं, अतः इन्हें जाने दीजिये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ता धर्मराजेन बाष्पव्याकुललोचना ।
जगामैव तदा कुन्ती गान्धारीं परिगृह्य ह ॥ ९ ॥
मूलम्
इत्युक्ता धर्मराजेन बाष्पव्याकुललोचना ।
जगामैव तदा कुन्ती गान्धारीं परिगृह्य ह ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर कुन्तीके नेत्रोंमें आँसू भर आया तो भी वे गान्धारीका हाथ पकड़े चलती ही गयीं॥९॥
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवे महाराज माप्रसादं कृथाः क्वचित्।
एष मामनुरक्तो हि राजंस्त्वां चैव सर्वदा ॥ १० ॥
मूलम्
सहदेवे महाराज माप्रसादं कृथाः क्वचित्।
एष मामनुरक्तो हि राजंस्त्वां चैव सर्वदा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाते-जाते ही कुन्तीने कहा— महाराज! तुम सहदेवपर कभी अप्रसन्न न होना। राजन्! यह सदा मेरे और तुम्हारे प्रति भक्ति रखता आया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णं स्मरेथाः सततं संग्रामेष्वपलायिनम्।
अवकीर्णो हि समरे वीरो दुष्प्रज्ञया तदा ॥ ११ ॥
मूलम्
कर्णं स्मरेथाः सततं संग्रामेष्वपलायिनम्।
अवकीर्णो हि समरे वीरो दुष्प्रज्ञया तदा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें कभी पीठ न दिखानेवाले अपने भाई कर्णको भी सदा याद रखना, क्योंकि मेरी ही दुर्बुद्धिके कारण वह वीर युद्धमें मारा गया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयसं हृदयं नूनं मन्दाया मम पुत्रक।
यत् सूर्यजमपश्यन्त्याः शतधा न विदीर्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
आयसं हृदयं नूनं मन्दाया मम पुत्रक।
यत् सूर्यजमपश्यन्त्याः शतधा न विदीर्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! मुझ अभागिनीका हृदय निश्चय ही लोहेका बना हुआ है; तभी तो आज सूर्यनन्दन कर्णको न देखकर भी इसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गते तु किं शक्यं मया कर्तुमरिंदम।
मम दोषोऽयमत्यर्थं ख्यापितो यन्न सूर्यजः ॥ १३ ॥
मूलम्
एवं गते तु किं शक्यं मया कर्तुमरिंदम।
मम दोषोऽयमत्यर्थं ख्यापितो यन्न सूर्यजः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! ऐसी दशामें मैं क्या कर सकती हूँ। यह मेरा ही महान् दोष है कि मैंने सूर्यपुत्र कर्णका तुमलोगोंको परिचय नहीं दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्निमित्तं महाबाहो दानं दद्यास्त्वमुत्तमम्।
सदैव भ्रातृभिः सार्धं सूर्यजस्यारिमर्दन ॥ १४ ॥
मूलम्
तन्निमित्तं महाबाहो दानं दद्यास्त्वमुत्तमम्।
सदैव भ्रातृभिः सार्धं सूर्यजस्यारिमर्दन ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! शत्रुमर्दन! तुम अपने भाइयोंके साथ सदा ही सूर्यपुत्र कर्णके लिये भी उत्तम दान देते रहना॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपद्याश्च प्रिये नित्यं स्थातव्यमरिकर्शन।
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव नकुलश्च कुरूद्वह ॥ १५ ॥
समाधेयास्त्वया राजंस्त्वय्यद्य कुलधूर्गता ।
मूलम्
द्रौपद्याश्च प्रिये नित्यं स्थातव्यमरिकर्शन।
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव नकुलश्च कुरूद्वह ॥ १५ ॥
समाधेयास्त्वया राजंस्त्वय्यद्य कुलधूर्गता ।
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! मेरी बहू द्रौपदीका भी सदा प्रिय करते रहना। कुरुश्रेष्ठ! तुम भीमसेन, अर्जुन और नकुलको भी सदा संतुष्ट रखना। आजसे कुरुकुलका भार तुम्हारे ही ऊपर है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वश्रूश्वशुरयोः पादान् शुश्रूषन्ती वने त्वहम् ॥ १६ ॥
गान्धारीसहिता वत्स्ये तापसी मलपङ्किनी।
मूलम्
श्वश्रूश्वशुरयोः पादान् शुश्रूषन्ती वने त्वहम् ॥ १६ ॥
गान्धारीसहिता वत्स्ये तापसी मलपङ्किनी।
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं वनमें गान्धारीके साथ शरीरपर मैल एवं कीचड़ धारण किये तपस्विनी बनकर रहूँगी और अपने इन सास-ससुरके चरणोंकी सेवामें लगी रहूँगी॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितो वशी।
विषादमगमद् धीमान् न च किंचिदुवाच ह ॥ १७ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितो वशी।
विषादमगमद् धीमान् न च किंचिदुवाच ह ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! माताके ऐसा कहनेपर अपने मनको वशमें रखनेवाले धर्मात्मा एवं बुद्धिमान् युधिष्ठिर भाइयोंसहित बहुत दुःखी हुए। वे अपने मुँहसे कुछ न बोले॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमिव तु ध्यात्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
उवाच मातरं दीनश्चिन्ताशोकपरायणः ॥ १८ ॥
मूलम्
मुहूर्तमिव तु ध्यात्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
उवाच मातरं दीनश्चिन्ताशोकपरायणः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो घड़ीतक कुछ सोच-विचारकर चिन्ता और शोकमें डूबे हुए धर्मराज युधिष्ठिरने मातासे दीन होकर कहा—॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिदं ते व्यवसितं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि।
न त्वामभ्यनुजानामि प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ १९ ॥
मूलम्
किमिदं ते व्यवसितं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि।
न त्वामभ्यनुजानामि प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माताजी! आपने यह क्या निश्चय कर लिया? आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। मैं आपको वनमें जानेकी अनुमति नहीं दे सकता। आप मुझपर कृपा कीजिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरोद्यतान् पुरा ह्यस्मानुत्साह्य प्रियदर्शने।
विदुलाया वचोभिस्त्वं नास्मान् संत्यक्तुमर्हसि ॥ २० ॥
मूलम्
पुरोद्यतान् पुरा ह्यस्मानुत्साह्य प्रियदर्शने।
विदुलाया वचोभिस्त्वं नास्मान् संत्यक्तुमर्हसि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रियदर्शने! पहले जब हमलोग नगरसे बाहर जानेको उद्यत थे, आपने विदुलाके वचनोंद्वारा हमें क्षत्रियधर्मके पालनके लिये उत्साह दिलाया था। अतः आज हमें त्यागकर जाना आपके लिये उचित नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य पृथिवीपालान् राज्यं प्राप्तमिदं मया।
तव प्रज्ञामुपश्रुत्य वासुदेवान्नरर्षभात् ॥ २१ ॥
मूलम्
निहत्य पृथिवीपालान् राज्यं प्राप्तमिदं मया।
तव प्रज्ञामुपश्रुत्य वासुदेवान्नरर्षभात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे आपका विचार सुनकर ही मैंने बहुत-से राजाओंका संहार करके इस राज्यको प्राप्त किया है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व सा बुद्धिरियं चाद्य भवत्या यच्छ्रुतं मया।
क्षत्रधर्मे स्थितिं चोक्त्वा तस्याश्च्यवितुमिच्छसि ॥ २२ ॥
मूलम्
क्व सा बुद्धिरियं चाद्य भवत्या यच्छ्रुतं मया।
क्षत्रधर्मे स्थितिं चोक्त्वा तस्याश्च्यवितुमिच्छसि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कहाँ आपकी वह बुद्धि और कहाँ आपका यह विचार? मैंने आपका जो विचार सुना है, उसके अनुसार हमें क्षत्रिय-धर्ममें स्थित रहनेका उपदेश देकर आप स्वयं उससे गिरना चाहती हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मानुत्सृज्य राज्यं च स्नुषा हीमा यशस्विनि।
कथं वत्स्यसि दुर्गेषु वनेष्वद्य प्रसीद मे ॥ २३ ॥
मूलम्
अस्मानुत्सृज्य राज्यं च स्नुषा हीमा यशस्विनि।
कथं वत्स्यसि दुर्गेषु वनेष्वद्य प्रसीद मे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यशस्विनी मा! भला आप हमको, अपनी इन बहुओंको और इस राज्यको छोड़कर अब उन दुर्गम वनोंमें कैसे रह सकेंगी; अतः हमलोगोंपर कृपा करके यहीं रहिये’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति बाष्पकला वाचः कुन्ती पुत्रस्य शृण्वती।
सा जगामाश्रुपूर्णाक्षी भीमस्तामिदमब्रवीत् ॥ २४ ॥
मूलम्
इति बाष्पकला वाचः कुन्ती पुत्रस्य शृण्वती।
सा जगामाश्रुपूर्णाक्षी भीमस्तामिदमब्रवीत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पुत्रके ये अश्रुगद्गद वचन सुनकर कुन्तीके नेत्रोंमें आँसू उमड़ आये तो भी वे रुक न सकीं। आगे बढ़ती ही गयीं। तब भीमसेनने उनसे कहा—॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा राज्यमिदं कुन्ति भोक्तव्यं पुत्रनिर्जितम्।
प्राप्तव्या राजधर्माश्च तदेयं ते कुतो मतिः ॥ २५ ॥
मूलम्
यदा राज्यमिदं कुन्ति भोक्तव्यं पुत्रनिर्जितम्।
प्राप्तव्या राजधर्माश्च तदेयं ते कुतो मतिः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माताजी! जब पुत्रोंके जीते हुए इस राज्यके भोगनेका अवसर आया और राजधर्मके पालनकी सुविधा प्राप्त हुई, तब आपको ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी?॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं वयं कारिताः पूर्वं भवत्या पृथिवीक्षयम्।
कस्य हेतोः परित्यज्य वनं गन्तुमभीप्ससि ॥ २६ ॥
मूलम्
किं वयं कारिताः पूर्वं भवत्या पृथिवीक्षयम्।
कस्य हेतोः परित्यज्य वनं गन्तुमभीप्ससि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि ऐसा ही करना था तो आपने इस भूमण्डलका विनाश क्यों करवाया? क्या कारण है कि आप हमें छोड़कर वनमें जाना चाहती हैं?॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनाच्चापि किमानीता भवत्या बालका वयम्।
दुःखशोकसमाविष्टौ माद्रीपुत्राविमौ तथा ॥ २७ ॥
मूलम्
वनाच्चापि किमानीता भवत्या बालका वयम्।
दुःखशोकसमाविष्टौ माद्रीपुत्राविमौ तथा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब आपको वनमें ही जाना था, तब आप हमको और दुःख-शोकमें डूबे हुए उन माद्रीकुमारोंको बाल्यावस्थामें वनसे नगरमें क्यों ले आयीं?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद मातर्मा गास्त्वं वनमद्य यशस्विनि।
श्रियं यौधिष्ठिरीं मातर्भुङ्क्ष्व तावद् बलार्जिताम् ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रसीद मातर्मा गास्त्वं वनमद्य यशस्विनि।
श्रियं यौधिष्ठिरीं मातर्भुङ्क्ष्व तावद् बलार्जिताम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी यशस्विनी मा! आप प्रसन्न हों। आप हमें छोड़कर वनमें न जायँ। बलपूर्वक प्राप्त की हुई राजा युधिष्ठिरकी उस राजलक्ष्मीका उपभोग करें’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सा निश्चितैवाशु वनवासाय भाविनी।
लालप्यतां बहुविधं पुत्राणां नाकरोद् वचः ॥ २९ ॥
मूलम्
इति सा निश्चितैवाशु वनवासाय भाविनी।
लालप्यतां बहुविधं पुत्राणां नाकरोद् वचः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुद्ध हृदयवाली कुन्ती देवी वनमें रहनेका दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः नाना प्रकारसे विलाप करते हुए अपने पुत्रोंका अनुरोध उन्होंने नहीं माना॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी चान्वयाच्छ्वश्रूं विषण्णवदना तदा।
वनवासाय गच्छन्तीं रुदती भद्रया सह ॥ ३० ॥
मूलम्
द्रौपदी चान्वयाच्छ्वश्रूं विषण्णवदना तदा।
वनवासाय गच्छन्तीं रुदती भद्रया सह ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सासको इस प्रकार वनवासके लिये जाती देख द्रौपदीके मुखपर भी विषाद छा गया। वह सुभद्राके साथ रोती हुई स्वयं भी कुन्तीके पीछे-पीछे जाने लगी॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा पुत्रान् रुदतः सर्वान् मुहुर्मुहुरवेक्षती।
जगामैव महाप्राज्ञा वनाय कृतनिश्चया ॥ ३१ ॥
मूलम्
सा पुत्रान् रुदतः सर्वान् मुहुर्मुहुरवेक्षती।
जगामैव महाप्राज्ञा वनाय कृतनिश्चया ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकी बुद्धि विशाल थी। वे वनवासका पक्का निश्चय कर चुकी थीं; इसलिये अपने रोते हुए समस्त पुत्रोंकी ओर बार-बार देखती हुई वे आगे बढ़ती ही चली गयीं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वयुः पाण्डवास्तां तु सभृत्यान्तःपुरास्तथा।
ततः प्रमृज्य साश्रूणि पुत्रान् वचनमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
अन्वयुः पाण्डवास्तां तु सभृत्यान्तःपुरास्तथा।
ततः प्रमृज्य साश्रूणि पुत्रान् वचनमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डव भी अपने सेवकों और अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ उनके पीछे-पीछे जाने लगे। तब उन्होंने आँसू पोंछकर अपने पुत्रोंसे इस प्रकार कहा॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि कुन्तीवनप्रस्थाने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें कुन्तीका वनको प्रस्थानविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६॥