०१४ दानयज्ञे

भागसूचना

चतुर्दशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रके द्वारा मृत व्यक्तियोंके लिये श्राद्ध एवं विशाल दान-यज्ञका अनुष्ठान

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरेणैवमुक्तस्तु धृतराष्ट्रो जनाधिपः ।
प्रीतिमानभवद् राजन् राज्ञो जिष्णोश्च कर्मणि ॥ १ ॥

मूलम्

विदुरेणैवमुक्तस्तु धृतराष्ट्रो जनाधिपः ।
प्रीतिमानभवद् राजन् राज्ञो जिष्णोश्च कर्मणि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज जनमेजय! विदुरके ऐसा कहनेपर राजा धृतराष्ट्र युधिष्ठिर और अर्जुनके कार्यसे बहुत प्रसन्न हुए॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिरूपान् भीष्माय ब्राह्मणानृषिसत्तमान् ।
पुत्रार्थे सुहृदश्चैव स समीक्ष्य सहस्रशः ॥ २ ॥
कारयित्वान्नपानानि यानान्याच्छादनानि च ।
सुवर्णमणिरत्नानि दासीदासमजाविकम् ॥ ३ ॥
कम्बलानि च रत्नानि ग्रामान् क्षेत्रं तथा धनम्।
सालङ्कारान् गजानश्वान् कन्याश्चैव वरस्त्रियः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततोऽभिरूपान् भीष्माय ब्राह्मणानृषिसत्तमान् ।
पुत्रार्थे सुहृदश्चैव स समीक्ष्य सहस्रशः ॥ २ ॥
कारयित्वान्नपानानि यानान्याच्छादनानि च ।
सुवर्णमणिरत्नानि दासीदासमजाविकम् ॥ ३ ॥
कम्बलानि च रत्नानि ग्रामान् क्षेत्रं तथा धनम्।
सालङ्कारान् गजानश्वान् कन्याश्चैव वरस्त्रियः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्होंने भीष्मजी तथा अपने पुत्रोंके श्राद्धके लिये सुयोग्य एवं श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियों तथा सहस्रों सुहृदोंको निमन्त्रित किया। निमन्त्रित करके उनके लिये अन्न, पान, सवारी, ओढ़नेके वस्त्र, सुवर्ण, मणि, रत्न, दास-दासी, भेंड़-बकरे, कम्बल, उत्तम-उत्तम रत्न, ग्राम, खेत, धन, आभूषणोंसे विभूषित हाथी और घोड़े तथा सुन्दरी कन्याएँ एकत्र कीं॥२—४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्दिश्योद्दिश्य सर्वेभ्यो ददौ स नृपसत्तमः।
द्रोणं संकीर्त्य भीष्मं च सोमदत्तं च बाह्लिकम् ॥ ५ ॥
दुर्योधनं च राजानं पुत्रांश्चैव पृथक् पृथक्।
जयद्रथपुरोगांश्च सुहृदश्चापि सर्वशः ॥ ६ ॥

मूलम्

उद्दिश्योद्दिश्य सर्वेभ्यो ददौ स नृपसत्तमः।
द्रोणं संकीर्त्य भीष्मं च सोमदत्तं च बाह्लिकम् ॥ ५ ॥
दुर्योधनं च राजानं पुत्रांश्चैव पृथक् पृथक्।
जयद्रथपुरोगांश्च सुहृदश्चापि सर्वशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन नृपश्रेष्ठने सम्पूर्ण मृत व्यक्तियोंके उद्देश्यसे एक-एकका नाम लेकर उपर्युक्त वस्तुओंका दान किया। द्रोण, भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, राजा दुर्योधन तथा अन्य पुत्रोंका और जयद्रथ आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंका नामोच्चारण करके उन सबके निमित्त पृथक्-पृथक् दान किया॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स श्राद्धयज्ञो ववृते बहुशो धनदक्षिणः।
अनेकधनरत्नौघो युधिष्ठिरमते तदा ॥ ७ ॥

मूलम्

स श्राद्धयज्ञो ववृते बहुशो धनदक्षिणः।
अनेकधनरत्नौघो युधिष्ठिरमते तदा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह श्राद्धयज्ञ युधिष्ठिरकी सम्मतिके अनुसार बहुत-से धनकी दक्षिणासे सुशोभित हुआ। उसमें नाना प्रकारके धन और रत्नोंकी राशियाँ लुटायी गयीं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिशं यत्र पुरुषा गणका लेखकास्तदा।
युधिष्ठिरस्य वचनादपृच्छन्त स्म तं नृपम् ॥ ८ ॥
आज्ञापय किमेतेभ्यः प्रदायं दीयतामिति।
तदुपस्थितमेवात्र वचनान्ते ददुस्तदा ॥ ९ ॥

मूलम्

अनिशं यत्र पुरुषा गणका लेखकास्तदा।
युधिष्ठिरस्य वचनादपृच्छन्त स्म तं नृपम् ॥ ८ ॥
आज्ञापय किमेतेभ्यः प्रदायं दीयतामिति।
तदुपस्थितमेवात्र वचनान्ते ददुस्तदा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासे हिसाब लगाने और लिखनेवाले बहुतेरे कार्यकर्ता वहाँ निरन्तर उपस्थित रहकर धृतराष्ट्रसे पूछते रहते थे कि बताइये, इन याचकोंको क्या दिया जाय? यहाँ सब सामग्री उपस्थित ही है। धृतराष्ट्र ज्यों ही कहते त्यों ही उतना धन उन याचकोंको वे कर्मचारी दे देते थे॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतदेये दशशतं सहस्रे चायुतं तथा।
दीयते वचनाद् राज्ञः कुन्तीपुत्रस्य धीमतः ॥ १० ॥

मूलम्

शतदेये दशशतं सहस्रे चायुतं तथा।
दीयते वचनाद् राज्ञः कुन्तीपुत्रस्य धीमतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके आदेशसे जहाँ सौ देना था, वहाँ हजार दिया गया और हजारकी जगह दस हजार बाँटा गया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स वसुधाराभिर्वर्षमाणो नृपाम्बुदः।
तर्पयामास विप्रांस्तान् वर्षन् सस्यमिवाम्बुदः ॥ ११ ॥

मूलम्

एवं स वसुधाराभिर्वर्षमाणो नृपाम्बुदः।
तर्पयामास विप्रांस्तान् वर्षन् सस्यमिवाम्बुदः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार मेघ पानीकी धारा बहाकर खेतीको हरी-भरी कर देता है, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्ररूपी मेघने धनरूपी वारिधाराकी वर्षा करके समस्त ब्राह्मणरूपी खेतीको तृप्त एवं हरी-भरी कर दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽनन्तरमेवात्र सर्ववर्णान् महामते ।
अन्नपानरसौघेण प्लावयामास पार्थिवः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततोऽनन्तरमेवात्र सर्ववर्णान् महामते ।
अन्नपानरसौघेण प्लावयामास पार्थिवः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामते! तदनन्तर सभी वर्णके लोगोंको भाँति-भाँतिके भोजन और पीनेयोग्य रस प्रदान करके राजाने उन सबको संतुष्ट कर दिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वस्त्रधनरत्नौघो मृदङ्गनिनदो महान्।
गवाश्वमकरावर्तो नानारत्नमहाकरः ॥ १३ ॥
ग्रामाग्रहारद्वीपाढ्यो मणिहेमजलार्णवः ।
जगत् सम्प्लावयामास धृतराष्ट्रोडुपोद्धतः ॥ १४ ॥

मूलम्

स वस्त्रधनरत्नौघो मृदङ्गनिनदो महान्।
गवाश्वमकरावर्तो नानारत्नमहाकरः ॥ १३ ॥
ग्रामाग्रहारद्वीपाढ्यो मणिहेमजलार्णवः ।
जगत् सम्प्लावयामास धृतराष्ट्रोडुपोद्धतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दानयज्ञ एक उमड़ते हुए महासागरके समान जान पड़ता था। वस्त्र, धन और रत्न—ये ही उसके प्रवाह थे। मृदंगोंकी ध्वनि उस समुद्रकी गर्जना थी। उसका स्वरूप विशाल था। गाय, बैल और घोड़े उसमें घड़ियालों और भँवरोंके समान जान पड़ते थे। नाना प्रकारके रत्नोंका वह महान् आकर बना हुआ था। दानमें दिये जानेवाले गाँव और माफी भूमि—ये ही उस समुद्रके द्वीप थे। मणि और सुवर्णमय जलसे वह लबालब भरा था और धृतराष्ट्ररूपी पूर्ण चन्द्रमाको देखकर उसमें ज्वार-सा उठ गया था। इस प्रकार उस दान-सिन्धुने सम्पूर्ण जगत्‌को आप्लावित कर दिया था॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स पुत्रपौत्राणां पितॄणामात्मनस्तथा।
गान्धार्याश्च महाराज प्रददावौर्ध्वदेहिकम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एवं स पुत्रपौत्राणां पितॄणामात्मनस्तथा।
गान्धार्याश्च महाराज प्रददावौर्ध्वदेहिकम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस प्रकार उन्होंने पुत्रों, पौत्रों और पितरोंका तथा अपना एवं गान्धारीका भी श्राद्ध किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिश्रान्तो यदासीत् स ददद् दानान्यनेकशः।
निवर्तयामास तदा दानयज्ञं नराधिपः ॥ १६ ॥

मूलम्

परिश्रान्तो यदासीत् स ददद् दानान्यनेकशः।
निवर्तयामास तदा दानयज्ञं नराधिपः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब अनेक प्रकारके दान देते-देते राजा धृतराष्ट्र बहुत थक गये, तब उन्होंने उस दान-यज्ञको बंद किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स राजा कौरव्य चक्रे दानमहाक्रतुम्।
नटनर्तकलास्याढ्यं बह्वन्नरसदक्षिणम् ॥ १७ ॥

मूलम्

एवं स राजा कौरव्य चक्रे दानमहाक्रतुम्।
नटनर्तकलास्याढ्यं बह्वन्नरसदक्षिणम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रने दान नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान किया। उसमें प्रचुर अन्न, रस एवं असंख्य दक्षिणाका दान हुआ। उस उत्सवमें नटों और नर्तकोंके नाच-गानका भी आयोजन किया गया था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशाहमेवं दानानि दत्त्वा राजाम्बिकासुतः।
बभूव पुत्रपौत्राणामनृणो भरतर्षभ ॥ १८ ॥

मूलम्

दशाहमेवं दानानि दत्त्वा राजाम्बिकासुतः।
बभूव पुत्रपौत्राणामनृणो भरतर्षभ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार लगातार दस दिनोंतक दान देकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र पुत्रों और पौत्रोंके ऋणसे मुक्त हो गये॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि दानयज्ञे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें दानयज्ञविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥