भागसूचना
त्रयोदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरका धृतराष्ट्रको युधिष्ठिरका उदारतापूर्ण उत्तर सुनाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु राज्ञा स विदुरो बुद्धिसत्तमः।
धृतराष्ट्रमुपेत्यैवं वाक्यमाह महार्थवत् ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु राज्ञा स विदुरो बुद्धिसत्तमः।
धृतराष्ट्रमुपेत्यैवं वाक्यमाह महार्थवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरके इस प्रकार कहनेपर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विदुरजी धृतराष्ट्रके पास जाकर यह महान् अर्थसे युक्त बात बोले—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तो युधिष्ठिरो राजा भवद्वचनमादितः।
स च संश्रुत्य वाक्यं ते प्रशशंस महाद्युतिः ॥ २ ॥
मूलम्
उक्तो युधिष्ठिरो राजा भवद्वचनमादितः।
स च संश्रुत्य वाक्यं ते प्रशशंस महाद्युतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! मैंने महातेजस्वी राजा युधिष्ठिरके यहाँ जाकर आपका संदेश आरम्भसे ही कह सुनाया। उसे सुनकर उन्होंने आपकी बड़ी प्रशंसा की॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीभत्सुश्च महातेजा निवेदयति ते गृहान्।
वसु तस्य गृहे यच्च प्राणानपि च केवलान् ॥ ३ ॥
मूलम्
बीभत्सुश्च महातेजा निवेदयति ते गृहान्।
वसु तस्य गृहे यच्च प्राणानपि च केवलान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातेजस्वी अर्जुन भी आपको अपना सारा घर सौंपते हैं। उनके घरमें जो कुछ धन है, उसे और अपने प्राणोंको भी वे आपकी सेवामें समर्पित करनेको तैयार हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मराजश्च पुत्रस्ते राज्यं प्राणान् धनानि च।
अनुजानाति राजर्षे यच्चान्यदपि किंचन ॥ ४ ॥
मूलम्
धर्मराजश्च पुत्रस्ते राज्यं प्राणान् धनानि च।
अनुजानाति राजर्षे यच्चान्यदपि किंचन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजर्षे! आपके पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर अपना राज्य, प्राण, धन तथा और जो कुछ उनके पास है, सब आपको दे रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमश्च सर्वदुःखानि संस्मृत्य बहुलान्युत।
कृच्छ्रादिव महाबाहुरनुजज्ञे विनिःश्वसन् ॥ ५।
मूलम्
भीमश्च सर्वदुःखानि संस्मृत्य बहुलान्युत।
कृच्छ्रादिव महाबाहुरनुजज्ञे विनिःश्वसन् ॥ ५।
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु महाबाहु भीमसेनने पहलेके समस्त क्लेशोंका, जिनकी संख्या अधिक है, स्मरण करके लंबी साँस खींचते हुए बड़ी कठिनाईसे धन देनेकी अनुमति दी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजन् धर्मशीलेन राज्ञा बीभत्सुना तथा।
अनुनीतो महाबाहुः सौहृदे स्थापितोऽपि च ॥ ६ ॥
मूलम्
स राजन् धर्मशीलेन राज्ञा बीभत्सुना तथा।
अनुनीतो महाबाहुः सौहृदे स्थापितोऽपि च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! धर्मशील राजा युधिष्ठिर तथा अर्जुनने भी महाबाहु भीमसेनको भलीभाँति समझाकर उनके हृदयमें भी आपके प्रति सौहार्द उत्पन्न कर दिया है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च मन्युस्त्वया कार्य इति त्वां प्राह धर्मराट्।
संस्मृत्य भीमस्तद्वैरं यदन्यायवदाचरत् ॥ ७ ॥
मूलम्
न च मन्युस्त्वया कार्य इति त्वां प्राह धर्मराट्।
संस्मृत्य भीमस्तद्वैरं यदन्यायवदाचरत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मराजने आपसे कहलाया है कि भीमसेन पूर्व वैरका स्मरण करके जो कभी-कभी आपके साथ अन्याय-सा कर बैठते हैं, उसके लिये आप इनपर क्रोध न कीजियेगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रायो हि धर्मोऽयं क्षत्रियाणां नराधिप।
युद्धे क्षत्रियधर्मे च निरतोऽयं वृकोदरः ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं प्रायो हि धर्मोऽयं क्षत्रियाणां नराधिप।
युद्धे क्षत्रियधर्मे च निरतोऽयं वृकोदरः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! क्षत्रियोंका यह धर्म प्रायः ऐसा ही है। भीमसेन युद्ध और क्षत्रिय-धर्ममें प्रायः निरत रहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृकोदरकृते चाहमर्जुनश्च पुनः पुनः।
प्रसीद याचे नृपते भवान् प्रभुरिहास्ति यत् ॥ ९ ॥
मूलम्
वृकोदरकृते चाहमर्जुनश्च पुनः पुनः।
प्रसीद याचे नृपते भवान् प्रभुरिहास्ति यत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीमसेनके कटु बर्तावके लिये मैं और अर्जुन दोनों आपसे बार-बार क्षमायाचना करते हैं। नरेश्वर! आप प्रसन्न हों। मेरे पास जो कुछ भी है, उसके स्वामी आप ही हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् ददातु भवान् वित्तं यावदिच्छसि पार्थिव।
त्वमीश्वरोऽस्य राज्यस्य प्राणानामपि भारत ॥ १० ॥
मूलम्
तद् ददातु भवान् वित्तं यावदिच्छसि पार्थिव।
त्वमीश्वरोऽस्य राज्यस्य प्राणानामपि भारत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! भरतनन्दन! आप जितना धन दान करना चाहें, करें। आप मेरे राज्य और प्राणोंके भी ईश्वर हैं’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पुत्राणामौर्ध्वदेहिकम् ।
इतो रत्नानि गाश्चैव दासीदासमजाविकम् ॥ ११ ॥
आनयित्वा कुरुश्रेष्ठो ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छतु।
मूलम्
ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पुत्राणामौर्ध्वदेहिकम् ।
इतो रत्नानि गाश्चैव दासीदासमजाविकम् ॥ ११ ॥
आनयित्वा कुरुश्रेष्ठो ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छतु।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणोंको माफी जमीन दीजिये और पुत्रोंका श्राद्ध कीजिये।’ युधिष्ठिरने यह भी कहा है कि ‘महाराज धृतराष्ट्र मेरे यहाँसे नाना प्रकारके रत्न, गौएँ, दास, दासियाँ और भेंड़-बकरे मँगवाकर ब्राह्मणोंको दान करें॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीनान्धकृपणेभ्यश्च तत्र तत्र नृपाज्ञया ॥ १२ ॥
बह्वन्नरसपानाढ्याः सभा विदुर कारय।
गवां निपानान्यन्यच्च विविधं पुण्यकं कुरु ॥ १३ ॥
मूलम्
दीनान्धकृपणेभ्यश्च तत्र तत्र नृपाज्ञया ॥ १२ ॥
बह्वन्नरसपानाढ्याः सभा विदुर कारय।
गवां निपानान्यन्यच्च विविधं पुण्यकं कुरु ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदुरजी! आप राजा धृतराष्ट्रकी आज्ञासे दीनों, अन्धों और कंगालोंके लिये भिन्न-भिन्न स्थानोंमें प्रचुर अन्न, रस और पीनेयोग्य पदार्थोंसे भरी हुई अनेक धर्मशालाएँ बनवाइये तथा गौओंके पानी पीनेके लिये बहुत-से पौंसलोंका निर्माण कीजिये। साथ ही दूसरे भी विविध प्रकारके पुण्य कीजिये॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मामब्रवीद् राजा पार्थश्चैव धनंजयः।
यदत्रानन्तरं कार्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १४ ॥
मूलम्
इति मामब्रवीद् राजा पार्थश्चैव धनंजयः।
यदत्रानन्तरं कार्यं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार राजा युधिष्ठिर और अर्जुनने मुझसे बार-बार कहा है। अब इसके बाद जो कार्य करना हो, उसे आप बताइये’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते विदुरेणाथ धृतराष्ट्रोऽभिनन्द्य तान्।
मनश्चक्रे महादाने कार्तिक्यां जनमेजय ॥ १५ ॥
मूलम्
इत्युक्ते विदुरेणाथ धृतराष्ट्रोऽभिनन्द्य तान्।
मनश्चक्रे महादाने कार्तिक्यां जनमेजय ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! विदुरके ऐसा कहनेपर धृतराष्ट्रने पाण्डवोंकी बड़ी प्रशंसा की और कार्तिककी तिथियोंमें बहुत बड़ा दान करनेका निश्चय किया॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि विदुरवाक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें विदुरका वाक्यविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥