०१० प्रकृतिसान्त्वने

भागसूचना

दशमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

प्रजाकी ओरसे साम्ब नामक ब्राह्मणका धृतराष्ट्रको सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तास्तु ते तेन पौरजानपदा जनाः।
वृद्धेन राज्ञा कौरव्य नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तास्तु ते तेन पौरजानपदा जनाः।
वृद्धेन राज्ञा कौरव्य नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! बूढ़े राजा धृतराष्ट्रके ऐसे करुणामय वचन कहनेपर नगर और जनपदके निवासी सभी लोग दुःखसे अचेत-से हो गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूष्णीम्भूतांस्ततस्तांस्तु बाष्पकण्ठान् महीपतिः ।
धृतराष्ट्रो महीपालः पुनरेवाभ्यभाषत ॥ २ ॥

मूलम्

तूष्णीम्भूतांस्ततस्तांस्तु बाष्पकण्ठान् महीपतिः ।
धृतराष्ट्रो महीपालः पुनरेवाभ्यभाषत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके कण्ठ आँसुओंसे अवरुद्ध हो गये थे; अतः वे कुछ बोल नहीं पाते थे। उन्हें मौन देख महाराज धृतराष्ट्रने फिर कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धं च हतपुत्रं च धर्मपत्न्या सहानया।
विलपन्तं बहुविधं कृपणं चैव सत्तमाः ॥ ३ ॥
पित्रा स्वयमनुज्ञातं कृष्णद्वैपायनेन वै।
वनवासाय धर्मज्ञा धर्मज्ञेन नृपेण ह ॥ ४ ॥
सोऽहं पुनः पुनश्चैव शिरसावनतोऽनघाः।
गान्धार्या सहितं तन्मां समनुज्ञातुमर्हथ ॥ ५ ॥

मूलम्

वृद्धं च हतपुत्रं च धर्मपत्न्या सहानया।
विलपन्तं बहुविधं कृपणं चैव सत्तमाः ॥ ३ ॥
पित्रा स्वयमनुज्ञातं कृष्णद्वैपायनेन वै।
वनवासाय धर्मज्ञा धर्मज्ञेन नृपेण ह ॥ ४ ॥
सोऽहं पुनः पुनश्चैव शिरसावनतोऽनघाः।
गान्धार्या सहितं तन्मां समनुज्ञातुमर्हथ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सज्जनो! मैं बूढ़ा हूँ। मेरे सभी पुत्र मार डाले गये हैं। मैं अपनी इस धर्मपत्नीके साथ बारंबार दीनतापूर्वक विलाप कर रहा हूँ। मेरे पिता स्वयं महर्षि व्यासने मुझे वनमें जानेकी आज्ञा दे दी है। धर्मज्ञ पुरुषो! धर्मके ज्ञाता राजा युधिष्ठिरने भी वनवासके लिये अनुमति दे दी है। वही मैं अब पुनः बारंबार आपके सामने मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। पुण्यात्मा प्रजाजन! आपलोग गान्धारीसहित मुझे वनमें जानेकी आज्ञा दे दें’॥३—५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा कुरुराजस्य वाक्यानि करुणानि ते।
रुरुदुः सर्वशो राजन् समेताः कुरुजाङ्गलाः ॥ ६ ॥
उत्तरीयैः करैश्चापि संच्छाद्य वदनानि ते।
रुरुदुः शोकसंतप्ता मुहूर्तं पितृमातृवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा कुरुराजस्य वाक्यानि करुणानि ते।
रुरुदुः सर्वशो राजन् समेताः कुरुजाङ्गलाः ॥ ६ ॥
उत्तरीयैः करैश्चापि संच्छाद्य वदनानि ते।
रुरुदुः शोकसंतप्ता मुहूर्तं पितृमातृवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुरुराजकी ये करुणाभरी बातें सुनकर वहाँ एकत्र हुए कुरुजांगलदेशके सब लोग दुपट्टों और हाथोंसे अपना-अपना मुँह ढँककर रोने लगे। अपनी संतानको विदा करते समय दुःखसे कातर हुए पिता-माताकी भाँति वे दो घड़ीतक शोकसे संतप्त होकर रोते रहे॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदयैः शून्यभूतैस्ते धृतराष्ट्रप्रवासजम् ।
दुःखं संधारयन्तो हि नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥ ८ ॥

मूलम्

हृदयैः शून्यभूतैस्ते धृतराष्ट्रप्रवासजम् ।
दुःखं संधारयन्तो हि नष्टसंज्ञा इवाभवन् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका हृदय शून्य-सा हो गया था। वे उस सूने हृदयसे धृतराष्ट्रके प्रवासजनित दुःखको धारण करके अचेत-से हो गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते विनीय तमायासं धृतराष्ट्रवियोगजम्।
शनैः शनैस्तदान्योन्यमब्रुवन् सम्मतान्युत ॥ ९ ॥

मूलम्

ते विनीय तमायासं धृतराष्ट्रवियोगजम्।
शनैः शनैस्तदान्योन्यमब्रुवन् सम्मतान्युत ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर धीरे-धीरे उनके वियोगजनित दुःखको दूर करके उन सबने आपसमें वार्तालाप किया और अपनी सम्मति प्रकट की॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संधाय ते सर्वे वाक्यान्यथ समासतः।
एकस्मिन् ब्राह्मणे राजन्‌ निवेश्योचुर्नराधिपम् ॥ १० ॥

मूलम्

ततः संधाय ते सर्वे वाक्यान्यथ समासतः।
एकस्मिन् ब्राह्मणे राजन्‌ निवेश्योचुर्नराधिपम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तदनन्तर एकमत होकर उन सब लोगोंने थोड़ेमें अपनी सारी बातें कहनेका भार एक ब्राह्मणपर रखा। उन ब्राह्मणके द्वारा ही उन्होंने राजासे अपनी बात कही॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वाचरणो विप्रः सम्मतोऽर्थविशारदः।
साम्बाख्यो बह्‌वृचो राजन् वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ११ ॥
अनुमान्य महाराजं तत् सदः सम्प्रसाद्य च।
विप्रः प्रगल्भो मेधावी स राजानमुवाच ह ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः स्वाचरणो विप्रः सम्मतोऽर्थविशारदः।
साम्बाख्यो बह्‌वृचो राजन् वक्तुं समुपचक्रमे ॥ ११ ॥
अनुमान्य महाराजं तत् सदः सम्प्रसाद्य च।
विप्रः प्रगल्भो मेधावी स राजानमुवाच ह ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ब्राह्मण देवता सदाचारी, सबके माननीय और अर्थज्ञानमें निपुण थे, उनका नाम था साम्ब। वे वेदके विद्वान्, निर्भय होकर बोलनेवाले और बुद्धिमान् थे। वे महाराजको सम्मान देकर सारी सभाको प्रसन्न करके बोलनेको उद्यत हुए। उन्होंने राजासे इस प्रकार कहा—॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् वाक्यं जनस्यास्य मयि सर्वं समर्पितम्।
वक्ष्यामि तदहं वीर तज्जुषस्व नराधिप ॥ १३ ॥

मूलम्

राजन् वाक्यं जनस्यास्य मयि सर्वं समर्पितम्।
वक्ष्यामि तदहं वीर तज्जुषस्व नराधिप ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! वीर नरेश्वर! यहाँ उपस्थित हुए समस्त जनसमुदायने अपना मन्तव्य प्रकट करनेका सारा भार मुझे सौंप दिया है; अतः मैं ही इनकी बातें आपकी सेवामें निवेदन करूँगा। आप सुननेकी कृपा करें॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा वदसि राजेन्द्र सर्वमेतत् तथा विभो।
नात्र मिथ्या वचः किंचित् सुहृत्त्वं नः परस्परम् ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा वदसि राजेन्द्र सर्वमेतत् तथा विभो।
नात्र मिथ्या वचः किंचित् सुहृत्त्वं नः परस्परम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! प्रभो! आप जो कुछ कहते हैं, वह सब ठीक है। उसमें असत्यका लेश भी नहीं है। वास्तवमें इस राजवंशमें और हमलोगोंमें परस्पर दृढ़ सौहार्द स्थापित हो चुका है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जात्वस्य च वंशस्य राज्ञां कश्चित् कदाचन।
राजाऽऽसीद् यः प्रजापालः प्रजानामप्रियोऽभवत् ॥ १५ ॥

मूलम्

न जात्वस्य च वंशस्य राज्ञां कश्चित् कदाचन।
राजाऽऽसीद् यः प्रजापालः प्रजानामप्रियोऽभवत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस राजवंशमें कभी कोई भी ऐसा राजा नहीं हुआ, जो प्रजापालन करते समय समस्त प्रजाओंको प्रिय न रहा हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृवद् भ्रातृवच्चैव भवन्तः पालयन्ति नः।
न च दुर्योधनः किंचिदयुक्तं कृतवान् नृपः ॥ १६ ॥

मूलम्

पितृवद् भ्रातृवच्चैव भवन्तः पालयन्ति नः।
न च दुर्योधनः किंचिदयुक्तं कृतवान् नृपः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपलोग पिता और बड़े भाईके समान हमारा पालन करते आये हैं। राजा दुर्योधनने भी हमारे साथ कोई अनुचित बर्ताव नहीं किया है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ब्रवीति धर्मात्मा मुनिः सत्यवतीसुतः।
तथा कुरु महाराज स हि नः परमो गुरुः॥१७॥

मूलम्

यथा ब्रवीति धर्मात्मा मुनिः सत्यवतीसुतः।
तथा कुरु महाराज स हि नः परमो गुरुः॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यासजी आपको जैसी सलाह देते हैं, वैसा ही कीजिये; क्योंकि वे हम सब लोगोंके परम गुरु हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्ता वयं तु भवता दुःखशोकपरायणाः।
भविष्यामश्चिरं राजन् भवद्‌गुणशतैर्युताः ॥ १८ ॥

मूलम्

त्यक्ता वयं तु भवता दुःखशोकपरायणाः।
भविष्यामश्चिरं राजन् भवद्‌गुणशतैर्युताः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप जब हमें त्याग देंगे, हमें छोड़कर चले जायँगे, तब हम बहुत दिनोंतक दुःख और शोकमें डूबे रहेंगे। आपके सैकड़ों गुणोंकी याद सदा हमें घेरे रहेगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा शान्तनुना गुप्ता राज्ञा चित्राङ्गदेन च।
भीष्मवीर्योपगूढेन पित्रा तव च पार्थिव ॥ १९ ॥
भवदुद्वीक्षणाच्चैव पाण्डुना पृथिवीक्षिता ।
तथा दुर्योधनेनापि राज्ञा सुपरिपालिताः ॥ २० ॥

मूलम्

यथा शान्तनुना गुप्ता राज्ञा चित्राङ्गदेन च।
भीष्मवीर्योपगूढेन पित्रा तव च पार्थिव ॥ १९ ॥
भवदुद्वीक्षणाच्चैव पाण्डुना पृथिवीक्षिता ।
तथा दुर्योधनेनापि राज्ञा सुपरिपालिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीनाथ! महाराज शान्तनु तथा राजा चित्रांगदने जिस प्रकार हमारी रक्षा की है, भीष्मके पराक्रमसे सुरक्षित आपके पिता विचित्रवीर्यने जिस तरह हमलोगोंका पालन किया है तथा आपकी देख-रेखमें रहकर पृथ्वीपति पाण्डुने जिस प्रकार प्रजाजनोंकी रक्षा की है, उसी प्रकार राजा दुर्योधनने भी हमलोगोंका यथावत् पालन किया है॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्वल्पमपि पुत्रस्ते व्यलीकं कृतवान् नृप।
पितरीव सुविश्वस्तास्तस्मिन्नपि नराधिपे ॥ २१ ॥
वयमास्म यथा सम्यग् भवतो विदितं तथा।

मूलम्

न स्वल्पमपि पुत्रस्ते व्यलीकं कृतवान् नृप।
पितरीव सुविश्वस्तास्तस्मिन्नपि नराधिपे ॥ २१ ॥
वयमास्म यथा सम्यग् भवतो विदितं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! आपके पुत्रने कभी थोड़ा-सा भी अन्याय हमलोगोंके साथ नहीं किया। हमलोग उन राजा दुर्योधनपर भी पिताके समान विश्वास करते थे और उनके राज्यमें बड़े सुखसे जीवन व्यतीत करते थे। यह बात आपको भी विदित ही है’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा वर्षसहस्राणि कुन्तीपुत्रेण धीमता ॥ २२ ॥
पाल्यमाना धृतिमता सुखं विन्दामहे नृप।

मूलम्

तथा वर्षसहस्राणि कुन्तीपुत्रेण धीमता ॥ २२ ॥
पाल्यमाना धृतिमता सुखं विन्दामहे नृप।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! भगवान् करें कि बुद्धिमान् कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर धैर्यपूर्वक सहस्रों वर्षतक हमारा पालन करें और हम इनके राज्यमें सुखसे रहें॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षीणां पुराणानां भवतां पुण्यकर्मणाम् ॥ २३ ॥
कुरुसंवरणादीनां भरतस्य च धीमतः।
वृत्तं समनुयात्येष धर्मात्मा भूरिदक्षिणः ॥ २४ ॥

मूलम्

राजर्षीणां पुराणानां भवतां पुण्यकर्मणाम् ॥ २३ ॥
कुरुसंवरणादीनां भरतस्य च धीमतः।
वृत्तं समनुयात्येष धर्मात्मा भूरिदक्षिणः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यज्ञोंमें बड़ी-बड़ी दक्षिणा प्रदान करनेवाले ये धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर प्राचीन कालके पुण्यात्मा राजर्षि कुरु और संवरण आदिके तथा बुद्धिमान् राजा भरतके बर्तावका अनुसरण करते हैं॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्र वाच्यं महाराज सुसूक्ष्ममपि विद्यते।
उषिताः स्म सुखं नित्यं भवता परिपालिताः ॥ २५ ॥

मूलम्

नात्र वाच्यं महाराज सुसूक्ष्ममपि विद्यते।
उषिताः स्म सुखं नित्यं भवता परिपालिताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! इनमें कोई छोटे-से-छोटा दोष भी नहीं है। इनके राज्यमें आपके द्वारा सुरक्षित होकर हमलोग सदा सुखसे रहते आये हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसूक्ष्मं च व्यलीकं ते सपुत्रस्य न विद्यते।
यत् तु ज्ञातिविमर्देऽस्मिन्नात्थ दुर्योधनं प्रति ॥ २६ ॥
भवन्तमनुनेष्यामि तत्रापि कुरुनन्दन ।

मूलम्

सुसूक्ष्मं च व्यलीकं ते सपुत्रस्य न विद्यते।
यत् तु ज्ञातिविमर्देऽस्मिन्नात्थ दुर्योधनं प्रति ॥ २६ ॥
भवन्तमनुनेष्यामि तत्रापि कुरुनन्दन ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! पुत्रसहित आपका कोई सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अपराध भी हमारे देखनेमें नहीं आया है। महाभारत-युद्धमें जो जाति-भाइयोंका संहार हुआ है, उसके विषयमें आपने जो दुर्योधनके अपराधकी चर्चा की है, इसके सम्बन्धमें भी मैं आपसे कुछ निवेदन करूँगा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तद् दुर्योधनकृतं न च तद् भवता कृतम्॥२७॥
न कर्णसौबलाभ्यां च कुरवो यत् क्षयं गताः।

मूलम्

न तद् दुर्योधनकृतं न च तद् भवता कृतम्॥२७॥
न कर्णसौबलाभ्यां च कुरवो यत् क्षयं गताः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवोंका जो संहार हुआ है, उसमें न दुर्योधनका हाथ है, न आपका। कर्ण और शकुनिने भी इसमें कुछ नहीं किया है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवं तत् तु विजानीमो यन्न शक्यं प्रबाधितुम् ॥ २८ ॥
दैवं पुरुषकारेण न शक्यमपि बाधितुम्।

मूलम्

दैवं तत् तु विजानीमो यन्न शक्यं प्रबाधितुम् ॥ २८ ॥
दैवं पुरुषकारेण न शक्यमपि बाधितुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमारी समझमें तो यह दैवका विधान था। इसे कोई टाल नहीं सकता था। दैवको पुरुषार्थसे मिटा देना असम्भव है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिण्यो महाराज दशाष्टौ च समागताः ॥ २९ ॥
अष्टादशाहेन हताः कुरुभिर्योधपुङ्गवैः ।
भीष्मद्रोणकृपाद्यैश्च कर्णेन च महात्मना ॥ ३० ॥
युयुधानेन वीरेण धृष्टद्युम्नेन चैव ह।
चतुर्भिः पाण्डुपुत्रैश्च भीमार्जुनयमैस्तथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

अक्षौहिण्यो महाराज दशाष्टौ च समागताः ॥ २९ ॥
अष्टादशाहेन हताः कुरुभिर्योधपुङ्गवैः ।
भीष्मद्रोणकृपाद्यैश्च कर्णेन च महात्मना ॥ ३० ॥
युयुधानेन वीरेण धृष्टद्युम्नेन चैव ह।
चतुर्भिः पाण्डुपुत्रैश्च भीमार्जुनयमैस्तथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! उस युद्धमें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं; किंतु कौरवपक्षके प्रधान योद्धा भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि तथा महामना कर्णने एवं पाण्डवदलके प्रमुख वीर सात्यकि, धृष्टद्युम्न, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव आदिने अठारह दिनोंमें ही सबका संहार कर डाला’॥२९—३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च क्षयोऽयं नृपते ऋते दैवबलादभूत्।
अवश्यमेव संग्रामे क्षत्रियेण विशेषतः ॥ ३२ ॥
कर्तव्यं निधनं काले मर्तव्यं क्षत्रबन्धुना।

मूलम्

न च क्षयोऽयं नृपते ऋते दैवबलादभूत्।
अवश्यमेव संग्रामे क्षत्रियेण विशेषतः ॥ ३२ ॥
कर्तव्यं निधनं काले मर्तव्यं क्षत्रबन्धुना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! ऐसा विकट संहार दैवीशक्तिके बिना कदापि नहीं हो सकता था। अवश्य ही संग्राममें मनुष्यको विशेषतः क्षत्रियको समयानुसार शत्रुओंका संहार एवं प्राणोत्सर्ग करना चाहिये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैरियं पुरुषव्याघ्रैर्विद्याबाहुबलान्वितैः ॥ ३३ ॥
पृथिवी निहता सर्वा सहया सरथद्विपा।

मूलम्

तैरियं पुरुषव्याघ्रैर्विद्याबाहुबलान्वितैः ॥ ३३ ॥
पृथिवी निहता सर्वा सहया सरथद्विपा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन विद्या और बाहुबलसे सम्पन्न पुरुषसिंहोंने रथ, घोड़े और हाथियोंसहित इस सारी पृथ्वीका नाश कर डाला॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स राज्ञां वधे सूनुः कारणं ते महात्मनाम्॥३४॥
न भवान् न च ते भृत्या न कर्णो न च सौबलः।

मूलम्

न स राज्ञां वधे सूनुः कारणं ते महात्मनाम्॥३४॥
न भवान् न च ते भृत्या न कर्णो न च सौबलः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपका पुत्र उन महात्मा नरेशोंके वधमें कारण नहीं हुआ है। इसी प्रकार न आप, न आपके सेवक, न कर्ण और न शकुनि ही इसमें कारण हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् विशस्ताः कुरुश्रेष्ठ राजानश्च सहस्रशः ॥ ३५ ॥
सर्वं दैवकृतं विद्धि कोऽत्र किं वक्तुमर्हति।

मूलम्

यद् विशस्ताः कुरुश्रेष्ठ राजानश्च सहस्रशः ॥ ३५ ॥
सर्वं दैवकृतं विद्धि कोऽत्र किं वक्तुमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ! उस युद्धमें जो सहस्रों राजा काट डाले गये हैं, वह सब दैवकी ही करतूत समझिये। इस विषयमें दूसरा कोई क्या कह सकता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुर्मतो भवानस्य कृत्स्नस्य जगतः प्रभुः ॥ ३६ ॥
धर्मात्मानमतस्तुभ्यमनुजानीमहे सुतम् ।

मूलम्

गुरुर्मतो भवानस्य कृत्स्नस्य जगतः प्रभुः ॥ ३६ ॥
धर्मात्मानमतस्तुभ्यमनुजानीमहे सुतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप इस सम्पूर्ण जगत्‌के स्वामी हैं; इसलिये हम आपको अपना गुरु मानते हैं और आप धर्मात्मा नरेशको वनमें जानेकी अनुमति देते हैं तथा आपके पुत्र दुर्योधनके लिये हमारा यह कथन है—॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लभतां वीरलोकं स ससहायो नराधिपः ॥ ३७ ॥
द्विजाग्र्यैः समनुज्ञातस्त्रिदिवे मोदतां सुखम्।

मूलम्

लभतां वीरलोकं स ससहायो नराधिपः ॥ ३७ ॥
द्विजाग्र्यैः समनुज्ञातस्त्रिदिवे मोदतां सुखम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने सहायकोंसहित राजा दुर्योधन इन श्रेष्ठ द्विजोंके आशीर्वादसे वीरलोक प्राप्त करे और स्वर्गमें सुख एवं आनन्द भोगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्स्यते च भवान् पुण्यं धर्मे च परमां स्थितिम्॥३८॥
वेद धर्मं च कृत्स्नेन सम्यक् त्वं भव सुव्रतः।

मूलम्

प्राप्स्यते च भवान् पुण्यं धर्मे च परमां स्थितिम्॥३८॥
वेद धर्मं च कृत्स्नेन सम्यक् त्वं भव सुव्रतः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप भी पुण्य एवं धर्ममें ऊँची स्थिति प्राप्त करें। आप सम्पूर्ण धर्मोंको ठीक-ठीक जानते हैं, इसलिये उत्तम व्रतोंके अनुष्ठानमें लग जाइये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टिप्रदानमपि ते पाण्डवान् प्रति नो वृथा ॥ ३९ ॥
समर्थास्त्रिदिवस्यापि पालने किं पुनः क्षितेः।

मूलम्

दृष्टिप्रदानमपि ते पाण्डवान् प्रति नो वृथा ॥ ३९ ॥
समर्थास्त्रिदिवस्यापि पालने किं पुनः क्षितेः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप जो हमारी देख-रेख करनेके लिये हमें पाण्डवोंको सौंप रहे हैं, वह सब व्यर्थ है। ये पाण्डव तो स्वर्गका भी पालन करनेमें समर्थ हैं; फिर इस भूमण्डलकी तो बात ही क्या है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुवर्त्स्यन्ति वा धीमन् समेषु विषमेषु च ॥ ४० ॥
प्रजाः कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवान् शीलभूषणान्।

मूलम्

अनुवर्त्स्यन्ति वा धीमन् समेषु विषमेषु च ॥ ४० ॥
प्रजाः कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवान् शीलभूषणान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमान् कुरुकुलश्रेष्ठ! समस्त पाण्डव शीलरूपी सद्‌गुणसे विभूषित हैं; अतः भले-बुरे सभी समयोंमें सारी प्रजा निश्चय ही उनका अनुसरण करेगी॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पारिबर्हांश्च पार्थिवः ॥ ४१ ॥
पूर्वराजाभिपन्नांश्च पालयत्येव पाण्डवः ।

मूलम्

ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पारिबर्हांश्च पार्थिवः ॥ ४१ ॥
पूर्वराजाभिपन्नांश्च पालयत्येव पाण्डवः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये पृथ्वीनाथ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर अपने दिये हुए तथा पहलेके राजाओंद्वारा अर्पित किये गये ब्राह्मणोंके लिये दातव्य अग्रहारों (दानमें दिये गये ग्रामों) तथा पारिबर्हों (पुरस्कारमें दिये गये ग्रामों)-की भी रक्षा करते ही हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घदर्शी मृदुर्दान्तः सदा वैश्रवणो यथा ॥ ४२ ॥
अक्षुद्रसचिवश्चायं कुन्तीपुत्रो महामनाः ।

मूलम्

दीर्घदर्शी मृदुर्दान्तः सदा वैश्रवणो यथा ॥ ४२ ॥
अक्षुद्रसचिवश्चायं कुन्तीपुत्रो महामनाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये कुन्तीकुमार सदा कुबेरके समान दीर्घदर्शी, कोमल स्वभाववाले और जितेन्द्रिय हैं। इनके मन्त्री भी उच्च विचारके हैं। इनका हृदय बड़ा ही विशाल है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यमित्रे दयावांश्च शुचिश्च भरतर्षभः ॥ ४३ ॥
ऋजुं पश्यति मेधावी पुत्रवत् पाति नः सदा।

मूलम्

अप्यमित्रे दयावांश्च शुचिश्च भरतर्षभः ॥ ४३ ॥
ऋजुं पश्यति मेधावी पुत्रवत् पाति नः सदा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये भरतकुलभूषण युधिष्ठिर शत्रुओंपर भी दया करनेवाले और परम पवित्र हैं। बुद्धिमान् होनेके साथ ही ये सबको सरलभावसे देखनेवाले हैं और हमलोगोंका सदा पुत्रवत् पालन करते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रियं च जनस्यास्य संसर्गाद् धर्मजस्य वै ॥ ४४ ॥
न करिष्यन्ति राजर्षे तथा भीमार्जुनादयः।

मूलम्

विप्रियं च जनस्यास्य संसर्गाद् धर्मजस्य वै ॥ ४४ ॥
न करिष्यन्ति राजर्षे तथा भीमार्जुनादयः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजर्षे! इन धर्मपुत्र युधिष्ठिरके संसर्गसे भीमसेन और अर्जुन आदि भी इस जनसमुदाय (प्रजावर्ग)-का कभी अप्रिय नहीं करेंगे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दा मृदुषु कौरव्य तीक्ष्णेष्वाशीविषोपमाः ॥ ४५ ॥
वीर्यवन्तो महात्मानः पौराणां च हिते रताः।

मूलम्

मन्दा मृदुषु कौरव्य तीक्ष्णेष्वाशीविषोपमाः ॥ ४५ ॥
वीर्यवन्तो महात्मानः पौराणां च हिते रताः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! ये पाँचों भाई पाण्डव बड़े पराक्रमी, महामनस्वी और पुरवासियोंके हितसाधनमें लगे रहनेवाले हैं। ये कोमल स्वभाववाले सत्पुरुषोंके प्रति मृदुतापूर्ण बर्ताव करते हैं, किंतु तीखे स्वभाववाले दुष्टोंके लिये ये विषधर सर्पोंके समान भयंकर बन जाते हैं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कुन्ती न च पाञ्चाली न चोलूपी न सात्वती॥४६॥
अस्मिन् जने करिष्यन्ति प्रतिकूलानि कर्हिचित्।

मूलम्

न कुन्ती न च पाञ्चाली न चोलूपी न सात्वती॥४६॥
अस्मिन् जने करिष्यन्ति प्रतिकूलानि कर्हिचित्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्ती, द्रौपदी, उलूपी और सुभद्रा भी कभी प्रजाजनोंके प्रति प्रतिकूल बर्ताव नहीं करेंगी॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवत्कृतमिमं स्नेहं युधिष्ठिरविवर्धितम् ॥ ४७ ॥
न पृष्ठतः करिष्यन्ति पौरा जानपदा जनाः।

मूलम्

भवत्कृतमिमं स्नेहं युधिष्ठिरविवर्धितम् ॥ ४७ ॥
न पृष्ठतः करिष्यन्ति पौरा जानपदा जनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपका प्रजाके साथ जो स्नेह था, उसे युधिष्ठिरने और भी बढ़ा दिया है। नगर और जनपदके लोग आपलोगोंके इस प्रजा-प्रेमकी कभी अवहेलना नहीं करेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मिष्ठानपि सतः कुन्तीपुत्रा महारथाः ॥ ४८ ॥
मानवान् पालयिष्यन्ति भूत्वा धर्मपरायणाः।

मूलम्

अधर्मिष्ठानपि सतः कुन्तीपुत्रा महारथाः ॥ ४८ ॥
मानवान् पालयिष्यन्ति भूत्वा धर्मपरायणाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीके महारथी पुत्र स्वयं धर्मपरायण रहकर अधर्मी मनुष्योंका भी पालन करेंगे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजन् मानसं दुःखमपनीय युधिष्ठिरात् ॥ ४९ ॥
कुरु कार्याणि धर्म्याणि नमस्ते पुरुषर्षभ।

मूलम्

स राजन् मानसं दुःखमपनीय युधिष्ठिरात् ॥ ४९ ॥
कुरु कार्याणि धर्म्याणि नमस्ते पुरुषर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः पुरुषप्रवर महाराज! आप युधिष्ठिरकी ओरसे अपने मानसिक दुःखको हटाकर धार्मिक कार्योंके अनुष्ठानमें लग जाइये। आपको समस्त प्रजाका नमस्कार है’॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं धर्म्यमनुमान्य गुणोत्तरम् ॥ ५० ॥
साधु साध्विति सर्वः स जनः प्रतिगृहीतवान्।

मूलम्

तस्य तद् वचनं धर्म्यमनुमान्य गुणोत्तरम् ॥ ५० ॥
साधु साध्विति सर्वः स जनः प्रतिगृहीतवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! साम्बके धर्मानुकूल और उत्तम गुणयुक्त वचन सुनकर समस्त प्रजा उन्हें सादर साधुवाद देने लगी तथा सबने उनकी बातका अनुमोदन किया॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रश्च तद्वाक्यमभिपूज्य पुनः पुनः ॥ ५१ ॥
विसर्जयामास तदा प्रकृतीस्तु शनैः शनैः।
स तैः सम्पूजितो राजा शिवेनावेक्षितस्तथा ॥ ५२ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रश्च तद्वाक्यमभिपूज्य पुनः पुनः ॥ ५१ ॥
विसर्जयामास तदा प्रकृतीस्तु शनैः शनैः।
स तैः सम्पूजितो राजा शिवेनावेक्षितस्तथा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने भी बारंबार साम्बके वचनोंकी सराहना की और सब लोगोंसे सम्मानित होकर धीरे-धीरे सबको विदा कर दिया। उस समय सबने उन्हें शुभ दृष्टिसे ही देखा॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राञ्जलिः पूजयामास तं जनं भरतर्षभ।
ततो विवेश भवनं गान्धार्या सहितो निजम्।
व्युष्टायां चैव शर्वर्यां यच्चकार निबोध तत् ॥ ५३ ॥

मूलम्

प्राञ्जलिः पूजयामास तं जनं भरतर्षभ।
ततो विवेश भवनं गान्धार्या सहितो निजम्।
व्युष्टायां चैव शर्वर्यां यच्चकार निबोध तत् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् धृतराष्ट्रने हाथ जोड़कर उन ब्राह्मण देवताका सत्कार किया और गान्धारीके साथ फिर अपने महलमें चले गये। जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब उन्होंने जो कुछ किया, उसे बता रहा हूँ, सुनो॥५३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि प्रकृतिसान्त्वने दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें धृतराष्ट्रको प्रजाद्वारा दी गयी सान्त्वनाविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥