००७ धृतराष्ट्रोपसंवादे

भागसूचना

सप्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरको धृतराष्ट्रके द्वारा राजनीतिका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संधिविग्रहमप्यत्र पश्येथा राजसत्तम ।
द्वियोनिं विविधोपायं बहुकल्पं युधिष्ठिर ॥ १ ॥

मूलम्

संधिविग्रहमप्यत्र पश्येथा राजसत्तम ।
द्वियोनिं विविधोपायं बहुकल्पं युधिष्ठिर ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम्हें संधि और विग्रहपर भी दृष्टि रखनी चाहिये। शत्रु प्रबल हो तो उसके साथ संधि करना और दुर्बल हो तो उसके साथ युद्ध छेड़ना—ये संधि और विग्रहके दो आधार हैं। इनके प्रयोगके उपाय भी नाना प्रकारके हैं और इनके प्रकार भी बहुत हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौरव्य पर्युपासीथाः स्थित्वा द्वैविध्यमात्मनः।
तुष्टपुष्टबलः शत्रुरात्मवानिति च स्मरेत् ॥ २ ॥

मूलम्

कौरव्य पर्युपासीथाः स्थित्वा द्वैविध्यमात्मनः।
तुष्टपुष्टबलः शत्रुरात्मवानिति च स्मरेत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! अपनी द्विविध अवस्था—बलाबलका अच्छी तरह विचार करके शत्रुसे युद्ध या मेल करना उचित है। यदि शत्रु मनस्वी है और उसके सैनिक हृष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट हैं तो उसपर सहसा धावा न करके उसे परास्त करनेका कोई दूसरा उपाय सोचे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्युपासनकाले तु विपरीतं विधीयते।
आमर्दकाले राजेन्द्र व्यपसर्पेत् ततः परम् ॥ ३ ॥

मूलम्

पर्युपासनकाले तु विपरीतं विधीयते।
आमर्दकाले राजेन्द्र व्यपसर्पेत् ततः परम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आक्रमणकालमें शत्रुकी स्थिति विपरीत रहनी चाहिये अर्थात् उसके सैनिक हृष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट नहीं होने चाहिये। राजेन्द्र! यदि शत्रुसे अपना मान मर्दन होनेकी सम्भावना हो तो वहाँसे भागकर किसी दूसरे मित्र राजाकी शरण लेनी चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यसनं भेदनं चैव शत्रूणां कारयेत् ततः।
कर्षणं भीषणं चैव युद्धे चैव बलक्षयम् ॥ ४ ॥

मूलम्

व्यसनं भेदनं चैव शत्रूणां कारयेत् ततः।
कर्षणं भीषणं चैव युद्धे चैव बलक्षयम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ यह प्रयत्न करना चाहिये कि शत्रुओंपर कोई संकट आ जाय या उनमें फूट पड़ जाय, वे क्षीण और भयभीत हो जायँ तथा युद्धमें उनकी सेना नष्ट हो जाय॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयास्यमानो नृपतिस्त्रिविधां परिचिन्तयेत् ।
आत्मनश्चैव शत्रोश्च शक्तिं शास्त्रविशारदः ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रयास्यमानो नृपतिस्त्रिविधां परिचिन्तयेत् ।
आत्मनश्चैव शत्रोश्च शक्तिं शास्त्रविशारदः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुपर चढ़ाई करनेवाले शास्त्रविशारद राजाको अपनी और शत्रुकी त्रिविध शक्तियोंपर भलीभाँति विचार कर लेना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्साहप्रभुशक्तिभ्यां मन्त्रशक्त्या च भारत।
उपपन्नो नृपो यायाद् विपरीतं च वर्जयेत् ॥ ६ ॥

मूलम्

उत्साहप्रभुशक्तिभ्यां मन्त्रशक्त्या च भारत।
उपपन्नो नृपो यायाद् विपरीतं च वर्जयेत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो राजा उत्साह-शक्ति, प्रभु-शक्ति और मन्त्र-शक्तिमें शत्रुकी अपेक्षा बढ़ा-चढ़ा हो, उसे ही आक्रमण करना चाहिये। यदि इसके विपरीत अवस्था हो तो आक्रमणका विचार त्याग देना चाहिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आददीत बलं राजा मौलं मित्रबलं तथा।
अटवीबलं भृतं चैव तथा श्रेणीबलं प्रभो ॥ ७ ॥

मूलम्

आददीत बलं राजा मौलं मित्रबलं तथा।
अटवीबलं भृतं चैव तथा श्रेणीबलं प्रभो ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! राजाको अपने पास सैनिकबल, धनबल, मित्रबल, अरण्यबल, भृत्यबल और श्रेणीबलका संग्रह करना चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र मित्रबलं राजन् मौलं चैव विशिष्यते।
श्रेणीबलं भृतं चैव तुल्ये एवेति मे मतिः ॥ ८ ॥

मूलम्

तत्र मित्रबलं राजन् मौलं चैव विशिष्यते।
श्रेणीबलं भृतं चैव तुल्ये एवेति मे मतिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इनमें मित्रबल और धनबल सबसे बढ़कर है। श्रेणीबल और भृत्यबल—ये दोनों समान ही हैं, ऐसा मेरा विश्वास है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा चारबलं चैव परस्परसमं नृप।
विज्ञेयं बहुकालेषु राज्ञा काल उपस्थिते ॥ ९ ॥

मूलम्

तथा चारबलं चैव परस्परसमं नृप।
विज्ञेयं बहुकालेषु राज्ञा काल उपस्थिते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! चारबल (दूतोंका बल) भी परस्पर समान ही है। राजाको समय आनेपर अधिक अवसरोंपर इस तत्त्वको समझे रहना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपदश्चापि बोद्धव्या बहुरूपा नराधिप।
भवन्ति राज्ञा कौरव्य यास्ताः पृथगतः शृणु ॥ १० ॥

मूलम्

आपदश्चापि बोद्धव्या बहुरूपा नराधिप।
भवन्ति राज्ञा कौरव्य यास्ताः पृथगतः शृणु ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कुरुनन्दन! राजापर आनेवाली अनेक प्रकारकी आपत्तियाँ भी होती हैं, जिन्हें जानना चाहिये। अतः उनका पृथक्-पृथक् वर्णन सुनो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकल्पा बहुधा राजन्नापदां पाण्डुनन्दन।
सामादिभिरुपन्यस्य गणयेत् तान् नृपः सदा ॥ ११ ॥

मूलम्

विकल्पा बहुधा राजन्नापदां पाण्डुनन्दन।
सामादिभिरुपन्यस्य गणयेत् तान् नृपः सदा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पाण्डुनन्दन! उन आपत्तियोंके अनेक प्रकारके विकल्प हैं। राजा साम आदि उपायोंद्वारा उन सबको सामने लाकर सदा गिने॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यात्रां गच्छेद् बलैर्युक्तो राजा सद्भिः परंतप।
युक्तश्च देशकालाभ्यां बलैरात्मगुणैस्तथा ॥ १२ ॥

मूलम्

यात्रां गच्छेद् बलैर्युक्तो राजा सद्भिः परंतप।
युक्तश्च देशकालाभ्यां बलैरात्मगुणैस्तथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप नरेश! देश-कालकी अनुकूलता होनेपर सैनिक-बल तथा राजोचित गुणोंसे युक्त राजा अच्छी सेना साथ लेकर विजयके लिये यात्रा करे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्टपुष्टबलो गच्छेद् राजा वृद्ध्युदये रतः।
अकृशश्चाप्यथो यायादनृतावपि पाण्डव ॥ १३ ॥

मूलम्

हृष्टपुष्टबलो गच्छेद् राजा वृद्ध्युदये रतः।
अकृशश्चाप्यथो यायादनृतावपि पाण्डव ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! अपने अभ्युदयके लिये तत्पर रहनेवाला राजा यदि दुर्बल न हो और उसकी सेना हृष्ट-पुष्ट हो तो वह युद्धके अनुकूल मौसम न होनेपर भी शत्रुपर चढ़ाई करे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूणाश्मानं वाजिरथप्रवाहां
ध्वजद्रुमैः संवृतकूलरोधसम् ।
पदातिनागैर्बहुकर्दमां नदीं
सपत्ननाशे नृपतिः प्रयोजयेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

तूणाश्मानं वाजिरथप्रवाहां
ध्वजद्रुमैः संवृतकूलरोधसम् ।
पदातिनागैर्बहुकर्दमां नदीं
सपत्ननाशे नृपतिः प्रयोजयेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंके विनाशके लिये राजा अपनी सेनारूपी नदीका प्रयोग करे। जिसमें तरकस ही प्रस्तरखण्डके समान हैं, घोड़े और रथरूपी प्रवाह शोभा पाते हैं, जिसका कूल-किनारा ध्वजरूपी वृक्षोंसे आच्छादित है तथा पैदल और हाथी जिसके भीतर अगाध पंकके समान जान पड़ते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपपत्त्या शकटं पद्मवज्रं च भारत।
उशना वेद यच्छास्त्रं तत्रैतद् विहितं विभो ॥ १५ ॥

मूलम्

अथोपपत्त्या शकटं पद्मवज्रं च भारत।
उशना वेद यच्छास्त्रं तत्रैतद् विहितं विभो ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! युद्धके समय युक्ति करके सेनाका शकट, पद्म अथवा वज्र नामक व्यूह बना ले। प्रभो! शुक्राचार्य जिस शास्त्रको जानते हैं, उसमें ऐसा ही विधान मिलता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारयित्वा परबलं कृत्वा स्वबलदर्शनम्।
स्वभूमौ योजयेद् युद्धं परभूमौ तथैव च ॥ १६ ॥

मूलम्

चारयित्वा परबलं कृत्वा स्वबलदर्शनम्।
स्वभूमौ योजयेद् युद्धं परभूमौ तथैव च ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुप्तचरोंद्वारा शत्रुसेनाकी जाँच-पड़ताल करके अपनी सैनिक-शक्तिका भी निरीक्षण करे। फिर अपनी या शत्रुकी भूमिपर युद्ध आरम्भ करे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं प्रसादयेद् राजा निक्षिपेद् बलिनो नरान्।
ज्ञात्वा स्वविषयं तत्र सामादिभिरुपक्रमेत् ॥ १७ ॥

मूलम्

बलं प्रसादयेद् राजा निक्षिपेद् बलिनो नरान्।
ज्ञात्वा स्वविषयं तत्र सामादिभिरुपक्रमेत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह पारितोषिक आदिके द्वारा सेनाको संतुष्ट रखे और उसमें बलवान् मनुष्योंकी भर्ती करे। अपने बलाबलको अच्छी तरह समझकर साम आदि उपायोंके द्वारा संधि या युद्धके लिये उद्योग करे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथैव महाराज शरीरं धारयेदिह।
प्रेत्य चेह च कर्तव्यमात्मनिःश्रेयसं परम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सर्वथैव महाराज शरीरं धारयेदिह।
प्रेत्य चेह च कर्तव्यमात्मनिःश्रेयसं परम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस जगत्‌में सभी उपायोंद्वारा शरीरकी रक्षा करनी चाहिये और उसके द्वारा इहलोक तथा परलोकमें भी अपने कल्याणका उत्तम साधन करना उचित है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाराज राजा सम्यक् समाचरन्।
प्रेत्य स्वर्गमवाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ १९ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाराज राजा सम्यक् समाचरन्।
प्रेत्य स्वर्गमवाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जो राजा इन सब बातोंका विचार करके इनके अनुसार ठीक-ठीक आचरण और प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करता है, वह मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें जाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं त्वया कुरुश्रेष्ठ वर्तितव्यं प्रजाहितम्।
उभयोर्लोकयोस्तात प्राप्तये नित्यमेव हि ॥ २० ॥

मूलम्

एवं त्वया कुरुश्रेष्ठ वर्तितव्यं प्रजाहितम्।
उभयोर्लोकयोस्तात प्राप्तये नित्यमेव हि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार तुम्हें इहलोक और परलोकमें सुख पानेके लिये सदा ही प्रजावर्गके हित-साधनमें संलग्न रहना चाहिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मेण सर्वमुक्तोऽसि कृष्णेन विदुरेण च।
मयाप्यवश्यं वक्तव्यं प्रीत्या ते नृपसत्तम ॥ २१ ॥

मूलम्

भीष्मेण सर्वमुक्तोऽसि कृष्णेन विदुरेण च।
मयाप्यवश्यं वक्तव्यं प्रीत्या ते नृपसत्तम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! भीष्मजी, भगवान् श्रीकृष्ण तथा विदुरने तुम्हें सभी बातोंका उपदेश कर दिया है। मेरा भी तुम्हारे ऊपर प्रेम है, इसलिये मैंने भी तुम्हें कुछ बताना आवश्यक समझा है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् सर्वं यथान्यायं कुर्वीथा भूरिदक्षिण।
प्रियस्तथा प्रजानां त्वं स्वर्गे सुखमवाप्स्यसि ॥ २२ ॥

मूलम्

एतत् सर्वं यथान्यायं कुर्वीथा भूरिदक्षिण।
प्रियस्तथा प्रजानां त्वं स्वर्गे सुखमवाप्स्यसि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञमें प्रचुर दक्षिणा देनेवाले महाराज! इन सब बातोंका यथोचित रूपसे पालन करना। इससे तुम प्रजाके प्रिय बनोगे और स्वर्गमें भी सुख पाओगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधसहस्रेण यो यजेत् पृथिवीपतिः।
पालयेद् वापि धर्मेण प्रजास्तुल्यं फलं लभेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

अश्वमेधसहस्रेण यो यजेत् पृथिवीपतिः।
पालयेद् वापि धर्मेण प्रजास्तुल्यं फलं लभेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा एक हजार अश्वमेध-यज्ञोंका अनुष्ठान करता है अथवा दूसरा जो नरेश धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करता है, उन दोनोंको समान फल प्राप्त होता है॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि धृतराष्ट्रोपसंवादे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें धृतराष्ट्रका उपसंवादविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥