००४ व्यासानुज्ञायाम्

भागसूचना

चतुर्थोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्यासजीके समझानेसे युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको वनमें जानेके लिये अनुमति देना

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिर महाबाहो यथाह कुरुनन्दनः।
धृतराष्ट्रो महातेजास्तत् कुरुष्वाविचारयन् ॥ १ ॥

मूलम्

युधिष्ठिर महाबाहो यथाह कुरुनन्दनः।
धृतराष्ट्रो महातेजास्तत् कुरुष्वाविचारयन् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— महाबाहु युधिष्ठिर! कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले महातेजस्वी धृतराष्ट्र जो कुछ कह रहे हैं, उसे बिना विचारे पूरा करो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं हि वृद्धो नृपतिर्हतपुत्रो विशेषतः।
नेदं कृच्छ्रं चिरतरं सहेदिति मतिर्मम ॥ २ ॥

मूलम्

अयं हि वृद्धो नृपतिर्हतपुत्रो विशेषतः।
नेदं कृच्छ्रं चिरतरं सहेदिति मतिर्मम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब ये राजा बूढ़े हो गये हैं, विशेषतः इनके सभी पुत्र नष्ट हो चुके हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि अब ये इस कष्टको अधिक कालतक नहीं सह सकेंगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धारी च महाभागा प्राज्ञा करुणवेदिनी।
पुत्रशोकं महाराज धैर्येणोद्वहते भृशम् ॥ ३ ॥

मूलम्

गान्धारी च महाभागा प्राज्ञा करुणवेदिनी।
पुत्रशोकं महाराज धैर्येणोद्वहते भृशम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! महाभागा गान्धारी परम विदुषी और करुणाका अनुभव करनेवाली हैं; इसीलिये ये महान् पुत्रशोकको धैर्यपूर्वक सहती चली आ रही हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्येतदेव त्वां ब्रवीमि कुरु मे वचः।
अनुज्ञां लभतां राजा मा वृथेह मरिष्यति ॥ ४ ॥

मूलम्

अहमप्येतदेव त्वां ब्रवीमि कुरु मे वचः।
अनुज्ञां लभतां राजा मा वृथेह मरिष्यति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी तुमसे यही कहता हूँ, तुम मेरी बात मानो। राजा धृतराष्ट्रको तुम्हारी ओरसे वनमें जानेकी अनुमति मिलनी ही चाहिये, नहीं तो यहाँ रहनेसे इनकी व्यर्थ मृत्यु होगी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षीणां पुराणानामनुयातु गतिं नृपः।
राजर्षीणां हि सर्वेषामन्ते वनमुपाश्रयः ॥ ५ ॥

मूलम्

राजर्षीणां पुराणानामनुयातु गतिं नृपः।
राजर्षीणां हि सर्वेषामन्ते वनमुपाश्रयः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम उन्हें अवसर दो, जिससे ये नरेश प्राचीन राजर्षियोंके पथका अनुसरण कर सकें। समस्त राजर्षियोंने जीवनके अन्तिम भागमें वनका ही आश्रय लिया है॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तदा राजा व्यासेनाद्‌भुतकर्मणा।
प्रत्युवाच महातेजा धर्मराजो महामुनिम् ॥ ६ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तदा राजा व्यासेनाद्‌भुतकर्मणा।
प्रत्युवाच महातेजा धर्मराजो महामुनिम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अद्‌भुतकर्मा व्यासजीके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिरने उन महामुनिको इस प्रकार उत्तर दिया—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवानेव नो मान्यो भगवानेव नो गुरुः।
भगवानस्य राज्यस्य कुलस्य च परायणम् ॥ ७ ॥

मूलम्

भगवानेव नो मान्यो भगवानेव नो गुरुः।
भगवानस्य राज्यस्य कुलस्य च परायणम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! आप ही हमलोगोंके माननीय और आप ही हमारे गुरु हैं। इस राज्य और पुरके परम आधार भी आप ही हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तु पुत्रो भगवन् पिता राजा गुरुश्च मे।
निदेशवर्ती च पितुः पुत्रो भवति धर्मतः ॥ ८ ॥

मूलम्

अहं तु पुत्रो भगवन् पिता राजा गुरुश्च मे।
निदेशवर्ती च पितुः पुत्रो भवति धर्मतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु हैं। धर्मतः पुत्र ही पिताकी आज्ञाके अधीन होता है। (वह पिताको आज्ञा कैसे दे सकता है)’॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तु तं प्राह व्यासो वेदविदां वरः।
युधिष्ठिरं महातेजाः पुनरेव महाकविः ॥ ९ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तु तं प्राह व्यासो वेदविदां वरः।
युधिष्ठिरं महातेजाः पुनरेव महाकविः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, महातेजस्वी, महाज्ञानी व्यासजीने युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर उन्हें समझाते हुए पुनः इस प्रकार कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
राजायं वृद्धतां प्राप्तः प्रमाणे परमे स्थितः ॥ १० ॥

मूलम्

एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
राजायं वृद्धतां प्राप्तः प्रमाणे परमे स्थितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु भरतनन्दन! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही ठीक है, तथापि राजा धृतराष्ट्र बूढ़े हो गये हैं और अन्तिम अवस्थामें स्थित हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं मयाभ्यनुज्ञातस्त्वया च पृथिवीपतिः।
करोतु स्वमभिप्रायं मास्य विघ्नकरो भव ॥ ११ ॥

मूलम्

सोऽयं मयाभ्यनुज्ञातस्त्वया च पृथिवीपतिः।
करोतु स्वमभिप्रायं मास्य विघ्नकरो भव ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः अब ये भूपाल मेरी और तुम्हारी अनुमति लेकर तपस्याके द्वारा अपना मनोरथ सिद्ध करें। इनके शुभ कार्यमें विघ्न न डालो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष एव परो धर्मो राजर्षीणां युधिष्ठिर।
समरे वा भवेन्मृत्युर्वने वा विधिपूर्वकम् ॥ १२ ॥

मूलम्

एष एव परो धर्मो राजर्षीणां युधिष्ठिर।
समरे वा भवेन्मृत्युर्वने वा विधिपूर्वकम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युधिष्ठिर! राजर्षियोंका यही परम धर्म है कि युद्धमें अथवा वनमें उनकी शास्त्रोक्त विधिपूर्वक मृत्यु हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्रा तु तव राजेन्द्र पाण्डुना पृथिवीक्षिता।
शिष्यवृत्तेन राजायं गुरुवत् पर्युपासितः ॥ १३ ॥

मूलम्

पित्रा तु तव राजेन्द्र पाण्डुना पृथिवीक्षिता।
शिष्यवृत्तेन राजायं गुरुवत् पर्युपासितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! तुम्हारे पिता राजा पाण्डुने भी धृतराष्ट्रको गुरुके समान मानकर शिष्यभावसे इनकी सेवा की थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रतुभिर्दक्षिणावद्भी रत्नपर्वतशोभितैः ।
महद्भिरिष्टं गौर्भुक्ता प्रजाश्च परिपालिताः ॥ १४ ॥

मूलम्

क्रतुभिर्दक्षिणावद्भी रत्नपर्वतशोभितैः ।
महद्भिरिष्टं गौर्भुक्ता प्रजाश्च परिपालिताः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्होंने रत्नमय पर्वतोंसे सुशोभित और प्रचुर दक्षिणासे सम्पन्न अनेक बड़े-बड़े यज्ञ किये हैं, पृथ्वीका राज्य भोगा है और प्रजाका भलीभाँति पालन किया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रसंस्थं च विपुलं राज्यं विप्रोषिते त्वयि।
त्रयोदशसमा भुक्तं दत्तं च विविधं वसु ॥ १५ ॥

मूलम्

पुत्रसंस्थं च विपुलं राज्यं विप्रोषिते त्वयि।
त्रयोदशसमा भुक्तं दत्तं च विविधं वसु ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब तुम वनमें चले गये थे, उन दिनों तेरह वर्षोंतक अपने पुत्रके अधीन रहनेवाले विशाल राज्यका इन्होंने उपभोग किया और नाना प्रकारके धन दिये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया चायं नरव्याघ्र गुरुशुश्रूषयानघ।
आराधितः सभृत्येन गान्धारी च यशस्विनी ॥ १६ ॥

मूलम्

त्वया चायं नरव्याघ्र गुरुशुश्रूषयानघ।
आराधितः सभृत्येन गान्धारी च यशस्विनी ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप नरव्याघ्र! सेवकोंसहित तुमने भी गुरुसेवाके भावसे इनकी तथा यशस्विनी गान्धारी देवीकी आराधना की है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजानीहि पितरं समयोऽस्य तपोविधौ।
न मन्युर्विद्यते चास्य सुसूक्ष्मोऽपि युधिष्ठिर ॥ १७ ॥

मूलम्

अनुजानीहि पितरं समयोऽस्य तपोविधौ।
न मन्युर्विद्यते चास्य सुसूक्ष्मोऽपि युधिष्ठिर ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः तुम अपने पिताको वनमें जानेकी अनुमति दे दो; क्योंकि अब इनके तप करनेका समय आया है। युधिष्ठिर! इनके मनमें तुम्हारे ऊपर अणुमात्र भी रोष नही है’॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदुक्त्वा वचनमनुमान्य च पार्थिवम्।
तथास्त्विति च तेनोक्तः कौन्तेयेन ययौ वनम् ॥ १८ ॥

मूलम्

एतावदुक्त्वा वचनमनुमान्य च पार्थिवम्।
तथास्त्विति च तेनोक्तः कौन्तेयेन ययौ वनम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यों कहकर महर्षि व्यासने राजा युधिष्ठिरको राजी कर लिया और ‘बहुत अच्छा’ कहकर जब युधिष्ठिरने उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब वे वनमें अपने आश्रमपर चले गये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते भगवति व्यासे राजा पाण्डुसुतस्तदा।
प्रोवाच पितरं वृद्धं मन्दं मन्दमिवानतः ॥ १९ ॥

मूलम्

गते भगवति व्यासे राजा पाण्डुसुतस्तदा।
प्रोवाच पितरं वृद्धं मन्दं मन्दमिवानतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् व्यासके चले जानेपर राजा युधिष्ठिरने अपने बूढ़े ताऊ धृतराष्ट्रसे नम्रतापूर्वक धीरे-धीरे कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाह भगवान् व्यासो यच्चापि भवतो मतम्।
यथाऽऽह च महेष्वासः कृपो विदुर एव च ॥ २० ॥
युयुत्सुः संजयश्चैव तत्कर्तास्म्यहमञ्जसा ।
सर्व एव हि मान्या मे कुलस्य हि हितैषिणः॥२१॥

मूलम्

यदाह भगवान् व्यासो यच्चापि भवतो मतम्।
यथाऽऽह च महेष्वासः कृपो विदुर एव च ॥ २० ॥
युयुत्सुः संजयश्चैव तत्कर्तास्म्यहमञ्जसा ।
सर्व एव हि मान्या मे कुलस्य हि हितैषिणः॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पिताजी! भगवान् व्यासने जो आज्ञा दी है और आपने जो कुछ करनेका निश्चय किया है तथा महान् धनुर्धर कृपाचार्य, विदुर, युयुत्सु और संजय जैसा कहेंगे, निस्संदेह मैं वैसा ही करूँगा; क्योंकि ये सब लोग इस कुलके हितैषी होनेके कारण मेरे लिये माननीय हैं॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु याचे नृपते त्वामहं शिरसा नतः।
क्रियतां तावदाहारस्ततो गच्छाश्रमं प्रति ॥ २२ ॥

मूलम्

इदं तु याचे नृपते त्वामहं शिरसा नतः।
क्रियतां तावदाहारस्ततो गच्छाश्रमं प्रति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु नरेश्वर! इस समय आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि पहले भोजन कर लीजिये, फिर आश्रमको जाइयेगा’॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि व्यासानुज्ञायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें व्यासकी आज्ञाविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥४॥