भागसूचना
तृतीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्रका गान्धारीके साथ वनमें जानेके लिये उद्योग एवं युधिष्ठिरसे अनुमति देनेके लिये अनुरोध तथा युधिष्ठिर और कुन्ती आदिका दुःखी होना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्य नृपतेर्दुर्योधनपितुस्तदा ।
नान्तरं ददृशू राज्ये पुरुषाः प्रणयं प्रति ॥ १ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्य नृपतेर्दुर्योधनपितुस्तदा ।
नान्तरं ददृशू राज्ये पुरुषाः प्रणयं प्रति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिर और धृतराष्ट्रमें जो पारस्परिक प्रेम था, उसमें राज्यके लोगोंने कभी कोई अन्तर नहीं देखा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु कौरवो राजा पुत्रं सस्मार दुर्मतिम्।
तदा भीमं हृदा राजन्नपध्याति स पार्थिवः ॥ २ ॥
मूलम्
यदा तु कौरवो राजा पुत्रं सस्मार दुर्मतिम्।
तदा भीमं हृदा राजन्नपध्याति स पार्थिवः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! परंतु वे कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र जब अपने दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधनका स्मरण करते थे, तब मन-ही-मन भीमसेनका अनिष्ट-चिन्तन किया करते थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव भीमसेनोऽपि धृतराष्ट्रं जनाधिपम्।
नामर्षयत राजेन्द्र सदैव दुष्टवद्धृदा ॥ ३ ॥
मूलम्
तथैव भीमसेनोऽपि धृतराष्ट्रं जनाधिपम्।
नामर्षयत राजेन्द्र सदैव दुष्टवद्धृदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उसी प्रकार भीमसेन भी सदा ही राजा धृतराष्ट्रके प्रति अपने मनमें दुर्भावना रखते थे। वे कभी उन्हें क्षमा नहीं कर पाते थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रकाशान्यप्रियाणि चकारास्य वृकोदरः ।
आज्ञां प्रत्यहरच्चापि कृतज्ञैः पुरुषैः सदा ॥ ४ ॥
मूलम्
अप्रकाशान्यप्रियाणि चकारास्य वृकोदरः ।
आज्ञां प्रत्यहरच्चापि कृतज्ञैः पुरुषैः सदा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन गुप्त रीतिसे धृतराष्ट्रको अप्रिय लगनेवाले काम किया करते थे तथा अपने द्वारा नियुक्त किये हुए कृतज्ञ पुरुषोंसे उनकी आज्ञा भी भंग करा दिया करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरन् दुर्मन्त्रितं तस्य वृत्तान्यप्यस्य कानिचित्।
अथ भीमः सुहृन्मध्ये बाहुशब्दं तथाकरोत् ॥ ५ ॥
संश्रवे धृतराष्ट्रस्य गान्धार्याश्चाप्यमर्षणः ।
स्मृत्वा दुर्योधनं शत्रुं कर्णदुःशासनावपि ॥ ६ ॥
प्रोवाचेदं सुसंरब्धो भीमः स परुषं वचः।
मूलम्
स्मरन् दुर्मन्त्रितं तस्य वृत्तान्यप्यस्य कानिचित्।
अथ भीमः सुहृन्मध्ये बाहुशब्दं तथाकरोत् ॥ ५ ॥
संश्रवे धृतराष्ट्रस्य गान्धार्याश्चाप्यमर्षणः ।
स्मृत्वा दुर्योधनं शत्रुं कर्णदुःशासनावपि ॥ ६ ॥
प्रोवाचेदं सुसंरब्धो भीमः स परुषं वचः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्रकी जो दुष्टतापूर्ण मन्त्रणाएँ होती थीं और तदनुसार ही जो उनके कई दुर्बर्ताव हुए थे, उन्हें सदा भीमसेन याद रखते थे। एक दिन अमर्षमें भरे हुए भीमसेनने अपने मित्रोंके बीचमें बारंबार अपनी भुजाओंपर ताल ठोंका और धृतराष्ट्र एवं गान्धारीको सुनाते हुए रोषपूर्वक यह कठोर वचन कहा। वे अपने शत्रु दुर्योधन, कर्ण और दुःशासनको याद करके यों कहने लगे—॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्धस्य नृपतेः पुत्रा मया परिघबाहुना ॥ ७ ॥
नीता लोकममुं सर्वे नानाशस्त्रास्त्रयोधिनः।
मूलम्
अन्धस्य नृपतेः पुत्रा मया परिघबाहुना ॥ ७ ॥
नीता लोकममुं सर्वे नानाशस्त्रास्त्रयोधिनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मित्रो! मेरी भुजाएँ परिघके समान सुदृढ़ हैं। मैंने ही उस अंधे राजाके समस्त पुत्रोंको, जो नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा युद्ध करते थे, यमलोकका अतिथि बनाया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमौ तौ परिघप्रख्यौ भुजौ मम दुरासदौ ॥ ८ ॥
ययोरन्तरमासाद्य धार्तराष्ट्राः क्षयं गताः।
मूलम्
इमौ तौ परिघप्रख्यौ भुजौ मम दुरासदौ ॥ ८ ॥
ययोरन्तरमासाद्य धार्तराष्ट्राः क्षयं गताः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, ये हैं मेरे दोनों परिघके समान सुदृढ़ एवं दुर्जय बाहुदण्ड; जिनके बीचमें पड़कर धृतराष्ट्रके बेटे पिस गये हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताविमौ चन्दनेनाक्तौ चन्दनार्हौ च मे भुजौ ॥ ९ ॥
याभ्यां दुर्योधनो नीतः क्षयं ससुतबान्धवः।
मूलम्
ताविमौ चन्दनेनाक्तौ चन्दनार्हौ च मे भुजौ ॥ ९ ॥
याभ्यां दुर्योधनो नीतः क्षयं ससुतबान्धवः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये मेरी दोनों भुजाएँ चन्दनसे चर्चित एवं चन्दन लगानेके ही योग्य हैं, जिनके द्वारा पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंसहित राजा दुर्योधन नष्ट कर दिया गया’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताश्चान्याश्च विविधाः शल्यभूता नराधिपः ॥ १० ॥
वृकोदरस्य ता वाचः श्रुत्वा निर्वेदमागमत्।
मूलम्
एताश्चान्याश्च विविधाः शल्यभूता नराधिपः ॥ १० ॥
वृकोदरस्य ता वाचः श्रुत्वा निर्वेदमागमत्।
अनुवाद (हिन्दी)
ये तथा और भी नाना प्रकारकी भीमसेनकी कही हुई कठोर बातें जो हृदयमें काँटोंके समान कसक पैदा करनेवाली थीं, राजा धृतराष्ट्रने सुनीं। सुनकर उन्हें बड़ा खेद हुआ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा च बुद्धिमती देवी कालपर्यायवेदिनी ॥ ११ ॥
गान्धारी सर्वधर्मज्ञा तान्यलीकानि शुश्रुवे।
मूलम्
सा च बुद्धिमती देवी कालपर्यायवेदिनी ॥ ११ ॥
गान्धारी सर्वधर्मज्ञा तान्यलीकानि शुश्रुवे।
अनुवाद (हिन्दी)
समयके उलट-फेरको समझने और समस्त धर्मोंको जाननेवाली बुद्धिमती गान्धारी देवीने भी इन कठोर वचनोंको सुना था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पञ्चदशे वर्षे समतीते नराधिपः ॥ १२ ॥
राजा निर्वेदमापेदे भीमवाग्बाणपीडितः ।
मूलम्
ततः पञ्चदशे वर्षे समतीते नराधिपः ॥ १२ ॥
राजा निर्वेदमापेदे भीमवाग्बाणपीडितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयतक उन्हें राजा युधिष्ठिरके आश्रयमें रहते पंद्रह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। पंद्रहवाँ वर्ष बीतनेपर भीमसेनके वाग्बाणोंसे पीड़ित हुए राजा धृतराष्ट्रको खेद एवं वैराग्य हुआ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्वबुध्यत तद् राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
श्वेताश्वो वाथ कुन्ती वा द्रौपदी वा यशस्विनी।
मूलम्
नान्वबुध्यत तद् राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
श्वेताश्वो वाथ कुन्ती वा द्रौपदी वा यशस्विनी।
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरको इस बातकी जानकारी नहीं थी। अर्जुन, कुन्ती तथा यशस्विनी द्रौपदीको भी इसका पता नहीं था॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीपुत्रौ च धर्मज्ञौ चित्तं तस्यान्ववर्तताम् ॥ १४ ॥
राज्ञस्तु चित्तं रक्षन्तौ नोचतुः किंचिदप्रियम्।
मूलम्
माद्रीपुत्रौ च धर्मज्ञौ चित्तं तस्यान्ववर्तताम् ॥ १४ ॥
राज्ञस्तु चित्तं रक्षन्तौ नोचतुः किंचिदप्रियम्।
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मके ज्ञाता माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव सदा राजा धृतराष्ट्रके मनोऽनुकूल ही बर्ताव करते थे। वे उनका मन रखते हुए कभी कोई अप्रिय बात नहीं कहते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समानयामास धृतराष्ट्रः सुहृज्जनम् ॥ १५ ॥
वाष्पसंदिग्धमत्यर्थमिदमाह च तान् भृशम्।
मूलम्
ततः समानयामास धृतराष्ट्रः सुहृज्जनम् ॥ १५ ॥
वाष्पसंदिग्धमत्यर्थमिदमाह च तान् भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धृतराष्ट्रने अपने मित्रोंको बुलवाया और नेत्रोंमें आँसू भरकर अत्यन्त गद्गद वाणीमें इस प्रकार कहा॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितं भवतामेतद् यथा वृत्तः कुरुक्षयः ॥ १६ ॥
ममापराधात् तत् सर्वमनुज्ञातं च कौरवैः।
मूलम्
विदितं भवतामेतद् यथा वृत्तः कुरुक्षयः ॥ १६ ॥
ममापराधात् तत् सर्वमनुज्ञातं च कौरवैः।
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— मित्रो! आपलोगोंको यह मालूम ही है कि कौरववंशका विनाश किस प्रकार हुआ है। समस्त कौरव इस बातको जानते हैं कि मेरे ही अपराधसे सारा अनर्थ हुआ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽहं दुष्टमतिं मन्दो ज्ञातीनां भयवर्धनम् ॥ १७ ॥
दुर्योधनं कौरवाणामाधिपत्येऽभ्यषेचयम् ।
मूलम्
योऽहं दुष्टमतिं मन्दो ज्ञातीनां भयवर्धनम् ॥ १७ ॥
दुर्योधनं कौरवाणामाधिपत्येऽभ्यषेचयम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनकी बुद्धिमें दुष्टता भरी थी। वह जाति-भाइयोंका भय बढ़ानेवाला था तो भी मुझ मूर्खने उसे कौरवोंके राजसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चाहं वासुदेवस्य नाश्रौषं वाक्यमर्थवत् ॥ १८ ॥
वध्यतां साध्वयं पापः सामात्य इति दुर्मतिः।
पुत्रस्नेहाभिभूतस्तु हितमुक्तो मनीषिभिः ॥ १९ ॥
मूलम्
यच्चाहं वासुदेवस्य नाश्रौषं वाक्यमर्थवत् ॥ १८ ॥
वध्यतां साध्वयं पापः सामात्य इति दुर्मतिः।
पुत्रस्नेहाभिभूतस्तु हितमुक्तो मनीषिभिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णकी अर्थभरी बातें नहीं सुनी। मनीषी पुरुषोंने मुझे यह हितकी बात बतायी थी कि इस खोटी बुद्धिवाले पापी दुर्योधनको मन्त्रियोंसहित मार डाला जाय, इसीमें संसारका हित है; किंतु पुत्रस्नेहके वशीभूत होकर मैंने ऐसा नहीं किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरेणाथ भीष्मेण द्रोणेन च कृपेण च।
पदे पदे भगवता व्यासेन च महात्मना ॥ २० ॥
संजयेनाथ गान्धार्या तदिदं तप्यते च माम्।
मूलम्
विदुरेणाथ भीष्मेण द्रोणेन च कृपेण च।
पदे पदे भगवता व्यासेन च महात्मना ॥ २० ॥
संजयेनाथ गान्धार्या तदिदं तप्यते च माम्।
अनुवाद (हिन्दी)
विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महात्मा भगवान् व्यास, संजय और गान्धारी देवीने भी मुझे पग-पगपर उचित सलाह दी, किंतु मैंने किसीकी बात नहीं मानी। यह भूल मुझे सदा संताप देती रहती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चाहं पाण्डुपुत्रेषु गुणवत्सु महात्मसु ॥ २१ ॥
न दत्तवान् श्रियं दीप्तां पितृपैतामहीमिमाम्।
मूलम्
यच्चाहं पाण्डुपुत्रेषु गुणवत्सु महात्मसु ॥ २१ ॥
न दत्तवान् श्रियं दीप्तां पितृपैतामहीमिमाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा पाण्डव गुणवान् हैं तथापि उनके बाप-दादोंकी यह उज्ज्वल सम्पत्ति भी मैंने उन्हें नहीं दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनाशं पश्यमानो हि सर्वराज्ञां गदाग्रजः ॥ २२ ॥
एतच्छ्रेयस्तु परमममन्यत जनार्दनः ।
मूलम्
विनाशं पश्यमानो हि सर्वराज्ञां गदाग्रजः ॥ २२ ॥
एतच्छ्रेयस्तु परमममन्यत जनार्दनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त राजाओंका विनाश देखते हुए गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्णने यही परम कल्याणकारी माना कि मैं पाण्डवोंका राज्य उन्हें लौटा दूँ; परंतु मैं वैसा नहीं कर सका॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमेतान्यलीकानि निवृत्तान्यात्मनस्तदा ॥ २३ ॥
हृदये शल्यभूतानि धारयामि सहस्रशः।
मूलम्
सोऽहमेतान्यलीकानि निवृत्तान्यात्मनस्तदा ॥ २३ ॥
हृदये शल्यभूतानि धारयामि सहस्रशः।
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह अपनी की हुई हजारों भूलें मैं अपने हृदयमें धारण करता हूँ, जो इस समय काँटोंके समान कसक पैदा करती हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषतस्तु पश्यामि वर्षे पञ्चदशेऽद्य वै ॥ २४ ॥
अस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं नियतोऽस्मि सुदुर्मतिः।
मूलम्
विशेषतस्तु पश्यामि वर्षे पञ्चदशेऽद्य वै ॥ २४ ॥
अस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं नियतोऽस्मि सुदुर्मतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
विशेषतः पंद्रहवें वर्षमें आज मुझ दुर्बुद्धिकी आँखें खुली हैं और अब मैं इस पापकी शुद्धिके लिये नियमका पालन करने लगा हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थे नियते काले कदाचिदपि चाष्टमे ॥ २५ ॥
तृष्णाविनयनं भुञ्जे गान्धारी वेद तन्मम।
करोत्याहारमिति मां सर्वः परिजनः सदा ॥ २६ ॥
मूलम्
चतुर्थे नियते काले कदाचिदपि चाष्टमे ॥ २५ ॥
तृष्णाविनयनं भुञ्जे गान्धारी वेद तन्मम।
करोत्याहारमिति मां सर्वः परिजनः सदा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी चौथे समय (अर्थात् दो दिनपर) और कभी आठवें समय अर्थात् चार दिनपर केवल भूखकी आग बुझानेके लिये मैं थोड़ा-सा आहार करता हूँ। मेरे इस नियमको केवल गान्धारी देवी जानती हैं। अन्य सब लोगोंको यही मालूम है कि मैं प्रतिदिन पूरा भोजन करता हूँ॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरभयादेति भृशं तप्यति पाण्डवः।
भूमौ शये जप्यपरो दर्भेष्वजिनसंवृतः ॥ २७ ॥
नियमव्यपदेशेन गान्धारी च यशस्विनी।
मूलम्
युधिष्ठिरभयादेति भृशं तप्यति पाण्डवः।
भूमौ शये जप्यपरो दर्भेष्वजिनसंवृतः ॥ २७ ॥
नियमव्यपदेशेन गान्धारी च यशस्विनी।
अनुवाद (हिन्दी)
लोग युधिष्ठिरके भयसे मेरे पास आते हैं। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझे आराम देनेके लिये अत्यन्त चिन्तित रहते हैं। मैं और यशस्विनी गान्धारी दोनों नियम-पालनके व्याजसे मृगचर्म पहन कुशासनपर बैठकर मन्त्रजप करते और भूमिपर सोते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतं शतं तु पुत्राणां ययोर्युद्धेऽपलायिनाम् ॥ २८ ॥
नानुतप्यामि तच्चाहं क्षत्रधर्मं हि ते विदुः।
मूलम्
हतं शतं तु पुत्राणां ययोर्युद्धेऽपलायिनाम् ॥ २८ ॥
नानुतप्यामि तच्चाहं क्षत्रधर्मं हि ते विदुः।
अनुवाद (हिन्दी)
हम दोनोंके युद्धमें पीठ न दिखानेवाले सौ पुत्र मारे गये हैं, किंतु उनके लिये मुझे दुःख नहीं है; क्योंकि वे क्षत्रिय-धर्मको जानते थे (और उसीके अनुसार उन्होंने युद्धमें प्राण-त्याग किया है)॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा धर्मराजानमभ्यभाषत कौरवः ॥ २९ ॥
भद्रं ते यादवीमातर्वचश्चेदं निबोध मे।
मूलम्
इत्युक्त्वा धर्मराजानमभ्यभाषत कौरवः ॥ २९ ॥
भद्रं ते यादवीमातर्वचश्चेदं निबोध मे।
अनुवाद (हिन्दी)
अपने सुहृदोंसे ऐसा कहकर धृतराष्ट्र राजा युधिष्ठिरसे बोले—‘कुन्तीनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी यह बात सुनो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमस्म्युषितः पुत्र त्वया सुपरिपालितः ॥ ३० ॥
महादानानि दत्तानि श्राद्धानि च पुनः पुनः।
मूलम्
सुखमस्म्युषितः पुत्र त्वया सुपरिपालितः ॥ ३० ॥
महादानानि दत्तानि श्राद्धानि च पुनः पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित होकर मैं यहाँ बड़े सुखसे रहा हूँ। मैंने बड़े-बड़े दान दिये हैं और बारंबार श्राद्धकर्मोंका अनुष्ठान किया है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृष्टं च यया पुत्र पुण्यं चीर्णं यथाबलम् ॥ ३१ ॥
गान्धारी हतपुत्रेयं धैर्येणोदीक्षते च माम्।
मूलम्
प्रकृष्टं च यया पुत्र पुण्यं चीर्णं यथाबलम् ॥ ३१ ॥
गान्धारी हतपुत्रेयं धैर्येणोदीक्षते च माम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुत्र! जिसने अपनी शक्तिके अनुसार उत्कृष्ट पुण्यका अनुष्ठान किया है और जिसके सौ पुत्र मारे गये हैं, वही यह गान्धारीदेवी धैर्यपूर्वक मेरी देख-भाल करती है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपद्या ह्यपकर्तारस्तव चैश्वर्यहारिणः ॥ ३२ ॥
समतीता नृशंसास्ते स्वधर्मेण हता युधि।
न तेषु प्रतिकर्तव्यं पश्यामि कुरुनन्दन ॥ ३३ ॥
मूलम्
द्रौपद्या ह्यपकर्तारस्तव चैश्वर्यहारिणः ॥ ३२ ॥
समतीता नृशंसास्ते स्वधर्मेण हता युधि।
न तेषु प्रतिकर्तव्यं पश्यामि कुरुनन्दन ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुनन्दन! जिन्होंने द्रौपदीके साथ अत्याचार किया, तुम्हारे ऐश्वर्यका अपहरण किया, वे क्रूरकर्मी मेरे पुत्र क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्धमें मारे गये हैं। अब उनके लिये कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं दिखायी देती है॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे शस्त्रभृतां लोकान् गतास्तेऽभिमुखं हताः।
आत्मनस्तु हितं पुण्यं प्रतिकर्तव्यमद्य वै ॥ ३४ ॥
गान्धार्याश्चैव राजेन्द्र तदनुज्ञातुमर्हसि ।
मूलम्
सर्वे शस्त्रभृतां लोकान् गतास्तेऽभिमुखं हताः।
आत्मनस्तु हितं पुण्यं प्रतिकर्तव्यमद्य वै ॥ ३४ ॥
गान्धार्याश्चैव राजेन्द्र तदनुज्ञातुमर्हसि ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे सब युद्धमें सम्मुख मारे गये हैं, अतः शस्त्रधारियोंको मिलनेवाले लोकोंमें गये हैं। राजेन्द्र! अब तो मुझे और गान्धारीदेवीको अपने हितके लिये पवित्र तप करना है; अतः इसके लिये हमें अनुमति दो॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु शस्त्रभृतां श्रेष्ठः सततं धर्मवत्सलः ॥ ३५ ॥
राजा गुरुः प्राणभृतां तस्मादेतद् ब्रवीम्यहम्।
अनुज्ञातस्त्वया वीर संश्रयेयं वनान्यहम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
त्वं तु शस्त्रभृतां श्रेष्ठः सततं धर्मवत्सलः ॥ ३५ ॥
राजा गुरुः प्राणभृतां तस्मादेतद् ब्रवीम्यहम्।
अनुज्ञातस्त्वया वीर संश्रयेयं वनान्यहम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ और सदा धर्मपर अनुराग रखनेवाले हो। राजा समस्त प्राणियोंके लिये गुरुजनकी भाँति आदरणीय होता है। इसलिये तुमसे ऐसा अनुरोध करता हूँ। वीर! तुम्हारी अनुमति मिल जानेपर मैं वनको चला जाऊँगा॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चीरवल्कलभृद् राजन् गान्धार्या सहितोऽनया।
तवाशिषः प्रयुञ्जानो भविष्यामि वनेचरः ॥ ३७ ॥
मूलम्
चीरवल्कलभृद् राजन् गान्धार्या सहितोऽनया।
तवाशिषः प्रयुञ्जानो भविष्यामि वनेचरः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! वहाँ मैं चीर और वल्कल धारण करके इस गान्धारीके साथ वनमें विचरूँगा और तुम्हें आशीर्वाद देता रहूँगा॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उचितं नः कुले तात सर्वेषां भरतर्षभ।
पुत्रेष्वैश्वर्यमाधाय वयसोऽन्ते वनं नृप ॥ ३८ ॥
मूलम्
उचितं नः कुले तात सर्वेषां भरतर्षभ।
पुत्रेष्वैश्वर्यमाधाय वयसोऽन्ते वनं नृप ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! भरतश्रेष्ठ नरेश्वर! हमारे कुलके सभी राजाओंके लिये यही उचित है कि वे अन्तिम अवस्थामें पुत्रोंको राज्य देकर स्वयं वनमें पधारें॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राहं वायुभक्षो वा निराहारोऽपि वा वसन्।
पत्न्या सहानया वीर चरिष्यामि तपः परम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
तत्राहं वायुभक्षो वा निराहारोऽपि वा वसन्।
पत्न्या सहानया वीर चरिष्यामि तपः परम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! वहाँ मैं वायु पीकर अथवा उपवास करके रहूँगा तथा अपनी इस धर्मपत्नीके साथ उत्तम तपस्या करूँगा॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चापि फलभाक् तात तपसः पार्थिवो ह्यसि।
फलभाजो हि राजानः कल्याणस्येतरस्य वा ॥ ४० ॥
मूलम्
त्वं चापि फलभाक् तात तपसः पार्थिवो ह्यसि।
फलभाजो हि राजानः कल्याणस्येतरस्य वा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम भी उस तपस्याके उत्तम फलके भागी बनोगे; क्योंकि तुम राजा हो और राजा अपने राज्यके भीतर होनेवाले भले-बुरे सभी कर्मोंके फलभागी होते हैं’॥४०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मां प्रीणयते राज्यं त्वय्येवं दुःखिते नृप।
धिङ्मामस्तु सुदुर्बुद्धिं राज्यसक्तं प्रमादिनम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
न मां प्रीणयते राज्यं त्वय्येवं दुःखिते नृप।
धिङ्मामस्तु सुदुर्बुद्धिं राज्यसक्तं प्रमादिनम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— महाराज! आप यहाँ रहकर इस प्रकार दुःख उठा रहे थे और मुझे इसकी जानकारी न हो सकी, इसलिये अब यह राज्य मुझे प्रसन्न नहीं रख सकता। हाय! मेरी बुद्धि कितनी खराब है? मुझ-जैसे प्रमादी और राज्यासक्त पुरुषको धिक्कार है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽहं भवन्तं दुःखार्तमुपवासकृशं भृशम्।
जिताहारं क्षितिशयं न विन्दे भ्रातृभिः सह ॥ ४२ ॥
मूलम्
योऽहं भवन्तं दुःखार्तमुपवासकृशं भृशम्।
जिताहारं क्षितिशयं न विन्दे भ्रातृभिः सह ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप दुःखसे आतुर और उपवास करनेके कारण अत्यन्त दुर्बल होकर पृथ्वीपर शयन कर रहे हैं तथा भोजनपर भी संयम कर लिया है और मैं भाइयोंसहित आपकी इस अवस्थाका पता ही न पा सका॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहोऽस्मि वञ्चितो मूढो भवता गूढबुद्धिना।
विश्वासयित्वा पूर्वं मां यदिदं दुःखमश्नुथाः ॥ ४३ ॥
मूलम्
अहोऽस्मि वञ्चितो मूढो भवता गूढबुद्धिना।
विश्वासयित्वा पूर्वं मां यदिदं दुःखमश्नुथाः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! आपने अपने विचारोंको छिपाकर मुझ मूर्खको अबतक धोखेमें ही डाल रखा था; क्योंकि पहले मुझे यह विश्वास दिलाकर कि मैं सुखी हूँ, आप आजतक यह दुःख भोगते रहे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं मे राज्येन भोगैर्वा किं यज्ञैः किं सुखेन वा।
यस्य मे त्वं महीपाल दुःखान्येतान्यवाप्तवान् ॥ ४४ ॥
मूलम्
किं मे राज्येन भोगैर्वा किं यज्ञैः किं सुखेन वा।
यस्य मे त्वं महीपाल दुःखान्येतान्यवाप्तवान् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस राज्यसे, इन भोगोंसे, इन यज्ञोंसे अथवा इस सुख-सामग्रीसे मुझे क्या लाभ हुआ? जब कि मेरे ही पास रहकर आपको इतने दुःख उठाने पड़े॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीडितं चापि जानामि राज्यमात्मानमेव च।
अनेन वचसा तुभ्यं दुःखितस्य जनेश्वर ॥ ४५ ॥
मूलम्
पीडितं चापि जानामि राज्यमात्मानमेव च।
अनेन वचसा तुभ्यं दुःखितस्य जनेश्वर ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! आप दुःखी होकर जो ऐसी बात कह रहे हैं, इससे मैं उस समस्त राज्यको और अपनेको भी दुःखित समझता हूँ॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवान् पिता भवान् माता भवान् नः परमो गुरुः।
भवता विप्रहीणा वै क्व नु तिष्ठामहे वयम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
भवान् पिता भवान् माता भवान् नः परमो गुरुः।
भवता विप्रहीणा वै क्व नु तिष्ठामहे वयम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही हमारे पिता, आप ही माता और आप ही हमारे परम गुरु हैं। आपसे विलग होकर हम कहाँ रहेंगे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
औरसो भवतः पुत्रो युयुत्सुर्नृपसत्तम।
अस्तु राजा महाराज यमन्यं मन्यते भवान् ॥ ४७ ॥
अहं वनं गमिष्यामि भवान् राज्यं प्रशासतु।
न मामयशसा दग्धं भूयस्त्वं दग्धुमर्हसि ॥ ४८ ॥
मूलम्
औरसो भवतः पुत्रो युयुत्सुर्नृपसत्तम।
अस्तु राजा महाराज यमन्यं मन्यते भवान् ॥ ४७ ॥
अहं वनं गमिष्यामि भवान् राज्यं प्रशासतु।
न मामयशसा दग्धं भूयस्त्वं दग्धुमर्हसि ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! महाराज! युयुत्सु आपके औरस पुत्र हैं; ये ही राजा हों अथवा और किसीको जिसे आप उचित समझते हों, राजा बना दें या स्वयं ही इस राज्यका शासन करें। मैं ही वनको चला जाऊँगा। पिताजी! मैं पहलेसे ही अपयशकी आगमें जल चुका हूँ, अब पुनः आप भी मुझे न जलाइये॥४७ -४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं राजा भवान् राजा भवतः परवानहम्।
कथं गुरुं त्वां धर्मज्ञमनुज्ञातुमिहोत्सहे ॥ ४९ ॥
मूलम्
नाहं राजा भवान् राजा भवतः परवानहम्।
कथं गुरुं त्वां धर्मज्ञमनुज्ञातुमिहोत्सहे ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं राजा नहीं, आप ही राजा हैं। मैं तो आपकी आज्ञाके अधीन रहनेवाला सेवक हूँ। आप धर्मके ज्ञाता गुरु हैं। मैं आपको कैसे आज्ञा दे सकता हूँ॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मन्युर्हृदि नः कश्चित् सुयोधनकृतेऽनघ।
भवितव्यं तथा तद्धि वयं चान्ये च मोहिताः ॥ ५० ॥
मूलम्
न मन्युर्हृदि नः कश्चित् सुयोधनकृतेऽनघ।
भवितव्यं तथा तद्धि वयं चान्ये च मोहिताः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! दुर्योधनने जो कुछ किया है, उसके लिये हमारे हृदयमें तनिक भी क्रोध नहीं है। जो कुछ हुआ है, वैसी ही होनहार थी। हम और दूसरे लोग उसीसे मोहित थे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं पुत्रा हि भवतो यथा दुर्योधनादयः।
गान्धारी चैव कुन्ती च निर्विशेषे मते मम ॥ ५१ ॥
मूलम्
वयं पुत्रा हि भवतो यथा दुर्योधनादयः।
गान्धारी चैव कुन्ती च निर्विशेषे मते मम ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे दुर्योधन आदि आपके पुत्र थे, वैसे ही हम भी हैं। मेरे लिये गान्धारी और कुन्तीमें कोई अन्तर नहीं है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मां त्वं यदि राजेन्द्र परित्यज्य गमिष्यसि।
पृष्ठतस्त्वनुयास्यामि सत्यमात्मानमालभे ॥ ५२ ॥
मूलम्
स मां त्वं यदि राजेन्द्र परित्यज्य गमिष्यसि।
पृष्ठतस्त्वनुयास्यामि सत्यमात्मानमालभे ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि आप मुझे छोड़कर चले जायँगे तो मैं अपनी सौगन्ध खाकर सत्य कहता हूँ कि मैं भी आपके पीछे-पीछे चल दूँगा॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं हि वसुसम्पूर्णा मही सागरमेखला।
भवता विप्रहीणस्य न मे प्रीतिकरी भवेत् ॥ ५३ ॥
मूलम्
इयं हि वसुसम्पूर्णा मही सागरमेखला।
भवता विप्रहीणस्य न मे प्रीतिकरी भवेत् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके त्याग देनेपर यह धन-धान्यसे परिपूर्ण समुद्रसे घिरी हुई सारी पृथ्वीका राज्य भी मुझे प्रसन्न नहीं रख सकता॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवदीयमिदं सर्वं शिरसा त्वां प्रसादये।
त्वदधीनाः स्म राजेन्द्र व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ५४ ॥
मूलम्
भवदीयमिदं सर्वं शिरसा त्वां प्रसादये।
त्वदधीनाः स्म राजेन्द्र व्येतु ते मानसो ज्वरः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! यह सब कुछ आपका है। मैं आपके चरणोंपर मस्तक रखकर प्रार्थना करता हूँ कि आप प्रसन्न हो जाइये। हम सब लोग आपके अधीन हैं। आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवितव्यमनुप्राप्तो मन्ये त्वं वसुधाधिप।
दिष्ट्या शुश्रूषमाणस्त्वां मोक्षिष्ये मनसो ज्वरम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
भवितव्यमनुप्राप्तो मन्ये त्वं वसुधाधिप।
दिष्ट्या शुश्रूषमाणस्त्वां मोक्षिष्ये मनसो ज्वरम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! मैं समझता हूँ कि आप भवितव्यताके वशमें पड़ गये थे। यदि सौभाग्यवश मुझे आपकी सेवाका अवसर मिलता रहा तो मेरी मानसिक चिन्ता दूर हो जायगी॥५५॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापस्ये मे मनस्तात वर्तते कुरुनन्दन।
उचितं च कुलेऽस्माकमरण्यगमनं प्रभो ॥ ५६ ॥
मूलम्
तापस्ये मे मनस्तात वर्तते कुरुनन्दन।
उचितं च कुलेऽस्माकमरण्यगमनं प्रभो ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— बेटा! कुरुनन्दन! अब मेरा मन तपस्यामें ही लग रहा है। प्रभो! जीवनकी अन्तिम अवस्थामें वनको जाना हमारे कुलके लिये उचित भी है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरमस्म्युषितः पुत्र चिरं शुश्रूषितस्त्वया।
वृद्धं मामप्यनुज्ञातुमर्हसि त्वं नराधिप ॥ ५७ ॥
मूलम्
चिरमस्म्युषितः पुत्र चिरं शुश्रूषितस्त्वया।
वृद्धं मामप्यनुज्ञातुमर्हसि त्वं नराधिप ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्र! नरेश्वर! मैं दीर्घकालतक तुम्हारे पास रह चुका और तुमने भी बहुत दिनोंतक मेरी सेवा-शुश्रूषा की। अब मेरी वृद्धावस्था आ गयी। अब तो मुझे वनमें जानेकी अनुमति देनी ही चाहिये॥५७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा धर्मराजानं वेपमानं कृताञ्जलिम्।
उवाच वचनं राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ ५८ ॥
संजयं च महात्मानं कृपं चापि महारथम्।
अनुनेतुमिहेच्छामि भवद्भिर्वसुधाधिपम् ॥ ५९ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा धर्मराजानं वेपमानं कृताञ्जलिम्।
उवाच वचनं राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ ५८ ॥
संजयं च महात्मानं कृपं चापि महारथम्।
अनुनेतुमिहेच्छामि भवद्भिर्वसुधाधिपम् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! धृतराष्ट्रकी यह बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर काँपने लगे और हाथ जोड़कर चुपचाप बैठे रहे। अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने उनसे उपर्युक्त बात कहकर महात्मा संजय और महारथी कृपाचार्यसे कहा—‘मैं आपलोगोंके द्वारा राजा युधिष्ठिरको समझाना चाहता हूँ’॥५८—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
म्लायते मे मनो हीदं मुखं च परिशुष्यति।
वयसा च प्रकृष्टेन वाग्व्यायामेन चैव ह ॥ ६० ॥
मूलम्
म्लायते मे मनो हीदं मुखं च परिशुष्यति।
वयसा च प्रकृष्टेन वाग्व्यायामेन चैव ह ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक तो मेरी वृद्धावस्था और दूसरे बोलनेका परिश्रम, इन कारणोंसे मेरा जी घबरा रहा है और मुँह सूखा जाता है’॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स तु धर्मात्मा वृद्धो राजा कुरूद्वहः।
गान्धारीं शिश्रिये धीमान् सहसैव गतासुवत् ॥ ६१ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स तु धर्मात्मा वृद्धो राजा कुरूद्वहः।
गान्धारीं शिश्रिये धीमान् सहसैव गतासुवत् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर धर्मात्मा बूढ़े राजा कुरुकुलशिरोमणि बुद्धिमान् धृतराष्ट्रने सहसा ही निर्जीवकी भाँति गान्धारीका सहारा ले लिया॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु दृष्ट्वा समासीनं विसंज्ञमिव कौरवम्।
आर्तिं राजागमत् तीव्रां कौन्तेयः परवीरहा ॥ ६२ ॥
मूलम्
तं तु दृष्ट्वा समासीनं विसंज्ञमिव कौरवम्।
आर्तिं राजागमत् तीव्रां कौन्तेयः परवीरहा ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुराज धृतराष्ट्रको संज्ञाहीन-सा बैठा देख शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिरको बड़ा दुःख हुआ॥६२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नागसहस्रेण शतसंख्येन वै बलम्।
सोऽयं नारीं व्यपाश्रित्य शेते राजा गतासुवत् ॥ ६३ ॥
मूलम्
यस्य नागसहस्रेण शतसंख्येन वै बलम्।
सोऽयं नारीं व्यपाश्रित्य शेते राजा गतासुवत् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— ओह! जिसमें एक लाख हाथियोंके समान बल था, वे ही ये राजा धृतराष्ट्र आज प्राणहीन-से होकर स्त्रीका सहारा लिये सो रहे हैं॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयसी प्रतिमा येन भीमसेनस्य सा पुरा।
चूर्णीकृता बलवता सोऽबलामाश्रितः स्त्रियम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
आयसी प्रतिमा येन भीमसेनस्य सा पुरा।
चूर्णीकृता बलवता सोऽबलामाश्रितः स्त्रियम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन बलवान् नरेशने पहले भीमसेनकी लोहमयी प्रतिमाको चूर्ण कर डाला था, वे आज अबला नारीके सहारे पड़े हैं॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिगस्तु मामधर्मज्ञं धिग् बुद्धिं धिक् च मे श्रुतम्।
यत्कृते पृथिवीपालः शेतेऽयमतथोचितः ॥ ६५ ॥
मूलम्
धिगस्तु मामधर्मज्ञं धिग् बुद्धिं धिक् च मे श्रुतम्।
यत्कृते पृथिवीपालः शेतेऽयमतथोचितः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे धर्मका कोई ज्ञान नहीं है। मुझे धिक्कार है। मेरी बुद्धि और विद्याको भी धिक्कार है, जिसके कारण ये महाराज इस समय अपने लिये अयोग्य अवस्थामें पड़े हुए हैं॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमप्युपवत्स्यामि यथैवायं गुरुर्मम ।
यदि राजा न भुङ्क्तेऽयं गान्धारी च यशस्विनी ॥ ६६ ॥
मूलम्
अहमप्युपवत्स्यामि यथैवायं गुरुर्मम ।
यदि राजा न भुङ्क्तेऽयं गान्धारी च यशस्विनी ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यशस्विनी गान्धारी देवी और राजा धृतराष्ट्र भोजन नहीं करते हैं तो अपने इन गुरुजनोंकी भाँति मैं भी उपवास करूँगा॥६६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य पाणिना राजन् जलशीतेन पाण्डवः।
उरो मुखं च शनकैः पर्यमार्जत धर्मवित् ॥ ६७ ॥
मूलम्
ततोऽस्य पाणिना राजन् जलशीतेन पाण्डवः।
उरो मुखं च शनकैः पर्यमार्जत धर्मवित् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यह कहकर धर्मके ज्ञाता पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने जलसे शीतल किये हुए हाथसे धृतराष्ट्रकी छाती और मुँहको धीरे-धीरे पोंछा॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन रत्नौषधिमता पुण्येन च सुगन्धिना।
पाणिस्पर्शेन राज्ञः स राजा संज्ञामवाप ह ॥ ६८ ॥
मूलम्
तेन रत्नौषधिमता पुण्येन च सुगन्धिना।
पाणिस्पर्शेन राज्ञः स राजा संज्ञामवाप ह ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिरके रत्नौषधिसम्पन्न उस पवित्र एवं सुगन्धित कर-स्पर्शसे राजा धृतराष्ट्रकी चेतना लौट आयी॥६८॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पृश मां पाणिना भूयः परिष्वज च पाण्डव।
जीवामीवातिसंस्पर्शात् तव राजीवलोचन ॥ ६९ ॥
मूलम्
स्पृश मां पाणिना भूयः परिष्वज च पाण्डव।
जीवामीवातिसंस्पर्शात् तव राजीवलोचन ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— कमलनयन पाण्डुनन्दन! तुम फिरसे मेरे शरीरपर अपना हाथ फेरो और मुझे छातीसे लगा लो। तुम्हारे सुखदायक स्पर्शसे मानो मेरे शरीरमें प्राण आ जाते हैं॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्धानं च तवाघ्रातुमिच्छामि मनुजाधिप।
पाणिभ्यां हि परिस्प्रष्टुं प्रीणनं हि महन्मम ॥ ७० ॥
मूलम्
मूर्धानं च तवाघ्रातुमिच्छामि मनुजाधिप।
पाणिभ्यां हि परिस्प्रष्टुं प्रीणनं हि महन्मम ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मैं तुम्हारा मस्तक सूँघना चाहता हूँ और अपने दोनों हाथोंसे तुम्हें स्पर्श करनेकी इच्छा रखता हूँ। इससे मुझे परम तृप्ति मिल रही है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टमो ह्यद्य कालोऽयमाहारस्य कृतस्य मे।
येनाहं कुरुशार्दूल शक्नोमि न विचेष्टितुम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
अष्टमो ह्यद्य कालोऽयमाहारस्य कृतस्य मे।
येनाहं कुरुशार्दूल शक्नोमि न विचेष्टितुम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिछले दिनों जब मैंने भोजन किया था, तबसे आज यह आठवाँ समय—चौथा दिन पूरा हो गया है। कुरुश्रेष्ठ! इसीसे शिथिल होकर मैं कोई चेष्टा नहीं कर पाता॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यायामश्चायमत्यर्थं कृतस्त्वामभियाचता ।
ततो ग्लानमनास्तात नष्टसंज्ञ इवाभवम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
व्यायामश्चायमत्यर्थं कृतस्त्वामभियाचता ।
ततो ग्लानमनास्तात नष्टसंज्ञ इवाभवम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुमसे अनुरोध करनेके लिये बोलते समय मुझे बड़ा भारी परिश्रम करना पड़ा है। अतः क्षीणशक्ति होकर मैं अचेत-सा हो गया था॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवामृतरसप्रख्यं हस्तस्पर्शमिमं प्रभो ।
लब्ध्वा संजीवितोऽस्मीति मन्ये कुरुकुलोद्वह ॥ ७३ ॥
मूलम्
तवामृतरसप्रख्यं हस्तस्पर्शमिमं प्रभो ।
लब्ध्वा संजीवितोऽस्मीति मन्ये कुरुकुलोद्वह ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! तुम्हारे हाथोंका यह स्पर्श अमृत-रसके समान शीतल एवं सुखद है। कुरुकुलनाथ! इसे पाकर मुझमें नया जीवन आ गया है, मैं ऐसा मानता हूँ॥७३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पित्रा ज्येष्ठेन भारत।
पस्पर्श सर्वगात्रेषु सौहार्दात् तं शनैस्तदा ॥ ७४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पित्रा ज्येष्ठेन भारत।
पस्पर्श सर्वगात्रेषु सौहार्दात् तं शनैस्तदा ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! अपने ज्येष्ठ पितृव्य धृतराष्ट्रके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने बड़े स्नेहके साथ उनके समस्त अंगोंपर धीरे-धीरे हाथ फेरा॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपलभ्य ततः प्राणान् धृतराष्ट्रो महीपतिः।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य मूर्ध्न्याजिघ्रत पाण्डवम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
उपलभ्य ततः प्राणान् धृतराष्ट्रो महीपतिः।
बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य मूर्ध्न्याजिघ्रत पाण्डवम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके स्पर्शसे राजा धृतराष्ट्रके शरीरमें मानो नूतन प्राण आ गये और उन्होंने अपनी दोनों भुजाओंसे युधिष्ठिरको छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरादयश्च ते सर्वे रुरुदुर्दुःखिता भृशम्।
अतिदुःखात् तु राजानं नोचुः किंचन पाण्डवम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
विदुरादयश्च ते सर्वे रुरुदुर्दुःखिता भृशम्।
अतिदुःखात् तु राजानं नोचुः किंचन पाण्डवम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह करुण दृश्य देखकर विदुर आदि सब लोग अत्यन्त दुःखी हो रोने लगे। अधिक दुःखके कारण वे लोग पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरसे कुछ न बोले॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धारी त्वेव धर्मज्ञा मनसोद्वहती भृशम्।
दुःखान्यधारयद् राजन् मैवमित्येव चाब्रवीत् ॥ ७७ ॥
मूलम्
गान्धारी त्वेव धर्मज्ञा मनसोद्वहती भृशम्।
दुःखान्यधारयद् राजन् मैवमित्येव चाब्रवीत् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मको जाननेवाली गान्धारी अपने मनमें दुःखका बड़ा भारी बोझ ढो रही थी। उसने दुःखोंको मनमें ही दबा लिया और रोते हुए लोगोंसे कहा—‘ऐसा न करो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतरास्तु स्त्रियः सर्वाः कुन्त्या सह सुदुःखिताः।
नेत्रैरागतविक्लेदैः परिवार्य स्थिताऽभवन् ॥ ७८ ॥
मूलम्
इतरास्तु स्त्रियः सर्वाः कुन्त्या सह सुदुःखिताः।
नेत्रैरागतविक्लेदैः परिवार्य स्थिताऽभवन् ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीके साथ कुरुकुलकी अन्य स्त्रियाँ भी अत्यन्त दुःखी हो नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई उन्हें घेरकर खड़ी हो गयीं॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीत् पुनर्वाक्यं धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम्।
अनुजानीहि मां राजंस्तापस्ये भरतर्षभ ॥ ७९ ॥
मूलम्
अथाब्रवीत् पुनर्वाक्यं धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम्।
अनुजानीहि मां राजंस्तापस्ये भरतर्षभ ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धृतराष्ट्रने पुनः युधिष्ठिरसे कहा—‘राजन्! भरतश्रेष्ठ! मुझे तपस्याके लिये अनुमति दे दो॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्लायते मे मनस्तात भूयो भूयः प्रजल्पतः।
न मामतः परं पुत्र परिक्लेष्टुमिहार्हसि ॥ ८० ॥
मूलम्
ग्लायते मे मनस्तात भूयो भूयः प्रजल्पतः।
न मामतः परं पुत्र परिक्लेष्टुमिहार्हसि ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! बार-बार बोलनेसे मेरा जी घबराता है, अतः बेटा! अब मुझे अधिक कष्टमें न डालो’॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तु कौरवेन्द्रे तं तथा ब्रुवति पाण्डवम्।
सर्वेषामेव योधानामार्तनादो महानभूत् ॥ ८१ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तु कौरवेन्द्रे तं तथा ब्रुवति पाण्डवम्।
सर्वेषामेव योधानामार्तनादो महानभूत् ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवराज धृतराष्ट्र जब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरसे ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उपस्थित हुए समस्त योद्धा महान् आर्तनाद (हाहाकार) करने लगे॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा कृशं विवर्णं च राजानमतथोचितम्।
उपवासपरिश्रान्तं त्वगस्थिपरिवारणम् ॥ ८२ ॥
धर्मपुत्रः स्वपितरं परिष्वज्य महाप्रभुम्।
शोकजं बाष्पमुत्सृज्य पुनर्वचनमब्रवीत् ॥ ८३ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा कृशं विवर्णं च राजानमतथोचितम्।
उपवासपरिश्रान्तं त्वगस्थिपरिवारणम् ॥ ८२ ॥
धर्मपुत्रः स्वपितरं परिष्वज्य महाप्रभुम्।
शोकजं बाष्पमुत्सृज्य पुनर्वचनमब्रवीत् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने ताऊ महाप्रभु राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार उपवास करनेके कारण थके हुए, दुर्बल, कान्तिहीन, अस्थिचर्मावशिष्ट और अयोग्य अवस्थामें स्थित देख धर्मपुत्र युधिष्ठिर क्षोभजनित आँसू बहाते हुए उनसे इस प्रकार बोले—॥८२-८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कामये नरश्रेष्ठ जीवितं पृथिवीं तथा।
यथा तव प्रियं राजंश्चिकीर्षामि परंतप ॥ ८४ ॥
मूलम्
न कामये नरश्रेष्ठ जीवितं पृथिवीं तथा।
यथा तव प्रियं राजंश्चिकीर्षामि परंतप ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
’नरश्रेष्ठ! मैं न तो जीवन चाहता हूँ न पृथ्वीका राज्य। परंतप नरेश! जिस तरह भी आपका प्रिय हो, वही मैं करना चाहता हूँ॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि चाहमनुग्राह्यो भवतो दयितोऽपि वा।
क्रियतां तावदाहारस्ततो वेत्स्याम्यहं परम् ॥ ८५ ॥
मूलम्
यदि चाहमनुग्राह्यो भवतो दयितोऽपि वा।
क्रियतां तावदाहारस्ततो वेत्स्याम्यहं परम् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप मुझे अपनी कृपाका पात्र समझते हों और यदि मैं आपका प्रिय होऊँ तो मेरी प्रार्थनासे इस समय भोजन कीजिये। इसके बाद मैं आगेकी बात सोचूँगा’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम् ।
अनुज्ञातस्त्वया पुत्र भुञ्जीयामिति कामये ॥ ८६ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम् ।
अनुज्ञातस्त्वया पुत्र भुञ्जीयामिति कामये ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महातेजस्वी धृतराष्ट्रने युधिष्ठिरसे कहा—‘बेटा! तुम मुझे वनमें जानेकी अनुमति दे दो तो मैं भोजन करूँ; यही मेरी इच्छा है’॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवति राजेन्द्रे धृतराष्ट्रे युधिष्ठिरम्।
ऋषिः सत्यवतीपुत्रो व्यासोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् ॥ ८७ ॥
मूलम्
इति ब्रुवति राजेन्द्रे धृतराष्ट्रे युधिष्ठिरम्।
ऋषिः सत्यवतीपुत्रो व्यासोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज धृतराष्ट्र युधिष्ठिरसे ये बातें कह ही रहे थे कि सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यासजी वहाँ आ पहुँचे और इस प्रकार कहने लगे॥८७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि धृतराष्ट्रनिर्वेदे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें धृतराष्ट्रका निर्वेदविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥