००२

भागसूचना

द्वितीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंका धृतराष्ट्र और गान्धारीके अनुकूल बर्ताव

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्पूजितो राजा पाण्डवैरम्बिकासुतः।
विजहार यथापूर्वमृषिभिः पर्युपासितः ॥ १ ॥

मूलम्

एवं सम्पूजितो राजा पाण्डवैरम्बिकासुतः।
विजहार यथापूर्वमृषिभिः पर्युपासितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार पाण्डवोंसे भलीभाँति सम्मानित हो अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र पूर्ववत् ऋषियोंके साथ गोष्ठी-सुखका अनुभव करते हुए वहाँ सानन्द निवास करने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च प्रददौ स कुरूद्वहः।
तच्च कुन्तीसुतो राजा सर्वमेवान्वपद्यत ॥ २ ॥

मूलम्

ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च प्रददौ स कुरूद्वहः।
तच्च कुन्तीसुतो राजा सर्वमेवान्वपद्यत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलके स्वामी महाराज धृतराष्ट्र ब्राह्मणोंको देनेयोग्य अग्रहार (माफी जमीन) देते थे और कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर सभी कार्योंमें उन्हें सहयोग देते थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यपरो राजा प्रीयमाणो युधिष्ठिरः।
उवाच स तदा भ्रातॄनमात्यांश्च महीपतिः ॥ ३ ॥
मया चैव भवद्भिश्च मान्य एष नराधिपः।
निदेशे धृतराष्ट्रस्य यस्तिष्ठति स मे सुहृत् ॥ ४ ॥
विपरीतश्च मे शत्रुर्नियम्यश्च भवेन्नरः।

मूलम्

आनृशंस्यपरो राजा प्रीयमाणो युधिष्ठिरः।
उवाच स तदा भ्रातॄनमात्यांश्च महीपतिः ॥ ३ ॥
मया चैव भवद्भिश्च मान्य एष नराधिपः।
निदेशे धृतराष्ट्रस्य यस्तिष्ठति स मे सुहृत् ॥ ४ ॥
विपरीतश्च मे शत्रुर्नियम्यश्च भवेन्नरः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर बड़े दयालु थे। वे सदा प्रसन्न रहकर अपने भाइयों और मन्त्रियोंसे कहा करते थे कि ‘ये राजा धृतराष्ट्र मेरे और आपलोगोंके माननीय हैं। जो इनकी आज्ञाके अधीन रहता है, वही मेरा सुहृद् है। विपरीत आचरण करनेवाला मेरा शत्रु है। वह मेरे दण्डका भागी होगा॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृवृत्तेषु चाहःसु पुत्राणां श्राद्धकर्मणि ॥ ५ ॥
सुहृदां चैव सर्वेषां यावदस्य चिकीर्षितम्।

मूलम्

पितृवृत्तेषु चाहःसु पुत्राणां श्राद्धकर्मणि ॥ ५ ॥
सुहृदां चैव सर्वेषां यावदस्य चिकीर्षितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पिता आदिकी क्षयाह तिथियोंपर तथा पुत्रों और समस्त सुहृदोंके श्राद्धकर्ममें राजा धृतराष्ट्र जितना धन खर्च करना चाहें, वह सब इन्हें मिलना चाहिये’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स राजा कौरव्यो धृतराष्ट्रो महामनाः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणेभ्यो यथार्हेभ्यो ददौ वित्तान्यनेकशः।
धर्मराजश्च भीमश्च सव्यसाची यमावपि ॥ ७ ॥
तत् सर्वमन्ववर्तन्त तस्य प्रियचिकीर्षया।

मूलम्

ततः स राजा कौरव्यो धृतराष्ट्रो महामनाः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणेभ्यो यथार्हेभ्यो ददौ वित्तान्यनेकशः।
धर्मराजश्च भीमश्च सव्यसाची यमावपि ॥ ७ ॥
तत् सर्वमन्ववर्तन्त तस्य प्रियचिकीर्षया।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महामना कुरुकुलनन्दन राजा धृतराष्ट्र उक्त अवसरोंपर सुयोग्य ब्राह्मणोंको बारम्बार प्रचुर धनका दान करते थे। धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, सव्यसाची अर्जुन और नकुल-सहदेव भी उनका प्रिय करनेकी इच्छासे सब कार्योंमें उनका साथ देते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु राजा वृद्धः स पुत्रपौत्रवधार्दितः ॥ ८ ॥
शोकमस्मस्कृतं प्राप्य न म्रियेतेति चिन्त्यते।

मूलम्

कथं नु राजा वृद्धः स पुत्रपौत्रवधार्दितः ॥ ८ ॥
शोकमस्मस्कृतं प्राप्य न म्रियेतेति चिन्त्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें सदा इस बातकी चिन्ता बनी रहती थी कि पुत्र-पौत्रोंके वधसे पीड़ित हुए बूढ़े राजा धृतराष्ट्र हमारी ओरसे शोक पाकर कहीं अपने प्राण न त्याग दें॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद्धि कुरुवीरस्य जीवत्पुत्रस्य वै सुखम् ॥ ९ ॥
बभूव तदवाप्नोति भोगांश्चेति व्यवस्थिताः।

मूलम्

यावद्धि कुरुवीरस्य जीवत्पुत्रस्य वै सुखम् ॥ ९ ॥
बभूव तदवाप्नोति भोगांश्चेति व्यवस्थिताः।

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पुत्रोंकी जीवितावस्थामें कुरुवीर धृतराष्ट्रको जितने सुख और भोग प्राप्त थे, वे अब भी उन्हें मिलते रहें—इसके लिये पाण्डवोंने पूरी व्यवस्था की थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते सहिताः पञ्च भ्रातरः पाण्डुनन्दनाः ॥ १० ॥
तथाशीलाः समातस्थुर्धृतराष्ट्रस्य शासने ।

मूलम्

ततस्ते सहिताः पञ्च भ्रातरः पाण्डुनन्दनाः ॥ १० ॥
तथाशीलाः समातस्थुर्धृतराष्ट्रस्य शासने ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकारके शील और बर्तावसे युक्त होकर वे पाँचों भाई पाण्डव एक साथ धृतराष्ट्रकी आज्ञाके अधीन रहते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रश्च तान् सर्वान् विनीतान् नियमे स्थितान् ॥ ११ ॥
शिष्यवृत्तिं समापन्नान् गुरुवत् प्रत्यपद्यत।

मूलम्

धृतराष्ट्रश्च तान् सर्वान् विनीतान् नियमे स्थितान् ॥ ११ ॥
शिष्यवृत्तिं समापन्नान् गुरुवत् प्रत्यपद्यत।

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र भी उन सबको परम विनीत, अपनी आज्ञाके अनुसार चलनेवाले और शिष्य-भावसे सेवामें संलग्न जानकर पिताकी भाँति उनसे स्नेह रखते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धारी चैव पुत्राणां विविधैः श्राद्धकर्मभिः ॥ १२ ॥
आनृण्यमगमत् कामान् विप्रेभ्यः प्रतिपाद्य सा।

मूलम्

गान्धारी चैव पुत्राणां विविधैः श्राद्धकर्मभिः ॥ १२ ॥
आनृण्यमगमत् कामान् विप्रेभ्यः प्रतिपाद्य सा।

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारी देवीने भी अपने पुत्रोंके निमित्त नाना प्रकारके श्राद्धकर्मका अनुष्ठान करके ब्राह्मणोंको उनकी इच्छाके अनुसार धन दान किया और ऐसा करके वे पुत्रोंके ऋणसे मुक्त हो गयीं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं धर्मभृतां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
भ्रातृभिः सहितो धीमान् पूजयामास तं नृपम्।

मूलम्

एवं धर्मभृतां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
भ्रातृभिः सहितो धीमान् पूजयामास तं नृपम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ रहकर सदा राजा धृतराष्ट्रका आदर-सत्कार करते रहते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा सुमहातेजा वृद्धः कुरुकुलोद्वहः ॥ १४ ॥
न ददर्श तदा किंचिदप्रियं पाण्डुनन्दने।

मूलम्

स राजा सुमहातेजा वृद्धः कुरुकुलोद्वहः ॥ १४ ॥
न ददर्श तदा किंचिदप्रियं पाण्डुनन्दने।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलशिरोमणि महातेजस्वी बूढ़े राजा धृतराष्ट्रने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरका कोई ऐसा बर्ताव नहीं देखा, जो उनके मनको अप्रिय लगनेवाला हो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तमानेषु सद्‌वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु ॥ १५ ॥
प्रीतिमानभवद् राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ।

मूलम्

वर्तमानेषु सद्‌वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु ॥ १५ ॥
प्रीतिमानभवद् राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा पाण्डव सदा अच्छा बर्ताव करते थे; इसलिये अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र उनके ऊपर बहुत प्रसन्न रहते थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौबलेयी च गान्धारी पुत्रशोकमपास्य तम् ॥ १६ ॥
सदैव प्रीतिमत्यासीत् तनयेषु निजेष्विव।

मूलम्

सौबलेयी च गान्धारी पुत्रशोकमपास्य तम् ॥ १६ ॥
सदैव प्रीतिमत्यासीत् तनयेषु निजेष्विव।

अनुवाद (हिन्दी)

सुबलपुत्री गान्धारी भी अपने पुत्रोंका शोक छोड़कर पाण्डवोंपर सदा अपने सगे पुत्रोंके समान प्रेम करती थीं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियाण्येव तु कौरव्यो नाप्रियाणि कुरूद्वहः ॥ १७ ॥
वैचित्रवीर्ये नृपतौ समाचरत वीर्यवान्।

मूलम्

प्रियाण्येव तु कौरव्यो नाप्रियाणि कुरूद्वहः ॥ १७ ॥
वैचित्रवीर्ये नृपतौ समाचरत वीर्यवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

पराक्रमी कुरुकुलतिलक राजा युधिष्ठिर महाराज धृतराष्ट्रका सदा प्रिय ही करते थे, अप्रिय नहीं करते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यद् ब्रूते च किंचित्‌ स धृतराष्ट्रो जनाधिपः॥१८॥
गुरु वा लघु वा कार्यं गान्धारी च तपस्विनी।
तं स राजा महाराज पाण्डवानां धुरंधरः ॥ १९ ॥
पूजयित्वा वचस्तत् तदकार्षीत् परवीरहा।

मूलम्

यद् यद् ब्रूते च किंचित्‌ स धृतराष्ट्रो जनाधिपः॥१८॥
गुरु वा लघु वा कार्यं गान्धारी च तपस्विनी।
तं स राजा महाराज पाण्डवानां धुरंधरः ॥ १९ ॥
पूजयित्वा वचस्तत् तदकार्षीत् परवीरहा।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! राजा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारी देवी ये दोनों जो कोई भी छोटा या बड़ा कार्य करनेके लिये कहते, पाण्डवधुरन्धर शत्रुसूदन राजा युधिष्ठिर उनके उस आदेशको सादर शिरोधार्य करके वह सारा कार्य पूर्ण करते थे॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन तस्याभवत् प्रीतो वृत्तेन स नराधिपः ॥ २० ॥
अन्वतप्यत संस्मृत्य पुत्रं तं मन्दचेतसम्।

मूलम्

तेन तस्याभवत् प्रीतो वृत्तेन स नराधिपः ॥ २० ॥
अन्वतप्यत संस्मृत्य पुत्रं तं मन्दचेतसम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके उस बर्तावसे राजा धृतराष्ट्र सदा प्रसन्न रहते और अपने उस मन्दबुद्धि दुर्योधनको याद करके पछताया करते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा च प्रातरुत्थाय कृतजप्यः शुचिर्नृपः ॥ २१ ॥
आशास्ते पाण्डुपुत्राणां समरेष्वपराजयम् ।

मूलम्

सदा च प्रातरुत्थाय कृतजप्यः शुचिर्नृपः ॥ २१ ॥
आशास्ते पाण्डुपुत्राणां समरेष्वपराजयम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिदिन सबेरे उठकर स्नान-संध्या एवं गायत्रीजप कर लेनेके पश्चात् पवित्र हुए राजा धृतराष्ट्र सदा पाण्डवोंको समरविजयी होनेका आशीर्वाद देते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणान् स्वस्ति वाच्याथ हुत्वा चैव हुताशनम् ॥ २२ ॥
आयूंषि पाण्डुपुत्राणामाशंसत नराधिपः ।

मूलम्

ब्राह्मणान् स्वस्ति वाच्याथ हुत्वा चैव हुताशनम् ॥ २२ ॥
आयूंषि पाण्डुपुत्राणामाशंसत नराधिपः ।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर अग्निमें हवन करनेके पश्चात् राजा धृतराष्ट्र सदा यह शुभकामना करते थे कि पाण्डवोंकी आयु बढ़े॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तां प्रीतिं परामाप पुत्रेभ्यः स कुरूद्वहः ॥ २३ ॥
यां प्रीतिं पाण्डुपुत्रेभ्यः सदावाप नराधिपः।

मूलम्

न तां प्रीतिं परामाप पुत्रेभ्यः स कुरूद्वहः ॥ २३ ॥
यां प्रीतिं पाण्डुपुत्रेभ्यः सदावाप नराधिपः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रको सदा पाण्डवोंके बर्तावसे जितनी प्रसन्नता होती थी, उतनी उत्कृष्ट प्रीति उन्हें अपने पुत्रोंसे भी कभी प्राप्त नहीं हुई थी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणानां यथावृत्तः क्षत्रियाणां यथाविधः ॥ २४ ॥
तथा विट्शूद्रसंघानामभवत् स प्रियस्तदा।

मूलम्

ब्राह्मणानां यथावृत्तः क्षत्रियाणां यथाविधः ॥ २४ ॥
तथा विट्शूद्रसंघानामभवत् स प्रियस्तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके साथ जैसा सद्‌बर्ताव करते थे, वैसा ही वैश्यों और शूद्रोंके साथ भी करते थे। इसलिये वे उन दिनों सबके प्रिय हो गये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च किंचित् तदा पापं धृतराष्ट्रसुतैः कृतम् ॥ २५ ॥
अकृत्वा हृदि तत् पापं तं नृपं सोऽन्ववर्तत।

मूलम्

यच्च किंचित् तदा पापं धृतराष्ट्रसुतैः कृतम् ॥ २५ ॥
अकृत्वा हृदि तत् पापं तं नृपं सोऽन्ववर्तत।

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके पुत्रोंने उनके साथ जो कुछ बुराई की थी, उसे अपने हृदयमें स्थान न देकर वे युधिष्ठिर राजा धृतराष्ट्रकी सेवामें संलग्न रहते थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च कश्चिन्नरः किंचिदप्रियं वाम्बिकासुते ॥ २६ ॥
कुरुते द्वेष्यतामेति स कौन्तेयस्य धीमतः।

मूलम्

यश्च कश्चिन्नरः किंचिदप्रियं वाम्बिकासुते ॥ २६ ॥
कुरुते द्वेष्यतामेति स कौन्तेयस्य धीमतः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई मनुष्य राजा धृतराष्ट्रका थोड़ा-सा भी अप्रिय कर देता, वह बुद्धिमान् कुन्तीकुमार युधिष्ठिरके द्वेषका पात्र बन जाता था॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न राज्ञो धृतराष्ट्रस्य न च दुर्योधनस्य वै ॥ २७ ॥
उवाच दुष्कृतं कश्चिद् युधिष्ठिरभयान्नरः।

मूलम्

न राज्ञो धृतराष्ट्रस्य न च दुर्योधनस्य वै ॥ २७ ॥
उवाच दुष्कृतं कश्चिद् युधिष्ठिरभयान्नरः।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरके भयसे कोई भी मनुष्य कभी राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधनके कुकृत्योंकी चर्चा नहीं करता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृत्या तुष्टो नरेन्द्रः स गान्धारी विदुरस्तथा ॥ २८ ॥
शौचेन चाजातशत्रोर्न तु भीमस्य शत्रुहन्।

मूलम्

धृत्या तुष्टो नरेन्द्रः स गान्धारी विदुरस्तथा ॥ २८ ॥
शौचेन चाजातशत्रोर्न तु भीमस्य शत्रुहन्।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और विदुरजी अजातशत्रु युधिष्ठिरके धैर्य और शुद्ध व्यवहारसे विशेष प्रसन्न थे, किंतु भीमसेनके बर्तावसे उन्हें संतोष नहीं था॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ववर्तत भीमोऽपि निश्चितो धर्मजं नृपम् ॥ २९ ॥
धृतराष्ट्रं च सम्प्रेक्ष्य सदा भवति दुर्मनाः।

मूलम्

अन्ववर्तत भीमोऽपि निश्चितो धर्मजं नृपम् ॥ २९ ॥
धृतराष्ट्रं च सम्प्रेक्ष्य सदा भवति दुर्मनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि भीमसेन भी दृढ़ निश्चयके साथ युधिष्ठिरके ही पथका अनुसरण करते थे, तथापि धृतराष्ट्रको देखकर उनके मनमें सदा ही दुर्भावना जाग उठती थी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानमनुवर्तन्तं धर्मपुत्रममित्रहा ।
अन्ववर्तत कौरव्यो हृदयेन पराङ्‌मुखः ॥ ३० ॥

मूलम्

राजानमनुवर्तन्तं धर्मपुत्रममित्रहा ।
अन्ववर्तत कौरव्यो हृदयेन पराङ्‌मुखः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरको धृतराष्ट्रके अनुकूल बर्ताव करते देख शत्रुसूदन कुरुनन्दन भीमसेन स्वयं भी ऊपरसे उनका अनुसरण ही करते थे, तथापि उनका हृदय धृतराष्ट्रसे विमुख ही रहता था॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥२॥