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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सूचना (हिन्दी)

श्रीमहाभारतम्

भागसूचना

आश्रमवासिकपर्व
आश्रमवासपर्व
प्रथमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भाइयोंसहित युधिष्ठर तथा कुन्ती आदि देवियोंके द्वार धृतराष्ट्र और गान्धारीकी सेवा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

मूलम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्य राज्यं महात्मानः पाण्डवा मे पितामहाः।
कथमासन् महाराज्ञि धृतराष्ट्रे महात्मनि ॥ १ ॥

मूलम्

प्राप्य राज्यं महात्मानः पाण्डवा मे पितामहाः।
कथमासन् महाराज्ञि धृतराष्ट्रे महात्मनि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! मेरे प्रपितामह महात्मा पाण्डव अपने राज्यपर अधिकार प्राप्त कर लेनेके बाद महाराज धृतराष्ट्रके प्रति कैसा बर्ताव करते थे?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु राजा हतामात्यो हतपुत्रो निराश्रयः।
कथमासीद्धतैश्वर्यो गान्धारी च यशस्विनी ॥ २ ॥

मूलम्

स तु राजा हतामात्यो हतपुत्रो निराश्रयः।
कथमासीद्धतैश्वर्यो गान्धारी च यशस्विनी ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्र अपने मन्त्री और पुत्रोंके मारे जानेसे निराश्रय हो गये थे। उनका ऐश्वर्य नष्ट हो गया था। ऐसी अवस्थामें वे और यशस्विनी गान्धारी देवी किस प्रकार जीवन व्यतीत करते थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कियन्तं चैव कालं ते मम पूर्वपितामहाः।
स्थिता राज्ये महात्मानस्तन्ये व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥

मूलम्

कियन्तं चैव कालं ते मम पूर्वपितामहाः।
स्थिता राज्ये महात्मानस्तन्ये व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पूर्वपितामह महात्मा पाण्डव कितने समयतक अपने राज्यपर प्रतिष्ठित रहे? ये सब बातें मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें॥३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्य राज्यं महात्मानः पाण्डवा हतशत्रवः।
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य पृथिवीं पर्यपालयन् ॥ ४ ॥

मूलम्

प्राप्य राज्यं महात्मानः पाण्डवा हतशत्रवः।
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य पृथिवीं पर्यपालयन् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! जिनके शत्रु मारे गये थे, वे महात्मा पाण्डव राज्य पानेके अनन्तर राजा धृतराष्ट्रको ही आगे रखकर पृथ्वीका पालन करने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रमुपातिष्ठद् विदुरः संजयस्तथा ।
वैश्यापुत्रश्च मेधावी युयुत्सुः कुरुसत्तम ॥ ५ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रमुपातिष्ठद् विदुरः संजयस्तथा ।
वैश्यापुत्रश्च मेधावी युयुत्सुः कुरुसत्तम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! विदुर, संजय तथा वैश्यापुत्र मेधावी युयुत्सु—ये लोग सदा धृतराष्ट्रकी सेवामें उपस्थित रहते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाः सर्वकार्याणि सम्पृच्छन्ति स्म तं नृपम्।
चक्रुस्तेनाभ्यनुज्ञाता वर्षाणि दश पञ्च च ॥ ६ ॥

मूलम्

पाण्डवाः सर्वकार्याणि सम्पृच्छन्ति स्म तं नृपम्।
चक्रुस्तेनाभ्यनुज्ञाता वर्षाणि दश पञ्च च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवलोग सभी कार्योंमें राजा धृतराष्ट्रकी सलाह पूछा करते थे और उनकी आज्ञा लेकर प्रत्येक कार्य करते थे। इस तरह उन्होंने पंद्रह वर्षोंतक राज्यका शासन किया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा हि गत्वा ते वीराः पर्युपासन्त तं नृपम्।
पादाभिवादनं कृत्वा धर्मराजमते स्थिताः ॥ ७ ॥

मूलम्

सदा हि गत्वा ते वीराः पर्युपासन्त तं नृपम्।
पादाभिवादनं कृत्वा धर्मराजमते स्थिताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर पाण्डव प्रतिदिन राजा धृतराष्ट्रके पास जा उनके चरणोंमें प्रणाम करके कुछ कालतक उनकी सेवामें बैठे रहते थे और सदा धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञाके अधीन रहते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते मूर्ध्नि समुपाघ्राताः सर्वकार्याणि चक्रिरे।
कुन्तिभोजसुता चैव गान्धारीमन्ववर्तत ॥ ८ ॥

मूलम्

ते मूर्ध्नि समुपाघ्राताः सर्वकार्याणि चक्रिरे।
कुन्तिभोजसुता चैव गान्धारीमन्ववर्तत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र भी स्नेहवश पाण्डवोंका मस्तक सूँघकर जब उन्हें जानेकी आज्ञा देते, तब वे आकर सब कार्य किया करते थे। कुन्तीदेवी भी सदा गान्धारीकी सेवामें लगी रहती थीं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदी च सुभद्रा च याश्चान्याः पाण्डवस्त्रियः।
समां वृत्तिमवर्तन्त तयोः श्वश्र्वोर्यथाविधि ॥ ९ ॥

मूलम्

द्रौपदी च सुभद्रा च याश्चान्याः पाण्डवस्त्रियः।
समां वृत्तिमवर्तन्त तयोः श्वश्र्वोर्यथाविधि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रौपदी, सुभद्रा तथा पाण्डवोंकी अन्य स्त्रियाँ भी कुन्ती और गान्धारी दोनों सासुओंकी समान भावसे विधिवत् सेवा किया करती थीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शयनानि महार्हाणि वासांस्याभरणानि च।
राजार्हाणि च सर्वाणि भक्ष्यभोज्यान्यनेकशः ॥ १० ॥
युधिष्ठिरो महाराज धृतराष्ट्रेऽभ्युपाहरत् ।
तथैव कुन्ती गान्धार्यां गुरुवृत्तिमवर्तत ॥ ११ ॥

मूलम्

शयनानि महार्हाणि वासांस्याभरणानि च।
राजार्हाणि च सर्वाणि भक्ष्यभोज्यान्यनेकशः ॥ १० ॥
युधिष्ठिरो महाराज धृतराष्ट्रेऽभ्युपाहरत् ।
तथैव कुन्ती गान्धार्यां गुरुवृत्तिमवर्तत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! राजा युधिष्ठिर बहुमूल्य शय्या, वस्त्र, आभूषण तथा राजाके उपभोगमें आने योग्य सब प्रकारके उत्तम पदार्थ एवं अनेकानेक भक्ष्य, भोज्य पदार्थ धृतराष्ट्रको अर्पण किया करते थे। इसी प्रकार कुन्तीदेवी भी अपनी सासकी भाँति गान्धारीकी परिचर्या किया करती थीं॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरः संजयश्चैव युयुत्सुश्चैव कौरव।
उपासते स्म तं वृद्धं हतपुत्रं जनाधिपम् ॥ १२ ॥

मूलम्

विदुरः संजयश्चैव युयुत्सुश्चैव कौरव।
उपासते स्म तं वृद्धं हतपुत्रं जनाधिपम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जिनके पुत्र मारे गये थे, उन बूढ़े राजा धृतराष्ट्रकी विदुर, संजय और युयुत्सु—ये तीनों सदा सेवा करते रहते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यालो द्रोणस्य यश्चासीद् दयितो ब्राह्मणो महान्।
स च तस्मिन् महेष्वासः कृपः समभवत् तदा ॥ १३ ॥

मूलम्

श्यालो द्रोणस्य यश्चासीद् दयितो ब्राह्मणो महान्।
स च तस्मिन् महेष्वासः कृपः समभवत् तदा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यके प्रिय साले महान् ब्राह्मण महा-धनुर्धर कृपाचार्य तो उन दिनों सदा धृतराष्ट्रके ही पास रहते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यासश्च भगवान् नित्यमासांचक्रे नृपेण ह।
कथाः कुर्वन् पुराणर्षिर्देवर्षिपितृरक्षसाम् ॥ १४ ॥

मूलम्

व्यासश्च भगवान् नित्यमासांचक्रे नृपेण ह।
कथाः कुर्वन् पुराणर्षिर्देवर्षिपितृरक्षसाम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरातन ऋषि भगवान् व्यास भी प्रतिदिन उनके पास आकर बैठते और उन्हें देवर्षि, पितर तथा राक्षसोंकी कथाएँ सुनाया करते थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मयुक्तानि कार्याणि व्यवहारान्वितानि च।
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो विदुरस्तान्यकारयत् ॥ १५ ॥

मूलम्

धर्मयुक्तानि कार्याणि व्यवहारान्वितानि च।
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो विदुरस्तान्यकारयत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रकी आज्ञासे विदुरजी उनके समस्त धार्मिक और व्यावहारिक कार्य करते-कराते थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सामन्तेभ्यः प्रियाण्यस्य कार्याणि सुबहून्यपि।
प्राप्यन्तेऽर्थैः सुलघुभिः सुनयाद् विदुरस्य वै ॥ १६ ॥

मूलम्

सामन्तेभ्यः प्रियाण्यस्य कार्याणि सुबहून्यपि।
प्राप्यन्तेऽर्थैः सुलघुभिः सुनयाद् विदुरस्य वै ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीकी अच्छी नीतिके कारण उनके बहुतेरे प्रिय कार्य थोड़े खर्चमें ही सामन्तों (सीमावर्ती राजाओं)-से सिद्ध हो जाया करते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकरोद् बन्धमोक्षं च वध्यानां मोक्षणं तथा।
न च धर्मसुतो राजा कदाचित् किंचिदब्रवीत् ॥ १७ ॥

मूलम्

अकरोद् बन्धमोक्षं च वध्यानां मोक्षणं तथा।
न च धर्मसुतो राजा कदाचित् किंचिदब्रवीत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कैदियोंको कैदसे छुटकारा दे देते और वधके योग्य मनुष्योंको भी प्राणदान देकर छोड़ देते थे; किंतु धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर इसके लिये उनसे कभी कुछ कहते नहीं थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहारयात्रासु पुनः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
सर्वान् कामान् महातेजाः प्रददावम्बिकासुते ॥ १८ ॥

मूलम्

विहारयात्रासु पुनः कुरुराजो युधिष्ठिरः।
सर्वान् कामान् महातेजाः प्रददावम्बिकासुते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी कुरुराज युधिष्ठिर विहार और यात्राके अवसरोंपर राजा धृतराष्ट्रको समस्त मनोवाञ्छित वस्तुओंकी सुविधा देते थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरालिकाः सूपकारा रागखाण्डविकास्तथा ।
उपातिष्ठन्त राजानं धृतराष्ट्रं यथा पुरा ॥ १९ ॥

मूलम्

आरालिकाः सूपकारा रागखाण्डविकास्तथा ।
उपातिष्ठन्त राजानं धृतराष्ट्रं यथा पुरा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रकी सेवामें पहलेकी ही भाँति उक्त अवसरोंपर भी रसोईके काममें निपुण आरालिक1, सूपकार[^२] और रागखाण्डविक[^३] मौजूद रहते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासांसि च महार्हाणि माल्यानि विविधानि च।
उपाजह्रुर्यथान्यायं धृतराष्ट्रस्य पाण्डवाः ॥ २० ॥

मूलम्

वासांसि च महार्हाणि माल्यानि विविधानि च।
उपाजह्रुर्यथान्यायं धृतराष्ट्रस्य पाण्डवाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवलोग धृतराष्ट्रको यथोचित रूपसे बहुमूल्य वस्त्र और नाना प्रकारकी मालाएँ भेंट करते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैरेयकाणि मांसानि पानकानि लघूनि च।
चित्रान् भक्ष्यविकारांश्च चक्रुस्तस्य यथा पुरा ॥ २१ ॥

मूलम्

मैरेयकाणि मांसानि पानकानि लघूनि च।
चित्रान् भक्ष्यविकारांश्च चक्रुस्तस्य यथा पुरा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उनकी सेवामें पहलेकी ही भाँति सुखभोगप्रद फलके गूदे, हलके पानक (मीठे शर्बत) और अन्यान्य विचित्र प्रकारके भोजन प्रस्तुत करते थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये चापि पृथिवीपालाः समाजग्मुस्ततस्ततः।
उपातिष्ठन्त ते सर्वे कौरवेन्द्रं यथा पुरा ॥ २२ ॥

मूलम्

ये चापि पृथिवीपालाः समाजग्मुस्ततस्ततः।
उपातिष्ठन्त ते सर्वे कौरवेन्द्रं यथा पुरा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भिन्न-भिन्न देशोंसे जो-जो भूपाल वहाँ पधारते थे, वे सब पहलेकी ही भाँति कौरवराज धृतराष्ट्रकी सेवामें उपस्थित होते थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्ती च द्रौपदी चैव सात्वती च यशस्विनी।
उलूपी नागकन्या च देवी चित्राङ्गदा तथा ॥ २३ ॥
धृष्टकेतोश्च भगिनी जरासंधसुता तथा।
एताश्चान्याश्च बह्व्यो वै योषितः पुरुषर्षभ ॥ २४ ॥
किंकराः पर्युपातिष्ठन् सर्वाः सुबलजां तथा।

मूलम्

कुन्ती च द्रौपदी चैव सात्वती च यशस्विनी।
उलूपी नागकन्या च देवी चित्राङ्गदा तथा ॥ २३ ॥
धृष्टकेतोश्च भगिनी जरासंधसुता तथा।
एताश्चान्याश्च बह्व्यो वै योषितः पुरुषर्षभ ॥ २४ ॥
किंकराः पर्युपातिष्ठन् सर्वाः सुबलजां तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! कुन्ती, द्रौपदी, यशस्विनी सुभद्रा, नागकन्या उलूपी, देवी चित्रांगदा, धृष्टकेतुकी बहिन तथा जरासंधकी पुत्री—ये तथा कुरुकुलकी दूसरी बहुत-सी स्त्रियाँ दासीकी भाँति सुबलपुत्री गान्धारीकी सेवामें लगी रहती थीं॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पुत्रवियुक्तोऽयं न किंचिद्‌ दुःखमाप्नुयात् ॥ २५ ॥
इति तानन्वशाद् भ्रातॄम् नित्यमेव युधिष्ठिरः।

मूलम्

यथा पुत्रवियुक्तोऽयं न किंचिद्‌ दुःखमाप्नुयात् ॥ २५ ॥
इति तानन्वशाद् भ्रातॄम् नित्यमेव युधिष्ठिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर सदा भाइयोंको यह उपदेश देते थे कि ‘बन्धुओ! तुम ऐसा बर्ताव करो, जिससे अपने पुत्रोंसे बिछुड़े हुए इन राजा धृतराष्ट्रको किंचिन्मात्र भी दुःख न प्राप्त हो’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते धर्मराजस्य श्रुत्वा वचनमर्थवत् ॥ २६ ॥
सविशेषमवर्तन्त भीममेकं तदा विना।

मूलम्

एवं ते धर्मराजस्य श्रुत्वा वचनमर्थवत् ॥ २६ ॥
सविशेषमवर्तन्त भीममेकं तदा विना।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराजका यह सार्थक वचन सुनकर भीमसेनको छोड़ अन्य सभी भाई धृतराष्ट्रका विशेष आदर-सत्कार करते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तत् तस्य वीरस्य हृदयादपसर्पति।
धृतराष्ट्रस्य दुर्बुद्‌ध्य यद् वृत्तं द्यूतकारितम् ॥ २७ ॥

मूलम्

न हि तत् तस्य वीरस्य हृदयादपसर्पति।
धृतराष्ट्रस्य दुर्बुद्‌ध्य यद् वृत्तं द्यूतकारितम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरवर भीमसेनके हृदयसे कभी भी यह बात दूर नहीं होती थी कि जूएके समय जो कुछ भी अनर्थ हुआ था, वह धृतराष्ट्रकी ही खोटी बुद्धिका परिणाम था॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिके पर्वणि आश्रमवासपर्वणि प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिकपर्वके अन्तर्गत आश्रमवासपर्वमें पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥


  1. ‘अरा’ नामक शस्त्रसे काटकर बनाये जानेके कारण साग-भाजी आदिको ‘अरालु’ कहते हैं। उसको सुन्दर रीतिसे तैयार करनेवाले रसोइये ‘आरालिक’ कहलाते हैं। [^२]:दाल आदि बनानेवाले सामान्यतः सभी रसोइयोंको ‘सूपकार’ कहते हैं। [^३]:पीपल, सोंठ और चीनी मिलाकर मूँगका रसा तैयार करनेवाले रसोइये ‘रागखाण्डविक’ कहलाते हैं। ↩︎