मूलम् (समाप्तिः)
[उत्तम और अधम ब्राह्मणोंके लक्षण, भक्त, गौ और पीपलकी महिमा]
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशा ब्राह्मणाः पुण्या भावशुद्धाः सुरेश्वर।
यत्कर्म सफलं नेति कथयस्व ममानघ॥
मूलम्
कीदृशा ब्राह्मणाः पुण्या भावशुद्धाः सुरेश्वर।
यत्कर्म सफलं नेति कथयस्व ममानघ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— निष्पाप देवेश्वर! जिनके भाव शुद्ध हों, वे पुण्यात्मा ब्राह्मण कैसे होते हैं तथा ब्राह्मणको अपने कर्ममें सफलता न मिलनेका क्या कारण है? यह बतानेकी कृपा कीजिये॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु पाण्डव तत् सर्वं ब्राह्मणानां यथाक्रमम्।
सफलं निष्फलं चैव तेषां कर्म ब्रवीमि ते॥
मूलम्
शृणु पाण्डव तत् सर्वं ब्राह्मणानां यथाक्रमम्।
सफलं निष्फलं चैव तेषां कर्म ब्रवीमि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा— पाण्डुनन्दन! ब्राह्मणोंका कर्म क्यों सफल होता है और क्यों निष्फल—इन बातोंको मैं क्रमशः बताता हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिदण्डधारणं मौनं जटाधारणमुण्डनम् ।
वल्कलाजिनसंवासो ब्रह्मचर्याभिषेचनम् ॥
अग्निहोत्रं गृहे वासः स्वाध्यायं दारसत्क्रिया।
सर्वाण्येतानि वै मिथ्या यदि भावो न निर्मलः॥
मूलम्
त्रिदण्डधारणं मौनं जटाधारणमुण्डनम् ।
वल्कलाजिनसंवासो ब्रह्मचर्याभिषेचनम् ॥
अग्निहोत्रं गृहे वासः स्वाध्यायं दारसत्क्रिया।
सर्वाण्येतानि वै मिथ्या यदि भावो न निर्मलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हृदयका भाव शुद्ध न हो तो त्रिदण्ड धारण करना, मौन रहना, जटा रखाना, माथा मुँड़ाना, वल्कल या मृगचर्म पहनना, व्रत और अभिषेक करना, अग्निमें आहुति देना, गृहस्थ-धर्मका पालन करना, स्वाध्यायमें संलग्न रहना और अपनी स्त्रीका सत्कार करना—ये सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षान्तं दान्तं जितक्रोधं जितात्मानं जितेन्द्रियम्।
तमग्र्यं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा इति स्मृताः॥
मूलम्
क्षान्तं दान्तं जितक्रोधं जितात्मानं जितेन्द्रियम्।
तमग्र्यं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा इति स्मृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो क्षमाशील, दमका पालन करनेवाला, क्रोधरहित तथा मन और इन्द्रियोंको जीतनेवाला हो, उसीको मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण मानता हूँ। उसके अतिरिक्त जो ब्राह्मण कहलानेवाले लोग हैं, वे सब शूद्र माने गये हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निहोत्रव्रतपरान् स्वाध्यायनिरतान् शुचीन् ।
उपवासरतान् दान्तांस्तान् देवा ब्राह्मणा विदुः॥
न जात्या पूजितो राजन् गुणाः कल्याणकारणाः।
मूलम्
अग्निहोत्रव्रतपरान् स्वाध्यायनिरतान् शुचीन् ।
उपवासरतान् दान्तांस्तान् देवा ब्राह्मणा विदुः॥
न जात्या पूजितो राजन् गुणाः कल्याणकारणाः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो अग्निहोत्र, व्रत और स्वाध्यायमें लगे रहनेवाले, पवित्र, उपवास करनेवाले और जितेन्द्रिय हैं, उन्हीं पुरुषोंको देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। राजन्! केवल जातिसे किसीकी पूजा नहीं होती, उत्तम गुण ही कल्याण करनेवाले होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनश्शौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत।
शरीरशौचं वाक्छौचं शौचं पञ्चविधं स्मृतम्॥
मूलम्
मनश्शौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत।
शरीरशौचं वाक्छौचं शौचं पञ्चविधं स्मृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनःशुद्धि, क्रियाशुद्धि, कुलशुद्धि, शरीरशुद्धि और वाक्-शुद्धि—इस तरह पाँच प्रकारकी शुद्धि बतायी गयी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चस्वेतेषु शौचेषु हृदि शौचं विशिष्यते।
हृदयस्य च शौचेन स्वर्गं गच्छन्ति मानवाः॥
मूलम्
पञ्चस्वेतेषु शौचेषु हृदि शौचं विशिष्यते।
हृदयस्य च शौचेन स्वर्गं गच्छन्ति मानवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन पाँचों शुद्धियोंमें हृदयकी शुद्धि सबसे बढ़कर है। हृदयकी ही शुद्धिसे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निहोत्रपरिभ्रष्टः प्रसक्तः क्रयविक्रयैः ।
वर्णसंकरकर्ता च ब्राह्मणो वृषलैः समः॥
मूलम्
अग्निहोत्रपरिभ्रष्टः प्रसक्तः क्रयविक्रयैः ।
वर्णसंकरकर्ता च ब्राह्मणो वृषलैः समः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण अग्निहोत्रका त्याग करके खरीद-बिक्रीमें लग गया है, वह वर्णसंकरताका प्रचार करनेवाला और शूद्रके समान माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य वेदश्रुतिर्नष्टा कर्षकश्चापि यो द्विजः।
विकर्मसेवी कौन्तेय स वै वृषल उच्यते॥
मूलम्
यस्य वेदश्रुतिर्नष्टा कर्षकश्चापि यो द्विजः।
विकर्मसेवी कौन्तेय स वै वृषल उच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जिसने वैदिक श्रुतियोंको भुला दिया है तथा जो खेतमें हल जोतता है, अपने वर्णके विरुद्ध काम करनेवाला वह ब्राह्मण वृषल माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृषो हि धर्मो विज्ञेयस्तस्य यः कुरुते लयम्।
वृषलं तं विदुर्देवा निकृष्टं श्वपचादपि॥
मूलम्
वृषो हि धर्मो विज्ञेयस्तस्य यः कुरुते लयम्।
वृषलं तं विदुर्देवा निकृष्टं श्वपचादपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष शब्दका अर्थ है धर्म; उसका जो लय करता है, उसको देवतालोग वृषल मानते हैं। वह चाण्डालसे भी नीच होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुतिभिर्ब्रह्मगीताभिर्यः शूद्रं स्तौति मानवः।
न तु मां स्तौति पापात्मा स तु चण्डालतः समः॥
मूलम्
स्तुतिभिर्ब्रह्मगीताभिर्यः शूद्रं स्तौति मानवः।
न तु मां स्तौति पापात्मा स तु चण्डालतः समः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पापात्मा मनुष्य ब्रह्मगीता आदिके द्वारा मेरी स्तुति न करके किसी शूद्रका स्तवन करता है, वह चाण्डालके समान है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वदृतौ तु यथा क्षीरं ब्रह्म वै वृषले तथा।
दुष्टतामेति तत् सर्वं शुना लीढं हविर्यथा॥
मूलम्
श्वदृतौ तु यथा क्षीरं ब्रह्म वै वृषले तथा।
दुष्टतामेति तत् सर्वं शुना लीढं हविर्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कुत्तेकी खालमें रखा हुआ दूध और कुत्तेका चाटा हुआ हविष्य अशुद्ध होता है, उसी प्रकार वृषल मनुष्यकी बुद्धिमें स्थित वेद भी दूषित हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥
मूलम्
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥
अनुवाद (हिन्दी)
चार वेद, छः अंग, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र और पुराण—ये चौदह विद्याएँ हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यान्युक्तानि मया सम्यग् विद्यास्थानानि भारत।
उत्पन्नानि पवित्राणि भुवनार्थं तथैव च॥
तस्मात् तानि न शूद्रस्य स्पृष्टव्यानि युधिष्ठिर।
सर्वं च शूद्रसंस्पृष्टमपवित्रं न संशयः॥
मूलम्
यान्युक्तानि मया सम्यग् विद्यास्थानानि भारत।
उत्पन्नानि पवित्राणि भुवनार्थं तथैव च॥
तस्मात् तानि न शूद्रस्य स्पृष्टव्यानि युधिष्ठिर।
सर्वं च शूद्रसंस्पृष्टमपवित्रं न संशयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! मैंने जो विद्याके चौदह पवित्र स्थान पूर्णतया बताये हैं, वे तीनों लोकोंके कल्याणके लिये प्रकट हुए हैं। अतः शूद्रको इनका स्पर्श नहीं करना चाहिये। युधिष्ठिर! शूद्रके सम्पर्कमें आनेवाली सभी वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं, इसमें संशय नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोके त्रीण्यपवित्राणि पञ्चामेध्यानि भारत।
श्वा च शूद्रःश्वपाकश्च अपवित्राणि पाण्डव॥
मूलम्
लोके त्रीण्यपवित्राणि पञ्चामेध्यानि भारत।
श्वा च शूद्रःश्वपाकश्च अपवित्राणि पाण्डव॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस संसारमें तीन अपवित्र और पाँच अमेध्य हैं। पाण्डुनन्दन! कुत्ता, शूद्र और श्वपाक (चाण्डाल)—ये तीन अपवित्र होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गायकः कुक्कुटो यूपो ह्युदक्या वृषलीपतिः।
पञ्चैते स्युरमेध्याश्च स्प्रष्टव्या न कदाचन।
स्पृष्ट्वैतानष्ट वै विप्रः सचैलो जलमाविशेत्॥
मूलम्
गायकः कुक्कुटो यूपो ह्युदक्या वृषलीपतिः।
पञ्चैते स्युरमेध्याश्च स्प्रष्टव्या न कदाचन।
स्पृष्ट्वैतानष्ट वै विप्रः सचैलो जलमाविशेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अश्लील गायक, मुर्गा, जिसमें वध करनेके लिये पशुओंको बाँधा जाय वह खम्भा, रजस्वला स्त्री और वृषल जातिकी स्त्रीसे ब्याह करनेवाला द्विज—ये पाँच अमेध्य माने गये हैं; इनका कभी भी स्पर्श नहीं करना चाहिये। यदि ब्राह्मण इन आठोंमेंसे किसीका स्पर्श कर ले तो वस्त्रसहित जलमें प्रवेश करके स्नान करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्तान् शूद्रसामान्यादवमन्यन्ति ये नराः।
नरकेष्वेव तिष्ठन्ति वर्षकोटिं नराधमाः॥
मूलम्
मद्भक्तान् शूद्रसामान्यादवमन्यन्ति ये नराः।
नरकेष्वेव तिष्ठन्ति वर्षकोटिं नराधमाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य मेरे भक्तोंका शुद्र-जातिमें जन्म होनेके कारण अपमान करते हैं, वे नराधम करोड़ों वर्षतक नरकोंमें निवास करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चण्डालमपि मद्भक्तं नावमन्येत बुद्धिमान्।
अवमानात् पतन्त्येव नरके रौरवे नराः॥
मूलम्
चण्डालमपि मद्भक्तं नावमन्येत बुद्धिमान्।
अवमानात् पतन्त्येव नरके रौरवे नराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः चाण्डाल भी यदि मेरा भक्त हो तो बुद्धिमान् पुरुषको उसका अपमान नहीं करना चाहिये। अपमान करनेसे मनुष्यको रौरव नरकमें गिरना पड़ता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम भक्तस्य भक्तेषु प्रीतिरभ्यधिका मम।
तस्मान्मद्भक्तभक्ताश्च पूजनीया विशेषतः ॥
मूलम्
मम भक्तस्य भक्तेषु प्रीतिरभ्यधिका मम।
तस्मान्मद्भक्तभक्ताश्च पूजनीया विशेषतः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य मेरे भक्तोंके भक्त होते हैं, उनपर मेरा विशेष प्रेम होता है, इसलिये मेरे भक्तके भक्तोंका विशेष सत्कार करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीटपक्षिमृगाणां च मयि संन्यस्यचेतसाम्।
ऊर्ध्वामेव गतिं विद्धि किं पुनर्ज्ञानिनां नृणाम्॥
मूलम्
कीटपक्षिमृगाणां च मयि संन्यस्यचेतसाम्।
ऊर्ध्वामेव गतिं विद्धि किं पुनर्ज्ञानिनां नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझमें चित्त लगानेपर कीड़े, पक्षी और पशु भी ऊर्ध्वगतिको ही प्राप्त होते हैं, फिर ज्ञानी मनुष्योंकी तो बात ही क्या है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्रं वाप्यथवा पुष्पं फलं वाप्यप एव वा।
ददाति मम शूद्रो यच्छिरसा धारयामि तत्॥
मूलम्
पत्रं वाप्यथवा पुष्पं फलं वाप्यप एव वा।
ददाति मम शूद्रो यच्छिरसा धारयामि तत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा भक्त शूद्र भी यदि पत्र, पुष्प, फल अथवा जल ही अर्पण करे तो मैं उसे सिरपर धारण करता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदोक्तेनैव मार्गेण सर्वभूतहृदि स्थितम्।
मामर्चयन्ति ये विप्रा मत्सायुज्यं व्रजन्ति ते॥
मूलम्
वेदोक्तेनैव मार्गेण सर्वभूतहृदि स्थितम्।
मामर्चयन्ति ये विप्रा मत्सायुज्यं व्रजन्ति ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें विराजमान मुझ परमेश्वरका वेदोक्त रीतिसे पूजन करते हैं, वे मेरे सायुज्यको प्राप्त होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्तानां हितायैव प्रादुर्भावः कृतो मया।
प्रादुर्भावकृता काचिदर्चनीया युधिष्ठिर ॥
मूलम्
मद्भक्तानां हितायैव प्रादुर्भावः कृतो मया।
प्रादुर्भावकृता काचिदर्चनीया युधिष्ठिर ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! मैं अपने भक्तोंका हित करनेके लिये ही अवतार धारण करता हूँ; अतः मेरे प्रत्येक अवतार-विग्रहका पूजन करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसामन्यतमां मूर्तिं यो मद्भक्त्या समर्चति।
तेनैव परितुष्टोऽहं भविष्यामि न संशयः॥
मूलम्
आसामन्यतमां मूर्तिं यो मद्भक्त्या समर्चति।
तेनैव परितुष्टोऽहं भविष्यामि न संशयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य मेरे अवतार-विग्रहोंमेंसे किसी एककी भी भक्तिभावसे आराधना करता है, उसके ऊपर मैं निःसंदेह प्रसन्न होता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदा च मणिरत्नैश्च ताम्रेण रजतेन च।
कृत्वा प्रतिकृतिं कुर्यादर्चनां काञ्चनेन वा।
पुण्यं दशगुणं विद्यादेतेषामुत्तरोत्तरम् ॥
मूलम्
मृदा च मणिरत्नैश्च ताम्रेण रजतेन च।
कृत्वा प्रतिकृतिं कुर्यादर्चनां काञ्चनेन वा।
पुण्यं दशगुणं विद्यादेतेषामुत्तरोत्तरम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मिट्टी, ताँबा, चाँदी, स्वर्ण अथवा मणि एवं रत्नोंकी मेरी प्रतिमा बनवाकर उसकी पूजा करनी चाहिये। इनमें उत्तरोत्तर मूर्तियोंकी पूजासे दसगुना अधिक पुण्य समझना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयकामो भवेद् राजा विद्याकामो द्विजोत्तमः।
वैश्यो वा धनकामस्तु शूद्रः सुखफलप्रियः।
सर्वकामाः स्त्रियो वापि सर्वान् कामानवाप्नुयुः॥
मूलम्
जयकामो भवेद् राजा विद्याकामो द्विजोत्तमः।
वैश्यो वा धनकामस्तु शूद्रः सुखफलप्रियः।
सर्वकामाः स्त्रियो वापि सर्वान् कामानवाप्नुयुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ब्राह्मणको विद्याकी, क्षत्रियको युद्धमें विजयकी, वैश्यको धनकी, शूद्रको सुखरूप फलकी तथा स्त्रियोंको सब प्रकारकी कामना हो तो ये सब मेरी आराधनासे अपने सभी मनोरथोंको प्राप्त कर सकते हैं॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशानां तु शूद्राणां नानुगृह्णासि चार्चनम्।
उद्वेगस्तव कस्माद्धि तन्मे ब्रूहि सुरेश्वर॥
मूलम्
कीदृशानां तु शूद्राणां नानुगृह्णासि चार्चनम्।
उद्वेगस्तव कस्माद्धि तन्मे ब्रूहि सुरेश्वर॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— देवेश्वर! आप किस तरहके शूद्रोंकी पूजा नहीं स्वीकार करते तथा आपको कौन-सा कार्य बुरा लगता है? यह मुझे बतलाइये॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्रतेनाप्यभक्तेन स्पृष्टां शूद्रेण चार्चनाम्।
तां वर्जयामि राजेन्द्र श्वपाकविहितामिव॥
मूलम्
अव्रतेनाप्यभक्तेन स्पृष्टां शूद्रेण चार्चनाम्।
तां वर्जयामि राजेन्द्र श्वपाकविहितामिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा— राजन्! जो व्रतका पालन न करनेवाला और मेरा भक्त नहीं है, उस शूद्रकी स्पर्श की हुई पूजाको मैं कुत्ता पकानेवाले चाण्डालकी की हुई समझकर त्याग देता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्वहं शङ्करश्चापि गावो विप्रास्तथैव च।
अश्वत्थोऽमररूपं हि त्रयमेतद् युधिष्ठिर॥
एतत्त्रयं हि मद्भक्तो नावमन्येत कर्हिचित्।
मूलम्
नन्वहं शङ्करश्चापि गावो विप्रास्तथैव च।
अश्वत्थोऽमररूपं हि त्रयमेतद् युधिष्ठिर॥
एतत्त्रयं हि मद्भक्तो नावमन्येत कर्हिचित्।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! गौ, ब्राह्मण और पीपलका वृक्ष—ये तीनों देवरूप हैं। इन्हें मेरा और भगवान् शंकरका स्वरूप समझना चाहिये। मेरे भक्त पुरुषको उचित है कि वह इन तीनोंका कभी अपमान न करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थो ब्राह्मणा गावो मन्मयास्तारयन्ति हि।
तस्मादेतत् प्रयत्नेन त्रयं पूजय पाण्डव॥
मूलम्
अश्वत्थो ब्राह्मणा गावो मन्मयास्तारयन्ति हि।
तस्मादेतत् प्रयत्नेन त्रयं पूजय पाण्डव॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! मेरे स्वरूप होनेके कारण पीपल, ब्राह्मण और गौ—ये तीनों मनुष्यका उद्धार करनेवाले हैं, इसलिये तुम यत्नपूर्वक इन तीनोंकी पूजा किया करो॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)