०१३

मूलम् (समाप्तिः)

[धर्म और शौचके लक्षण, संन्यासी और अतिथिके सत्कारके उपदेश, शिष्टाचार दानपात्र ब्राह्मण तथा अन्न-दानकी प्रशंसा]

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
किंलक्षणोऽसौ भवति तन्मे ब्रूहि जनार्दन॥

मूलम्

अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
किंलक्षणोऽसौ भवति तन्मे ब्रूहि जनार्दन॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— जनार्दन! मनीषी पुरुष धर्मको अनेक प्रकारका और बहुत-से द्वारवाला बतलाते हैं। वास्तवमें उसका लक्षण क्या है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् समासेन धर्मशौचविधिक्रमम्।
अहिंसा शौचमक्रोधमानृशंस्यं दमः शमः।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्॥

मूलम्

शृणु राजन् समासेन धर्मशौचविधिक्रमम्।
अहिंसा शौचमक्रोधमानृशंस्यं दमः शमः।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान्‌ने कहा— राजन्! तुम धर्म और शौचकी विधिका क्रम संक्षेपसे सुनो। राजेन्द्र! अहिंसा, शौच, क्रोधका अभाव, क्रूरताका अभाव, दम, शम और सरलता—ये धर्मके निश्चित लक्षण हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्यं तपः क्षान्तिर्मधुमांसस्य वर्जनम्।
मर्यादायां स्थितिश्चैव शमः शौचस्य लक्षणम्॥

मूलम्

ब्रह्मचर्यं तपः क्षान्तिर्मधुमांसस्य वर्जनम्।
मर्यादायां स्थितिश्चैव शमः शौचस्य लक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मचर्य, तपस्या, क्षमा, मधु-मांसका त्याग, धर्म-मर्यादाके भीतर रहना और मनको वशमें रखना—ये सब शौच (पवित्रता)-के लक्षण हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल्ये विद्यां निषेवेत यौवने दारसंग्रहम्।
वार्धके मौनमातिष्ठेत् सर्वदा धर्ममाचरेत्॥

मूलम्

बाल्ये विद्यां निषेवेत यौवने दारसंग्रहम्।
वार्धके मौनमातिष्ठेत् सर्वदा धर्ममाचरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि वह बचपनमें विद्याध्ययन करे, युवावस्था होनेपर स्त्रीके साथ विवाह करे और बुढ़ापेमें मुनिवृत्तिका आश्रय ले एवं धर्मका आचरण सदा ही सब अवस्थाओंमें करता रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणान् नावमन्येत गुरून् परिवदेन्न च।
यतीनामनुकूलः स्यादेष धर्मः सनातनः॥

मूलम्

ब्राह्मणान् नावमन्येत गुरून् परिवदेन्न च।
यतीनामनुकूलः स्यादेष धर्मः सनातनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंका अपमान न करे, गुरुजनोंकी निन्दा न करे और संन्यासी महात्माओंके अनुकूल बर्ताव करे—यह सनातन धर्म है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतिर्गुरुर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः॥

मूलम्

यतिर्गुरुर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंका गुरु संन्यासी है, चारों वर्णोंका गुरु ब्राह्मण है, समस्त स्त्रियोंके लिये गुरु उनका पति है और सबका गुरु राजा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदण्डी त्रिदण्डी वा शिखी वा मुण्डितोऽपि वा।

मूलम्

एकदण्डी त्रिदण्डी वा शिखी वा मुण्डितोऽपि वा।

Misc Detail

काषायदण्डधारोऽपि यतिः पूज्यो न संशयः

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासी एक दण्ड धारण करनेवाला हो या तीन दण्ड, बड़ी-बड़ी जटाएँ रखता हो या माथा मुँडाये रहता हो अथवा गेरुआ वस्त्र पहननेवाला हो, निःसंदेह उसका सत्कार करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् तु यत्नतः पूज्या मद्भक्ता मत्परायणाः।
मयि संन्यस्तकर्माणः परत्र हितकाङ्क्षिभिः॥

मूलम्

तस्मात् तु यत्नतः पूज्या मद्भक्ता मत्परायणाः।
मयि संन्यस्तकर्माणः परत्र हितकाङ्क्षिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये जो परलोकमें अपना कल्याण चाहते हों, उन पुरुषोंको उचित है कि वे मुझमें समस्त कर्मोंका अर्पण करनेवाले मेरे शरणागत भक्तोंका यत्नपूर्वक सत्कार करें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहरेन्न द्विजान् विप्रो गां न हन्यात् कदाचन।
भ्रूणहत्यासमं चैव उभयं यो निषेवते॥

मूलम्

प्रहरेन्न द्विजान् विप्रो गां न हन्यात् कदाचन।
भ्रूणहत्यासमं चैव उभयं यो निषेवते॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंपर हाथ न छोड़े और गायको कभी न मारे। जो ब्राह्मण इन दोनोंपर प्रहार करता है, उसे भ्रूणहत्याके समान पाप लगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाग्निं मुखेनोपधमेन्न च पादौ प्रदापयेत्।
नाधः कुर्यात्‌ कदाचित्‌ तु न पृष्ठं परितापयेत्॥

मूलम्

नाग्निं मुखेनोपधमेन्न च पादौ प्रदापयेत्।
नाधः कुर्यात्‌ कदाचित्‌ तु न पृष्ठं परितापयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निको मुँहसे न फूँके, पैरोंको आगपर न तपावे और आगको पैरसे न कुचले तथा पीठकी ओरसे अग्निका सेवन न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वचण्डालादिभिः स्पृष्टो नाङ्गमग्नौ प्रतापयेत्।
सर्वदेवमयो वह्निस्तस्माच्छुद्धः सदा स्मृशेत्॥

मूलम्

श्वचण्डालादिभिः स्पृष्टो नाङ्गमग्नौ प्रतापयेत्।
सर्वदेवमयो वह्निस्तस्माच्छुद्धः सदा स्मृशेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य कुत्ते या चाण्डालसे छू गया हो, उसे अपना अंग अग्निमें नहीं तपाना चाहिये; क्योंकि अग्नि सर्वदेवतारूप है। अतः सदा शुद्ध होकर उसका स्पर्श करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तमूत्रपुरीषस्तु न स्पृशेद् वह्निमात्मवान्।
यावत् तु धारयेद् वेगं तावदप्रयतो भवेत्॥

मूलम्

प्राप्तमूत्रपुरीषस्तु न स्पृशेद् वह्निमात्मवान्।
यावत् तु धारयेद् वेगं तावदप्रयतो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मल या मूत्रकी हाजत होनेपर बुद्धिमान् पुरुषको अग्निका स्पर्श नहीं करना चाहिये, क्योंकि जबतक यह मल-मूत्रका वेग धारण करता है, तबतक अशुद्ध रहता है॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीदृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।
कीदृशेभ्यो हि दातव्यं तन्मे ब्रूहि जनार्दन॥

मूलम्

कीदृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।
कीदृशेभ्यो हि दातव्यं तन्मे ब्रूहि जनार्दन॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— जनार्दन! जिनको दान देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है, वे श्रेष्ठ ब्राह्मण कैसे होते हैं तथा किस प्रकारके ब्राह्मणोंको दान देना चाहिये? यह मुझे बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रोधनाः सत्यपरा धर्मनित्या जितेन्द्रियाः।
तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥

मूलम्

अक्रोधनाः सत्यपरा धर्मनित्या जितेन्द्रियाः।
तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान्‌ने कहा— राजन्! जो क्रोध न करनेवाले, सत्यपरायण, सदा धर्ममें लगे रहनेवाले और जितेन्द्रिय हों, वे ही श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं तथा उन्हींको दान देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमानिनः सर्वसहा दृष्टार्था विजितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥

मूलम्

अमानिनः सर्वसहा दृष्टार्था विजितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अभिमानशून्य, सब कुछ सहनेवाले, शास्त्रीय अर्थके ज्ञाता, इन्द्रियजयी, सम्पूर्ण प्राणियोंके हितकारी, सबके साथ मैत्रीका भाव रखनेवाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान् फलदायक है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलुब्धाः शुचयो वैद्या ह्रीमन्तः सत्यवादिनः।
स्वधर्मनिरता ये तु तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥

मूलम्

अलुब्धाः शुचयो वैद्या ह्रीमन्तः सत्यवादिनः।
स्वधर्मनिरता ये तु तेभ्यो दत्तं महाफलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो निर्लोभ, पवित्र, विद्वान्, संकोची, सत्यवादी और स्वधर्मपरायण हों, उनको दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साङ्गांश्च चतुरो वेदान् योऽधीयेत दिने दिने।
शूद्रान्नं यस्य नो देहे तत् पात्रमृषयो विदुः॥

मूलम्

साङ्गांश्च चतुरो वेदान् योऽधीयेत दिने दिने।
शूद्रान्नं यस्य नो देहे तत् पात्रमृषयो विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रतिदिन अंगोंसहित चारों वेदोंका स्वाध्याय करता हो और उसके उदरमें शूद्रका अन्न न पड़ा हो, उसको ऋषियोंने दानका उत्तम पात्र माना है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः।
तारयेत् तत्कुलं सर्वमेकोऽपीह युधिष्ठिर॥

मूलम्

प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः।
तारयेत् तत्कुलं सर्वमेकोऽपीह युधिष्ठिर॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! यदि शुद्ध बुद्धि, शास्त्रीय ज्ञान, सदाचार और उत्तम शीलसे युक्त एक ब्राह्मण भी दान ग्रहण कर ले तो वह दाताके समस्त कुलका उद्धार कर देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गामश्वमन्नं वित्तं वा तद्विधे प्रतिपादयेत्।
निशम्य तु गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसम्मतम्।
दूरादाहृत्य सत्कृत्य तं प्रयत्नेन पूजयेत्॥

मूलम्

गामश्वमन्नं वित्तं वा तद्विधे प्रतिपादयेत्।
निशम्य तु गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसम्मतम्।
दूरादाहृत्य सत्कृत्य तं प्रयत्नेन पूजयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे ब्राह्मणको गाय, घोड़ा, अन्न और धन देना चाहिये। सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित किसी गुणवान् ब्राह्मणका नाम सुनकर उसे दूरसे भी बुलाना और प्रयत्नपूर्वक उसका सत्कार तथा पूजन करना चाहिये॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माधर्मविधिस्त्वेवं भीष्मेण सम्प्रभाषितम् ।
भीष्मवाक्यात् सारभूतं वद धर्मं सुरेश्वर॥

मूलम्

धर्माधर्मविधिस्त्वेवं भीष्मेण सम्प्रभाषितम् ।
भीष्मवाक्यात् सारभूतं वद धर्मं सुरेश्वर॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— देवेश्वर! धर्म और अधर्मकी इस विधिका भीष्मजीने विस्तारके साथ वर्णन किया था। आप उनके वचनोंमेंसे सारभूत धर्म छाँटकर बतलाइये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नेन धार्यते सर्वं जगदेतच्चराचरम्।
अन्नात् प्रभवति प्राणः प्रत्यक्षं नास्ति संशयः॥

मूलम्

अन्नेन धार्यते सर्वं जगदेतच्चराचरम्।
अन्नात् प्रभवति प्राणः प्रत्यक्षं नास्ति संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् बोले— राजन्! समस्त चराचर जगत् अन्नके ही आधारपर टिका हुआ है। अन्नसे प्राणकी उत्पत्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष है; इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलत्रं पीडयित्वा तु देशो काले च शक्तितः।
दातव्यं भिक्षवे चान्नमात्मनो भूतिमिच्छता॥

मूलम्

कलत्रं पीडयित्वा तु देशो काले च शक्तितः।
दातव्यं भिक्षवे चान्नमात्मनो भूतिमिच्छता॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको स्त्रीको कष्ट देकर अर्थात् उसके भोजनमेंसे बचाकर भी देश और कालका विचार करके भिक्षुकको शक्तिके अनुसार अवश्य अन्नदान करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रमध्वपरिश्रान्तं बालं वृद्धमथापि वा।
अर्चयेद् गुरुवत् प्रीतो गृहस्थो गृहमागतम्॥

मूलम्

विप्रमध्वपरिश्रान्तं बालं वृद्धमथापि वा।
अर्चयेद् गुरुवत् प्रीतो गृहस्थो गृहमागतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण बालक हो अथवा बूढ़ा, यदि वह रास्तेका थका-माँदा घरपर आ जाय तो गृहस्थ पुरुषको बड़ी प्रसन्नताके साथ गुरुकी भाँति उसका सत्कार करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः।
अर्चयेदतिथिं प्रीतः परत्र हितभूतये॥

मूलम्

क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः।
अर्चयेदतिथिं प्रीतः परत्र हितभूतये॥

अनुवाद (हिन्दी)

परलोकमें कल्याणकी प्राप्तिके लिये मनुष्यको अपने प्रकट हुए क्रोधको भी रोककर, मत्सरताका त्याग करके सुशीलता और प्रसन्नतापूर्वक अतिथिकी पूजा करनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिं नावमन्येत नानृतां गिरमीरयेत्।
न पृच्छेद् गोत्रचरणं नाधीतं वा कदाचन॥

मूलम्

अतिथिं नावमन्येत नानृतां गिरमीरयेत्।
न पृच्छेद् गोत्रचरणं नाधीतं वा कदाचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ पुरुष कभी अतिथिका अनादर न करे, उससे झूठी बात न कहे तथा उसके गोत्र, शाखा और अध्ययनके विषयमें भी कभी प्रश्न न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चण्डालो वा श्वपाको वा काले यः कश्चिदागतः।
अन्नेन पूजनीयः स्यात् परत्र हितमिच्छता॥

मूलम्

चण्डालो वा श्वपाको वा काले यः कश्चिदागतः।
अन्नेन पूजनीयः स्यात् परत्र हितमिच्छता॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजनके समयपर चाण्डाल या श्वपाक (महा चाण्डाल) भी घर आ जाय तो परलोकमें हित चाहनेवाले गृहस्थको अन्नके द्वारा उसका सत्कार करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिधाय तु गृहद्वारं भुङ्क्ते योऽन्नं प्रहृष्टवान्।
स्वर्गद्वारपिधानं वै कृतं तेन युधिष्ठिर॥

मूलम्

पिधाय तु गृहद्वारं भुङ्क्ते योऽन्नं प्रहृष्टवान्।
स्वर्गद्वारपिधानं वै कृतं तेन युधिष्ठिर॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो (किसी भिक्षुकके भयसे) अपने घरका दरवाजा बंद करके प्रसन्नतापूर्वक भोजन करता है, उसने मानो अपने लिये स्वर्गका दरवाजा बंद कर दिया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितॄन् देवानृषीन् विप्रानतिथींश्च निराश्रयान्।
यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत्॥

मूलम्

पितॄन् देवानृषीन् विप्रानतिथींश्च निराश्रयान्।
यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्मणों, अतिथियों और निराश्रय मनुष्योंको अन्नसे तृप्त करता है, उसको महान् पुण्यफलकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा तु पापं बहुशो यो दद्यादन्नमर्थिने।
ब्राह्मणाय विशेषेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

मूलम्

कृत्वा तु पापं बहुशो यो दद्यादन्नमर्थिने।
ब्राह्मणाय विशेषेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने अपने जीवनमें बहुत-से पाप किये हों, वह भी यदि याचक ब्राह्मणको विशेषरूपसे अन्नदान करता है तो सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नदः प्राणदो लोके प्राणदः सर्वदो भवेत्।
तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता॥

मूलम्

अन्नदः प्राणदो लोके प्राणदः सर्वदो भवेत्।
तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें अन्न देनेवाला पुरुष प्राणदाता माना जाता है और जो प्राणदाता है, वही सब कुछ देनेवाला है। अतः कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अन्नका दान विशेषरूपसे करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं ह्यमृतमित्याहुरन्नं प्रजननं स्मृतम्।
अन्नप्रणाशे सीदन्ति शरीरे पञ्च धातवः॥

मूलम्

अन्नं ह्यमृतमित्याहुरन्नं प्रजननं स्मृतम्।
अन्नप्रणाशे सीदन्ति शरीरे पञ्च धातवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्नको अमृत कहते हैं और अन्न ही प्रजाको जन्म देनेवाला माना गया है। अन्नके नाश होनेपर शरीरके पाँचों धातुओंका नाश हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं बलवतो नश्येदन्नहीनस्य देहिनः।
तस्मादन्नं विशेषेण श्रद्धयाश्रद्धयापि वा॥

मूलम्

बलं बलवतो नश्येदन्नहीनस्य देहिनः।
तस्मादन्नं विशेषेण श्रद्धयाश्रद्धयापि वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् पुरुष भी यदि अन्नका त्याग कर दे तो उसका बल नष्ट हो जाता है। इसलिये श्रद्धासे हो या अश्रद्धासे, अधिक चेष्टा करके अन्न-दान देना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदत्ते हि रसं सर्वमादित्यः स्वगभस्तिभिः।
वायुस्तस्मात् समादाय रसं मेघेषु धारयेत्॥

मूलम्

आदत्ते हि रसं सर्वमादित्यः स्वगभस्तिभिः।
वायुस्तस्मात् समादाय रसं मेघेषु धारयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य अपनी किरणोंसे पृथ्वीका सारा रस खींचते हैं और हवा उसे लेकर बादलोंमें स्थापित कर देती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तु मेघगतं भूमौ शक्रो वर्षति तादृशम्।
तेन दिग्धा भवेद् देवी मही प्रीता च भारत॥

मूलम्

तत् तु मेघगतं भूमौ शक्रो वर्षति तादृशम्।
तेन दिग्धा भवेद् देवी मही प्रीता च भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! बादलोंमें पड़े हुए उस रसको इन्द्र पुनः इस पृथ्वीपर बरसाते हैं। उससे आप्लावित होकर पृथ्वी देवी तृप्त होती हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां सस्यानि रोहन्ति यैर्जीवन्त्यखिलाः प्रजाः।
मांसमेदोऽस्थिमज्जानां सम्भवस्तेभ्य एव हि॥

मूलम्

तस्यां सस्यानि रोहन्ति यैर्जीवन्त्यखिलाः प्रजाः।
मांसमेदोऽस्थिमज्जानां सम्भवस्तेभ्य एव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उसमेंसे अन्नके पौधे उगते हैं, जिनसे सम्पूर्ण प्रजाका जीवन-निर्वाह होता है। मांस, मेद, अस्थि और मज्जाकी उत्पत्ति नाना प्रकारके अन्नसे ही होती है॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)