०९१

भागसूचना

एकनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्मकी निन्दा

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञे सक्ता नृपतयस्तपःसक्ता महर्षयः।
शान्तिव्यवस्थिता विप्राः शमे दम इति प्रभो ॥ १ ॥

मूलम्

यज्ञे सक्ता नृपतयस्तपःसक्ता महर्षयः।
शान्तिव्यवस्थिता विप्राः शमे दम इति प्रभो ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने कहा— प्रभो! राजालोग यज्ञमें संलग्न होते हैं, महर्षि तपस्यामें तत्पर रहते हैं और ब्राह्मणलोग शान्ति (मनोनिग्रह)-में स्थित होते हैं। मनका निग्रह हो जानेपर इन्द्रियोंका संयम स्वतः सिद्ध हो जाता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् यज्ञफलैस्तुल्यं न किंचिदिह दृश्यते।
इति मे वर्तते बुद्धिस्तथा चैतदसंशयम् ॥ २ ॥

मूलम्

तस्माद् यज्ञफलैस्तुल्यं न किंचिदिह दृश्यते।
इति मे वर्तते बुद्धिस्तथा चैतदसंशयम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः यज्ञफलकी समानता करनेवाला कोई कर्म यहाँ मुझे नहीं दिखायी देता है। यज्ञके सम्बन्धमें मेरा तो ऐसा ही विचार है और निःसंदेह यही ठीक है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञैरिष्ट्वा तु बहवो राजानो द्विजसत्तमाः।
इह कीर्तिं परां प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमवाप्नुयुः ॥ ३ ॥

मूलम्

यज्ञैरिष्ट्वा तु बहवो राजानो द्विजसत्तमाः।
इह कीर्तिं परां प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमवाप्नुयुः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञोंका अनुष्ठान करके बहुत-से राजा और श्रेष्ठ ब्राह्मण इहलोकमें उत्तम कीर्ति पाकर मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें गये हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवराजः सहस्राक्षः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
देवराज्यं महातेजाः प्राप्तवानखिलं विभुः ॥ ४ ॥

मूलम्

देवराजः सहस्राक्षः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
देवराज्यं महातेजाः प्राप्तवानखिलं विभुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्र नेत्रधारी महातेजस्वी देवराज भगवान् इन्द्रने बहुत-सी दक्षिणावाले बहुसंख्यक यज्ञोंका अनुष्ठान करके देवताओंका समस्त साम्राज्य प्राप्त किया था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा युधिष्ठिरो राजा भीमार्जुनपुरःसरः।
सदृशो देवराजेन समृद्ध्या विक्रमेण च ॥ ५ ॥

मूलम्

यदा युधिष्ठिरो राजा भीमार्जुनपुरःसरः।
सदृशो देवराजेन समृद्ध्या विक्रमेण च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीम और अर्जुनको आगे रखकर राजा युधिष्ठिर भी समृद्धि और पराक्रमकी दृष्टिसे देवराज इन्द्रके ही तुल्य थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कस्मात् स नकुलो गर्हयामास तं क्रतुम्।
अश्वमेधं महायज्ञं राज्ञस्तस्य महात्मनः ॥ ६ ॥

मूलम्

अथ कस्मात् स नकुलो गर्हयामास तं क्रतुम्।
अश्वमेधं महायज्ञं राज्ञस्तस्य महात्मनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उस नेवलेने महात्मा राजा युधिष्ठिरके उस अश्वमेध नामक महायज्ञकी निन्दा क्यों की?॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञस्य विधिमग्र्यं वै फलं चापि नराधिप।
गदतः शृणु मे राजन् यथावदिह भारत ॥ ७ ॥

मूलम्

यज्ञस्य विधिमग्र्यं वै फलं चापि नराधिप।
गदतः शृणु मे राजन् यथावदिह भारत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— नरेश्वर! भरतनन्दन! मैं यज्ञकी श्रेष्ठ विधि और फलका यहाँ यथावत् वर्णन करता हूँ, तुम मेरा कथन सुनो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा शक्रस्य यजतः सर्व ऊचुर्महर्षयः।
ऋत्विक्षु कर्मव्यग्रेषु वितते यज्ञकर्मणि ॥ ८ ॥
हूयमाने तथा वह्नौ होत्रे गुणसमन्विते।
देवेष्वाहूयमानेषु स्थितेषु परमर्षिषु ॥ ९ ॥
सुप्रतीतैस्तथा विप्रैः स्वागमैः सुस्वरैर्नृप।
अश्रान्तैश्चापि लघुभिरध्वर्युवृषभैस्तथा ॥ १० ॥
आलम्भसमये तस्मिन् गृहीतेषु पशुष्वथ।
महर्षयो महाराज बभूवुः कृपयान्विताः ॥ ११ ॥

मूलम्

पुरा शक्रस्य यजतः सर्व ऊचुर्महर्षयः।
ऋत्विक्षु कर्मव्यग्रेषु वितते यज्ञकर्मणि ॥ ८ ॥
हूयमाने तथा वह्नौ होत्रे गुणसमन्विते।
देवेष्वाहूयमानेषु स्थितेषु परमर्षिषु ॥ ९ ॥
सुप्रतीतैस्तथा विप्रैः स्वागमैः सुस्वरैर्नृप।
अश्रान्तैश्चापि लघुभिरध्वर्युवृषभैस्तथा ॥ १० ॥
आलम्भसमये तस्मिन् गृहीतेषु पशुष्वथ।
महर्षयो महाराज बभूवुः कृपयान्विताः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! प्राचीन कालकी बात है, जब इन्द्रका यज्ञ हो रहा था और सब महर्षि मन्त्रोच्चारण कर रहे थे, ऋत्विज्‌लोग अपने-अपने कर्मोंमें लगे थे, यज्ञका काम बड़े समारोह और विस्तारके साथ चल रहा था, उत्तम गुणोंसे युक्त आहुतियोंका अग्निमें हवन किया जा रहा था, देवताओंका आवाहन हो रहा था, बड़े-बड़े महर्षि खड़े थे, ब्राह्मणलोग बड़ी प्रसन्नताके साथ वेदोक्त मन्त्रोंका उत्तम स्वरसे पाठ करते थे और शीघ्रकारी उत्तम अध्वर्युगण बिना किसी थकावटके अपने कर्तव्यका पालन कर रहे थे। इतनेहीमें पशुओंके आलम्भका समय आया। महाराज! जब पशु पकड़ लिये गये, तब महर्षियोंको उनपर बड़ी दया आयी॥८—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दीनान् पशून् दृष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः।
ऊचुः शक्रंः समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो दीनान् पशून् दृष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः।
ऊचुः शक्रंः समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन पशुओंकी दयनीय अवस्था देखकर वे तपोधन ऋषि इन्द्रके पास जाकर बोले—‘यह जो यज्ञमें पशुवधका विधान है, यह शुभकारक नहीं है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरिज्ञानमेतत् ते महान्तं धर्ममिच्छतः।
न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरंदर ॥ १३ ॥

मूलम्

अपरिज्ञानमेतत् ते महान्तं धर्ममिच्छतः।
न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरंदर ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरंदर! आप महान् धर्मकी इच्छा करते हैं तो भी जो पशुवधके लिये उद्यत हो गये हैं, यह आपका अज्ञान ही है; क्योंकि यज्ञमें पशुओंके वधका विधान शास्त्रमें नहीं देखा गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो ।
नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो ।
नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! आपने जो यज्ञका समारम्भ किया है, यह धर्मको हानि पहुँचानेवाला है। यह यज्ञ धर्मके अनुकूल नहीं है, क्योंकि हिंसाको कहीं भी धर्म नहीं कहा गया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमेनैव ते यज्ञं कुर्वन्तु यदि चेच्छसि ॥ १५ ॥
विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्ते सुमहान् भवेत्।

मूलम्

आगमेनैव ते यज्ञं कुर्वन्तु यदि चेच्छसि ॥ १५ ॥
विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्ते सुमहान् भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि आपकी इच्छा हो तो ब्राह्मणलोग शास्त्रके अनुसार ही इस यज्ञका अनुष्ठान करें। शास्त्रीय विधिके अनुसार यज्ञ करनेसे आपको महान् धर्मकी प्राप्ति होगी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज बीजैः सहस्राक्ष त्रिवर्षपरमोषितैः ॥ १६ ॥
एष धर्मो महान् शक्र महागुणफलोदयः।

मूलम्

यज बीजैः सहस्राक्ष त्रिवर्षपरमोषितैः ॥ १६ ॥
एष धर्मो महान् शक्र महागुणफलोदयः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सहस्र नेत्रधारी इन्द्र! आप तीन वर्षके पुराने बीजों (जौ, गेहूँ आदि अनाजों)-से यज्ञ करें। यही महान् धर्म है और महान् गुणकारक फलकी प्राप्ति करानेवाला है’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतक्रतुस्तु तद् वाक्यमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १७ ॥
उक्तं न प्रतिजग्राह मानान्मोहवशं गतः।

मूलम्

शतक्रतुस्तु तद् वाक्यमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १७ ॥
उक्तं न प्रतिजग्राह मानान्मोहवशं गतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्त्वदर्शी ऋषियोंके कहे हुए इस वचनको इन्द्रने अभिमानवश नहीं स्वीकार किया। वे मोहके वशीभूत हो गये थे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां विवादः सुमहान् शक्रयज्ञे तपस्विनाम् ॥ १८ ॥
जङ्गमैः स्थावरैर्वापि यष्टव्यमिति भारत।

मूलम्

तेषां विवादः सुमहान् शक्रयज्ञे तपस्विनाम् ॥ १८ ॥
जङ्गमैः स्थावरैर्वापि यष्टव्यमिति भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके उस यज्ञमें जुटे हुए तपस्वी लोगोंमें इस प्रश्नको लेकर महान् विवाद खड़ा हो गया। भारत! एक पक्ष कहता था कि जंगम पदार्थ (पशु आदि)-के द्वारा यज्ञ करना चाहिये और दूसरा पक्ष कहता था कि स्थावर वस्तुओं (अन्न-फल आदि)-के द्वारा यजन करना उचित है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु खिन्ना विवादेन ऋषयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ १९ ॥
तदा संधाय शक्रेण पप्रच्छुर्नृपतिं वसुम्।
धर्मसंशयमापन्नान् सत्यं ब्रूहि महामते ॥ २० ॥

मूलम्

ते तु खिन्ना विवादेन ऋषयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ १९ ॥
तदा संधाय शक्रेण पप्रच्छुर्नृपतिं वसुम्।
धर्मसंशयमापन्नान् सत्यं ब्रूहि महामते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! वे तत्त्वदर्शी ऋषि जब इस विवादसे बहुत खिन्न हो गये, तब उन्होंने इन्द्रके साथ सलाह लेकर इस विषयमें राजा उपरिचर वसुसे पूछा—‘महामते! हमलोग धर्मविषयक संदेहमें पड़े हुए हैं। आप हमसे सच्ची बात बताइये॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभाग कथं यज्ञेष्वागमो नृपसत्तम।
यष्टव्यं पशुभिर्मुख्यैरथो बीजै रसैरिति ॥ २१ ॥

मूलम्

महाभाग कथं यज्ञेष्वागमो नृपसत्तम।
यष्टव्यं पशुभिर्मुख्यैरथो बीजै रसैरिति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग नृपश्रेष्ठ! यज्ञोंके विषयमें शास्त्रका मत कैसा है? मुख्य-मुख्य पशुओंद्वारा यज्ञ करना चाहिये अथवा बीजों एवं रसोंद्वारा’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा तु वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।
यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति प्रोवाच पार्थिवः ॥ २२ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा तु वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।
यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति प्रोवाच पार्थिवः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर राजा वसुने उन दोनों पक्षोंके कथनमें कितना सार या असार है, इसका विचार न करके यों ही बोल दिया कि ‘जब जो वस्तु मिल जाय, उसीसे यज्ञ कर लेना चाहिये’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
उक्त्वाथ वितथं प्रश्नं चेदीनामीश्वरः प्रभुः ॥ २३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
उक्त्वाथ वितथं प्रश्नं चेदीनामीश्वरः प्रभुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कहकर असत्य निर्णय देनेके कारण चेदिराज वसुको रसातलमें जाना पड़ा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्न वाच्यं ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशये।
प्रजापतिमपाहाय स्वयम्भुवमृते प्रभुम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्मान्न वाच्यं ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशये।
प्रजापतिमपाहाय स्वयम्भुवमृते प्रभुम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कोई संदेह उपस्थित होनेपर स्वयम्भू भगवान् प्रजापतिको छोड़कर अन्य किसी बहुज्ञ पुरुषको भी अकेले कोई निर्णय नहीं देना चाहिये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन दत्तानि दानानि पापेनाशुद्धबुद्धिना।
तानि सर्वाण्यनादृत्य नश्यन्ति विपुलान्यपि ॥ २५ ॥

मूलम्

तेन दत्तानि दानानि पापेनाशुद्धबुद्धिना।
तानि सर्वाण्यनादृत्य नश्यन्ति विपुलान्यपि ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अशुद्ध बुद्धिवाले पापी पुरुषके दिये हुए दान कितने ही अधिक क्यों न हों, वे सब-के-सब अनाहत होकर नष्ट हो जाते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याधर्मप्रवृत्तस्य हिंसकस्य दुरात्मनः ।
दानेन कीर्तिर्भवति न प्रेत्येह च दुर्मतेः ॥ २६ ॥

मूलम्

तस्याधर्मप्रवृत्तस्य हिंसकस्य दुरात्मनः ।
दानेन कीर्तिर्भवति न प्रेत्येह च दुर्मतेः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधर्ममें प्रवृत्त हुए दुर्बुद्धि दुरात्मा हिंसक मनुष्य जो दान देते हैं, उससे इहलोक या परलोकमें उनकी कीर्ति नहीं होती॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यायोपगतं द्रव्यमभीक्ष्णं यो ह्यपण्डितः।
धर्माभिशंकी यजते न स धर्मफलं लभेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

अन्यायोपगतं द्रव्यमभीक्ष्णं यो ह्यपण्डितः।
धर्माभिशंकी यजते न स धर्मफलं लभेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख अन्यायोपार्जित धनका बारंबार संग्रह करके धर्मके विषयमें संशय रखते हुए यजन करता है, उसे धर्मका फल नहीं मिलता॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मवैतंसिको यस्तु पापात्मा पुरुषाधमः।
ददाति दानं विप्रेभ्यो लोकविश्वासकारणम् ॥ २८ ॥

मूलम्

धर्मवैतंसिको यस्तु पापात्मा पुरुषाधमः।
ददाति दानं विप्रेभ्यो लोकविश्वासकारणम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मध्वजी, पापात्मा एवं नराधम है, वह लोकमें अपना विश्वास जमानेके लिये ब्राह्मणोंको दान देता है, धर्मके लिये नहीं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापेन कर्मणा विप्रो धनं प्राप्य निरङ्कुशः।
रागमोहान्वितः सोऽन्ते कलुषां गतिमश्नुते ॥ २९ ॥

मूलम्

पापेन कर्मणा विप्रो धनं प्राप्य निरङ्कुशः।
रागमोहान्वितः सोऽन्ते कलुषां गतिमश्नुते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण पापकर्मसे धन पाकर उच्छृंखल हो राग और मोहके वशीभूत हो जाता है, वह अन्तमें कलुषित गतिको प्राप्त होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि संचयबुद्धिर्हि लोभमोहवशंगतः ।
उद्वेजयति भूतानि पापेनाशुद्धबुद्धिना ॥ ३० ॥

मूलम्

अपि संचयबुद्धिर्हि लोभमोहवशंगतः ।
उद्वेजयति भूतानि पापेनाशुद्धबुद्धिना ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह लोभ और मोहके वशमें पड़कर संग्रह करनेकी बुद्धिको अपनाता है। कृपणतापूर्वक पैसे बटोरनेका विचार रखता है। फिर बुद्धिको अशुद्ध कर देनेवाले पापाचारके द्वारा प्राणियोंको उद्वेगमें डाल देता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं लब्ध्वा धनं मोहाद् यो हि दद्याद् यजेत वा।
न तस्य स फलं प्रेत्य भुङ्क्ते पापधनागमात् ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवं लब्ध्वा धनं मोहाद् यो हि दद्याद् यजेत वा।
न तस्य स फलं प्रेत्य भुङ्क्ते पापधनागमात् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जो मोहवश अन्यायसे धनका उपार्जन करके उसके द्वारा दान या यज्ञ करता है, वह मरनेके बाद भी उसका फल नहीं पाता; क्योंकि वह धन पापसे मिला हुआ होता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उञ्छं मूलं फलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः।
दानं विभवतो दत्त्वा नराः स्वर्यान्ति धार्मिकाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

उञ्छं मूलं फलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः।
दानं विभवतो दत्त्वा नराः स्वर्यान्ति धार्मिकाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्याके धनी धर्मात्मा पुरुष उञ्छ (बीने हुए अन्न), फल, मूल, शाक और जलपात्रका ही अपनी शक्तिके अनुसार दान करके स्वर्गलोकमें चले जाते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा ॥ ३३ ॥
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्।
श्रूयन्ते हि पुरा वृत्ता विश्वामित्रादयो नृपाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा ॥ ३३ ॥
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्।
श्रूयन्ते हि पुरा वृत्ता विश्वामित्रादयो नृपाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यही धर्म है, यही महान् योग है, दान, प्राणियोंपर दया, ब्रह्मचर्य, सत्य, करुणा, धृति और क्षमा—ये सनातन धर्मके सनातन मूल हैं। सुना जाता है कि पूर्वकालमें विश्वामित्र आदि नरेश इसीसे सिद्धिको प्राप्त हुए थे॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रोऽसितश्चैव जनकश्च महीपतिः ।
कक्षसेनार्ष्टिषेणौ च सिन्धुद्वीपश्च पार्थिवः ॥ ३५ ॥
एते चान्ये च बहवः सिद्धिं परमिकां गताः।
नृपाः सत्यैश्च दानैश्च न्यायलब्धैस्तपोधनाः ॥ ३६ ॥

मूलम्

विश्वामित्रोऽसितश्चैव जनकश्च महीपतिः ।
कक्षसेनार्ष्टिषेणौ च सिन्धुद्वीपश्च पार्थिवः ॥ ३५ ॥
एते चान्ये च बहवः सिद्धिं परमिकां गताः।
नृपाः सत्यैश्च दानैश्च न्यायलब्धैस्तपोधनाः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्र, असित, राजा जनक, कक्षसेन, आर्ष्टिषेण और भूपाल सिन्धुद्वीप—ये तथा अन्य बहुत-से राजा तथा तपस्वी न्यायोपार्जित धनके दान और सत्यभाषणद्वारा परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपः।
दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत ॥ ३७ ॥

मूलम्

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपः।
दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जो भी तपका आश्रय लेते हैं, वे दानधर्मरूपी अग्निसे तपकर सुवर्णके समान शुद्ध हो स्वर्गलोकको जाते हैं॥३७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि हिंसामिश्रधर्मनिन्दायामेकनवतितमोऽध्यायः ॥ ९१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें हिंसामिश्रित धर्मकी निन्दाविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९१॥