भागसूचना
सप्ताशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनके विषयमें श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरकी बातचीत, अर्जुनका हस्तिनापुरमें जाना तथा उलूपी और चित्राङ्गदाके साथ बभ्रुवाहनका आगमन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं प्रियमिदं कृष्ण यत् त्वमर्हसि भाषितुम्।
तन्मेऽमृतरसं पुण्यं मनो ह्लादयति प्रभो ॥ १ ॥
मूलम्
श्रुतं प्रियमिदं कृष्ण यत् त्वमर्हसि भाषितुम्।
तन्मेऽमृतरसं पुण्यं मनो ह्लादयति प्रभो ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— प्रभो! श्रीकृष्ण! मैंने यह प्रिय संदेश सुना, जिसे आप ही कहने या सुनानेके योग्य हैं। आपका यह अमृतरससे परिपूर्ण पवित्र वचन मेरे मनको आनन्दमग्न किये देता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनि किल युद्धानि विजयस्य नराधिपैः।
पुनरासन् हृषीकेश तत्र तत्र च मे श्रुतम् ॥ २ ॥
मूलम्
बहूनि किल युद्धानि विजयस्य नराधिपैः।
पुनरासन् हृषीकेश तत्र तत्र च मे श्रुतम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हृषीकेश! मेरे सुननेमें आया है कि भिन्न-भिन्न देशोंमें वहाँके राजाओंके साथ अर्जुनको कई बार युद्ध करने पड़े हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं निमित्तं स नित्यं हि पार्थः सुखविवर्जितः।
अतीव विजयो धीमन्निति मे दूयते मनः ॥ ३ ॥
संचिन्तयामि कौन्तेयं रहो जिष्णुं जनार्दन।
अतीव दुःखभागी स सततं पाण्डुनन्दनः ॥ ४ ॥
मूलम्
किं निमित्तं स नित्यं हि पार्थः सुखविवर्जितः।
अतीव विजयो धीमन्निति मे दूयते मनः ॥ ३ ॥
संचिन्तयामि कौन्तेयं रहो जिष्णुं जनार्दन।
अतीव दुःखभागी स सततं पाण्डुनन्दनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसका क्या कारण है? बुद्धिमान् जनार्दन! जब मैं एकान्तमें बैठकर अर्जुनके बारेमें विचार करता हूँ, तब यह जानकर मेरा मन खिन्न हो जाता है कि हमलोगोंमें वे ही सदा सबसे अधिक दुःखके भागी रहे हैं। पाण्डुनन्दन अर्जुन सुखसे वंचित क्यों रहते हैं? यह समझमें नहीं आता॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु तस्य शरीरेऽस्ति सर्वलक्षणपूजिते।
अनिष्टं लक्षणं कृष्ण येन दुःखान्युपाश्नुते ॥ ५ ॥
मूलम्
किं नु तस्य शरीरेऽस्ति सर्वलक्षणपूजिते।
अनिष्टं लक्षणं कृष्ण येन दुःखान्युपाश्नुते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! उनका शरीर तो सभी शुभलक्षणोंसे सम्पन्न है। फिर उसमें अशुभ लक्षण कौन-सा है, जिससे उन्हें अधिक दुःख उठाना पड़ता है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीवासुखभोगी स सततं कुन्तिनन्दनः।
न हि पश्यामि बीभत्सोर्निन्द्यं गात्रेषु किंचन।
श्रोतव्यं चेन्मयैतद् वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥
मूलम्
अतीवासुखभोगी स सततं कुन्तिनन्दनः।
न हि पश्यामि बीभत्सोर्निन्द्यं गात्रेषु किंचन।
श्रोतव्यं चेन्मयैतद् वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन अर्जुन सदा अधिक कष्ट भोगते हैं; परंतु उनके अंगोंमें कहीं कोई निन्दनीय दोष नहीं दिखायी देता है। ऐसी दशामें उन्हें कष्ट भोगनेका कारण क्या है? यह मैं सुनना चाहता हूँ। आप मुझे विस्तारपूर्वक यह बात बतावें॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स हृषीकेशो ध्यात्वा सुमहदुत्तरम्।
राजानं भोजराजन्यवर्धनो विष्णुरब्रवीत् ॥ ७ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स हृषीकेशो ध्यात्वा सुमहदुत्तरम्।
राजानं भोजराजन्यवर्धनो विष्णुरब्रवीत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर भोजवंशी क्षत्रियोंकी वृद्धि करनेवाले भगवान् हृषीकेश विष्णुने बहुत देरतक उत्तम रीतिसे चिन्तन करनेके बाद राजा युधिष्ठिरसे यों कहा—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यस्य नृपते किंचित् संश्लिष्टमुपलक्षये।
ऋते पुरुषसिंहस्य पिण्डिकेऽस्याधिके यतः ॥ ८ ॥
मूलम्
न ह्यस्य नृपते किंचित् संश्लिष्टमुपलक्षये।
ऋते पुरुषसिंहस्य पिण्डिकेऽस्याधिके यतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! पुरुषसिंह अर्जुनकी पिण्डलियाँ (फिल्लियाँ) औसतसे कुछ अधिक मोटी हैं। इसके सिवा और कोई अशुभ लक्षण उनके शरीरमें मुझे भी नहीं दिखायी देता है’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ताभ्यां पुरुषव्याघ्रो नित्यमध्वसु वर्तते।
न चान्यदनुपश्यामि येनासौ दुःखभाजनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
स ताभ्यां पुरुषव्याघ्रो नित्यमध्वसु वर्तते।
न चान्यदनुपश्यामि येनासौ दुःखभाजनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन मोटी फिल्लियोंके कारण ही पुरुषसिंह अर्जुनको सदा रास्ता चलना पड़ता है। और कोई कारण मुझे नहीं दिखायी देता, जिससे उन्हें दुःख झेलना पड़े’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः पुरुषश्रेष्ठस्तदा कृष्णेन धीमता।
प्रोवाच वृष्णिशार्दूलमेवमेतदिति प्रभो ॥ १० ॥
मूलम्
इत्युक्तः पुरुषश्रेष्ठस्तदा कृष्णेन धीमता।
प्रोवाच वृष्णिशार्दूलमेवमेतदिति प्रभो ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! बुद्धिमान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर पुरुषश्रेष्ठ युधिष्ठिरने उन वृष्णिसिंहसे कहा—‘भगवन्! आपका कहना ठीक है’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णा तु द्रौपदी कृष्णं तिर्यक् सासूयमैक्षत।
प्रतिजग्राह तस्यास्तं प्रणयं चापि केशिहा ॥ ११ ॥
सख्युः सखा हृषीकेशः साक्षादिव धनंजयः।
मूलम्
कृष्णा तु द्रौपदी कृष्णं तिर्यक् सासूयमैक्षत।
प्रतिजग्राह तस्यास्तं प्रणयं चापि केशिहा ॥ ११ ॥
सख्युः सखा हृषीकेशः साक्षादिव धनंजयः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय द्रुपदकुमारी कृष्णाने भगवान् श्रीकृष्णकी ओर तिरछी चितवनसे ईर्ष्यापूर्वक देखा। केशिहन्ता श्रीकृष्णने द्रौपदीके उस प्रेमपूर्ण उपालम्भको सानन्द ग्रहण किया; क्योंकि उसकी दृष्टिमें सखा अर्जुनके मित्र भगवान् हृषीकेश साक्षात् अर्जुनके ही समान थे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र भीमादयस्ते तु कुरवो याजकाश्च ये ॥ १२ ॥
रेमुः श्रुत्वा विचित्रां तां धनंजयकथां शुभाम्।
मूलम्
तत्र भीमादयस्ते तु कुरवो याजकाश्च ये ॥ १२ ॥
रेमुः श्रुत्वा विचित्रां तां धनंजयकथां शुभाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भीमसेन आदि कौरव और यज्ञ करानेवाले ब्राह्मणलोग अर्जुनके सम्बन्धमें यह शुभ एवं विचित्र बात सुनकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां कथयतामेव पुरुषोऽर्जुनसंकथाः ॥ १३ ॥
उपायाद् वचनाद् दूतो विजयस्य महात्मनः।
मूलम्
तेषां कथयतामेव पुरुषोऽर्जुनसंकथाः ॥ १३ ॥
उपायाद् वचनाद् दूतो विजयस्य महात्मनः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन लोगोंमें अर्जुनके सम्बन्धमें इस तरहकी बातें हो ही रही थीं कि महात्मा अर्जुनका भेजा हुआ दूत वहाँ आ पहुँचा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभिगम्य कुरुश्रेष्ठं नमस्कृत्य च बुद्धिमान् ॥ १४ ॥
उपायातं नरव्याघ्रं फाल्गुनं प्रत्यवेदयत्।
मूलम्
सोऽभिगम्य कुरुश्रेष्ठं नमस्कृत्य च बुद्धिमान् ॥ १४ ॥
उपायातं नरव्याघ्रं फाल्गुनं प्रत्यवेदयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
वह बुद्धिमान् दूत कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिरके पास जा उन्हें नमस्कार करके बोला—‘पुरुषसिंह अर्जुन निकट आ गये हैं’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा नृपतिस्तस्य हर्षबाष्पाकुलेक्षणः ॥ १५ ॥
प्रियाख्याननिमित्तं वै ददौ बहुधनं तदा।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा नृपतिस्तस्य हर्षबाष्पाकुलेक्षणः ॥ १५ ॥
प्रियाख्याननिमित्तं वै ददौ बहुधनं तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
यह शुभ समाचार सुनकर राजा युधिष्ठिरकी आँखोंमें आनन्दके आँसू छलक आये और यह प्रिय वृत्तान्त निवेदन करनेके कारण उस दूतको पुरस्काररूपमें उन्होंने बहुत-सा धन दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वितीये दिवसे महान् शब्दो व्यवर्धत ॥ १६ ॥
आगच्छति नरव्याघ्रे कौरवाणां धुरंधरे।
मूलम्
ततो द्वितीये दिवसे महान् शब्दो व्यवर्धत ॥ १६ ॥
आगच्छति नरव्याघ्रे कौरवाणां धुरंधरे।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दूसरे दिन कौरव-धुरंधर नरव्याघ्र अर्जुनके आते समय नगरमें महान् कोलाहल बढ़ गया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रेणुः समुद्भूतो विबभौ तस्य वाजिनः ॥ १७ ॥
अभितो वर्तमानस्य यथोच्चैःश्रवसस्तथा ।
मूलम्
ततो रेणुः समुद्भूतो विबभौ तस्य वाजिनः ॥ १७ ॥
अभितो वर्तमानस्य यथोच्चैःश्रवसस्तथा ।
अनुवाद (हिन्दी)
उच्चैःश्रवाके समान वेगवान् और पास ही विद्यमान उस यज्ञसम्बन्धी घोड़ेकी टापसे उड़ी हुई धूल आकाशमें अद्भुत शोभा पा रही थी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र हर्षकरी वाचो नराणां शुश्रुवेऽर्जुनः ॥ १८ ॥
दिष्ट्यासि पार्थ कुशली धन्यो राजा युधिष्ठिरः।
मूलम्
तत्र हर्षकरी वाचो नराणां शुश्रुवेऽर्जुनः ॥ १८ ॥
दिष्ट्यासि पार्थ कुशली धन्यो राजा युधिष्ठिरः।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अर्जुनने लोगोंके मुँहसे हर्ष बढ़ानेवाली बातें इस प्रकार सुनीं—‘पार्थ! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम सकुशल लौट आये। राजा युधिष्ठिर धन्य हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोऽन्यो हि पृथिवीं कृत्स्नां जित्वा हि युधि पार्थिवान्॥१९॥
चारयित्वा हयश्रेष्ठमुपागच्छेदृतेऽर्जुनात् ।
मूलम्
कोऽन्यो हि पृथिवीं कृत्स्नां जित्वा हि युधि पार्थिवान्॥१९॥
चारयित्वा हयश्रेष्ठमुपागच्छेदृतेऽर्जुनात् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अर्जुनके सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर पुरुष है जो समूची पृथ्वीको जीतकर युद्धमें राजाओंको परास्त करके और अपने श्रेष्ठ अश्वको सर्वत्र घुमाकर उसके साथ सकुशल लौट आ सके॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये व्यतीता महात्मानो राजानः सगरादयः ॥ २० ॥
तेषामपीदृशं कर्म न कदाचन शुश्रुम।
मूलम्
ये व्यतीता महात्मानो राजानः सगरादयः ॥ २० ॥
तेषामपीदृशं कर्म न कदाचन शुश्रुम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतीतकालमें जो सगर आदि महामनस्वी राजा हो गये हैं, उनका भी कभी ऐसा पराक्रम हमारे सुननेमें नहीं आया था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतदन्ये करिष्यन्ति भविष्या वसुधाधिपाः ॥ २१ ॥
यत् त्वं कुरुकुलश्रेष्ठ दुष्करं कृतवानसि।
मूलम्
नैतदन्ये करिष्यन्ति भविष्या वसुधाधिपाः ॥ २१ ॥
यत् त्वं कुरुकुलश्रेष्ठ दुष्करं कृतवानसि।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुकुलश्रेष्ठ! आपने जो दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है, उसे भविष्यमें होनेवाले दूसरे भूपाल नहीं कर सकेंगे’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं वदतां तेषां पुंसां कर्णसुखा गिरः ॥ २२ ॥
शृण्वन् विवेश धर्मात्मा फाल्गुनो यज्ञसंस्तरम्।
मूलम्
इत्येवं वदतां तेषां पुंसां कर्णसुखा गिरः ॥ २२ ॥
शृण्वन् विवेश धर्मात्मा फाल्गुनो यज्ञसंस्तरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कहते हुए लोगोंकी श्रवणसुखद बातें सुनते हुए धर्मात्मा अर्जुनने यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा सहामात्यः कृष्णश्च यदुनन्दनः ॥ २३ ॥
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य तं प्रत्युद्ययतुस्तदा।
मूलम्
ततो राजा सहामात्यः कृष्णश्च यदुनन्दनः ॥ २३ ॥
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य तं प्रत्युद्ययतुस्तदा।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मन्त्रियोंसहित राजा युधिष्ठिर तथा यदुनन्दन श्रीकृष्ण धृतराष्ट्रको आगे करके उनकी अगवानीके लिये आगे बढ़ आये थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभिवाद्य पितुः पादौ धर्मराजस्य धीमतः ॥ २४ ॥
भीमादींश्चापि सम्पूज्य पर्यष्वजत केशवम्।
मूलम्
सोऽभिवाद्य पितुः पादौ धर्मराजस्य धीमतः ॥ २४ ॥
भीमादींश्चापि सम्पूज्य पर्यष्वजत केशवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने पिता धृतराष्ट्र और बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरके चरणोंमें प्रणाम करके भीमसेन आदिका भी पूजन किया और श्रीकृष्णको हृदयसे लगाया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः समेत्यार्चितस्तांश्च प्रत्यर्च्याथ यथाविधि ॥ २५ ॥
विशश्राम महाबाहुस्तीरं लब्ध्वेव पारगः।
मूलम्
तैः समेत्यार्चितस्तांश्च प्रत्यर्च्याथ यथाविधि ॥ २५ ॥
विशश्राम महाबाहुस्तीरं लब्ध्वेव पारगः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबने मिलकर अर्जुनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। महाबाहु अर्जुनने भी उनका विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके उसी तरह विश्राम किया, जैसे समुद्रके पार जानेकी इच्छावाला पुरुष किनारेपर पहुँचकर विश्राम करता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु स राजा बभ्रुवाहनः ॥ २६ ॥
मातृभ्यां सहितो धीमान् कुरूनेव जगाम ह।
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु स राजा बभ्रुवाहनः ॥ २६ ॥
मातृभ्यां सहितो धीमान् कुरूनेव जगाम ह।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय बुद्धिमान् राजा बभ्रुवाहन अपनी दोनों माताओंके साथ कुरुदेशमें जा पहुँचा॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र वृद्धान् यथावत् स कुरूनन्यांश्च पार्थिवान् ॥ २७ ॥
अभिवाद्य महबाहुस्तैश्चापि प्रतिनन्दितः ।
प्रविवेश पितामह्याः कुन्त्या भवनमुत्तमम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तत्र वृद्धान् यथावत् स कुरूनन्यांश्च पार्थिवान् ॥ २७ ॥
अभिवाद्य महबाहुस्तैश्चापि प्रतिनन्दितः ।
प्रविवेश पितामह्याः कुन्त्या भवनमुत्तमम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर वह महाबाहु नरेश कुरुकुलके वृद्ध पुरुषों तथा अन्य राजाओंको विधिवत् प्रणाम करके स्वयं भी उनके द्वारा सत्कार पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। इसके बाद वह अपनी पितामही कुन्तीके सुन्दर महलमें गया॥२७-२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अर्जुनप्रत्यागमने सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अर्जुनका प्रत्यागमनविषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८७॥