०८६ अश्वमेधारम्भे

भागसूचना

षडशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरका भीमसेनको राजाओंकी पूजा करनेका आदेश और श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे अर्जुनका संदेश कहना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समागतान् वेदविदो राज्ञश्च पृथिवीश्वरान्।
दृष्ट्वा युधिष्ठिरो राजा भीमसेनमभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

समागतान् वेदविदो राज्ञश्च पृथिवीश्वरान्।
दृष्ट्वा युधिष्ठिरो राजा भीमसेनमभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! वहाँ आये हुए वेदवेत्ता विद्वानों और पृथ्वीका शासन करनेवाले राजाओंको देखकर राजा युधिष्ठिरने भीमसेनसे कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपयाता नरव्याघ्रा य एते पृथिवीश्वराः।
एतेषां क्रियतां पूजा पूजार्हा हि नराधिपाः ॥ २ ॥

मूलम्

उपयाता नरव्याघ्रा य एते पृथिवीश्वराः।
एतेषां क्रियतां पूजा पूजार्हा हि नराधिपाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाई! ये जो भूमण्डलका शासन करनेवाले राजा यहाँ पधारे हुए हैं, सभी पुरुषोंमें श्रेष्ठ एवं पूजाके योग्य हैं; अतः तुम इनकी यथोचित पूजा (सत्कार) करो’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तथा चक्रे नरेन्द्रेण यशस्विना।
भीमसेनो महातेजा यमाभ्यां सह पाण्डवः ॥ ३ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तथा चक्रे नरेन्द्रेण यशस्विना।
भीमसेनो महातेजा यमाभ्यां सह पाण्डवः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यशस्वी महाराजके इस प्रकार आदेश देनेपर महातेजस्वी पाण्डुपुत्र भीमसेनने नकुल और सहदेवको साथ लेकर सब राजाओंका युधिष्ठिरके आज्ञानुसार यथोचित सत्कार किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाभ्यगच्छद्‌गोविन्दो वृष्णिभिः सह धर्मजम्।
बलदेवं पुरस्कृत्य सर्वप्राणभृतां वरः ॥ ४ ॥
युयुधानेन सहितः प्रद्युम्नेन गदेन च।
निशठेनाथ साम्बेन तथैव कृतवर्मणा ॥ ५ ॥

मूलम्

अथाभ्यगच्छद्‌गोविन्दो वृष्णिभिः सह धर्मजम्।
बलदेवं पुरस्कृत्य सर्वप्राणभृतां वरः ॥ ४ ॥
युयुधानेन सहितः प्रद्युम्नेन गदेन च।
निशठेनाथ साम्बेन तथैव कृतवर्मणा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण बलदेवजीको आगे करके सात्यकि, प्रद्युम्न, गद, निशठ, साम्ब तथा कृतवर्मा आदि वृष्णिवंशियोंके साथ युधिष्ठिरके पास आये॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामपि परां पूजां चक्रे भीमो महारथः।
विविशुस्ते च वेश्मानि रत्नवन्ति च सर्वशः ॥ ६ ॥

मूलम्

तेषामपि परां पूजां चक्रे भीमो महारथः।
विविशुस्ते च वेश्मानि रत्नवन्ति च सर्वशः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी भीमसेनने उन लोगोंका भी विधिवत् सत्कार किया। फिर वे रत्नोंसे भरे-पूरे घरोंमें जाकर रहने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरसमीपे तु कथान्ते मधुसूदनः।
अर्जुनं कथयामास बहुसंग्रामकर्षितम् ॥ ७ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरसमीपे तु कथान्ते मधुसूदनः।
अर्जुनं कथयामास बहुसंग्रामकर्षितम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिरके पास बैठकर थोड़ी देरतक बातचीत करते रहे। उसीमें उन्होंने बताया—‘अर्जुन बहुत-से युद्धोंमें शत्रुओंका सामना करनेके कारण दुर्बल हो गये हैं’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं पप्रच्छ कौन्तेयः पुनः पुनररिंदमम्।
धर्मजः शक्रजं जिष्णुं समाचष्ट जगत्पतिः ॥ ८ ॥

मूलम्

स तं पप्रच्छ कौन्तेयः पुनः पुनररिंदमम्।
धर्मजः शक्रजं जिष्णुं समाचष्ट जगत्पतिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर धर्मपुत्र कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने शत्रुदमन इन्द्रकुमार अर्जुनके विषयमें बारम्बार उनसे पूछा। तब जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण उनसे इस प्रकार बोले—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमद् द्वारकावासी ममाप्तः पुरुषो नृप।
योऽद्राक्षीत् पाण्डवश्रेष्ठं बहुसंग्रामकर्षितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

आगमद् द्वारकावासी ममाप्तः पुरुषो नृप।
योऽद्राक्षीत् पाण्डवश्रेष्ठं बहुसंग्रामकर्षितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मेरे पास द्वारकाका रहनेवाला एक विश्वासपात्र मनुष्य आया था। उसने पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुनको अपनी आँखों देखा था। वे अनेक स्थानोंपर युद्ध करनेके कारण बहुत दुर्बल हो गये हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीपे च महाबाहुमाचष्ट च मम प्रभो।
कुरु कार्याणि कौन्तेय हयमेधार्थसिद्धये ॥ १० ॥

मूलम्

समीपे च महाबाहुमाचष्ट च मम प्रभो।
कुरु कार्याणि कौन्तेय हयमेधार्थसिद्धये ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! उसने यह भी बताया है कि महाबाहु अर्जुन अब निकट आ गये हैं। अतः कुन्तीनन्दन! अब आप अश्वमेधयज्ञकी सिद्धिके लिये आवश्यक कार्य आरम्भ कर दीजिये’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं धर्मराजो युधिष्ठिरः।
दिष्ट्या स कुशली जिष्णुरुपायाति च माधव ॥ ११ ॥

मूलम्

इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं धर्मराजो युधिष्ठिरः।
दिष्ट्या स कुशली जिष्णुरुपायाति च माधव ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने पुनः प्रश्न किया—‘माधव! बड़े सौभाग्यकी बात है कि अर्जुन सकुशल लौट रहे हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं संदिदेशास्मिन् पाण्डवानां बलाग्रणीः।
तदा ज्ञातुमिहेच्छामि भवता यदुनन्दन ॥ १२ ॥

मूलम्

यदिदं संदिदेशास्मिन् पाण्डवानां बलाग्रणीः।
तदा ज्ञातुमिहेच्छामि भवता यदुनन्दन ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदुनन्दन! पाण्डवसेनाके अग्रगामी अर्जुनने इस यज्ञके सम्बन्धमें जो कुछ संदेश दिया हो, उसे मैं आपके मुँहसे सुनना चाहता हूँ’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो धर्मराजेन वृष्ण्यन्धकपतिस्तदा ।
प्रोवाचेदं वचो वाग्मी धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् ॥ १३ ॥

मूलम्

इत्युक्तो धर्मराजेन वृष्ण्यन्धकपतिस्तदा ।
प्रोवाचेदं वचो वाग्मी धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराजके इस प्रकार पूछनेपर वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामी प्रवचनकुशल भगवान् श्रीकृष्णने धर्मात्मा युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा—॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमाह महाराज पार्थवाक्यं स्मरन् नरः।
वाच्यो युधिष्ठिरः कृष्ण काले वाक्यमिदं मम ॥ १४ ॥

मूलम्

इदमाह महाराज पार्थवाक्यं स्मरन् नरः।
वाच्यो युधिष्ठिरः कृष्ण काले वाक्यमिदं मम ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“महाराज! जो मनुष्य मेरे पास आया था, उसने अर्जुनकी बात याद करके मुझसे इस प्रकार कहा—‘श्रीकृष्ण! आप ठीक समयपर मेरा यह कथन महाराज युधिष्ठिरको सुना दीजियेगा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमिष्यन्ति राजानः सर्वे वै कौरवर्षभ।
प्राप्तानां महतां पूजा कार्या ह्येतत् क्षमं हि नः॥१५॥

मूलम्

आगमिष्यन्ति राजानः सर्वे वै कौरवर्षभ।
प्राप्तानां महतां पूजा कार्या ह्येतत् क्षमं हि नः॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

“(अर्जुन कहते हैं—) ‘कौरवश्रेष्ठ! अश्वमेधयज्ञमें प्रायः सभी राजा पधारेंगे। जो आ जायँ उन सबको महान् मानकर उन सबका पूर्ण सत्कार करना चाहिये। यही हमारे योग्य कार्य है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद्वचनाद् राजा विज्ञाप्यो मम मानद।
यथा चात्ययिकं न स्याद् यदर्घ्याहरणेऽभवत् ॥ १६ ॥

मूलम्

इत्येतद्वचनाद् राजा विज्ञाप्यो मम मानद।
यथा चात्ययिकं न स्याद् यदर्घ्याहरणेऽभवत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(“इतना कहकर वे फिर मुझसे बोले—) ‘मानद! मेरी ओरसे तुम राजा युधिष्ठिरको यह सूचित कर देना कि राजसूय-यज्ञमें अर्घ्य देते समय जो दुर्घटना हो गयी थी, वैसी इस बार नहीं होनी चाहिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तुमर्हति तद् राजा भवांश्चाप्यनुमन्यताम्।
राजद्वेषान्न नश्येयुरिमा राजन् पुनः प्रजाः ॥ १७ ॥

मूलम्

कर्तुमर्हति तद् राजा भवांश्चाप्यनुमन्यताम्।
राजद्वेषान्न नश्येयुरिमा राजन् पुनः प्रजाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“श्रीकृष्ण! राजा युधिष्ठिरको ऐसा ही करना चाहिये। आप भी उन्हें ऐसी ही अनुमति दें और बतावें कि ‘राजन्! राजाओंके पारस्परिक द्वेषसे पुनः इन सारी प्रजाओंका विनाश न होने पावे’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमन्यच्च कौन्तेय वचः स पुरुषोऽब्रवीत्।
धनंजयस्य नृपते तन्मे निगदतः शृणु ॥ १८ ॥

मूलम्

इदमन्यच्च कौन्तेय वचः स पुरुषोऽब्रवीत्।
धनंजयस्य नृपते तन्मे निगदतः शृणु ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीकृष्ण कहते हैं—) ‘कुन्तीनन्दन नरेश्वर! उस मनुष्यने अर्जुनकी कही हुई यह एक बात और बतायी थी, उसे भी मेरे मुँहसे सुन लीजिये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायास्यति यज्ञं नो मणिपूरपतिर्नृपः।
पुत्रो मम महातेजा दयितो बभ्रुवाहनः ॥ १९ ॥

मूलम्

उपायास्यति यज्ञं नो मणिपूरपतिर्नृपः।
पुत्रो मम महातेजा दयितो बभ्रुवाहनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“हमलोगोंके इस यज्ञमें मणिपुरका राजा बभ्रुवाहन भी आवेगा, जो महान् तेजस्वी और मेरा परम प्रिय पुत्र है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भवान् मदपेक्षार्थं विधिवत् प्रतिपूजयेत्।
स तु भक्तोऽनुरक्तश्च मम नित्यमिति प्रभो ॥ २० ॥

मूलम्

तं भवान् मदपेक्षार्थं विधिवत् प्रतिपूजयेत्।
स तु भक्तोऽनुरक्तश्च मम नित्यमिति प्रभो ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“प्रभो! उसकी सदा मेरे प्रति बड़ी भक्ति और अनुरक्ति रहती है। इसलिये आप मेरी अपेक्षासे उसका विधिपूर्वक विशेष सत्कार करें”॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद् वचनं श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अभिनन्द्यास्य तद् वाक्यमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २१ ॥

मूलम्

इत्येतद् वचनं श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अभिनन्द्यास्य तद् वाक्यमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनका यह संदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने उसका हृदयसे अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अश्वमेधारम्भे षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अश्वमेध-यज्ञका आरम्भविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८६॥