भागसूचना
चतुरशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शकुनिपुत्रकी पराजय
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकुनेस्तनयो वीरो गान्धाराणां महारथः।
प्रत्युद्ययौ गुडाकेशं सैन्येन महता वृतः ॥ १ ॥
मूलम्
शकुनेस्तनयो वीरो गान्धाराणां महारथः।
प्रत्युद्ययौ गुडाकेशं सैन्येन महता वृतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! शकुनिका पुत्र गान्धारोंमें सबसे बड़ा वीर और महारथी था। वह विशाल सेनासे घिरकर निद्राविजयी अर्जुनका सामना करनेके लिये चला॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्त्यश्वरथयुक्तेन पताकाध्वजमालिना ।
अमृष्यमाणास्ते योधा तृपस्य शकुनेर्वधम् ॥ २ ॥
अभ्ययुः सहिताः पार्थं प्रगृहीतशरासनाः।
मूलम्
हस्त्यश्वरथयुक्तेन पताकाध्वजमालिना ।
अमृष्यमाणास्ते योधा तृपस्य शकुनेर्वधम् ॥ २ ॥
अभ्ययुः सहिताः पार्थं प्रगृहीतशरासनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी सेनामें हाथी, घोड़े और रथ सभी सम्मिलित थे। वह सेना ध्वजा-पताकाओंकी मालासे मण्डित थी। गान्धारदेशके योद्धा राजा शकुनिके वधका समाचार सुनकर अमर्षमें भरे हुए थे; अतः हाथमें धनुष-बाण ले उन्होंने एक साथ होकर अर्जुनपर धावा बोल दिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तानुवाच धर्मात्मा बीभत्सुरपराजितः ॥ ३ ॥
युधिष्ठिरस्य वचनं न च ते जगृहुर्हितम्।
मूलम्
स तानुवाच धर्मात्मा बीभत्सुरपराजितः ॥ ३ ॥
युधिष्ठिरस्य वचनं न च ते जगृहुर्हितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
किसीसे परास्त न होनेवाले धर्मात्मा अर्जुनने उन्हें राजा युधिष्ठिरकी बात सुनायी; परंतु उस हितकर वचनको भी वे ग्रहण न कर सके॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्यमाणाऽपि पार्थेन सान्त्वपूर्वममर्षिताः ॥ ४ ॥
परिवार्य हयं जग्मुस्ततश्चुक्रोध पाण्डवः।
मूलम्
वार्यमाणाऽपि पार्थेन सान्त्वपूर्वममर्षिताः ॥ ४ ॥
परिवार्य हयं जग्मुस्ततश्चुक्रोध पाण्डवः।
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि पार्थने सान्त्वनापूर्वक समझा-बुझाकर उन सबको युद्धसे रोका, तथापि वे अमर्षशील योद्धा उस घोड़ेको चारों ओरसे घेरकर उसे पकड़नेके लिये आगे बढ़े। यह देख पाण्डुपुत्र अर्जुनको बड़ा क्रोध हुआ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शिरांसि दीप्ताग्रैस्तेषां चिच्छेद पाण्डवः ॥ ५ ॥
क्षुरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैर्नातियत्नादिवार्जुनः ।
मूलम्
ततः शिरांसि दीप्ताग्रैस्तेषां चिच्छेद पाण्डवः ॥ ५ ॥
क्षुरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैर्नातियत्नादिवार्जुनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए तेज धारवाले धुरोंसे बिना परिश्रमके ही उनके मस्तक काटने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः पार्थेन हयमुत्सृज्य सम्भ्रमात् ॥ ६ ॥
न्यवर्तन्त महाराज शरवर्षार्जिता भृशम्।
मूलम्
ते वध्यमानाः पार्थेन हयमुत्सृज्य सम्भ्रमात् ॥ ६ ॥
न्यवर्तन्त महाराज शरवर्षार्जिता भृशम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अर्जुनकी मार खाकर उनके बाणोंकी वर्षासे पीड़ित हुए गान्धार सैनिक उस घोड़ेको छोड़कर बड़े वेगसे पीछे लौट गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरुध्यमानस्तैश्चापि गान्धारैः पाण्डुनन्दनः ॥ ७ ॥
आदिश्यादिश्य तेजस्वी शिरांस्येषां न्यपातयत्।
मूलम्
निरुध्यमानस्तैश्चापि गान्धारैः पाण्डुनन्दनः ॥ ७ ॥
आदिश्यादिश्य तेजस्वी शिरांस्येषां न्यपातयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
गान्धारोंके द्वारा रोके जानेपर भी तेजस्वी वीर पाण्डुनन्दन अर्जुन उनके नाम ले-लेकर मस्तक काटने और गिराने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यमानेषु तेष्वाजौ गान्धारेषु समन्ततः ॥ ८ ॥
स राजा शकुनेः पुत्रः पाण्डवं प्रत्यवारयत्।
मूलम्
वध्यमानेषु तेष्वाजौ गान्धारेषु समन्ततः ॥ ८ ॥
स राजा शकुनेः पुत्रः पाण्डवं प्रत्यवारयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जब चारों ओर युद्धमें गान्धारोंका संहार आरम्भ हो गया, तब राजा शकुनि-पुत्रने पाण्डुकुमार अर्जुनको रोका॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं युध्यमानं राजानं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितम् ॥ ९ ॥
पार्थोऽब्रवीन्न मे वध्या राजानो राजशासनात्।
अलं युद्धेन ते वीर न तेऽस्त्वद्य पराजयः ॥ १० ॥
मूलम्
तं युध्यमानं राजानं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितम् ॥ ९ ॥
पार्थोऽब्रवीन्न मे वध्या राजानो राजशासनात्।
अलं युद्धेन ते वीर न तेऽस्त्वद्य पराजयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियधर्ममें स्थित होकर युद्ध करनेवाले उस राजासे अर्जुनने इस प्रकार कहा—‘वीर! तुम्हें युद्ध करनेसे कोई लाभ नहीं है। महाराज युधिष्ठिरकी यह आज्ञा है कि मैं राजाओंका वध न करूँ। अतः तुम युद्धसे निवृत्त हो जाओ जिससे आज तुम्हारी पराजय न हो’॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तस्तदनादृत्य वाक्यमज्ञानमोहितः ।
स शक्रसमकर्माणं समवाकिरदाशुगैः ॥ ११ ॥
मूलम्
इत्युक्तस्तदनादृत्य वाक्यमज्ञानमोहितः ।
स शक्रसमकर्माणं समवाकिरदाशुगैः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर भी वह अज्ञानसे मोहित होनेके कारण उनकी बातकी अवहेलना करके इन्द्रके समान पराक्रमी अर्जुनपर शीघ्रगामी बाणोंकी वर्षा करने लगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पार्थः शिरस्त्राणमर्धचन्द्रेण पत्रिणा।
अपाहरदमेयात्मा जयद्रथशिरो यथा ॥ १२ ॥
मूलम्
तस्य पार्थः शिरस्त्राणमर्धचन्द्रेण पत्रिणा।
अपाहरदमेयात्मा जयद्रथशिरो यथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अमेय आत्मबलसे सम्पन्न अर्जुनने जिस प्रकार जयद्रथका सिर उड़ाया था, उसी प्रकार शकुनि-पुत्रके शिरस्त्राण (टोप)-को एक अर्धचन्द्राकार बाणसे काट गिराया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा विस्मयं जग्मुर्गान्धाराः सर्व एव ते।
इच्छता तेन न हतो राजेत्यसि च तं विदुः॥१३॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा विस्मयं जग्मुर्गान्धाराः सर्व एव ते।
इच्छता तेन न हतो राजेत्यसि च तं विदुः॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देखकर समस्त गान्धारोंको बड़ा विस्मय हुआ और वे सब-के-सब यह समझ गये कि अर्जुनने जान-बूझकर गान्धारराजको जीवित छोड़ दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धारराजपुत्रस्तु पलायनकृतक्षणः ।
ययौ तैरेव सहितस्त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव ॥ १४ ॥
मूलम्
गान्धारराजपुत्रस्तु पलायनकृतक्षणः ।
ययौ तैरेव सहितस्त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय गान्धारराज शकुनिका पुत्र भागनेका अवसर देखने लगा। जैसे सिंहसे डरे हुए छोटे-छोटे मृग भाग जाते हैं, उसी प्रकार अर्जुनसे भयभीत हुए सैनिकोंके साथ वह स्वयं भी भाग निकला॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तु तरसा पार्थस्तत्रैव परिधावताम्।
प्रजहारोत्तमाङ्गानि भल्लैः संनतपर्वभिः ॥ १५ ॥
मूलम्
तेषां तु तरसा पार्थस्तत्रैव परिधावताम्।
प्रजहारोत्तमाङ्गानि भल्लैः संनतपर्वभिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहीं चक्कर काटनेवाले बहुत-से सैनिकोंके मस्तक अर्जुनने झुकी हुई गाँठवाले भल्लोंद्वारा वेगपूर्वक काट लिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्छ्रितांस्तु भुजान् केचिन्नाबुध्यन्त शरैर्हृतान्।
शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैः पृथुभिः पार्थचोदितैः ॥ १६ ॥
मूलम्
उच्छ्रितांस्तु भुजान् केचिन्नाबुध्यन्त शरैर्हृतान्।
शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैः पृथुभिः पार्थचोदितैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनद्वारा चलाये और गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बहुसंख्यक बाणोंसे कितने ही योद्धाओंकी ऊँची उठी हुई भुजाएँ कटकर गिर गयीं और उन्हें इस बातका पतातक न लगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भ्रान्तनरनागाश्वमपतद् विद्रुतं बलम् ।
हतविध्वस्तभूयिष्ठमावर्तत मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
मूलम्
सम्भ्रान्तनरनागाश्वमपतद् विद्रुतं बलम् ।
हतविध्वस्तभूयिष्ठमावर्तत मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण सेनाके मनुष्य, हाथी और घोड़े घबराकर इधर-उधर भटकने लगे। सारी सेना गिरती-पड़ती भागने लगी। उनके अधिकांश सिपाही युद्धमें मारे गये या नष्ट हो गये और वह बार-बार युद्धभूमिमें ही चक्कर काटने लगी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभ्यदृश्यन्त वीरस्य केचिदग्रेऽग्र्यकर्मणः ।
रिपवः पात्यमाना वै ये सहेयुर्धनंजयम् ॥ १८ ॥
मूलम्
नाभ्यदृश्यन्त वीरस्य केचिदग्रेऽग्र्यकर्मणः ।
रिपवः पात्यमाना वै ये सहेयुर्धनंजयम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ कर्म करनेवाले वीर अर्जुनके सामने कोई भी शत्रु खड़े नहीं दिखायी देते थे, जो अर्जुनकी मार पड़नेपर उनका वेग सहन कर सके॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गान्धारराजस्य मन्त्रिवृद्धपुरःसरा ।
जननी निर्ययौ भीता पुरस्कृत्यार्घ्यमुत्तमम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो गान्धारराजस्य मन्त्रिवृद्धपुरःसरा ।
जननी निर्ययौ भीता पुरस्कृत्यार्घ्यमुत्तमम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर गान्धारराजकी माता अत्यन्त भयभीत होकर बूढ़े मन्त्रियोंको आगे करके उत्तम अर्घ्य ले नगरसे बाहर निकली और रणभूमिमें उपस्थित हुई॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा न्यवारयदव्यग्रं तं पुत्रं युद्धदुर्मदम्।
प्रसादयामास च तं जिष्णुमक्लिष्टकारिणम् ॥ २० ॥
मूलम्
सा न्यवारयदव्यग्रं तं पुत्रं युद्धदुर्मदम्।
प्रसादयामास च तं जिष्णुमक्लिष्टकारिणम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आते ही उसने अपने व्यग्रतारहित एवं रणोन्मत्त पुत्रको युद्ध करनेसे रोका और अनायास ही महान् कर्म करनेवाले विजयशील अर्जुनको प्रिय वचनोंद्वारा प्रसन्न किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां पूजयित्वा बीभत्सुः प्रसादमकरोत् प्रभुः।
शकुनेश्चापि तनयं सान्त्वयन्निदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
मूलम्
तां पूजयित्वा बीभत्सुः प्रसादमकरोत् प्रभुः।
शकुनेश्चापि तनयं सान्त्वयन्निदमब्रवीत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सामर्थ्यशाली अर्जुनने भी मामीका सम्मान करके उन्हें प्रसन्न किया और स्वयं उनपर कृपादृष्टि की। फिर शकुनिके पुत्रको भी सान्त्वना प्रदान करते हुए वे इस प्रकार बोले—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे प्रियं महाबाहो यत्ते बुद्धिरियं कृता।
प्रतियोद्धुममित्रघ्न भ्रातैव त्वं ममानघ ॥ २२ ॥
मूलम्
न मे प्रियं महाबाहो यत्ते बुद्धिरियं कृता।
प्रतियोद्धुममित्रघ्न भ्रातैव त्वं ममानघ ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुसूदन! महाबाहु वीर! तुमने जो मुझसे युद्ध करनेका विचार किया, यह मुझे प्रिय नहीं लगा; क्योंकि अनघ। तुम तो मेरे भाई ही हो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गान्धारीं मातरं स्मृत्वा धृतराष्ट्रकृतेन च।
तेन जीवसि राजंस्त्वं निहतास्त्वनुगास्तव ॥ २३ ॥
मूलम्
गान्धारीं मातरं स्मृत्वा धृतराष्ट्रकृतेन च।
तेन जीवसि राजंस्त्वं निहतास्त्वनुगास्तव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैंने माता गान्धारीको याद करके पिता धृतराष्ट्रके सम्बन्धसे युद्धमें तुम्हारी उपेक्षा की है; इसीलिये तुम अभीतक जीवित हो। केवल तुम्हारे अनुगामी सैनिक ही मारे गये हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैवं भूः शाम्यतां वैरं मा ते भूद् बुद्धिरीदृशी।
गच्छेथास्त्वं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः ॥ २४ ॥
मूलम्
मैवं भूः शाम्यतां वैरं मा ते भूद् बुद्धिरीदृशी।
गच्छेथास्त्वं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब हमलोगोंमें ऐसा बर्ताव नहीं होना चाहिये। आपसका वैर शान्त हो जाय। अब तुम कभी इस प्रकार हमलोगोंके विरुद्ध युद्ध ठाननेका विचार न करना। ‘आगामी चैत्रमासकी पूर्णिमाको महाराज युधिष्ठिरका अश्वमेध यज्ञ होनेवाला है। उसमें तुम अवश्य आना’॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अश्वानुसरणे शकुनिपुत्रपराजये चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अश्वानुसरणके प्रसंगमें शकुनिपुत्रकी पराजयविषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८४॥