भागसूचना
द्व्यशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मगधराज मेघसन्धिकी पराजय
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु वाजी समुद्रान्तां पर्येत्य वसुधामिमाम्।
निवृत्तोऽभिमुखो राजन् येन वारणसाह्वयम् ॥ १ ॥
मूलम्
स तु वाजी समुद्रान्तां पर्येत्य वसुधामिमाम्।
निवृत्तोऽभिमुखो राजन् येन वारणसाह्वयम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इसके बाद वह घोड़ा समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करके उस दिशाकी ओर मुँह करके लौटा, जिस ओर हस्तिनापुर था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुगच्छंश्च तुरगं निवृत्तोऽथ किरीटभृत्।
यदृच्छया समापेदे पुरं राजगृहं तदा ॥ २ ॥
मूलम्
अनुगच्छंश्च तुरगं निवृत्तोऽथ किरीटभृत्।
यदृच्छया समापेदे पुरं राजगृहं तदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किरीटधारी अर्जुन भी घोड़ेका अनुसरण करते हुए लौट पड़े और दैवेच्छासे राजगृह नामक नगरमें आ पहुँचे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्याशगतं दृष्ट्वा सहदेवात्मजः प्रभो।
क्षत्रधर्मे स्थितो वीरः समरायाजुहाव ह ॥ ३ ॥
मूलम्
तमभ्याशगतं दृष्ट्वा सहदेवात्मजः प्रभो।
क्षत्रधर्मे स्थितो वीरः समरायाजुहाव ह ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! अर्जुनको अपने नगरके निकट आया देख क्षत्रिय-धर्ममें स्थित हुए वीर सहदेवकुमार राजा मेघसन्धिने उन्हें युद्धके लिये आमन्त्रित किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुरात् स निष्क्रम्य रथी धन्वी शरी तली।
मेघसन्धिः पदातिं तं धनंजयमुपाद्रवत् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः पुरात् स निष्क्रम्य रथी धन्वी शरी तली।
मेघसन्धिः पदातिं तं धनंजयमुपाद्रवत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् स्वयं भी धनुष-बाण और दस्तानेसे सुसज्जित हो रथपर बैठकर नगरसे बाहर निकला। मेघसन्धिने पैदल आते हुए धनंजयपर धावा किया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य च महातेजा मेघसन्धिर्धनंजयम्।
बालभावान्महाराज प्रोवाचेदं न कौशलात् ॥ ५ ॥
मूलम्
आसाद्य च महातेजा मेघसन्धिर्धनंजयम्।
बालभावान्महाराज प्रोवाचेदं न कौशलात् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! धनंजयके पास पहुँचकर महातेजस्वी मेघसन्धिने बुद्धिमानीके कारण नहीं, मूर्खतावश निम्नांकित बात कही—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमयं चार्यते वाजी स्त्रीमध्य इव भारत।
हयमेनं हरिष्यामि प्रयतस्व विमोक्षणे ॥ ६ ॥
मूलम्
किमयं चार्यते वाजी स्त्रीमध्य इव भारत।
हयमेनं हरिष्यामि प्रयतस्व विमोक्षणे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतनन्दन! इस घोड़ेके पीछे क्यों फिर रहे हो! यह तो ऐसा जान पड़ता है, मानो स्त्रियोंके बीच चल रहा हो। मैं इसका अपहरण कर रहा हूँ। तुम इसे छुड़ानेका प्रयत्न करो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदत्तानुनयो युद्धे यदि त्वं पितृभिर्मम।
करिष्यामि तवातिथ्यं प्रहर प्रहरामि च ॥ ७ ॥
मूलम्
अदत्तानुनयो युद्धे यदि त्वं पितृभिर्मम।
करिष्यामि तवातिथ्यं प्रहर प्रहरामि च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि युद्धमें मेरे पिता आदि पूर्वजोंने कभी तुम्हारा स्वागत-सत्कार नहीं किया है तो आज मैं इस कमीको पूर्ण करूँगा। युद्धके मैदानमें तुम्हारा यथोचित आतिथ्य-सत्कार करूँगा। पहले मुझपर प्रहार करो, फिर मैं तुमपर प्रहार करूँगा’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं प्रहसन्निव पाण्डवः।
विघ्नकर्ता मया वार्य इति मे व्रतमाहितम् ॥ ८ ॥
भ्रात्रा ज्येष्ठेन नृपते तवापि विदितं ध्रुवम्।
प्रहरस्व यथाशक्ति न मन्युर्विद्यते मम ॥ ९ ॥
मूलम्
इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं प्रहसन्निव पाण्डवः।
विघ्नकर्ता मया वार्य इति मे व्रतमाहितम् ॥ ८ ॥
भ्रात्रा ज्येष्ठेन नृपते तवापि विदितं ध्रुवम्।
प्रहरस्व यथाशक्ति न मन्युर्विद्यते मम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके ऐसा कहनेपर पाण्डुपुत्र अर्जुनने उसे हँसते हुए-से इस प्रकार उत्तर दिया—‘नरेश्वर! मेरे बड़े भाईने मेरे लिये इस व्रतकी दीक्षा दिलायी है कि जो मेरे मार्गमें विघ्न डालनेको उद्यत हो, उसे रोको। निश्चय ही यह बात तुम्हें भी विदित है। अतः तुम अपनी शक्तिके अनुसार मुझपर प्रहार करो। मेरे मनमें तुमपर कोई रोष नहीं है’॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्राहरत् पूर्वं पाण्डवं मगधेश्वरः।
किरन् शरसहस्राणि वर्षाणीव सहस्रदृक् ॥ १० ॥
मूलम्
इत्युक्तः प्राहरत् पूर्वं पाण्डवं मगधेश्वरः।
किरन् शरसहस्राणि वर्षाणीव सहस्रदृक् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके ऐसा कहनेपर मगधनरेशने पहले उनपर प्रहार किया। जैसे सहस्रनेत्रधारी इन्द्र जलकी वर्षा करते हैं, उसी प्रकार मेघसन्धि अर्जुनपर सहस्रों बाणोंकी झड़ी लगाने लगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गाण्डीवभृच्छूरो गाण्डीवप्रहितैः शरैः।
चकार मोघांस्तान् बाणान् सयत्नान् भरतर्षभ ॥ ११ ॥
मूलम्
ततो गाण्डीवभृच्छूरो गाण्डीवप्रहितैः शरैः।
चकार मोघांस्तान् बाणान् सयत्नान् भरतर्षभ ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तब गाण्डीवधारी शूरवीर अर्जुनने गाण्डीव धनुषसे छोड़े गये बाणोंद्वारा मेघसन्धिके प्रयत्नपूर्वक चलाये गये उन सभी बाणोंको व्यर्थ कर दिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मोघं तस्य बाणौघं कृत्वा वानरकेतनः।
शरान् मुमोच ज्वलितान् दीप्तास्यानिव पन्नगान् ॥ १२ ॥
मूलम्
स मोघं तस्य बाणौघं कृत्वा वानरकेतनः।
शरान् मुमोच ज्वलितान् दीप्तास्यानिव पन्नगान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुके बाणसमूहको निष्फल करके कपिध्वज अर्जुनने प्रज्वलित बाणका प्रहार किया। वे बाण मुखसे आग उगलनेवाले सर्पोंके समान जान पड़ते थे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्वजे पताकादण्डेषु रथे यन्त्रे हयेषु च।
अन्येषु च रथाङ्गेषु न शरीरे न सारथौ ॥ १३ ॥
मूलम्
ध्वजे पताकादण्डेषु रथे यन्त्रे हयेषु च।
अन्येषु च रथाङ्गेषु न शरीरे न सारथौ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने मेघसन्धिकी ध्वजा, पताका, दण्ड, रथ, यन्त्र, अश्व तथा अन्य रथांगोंपर बाण मारे; परंतु उसके शरीर और सारथिपर प्रहार नहीं किया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संरक्ष्यमाणः पार्थेन शरीरे सव्यसाचिना।
मन्यमानः स्ववीर्यं तन्मागधः प्राहिणोच्छरान् ॥ १४ ॥
मूलम्
संरक्ष्यमाणः पार्थेन शरीरे सव्यसाचिना।
मन्यमानः स्ववीर्यं तन्मागधः प्राहिणोच्छरान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि सव्यसाची अर्जुनने जान-बूझकर उसके शरीरकी रक्षा की तथापि वह मगधराज इसे अपना पराक्रम समझने लगा और अर्जुनपर लगातार बाणोंका प्रहार करता रहा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गाण्डीवधन्वा तु मागधेन भृशाहतः।
बभौ वसन्तसमये पलाशः पुष्पितो यथा ॥ १५ ॥
मूलम्
ततो गाण्डीवधन्वा तु मागधेन भृशाहतः।
बभौ वसन्तसमये पलाशः पुष्पितो यथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मगधराजके बाणोंसे अत्यन्त घायल होकर गाण्डीवधारी अर्जुन रक्तसे नहा उठे। उस समय वे वसन्त-ऋतुमें फूले हुए पलाश-वृक्षकी भाँति सुशोभित हो रहे थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यमानः सोऽभ्यघ्नन्मागधः पाण्डवर्षभम् ।
तेन तस्थौ स कौरव्य लोकवीरस्य दर्शने ॥ १६ ॥
मूलम्
अवध्यमानः सोऽभ्यघ्नन्मागधः पाण्डवर्षभम् ।
तेन तस्थौ स कौरव्य लोकवीरस्य दर्शने ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! अर्जुन तो उसे मार नहीं रहे थे, परंतु वह उन पाण्डवशिरोमणिपर बारंबार चोट कर रहा था। इसीलिये विश्वविख्यात वीर अर्जुनकी दृष्टिमें वह तबतक ठहर सका॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सव्यसाची तु संक्रुद्धो विकृष्य बलवद् धनुः।
हयांश्चकार निर्जीवान् सारथेश्च शिरोऽहरत् ॥ १७ ॥
मूलम्
सव्यसाची तु संक्रुद्धो विकृष्य बलवद् धनुः।
हयांश्चकार निर्जीवान् सारथेश्च शिरोऽहरत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब सव्यसाची अर्जुनका क्रोध बढ़ गया। उन्होंने अपने धनुषको जोरसे खींचा और मेघसन्धिके घोड़ोंको प्राणहीन करके उसके सारथिका भी सिर उड़ा दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुश्चास्य महच्चित्रं क्षुरेण प्रचकर्त ह।
हस्तावापं पताकां च ध्वजं चास्य न्यपातयत् ॥ १८ ॥
मूलम्
धनुश्चास्य महच्चित्रं क्षुरेण प्रचकर्त ह।
हस्तावापं पताकां च ध्वजं चास्य न्यपातयत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उसके विशाल एवं विचित्र धनुषको क्षुरसे काट डाला और उसके दस्ताने, पताका तथा ध्वजाको भी धरतीपर काट गिराया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा व्यथितो व्यश्वो विधनुर्हतसारथिः।
गदामादाय कौन्तेयमभिदुद्राव वेगवान् ॥ १९ ॥
मूलम्
स राजा व्यथितो व्यश्वो विधनुर्हतसारथिः।
गदामादाय कौन्तेयमभिदुद्राव वेगवान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़े, धनुष और सारथिके नष्ट हो जानेपर मेघसन्धिको बड़ा दुःख हुआ। वह गदा हाथमें लेकर कुन्तीनन्दन अर्जुनकी ओर बड़े वेगसे दौड़ा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यापतत एवाशु गदां हेमपरिष्कृताम्।
शरैश्चकर्त बहुधा बहुभिर्गृध्रवाजितैः ॥ २० ॥
मूलम्
तस्यापतत एवाशु गदां हेमपरिष्कृताम्।
शरैश्चकर्त बहुधा बहुभिर्गृध्रवाजितैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके आते ही अर्जुनने गृध्रपंखयुक्त बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उसकी सुवर्णभूषित गदाके शीघ्र ही अनेक टुकड़े कर डाले॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा गदा शकलीभूता विशीर्णमणिबन्धना।
व्याली विमुच्यामानेव पपात धरणीतले ॥ २१ ॥
मूलम्
सा गदा शकलीभूता विशीर्णमणिबन्धना।
व्याली विमुच्यामानेव पपात धरणीतले ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस गदाकी मूँठ टूट गयी और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। उस दशामें वह हाथसे छूटी हुई सर्पिणीके समान पृथ्वीपर गिर पड़ी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरथं विधनुष्कं च गदया परिवर्जितम्।
सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यमब्रवीत् कपिकेतनः ॥ २२ ॥
मूलम्
विरथं विधनुष्कं च गदया परिवर्जितम्।
सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यमब्रवीत् कपिकेतनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मेघसन्धि रथ, धनुष और गदासे भी वंचित हो गया, तब कपिध्वज अर्जुनने उसे सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्याप्तः क्षत्रधर्मोऽयं दर्शितः पुत्र गम्यताम्।
बह्वेतत् समरे कर्म तव बालस्य पार्थिव ॥ २३ ॥
मूलम्
पर्याप्तः क्षत्रधर्मोऽयं दर्शितः पुत्र गम्यताम्।
बह्वेतत् समरे कर्म तव बालस्य पार्थिव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुमने क्षत्रियधर्मका पूरा-पूरा प्रदर्शन कर लिया। अब अपने घर जाओ। भूपाल! तुम अभी बालक हो। इस समरांगणमें तुमने जो पराक्रम किया है, यही तुम्हारे लिये बहुत है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्य संदेशो न हन्तव्या नृपा इति।
तेन जीवसि राजंस्त्वमपराद्धोऽपि मे रणे ॥ २४ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्य संदेशो न हन्तव्या नृपा इति।
तेन जीवसि राजंस्त्वमपराद्धोऽपि मे रणे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! महाराज युधिष्ठिरका यह आदेश है कि ‘तुम युद्धमें राजाओंका वध न करना।’ इसीलिये तुम मेरा अपराध करनेपर भी अबतक जीवित हो’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मत्वा तदात्मानं प्रत्यादिष्टं स्म मागधः।
तथ्यमित्यभिगम्यैनं प्राञ्जलिः प्रत्यपूजयत् ॥ २५ ॥
मूलम्
इति मत्वा तदात्मानं प्रत्यादिष्टं स्म मागधः।
तथ्यमित्यभिगम्यैनं प्राञ्जलिः प्रत्यपूजयत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकी यह बात सुनकर मेघसन्धिको यह विश्वास हो गया कि अब इन्होंने मेरी जान छोड़ दी है। तब वह अर्जुनके पास गया और हाथ जोड़ उनका समादर करते हुए कहने लगा—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पराजितोऽस्मि भद्रं ते नाहं योद्धुमिहोत्सहे।
यद् यत् कृत्यं मया तेऽद्य तद् ब्रूहि कृतमेव तु॥२६॥
मूलम्
पराजितोऽस्मि भद्रं ते नाहं योद्धुमिहोत्सहे।
यद् यत् कृत्यं मया तेऽद्य तद् ब्रूहि कृतमेव तु॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरवर! आपका कल्याण हो। मैं आपसे परास्त हो गया। अब मैं युद्ध करनेका उत्साह नहीं रखता। अब आपको मुझसे जो-जो सेवा लेनी हो, वह बताइये और उसे पूर्ण की हुई ही समझिये’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमर्जुनः समाश्वास्य पुनरेवेदमब्रवीत् ।
आगन्तव्यं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः ॥ २७ ॥
मूलम्
तमर्जुनः समाश्वास्य पुनरेवेदमब्रवीत् ।
आगन्तव्यं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुनने उसे धैर्य देते हुए पुनः इस प्रकार कहा—‘राजन्! तुम आगामी चैत्रमासकी पूर्णिमाको हमारे महाराजके अश्वमेधयज्ञमें अवश्य आना’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा पूजयामास तं इयम्।
फाल्गुनं च युधि श्रेष्ठं विधिवत् सहदेवजः ॥ २८ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा पूजयामास तं इयम्।
फाल्गुनं च युधि श्रेष्ठं विधिवत् सहदेवजः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर सहदेवपुत्रने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और उस घोड़े तथा युद्धस्थलके श्रेष्ठ वीर अर्जुनका विधिपूर्वक पूजन किया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यथेष्टमगमत् पुनरेव स केसरी।
ततः समुद्रतीरेण वङ्गान् पुण्ड्रान् सकोसलान् ॥ २९ ॥
मूलम्
ततो यथेष्टमगमत् पुनरेव स केसरी।
ततः समुद्रतीरेण वङ्गान् पुण्ड्रान् सकोसलान् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वह घोड़ा पुनः अपनी इच्छाके अनुसार आगे चला। वह समुद्रके किनारे-किनारे होता हुआ वङ्ग, पुण्ड्र और कोसल आदि देशोंमें गया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र च भूरीणि म्लेच्छसैन्यान्यनेकशः।
विजिग्ये धनुषा राजन् गाण्डीवेन धनंजयः ॥ ३० ॥
मूलम्
तत्र तत्र च भूरीणि म्लेच्छसैन्यान्यनेकशः।
विजिग्ये धनुषा राजन् गाण्डीवेन धनंजयः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन देशोंमें अर्जुनने केवल गाण्डीव धनुषकी सहायतासे म्लेच्छोंकी अनेक सेनाओंको परास्त किया॥३०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अश्वानुसरणे मागधपराजये द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें मगधराजकी पराजयविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥