भागसूचना
एकाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उलूपीका अर्जुनके पूछनेपर अपने आगमनका कारण एवं अर्जुनकी पराजयका रहस्य बताना, पुत्र और पत्नीसे विदा लेकर पार्थका पुनः अश्वके पीछे जाना
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमागमनकृत्यं ते कौरव्यकुलनन्दिनि ।
मणिपूरपतेर्मातुस्तथैव च रणाजिरे ॥ १ ॥
मूलम्
किमागमनकृत्यं ते कौरव्यकुलनन्दिनि ।
मणिपूरपतेर्मातुस्तथैव च रणाजिरे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— कौरव्य नामके कुलको आनन्दित करनेवाली उलूपी! इस रणभूमिमें तुम्हारे और मणिपुरनरेश बभ्रुवाहनकी माता चित्रांगदाके आनेका क्या कारण है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् कुशलकामासि राज्ञोऽस्य भुजगात्मजे।
मम वा चपलापाङ्गि कच्चित् त्वं शुभमिच्छसि ॥ २ ॥
मूलम्
कच्चित् कुशलकामासि राज्ञोऽस्य भुजगात्मजे।
मम वा चपलापाङ्गि कच्चित् त्वं शुभमिच्छसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागकुमारी! तुम इस राजा बभ्रुवाहनका कुशल-मंगल तो चाहती हो न? चंचल कटाक्षवाली सुन्दरी! तुम मेरे कल्याणकी भी इच्छा रखती हो न?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् ते पृथुलश्रोणि नाप्रियं प्रियदर्शने।
अकार्षमहमज्ञानादयं वा बभ्रुवाहनः ॥ ३ ॥
मूलम्
कच्चित् ते पृथुलश्रोणि नाप्रियं प्रियदर्शने।
अकार्षमहमज्ञानादयं वा बभ्रुवाहनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थूल नितम्बवाली प्रियदर्शने! मैंने या इस बभ्रुवाहनने अनजानमें तुम्हारा कोई अप्रिय तो नहीं किया है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिन्नु राजपुत्री ते सपत्नी चैत्रवाहनी।
चित्राङ्गदा वरारोहा नापराध्यति किंचन ॥ ४ ॥
मूलम्
कच्चिन्नु राजपुत्री ते सपत्नी चैत्रवाहनी।
चित्राङ्गदा वरारोहा नापराध्यति किंचन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी सौत चित्रवाहनकुमारी वरारोहा राजपुत्री चित्रांगदाने तो तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाचोरगपतेर्दुहिता प्रहसन्निव ।
न मे त्वमपराद्धोऽसि न हि मे बभ्रुवाहनः ॥ ५ ॥
न जनित्री तथास्येयं मम या प्रेष्यवत् स्थिता।
श्रूयतां यद् यथा चेदं मया सर्वं विचेष्टितम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तमुवाचोरगपतेर्दुहिता प्रहसन्निव ।
न मे त्वमपराद्धोऽसि न हि मे बभ्रुवाहनः ॥ ५ ॥
न जनित्री तथास्येयं मम या प्रेष्यवत् स्थिता।
श्रूयतां यद् यथा चेदं मया सर्वं विचेष्टितम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनका यह प्रश्न सुनकर नागराजकन्या उलूपी हँसती हुई-सी बोली—‘प्राणवल्लभ! आपने या बभ्रुवाहनने मेरा कोई अपराध नहीं किया है। बभ्रुवाहनकी माताने भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है। यह तो सदा दासीकी भाँति मेरी आज्ञाके अधीन रहती है। यहाँ आकर मैंने जो-जो जिस प्रकार काम किया है, वह बतलाती हूँ; सुनिये॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे कोपस्त्वया कार्यः शिरसा त्वां प्रसादये।
त्वत्प्रियार्थं हि कौरव्य कृतमेतन्मया विभो ॥ ७ ॥
मूलम्
न मे कोपस्त्वया कार्यः शिरसा त्वां प्रसादये।
त्वत्प्रियार्थं हि कौरव्य कृतमेतन्मया विभो ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! कुरुनन्दन! पहले तो मैं आपके चरणोंमें सिर रखकर आपको प्रसन्न करना चाहती हूँ। यदि मुझसे कोई दोष बन गया हो तो भी उसके लिये आप मुझपर क्रोध न करें; क्योंकि मैंने जो कुछ किया है, वह आपकी प्रसन्नताके लिये ही किया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्तच्छृणु महाबाहो निखिलेन धनंजय।
महाभारतयुद्धे यत् त्वया शान्तनवो नृपः ॥ ८ ॥
अधर्मेण हतः पार्थ तस्यैषा निष्कृतिः कृता।
मूलम्
यत्तच्छृणु महाबाहो निखिलेन धनंजय।
महाभारतयुद्धे यत् त्वया शान्तनवो नृपः ॥ ८ ॥
अधर्मेण हतः पार्थ तस्यैषा निष्कृतिः कृता।
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु धनंजय! आप मेरी कही हुई सारी बातें ध्यान देकर सुनिये। पार्थ! महाभारत-युद्धमें आपने जो शान्तनुकुमार महाराज भीष्मको अधर्मपूर्वक मारा है, उस पापका यह प्रायश्चित्त कर दिया गया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि भीष्मस्त्वया वीर युद्ध्यमानो हि पातितः ॥ ९ ॥
शिखण्डिना तु संयुक्तस्तमाश्रित्य हतस्त्वया।
मूलम्
न हि भीष्मस्त्वया वीर युद्ध्यमानो हि पातितः ॥ ९ ॥
शिखण्डिना तु संयुक्तस्तमाश्रित्य हतस्त्वया।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! आपने अपने साथ जूझते हुए भीष्मजीको नहीं मारा है, वे शिखण्डीके साथ उलझे हुए थे। उस दशामें शिखण्डीकी आड़ लेकर आपने उनका वध किया था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शान्तिमकृत्वा त्वं त्यजेथा यदि जीवितम् ॥ १० ॥
कर्मणा तेन पापेन पतेथा निरये ध्रुवम्।
मूलम्
तस्य शान्तिमकृत्वा त्वं त्यजेथा यदि जीवितम् ॥ १० ॥
कर्मणा तेन पापेन पतेथा निरये ध्रुवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसकी शान्ति किये बिना ही यदि आप प्राणोंका परित्याग करते तो उस पापकर्मके प्रभावसे निश्चय ही नरकमें पड़ते॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा तु विहिता शान्तिः पुत्राद् यां प्राप्तवानसि।
वसुभिर्वसुधापाल गङ्गया च महामते ॥ ११ ॥
मूलम्
एषा तु विहिता शान्तिः पुत्राद् यां प्राप्तवानसि।
वसुभिर्वसुधापाल गङ्गया च महामते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामते! पृथ्वीपाल! पूर्वकालमें वसुओं तथा गंगाजीने इसी रूपमें उस पापकी शान्ति निश्चित की थी; जिसे आपने अपने पुत्रसे पराजयके रूपमें प्राप्त किया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा हि श्रुतमेतत् ते वसुभिः कथितं मया।
गङ्गायास्तीरमाश्रित्य हते शान्तनवे नृप ॥ १२ ॥
मूलम्
पुरा हि श्रुतमेतत् ते वसुभिः कथितं मया।
गङ्गायास्तीरमाश्रित्य हते शान्तनवे नृप ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहलेकी बात है, एक दिन मैं गंगाजीके तटपर गयी थी। नरेश्वर! वहाँ शान्तनुनन्दन भीष्मजीके मारे जानेके बाद वसुओंने गंगातटपर आकर आपके सम्बन्धमें जो यह बात कही थी, उसे मैंने अपने कानों सुना था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आप्लुत्य देवा वसवः समेत्य च महानदीम्।
इदमूचुर्वचो घोरं भागीरथ्या मते तदा ॥ १३ ॥
मूलम्
आप्लुत्य देवा वसवः समेत्य च महानदीम्।
इदमूचुर्वचो घोरं भागीरथ्या मते तदा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वसु नामक देवता महानदी गंगाके तटपर एकत्र हो स्नान करके भागीरथीकी सम्मतिसे यह भयानक वचन बोले—॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष शान्तनवो भीष्मो निहतः सव्यसाचिना।
अयुध्यमानः संग्रामे संसक्तोऽन्येन भाविनि।
तदनेनानुषङ्गेण वयमद्य धनंजयम् ॥ १४ ॥
शापेन योजयामेति तथास्त्विति च साब्रवीत्।
मूलम्
एष शान्तनवो भीष्मो निहतः सव्यसाचिना।
अयुध्यमानः संग्रामे संसक्तोऽन्येन भाविनि।
तदनेनानुषङ्गेण वयमद्य धनंजयम् ॥ १४ ॥
शापेन योजयामेति तथास्त्विति च साब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
“भाविनि! ये शान्तनुनन्दन भीष्म संग्राममें दूसरेके साथ उलझे हुए थे। अर्जुनके साथ युद्ध नहीं कर रहे थे तो भी सव्यसाची अर्जुनने इनका वध किया है। इस अपराधके कारण हमलोग आज अर्जुनको शाप देना चाहते हैं।” यह सुनकर गंगाजीने कहा—‘हाँ, ऐसा ही होना चाहिये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं पितुरावेद्य प्रविश्य व्यथितेन्द्रिया ॥ १५ ॥
अभवं स च तच्छ्रुत्वा विषादमगमत् परम्।
मूलम्
तदहं पितुरावेद्य प्रविश्य व्यथितेन्द्रिया ॥ १५ ॥
अभवं स च तच्छ्रुत्वा विषादमगमत् परम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उनकी बातें सुनकर मेरी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं और पातालमें प्रवेश करके मैंने अपने पितासे यह सारा समाचार कह सुनाया। यह सुनकर पिताजीको भी बड़ा खेद हुआ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता तु मे वसून् गत्वा त्वदर्थे समयाचत ॥ १६ ॥
पुनः पुनः प्रसाद्यैतांस्त एनमिदमब्रुवन्।
मूलम्
पिता तु मे वसून् गत्वा त्वदर्थे समयाचत ॥ १६ ॥
पुनः पुनः प्रसाद्यैतांस्त एनमिदमब्रुवन्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे तत्काल वसुओंके पास जाकर उन्हें बारंबार प्रसन्न करके आपके लिये उनसे बारंबार क्षमा-याचना करने लगे। तब वसुगण उनसे इस प्रकार बोले—॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रस्तस्य महाभाग मणिपूरेश्वरो युवा ॥ १७ ॥
स एनं रणमध्यस्थः शरैः पातयिता भुवि।
एवं कृते स नागेन्द्र मुक्तशापो भविष्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
पुत्रस्तस्य महाभाग मणिपूरेश्वरो युवा ॥ १७ ॥
स एनं रणमध्यस्थः शरैः पातयिता भुवि।
एवं कृते स नागेन्द्र मुक्तशापो भविष्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
“महाभाग नागराज! मणिपुरका नवयुवक राजा बभ्रुवाहन अर्जुनका पुत्र है। वह युद्ध-भूमिमें खड़ा होकर अपने बाणोंद्वारा जब उन्हें पृथ्वीपर गिरा देगा, तब अर्जुन हमारे शापसे मुक्त हो जायँगे॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छेति वसुभिश्चोक्तो मम चेदं शशंस सः।
तच्छ्रुत्वा त्वं मया तस्माच्छापादसि विमोक्षितः ॥ १९ ॥
मूलम्
गच्छेति वसुभिश्चोक्तो मम चेदं शशंस सः।
तच्छ्रुत्वा त्वं मया तस्माच्छापादसि विमोक्षितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अच्छा अब जाओ’ वसुओंके ऐसा कहनेपर मेरे पिताने आकर मुझसे यह बात बतायी। इसे सुनकर मैंने इसीके अनुसार चेष्टा की है और आपको उस शापसे छुटकारा दिलाया है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि त्वां देवराजोऽपि समरेषु पराजयेत्।
आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात् तेनेहासि पराजितः ॥ २० ॥
मूलम्
न हि त्वां देवराजोऽपि समरेषु पराजयेत्।
आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात् तेनेहासि पराजितः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्राणनाथ! देवराज इन्द्र भी आपको युद्धमें परास्त नहीं कर सकते, पुत्र तो अपना आत्मा ही है, इसीलिये इसके हाथसे यहाँ आपकी पराजय हुई है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि दोषो मम मतः कथं वा मन्यसे विभो।
इत्येवमुक्तो विजयः प्रसन्नात्माब्रवीदिदम् ॥ २१ ॥
मूलम्
न हि दोषो मम मतः कथं वा मन्यसे विभो।
इत्येवमुक्तो विजयः प्रसन्नात्माब्रवीदिदम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! मैं समझती हूँ कि इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। अथवा आपकी क्या धारणा है? क्या यह युद्ध कराकर मैंने कोई अपराध किया है?’
उलूपीके ऐसा कहनेपर अर्जुनका चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने कहा—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं मे सुप्रियं देवि यदेतत् कृतवत्यसि।
इत्युक्त्वा सोऽब्रवीत् पुत्रं मणिपूरपतिं जयः ॥ २२ ॥
चित्राङ्गदायाः शृण्वत्याः कौरव्यदुहितुस्तदा ।
मूलम्
सर्वं मे सुप्रियं देवि यदेतत् कृतवत्यसि।
इत्युक्त्वा सोऽब्रवीत् पुत्रं मणिपूरपतिं जयः ॥ २२ ॥
चित्राङ्गदायाः शृण्वत्याः कौरव्यदुहितुस्तदा ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! तुमने जो यह कार्य किया है, यह सब मुझे अत्यन्त प्रिय है।’ यों कहकर अर्जुनने चित्रांगदा तथा उलूपीके सुनते हुए अपने पुत्र मणिपुरनरेश बभ्रुवाहनसे कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्याश्वमेधः परिचैत्रीं भविष्यति ॥ २३ ॥
तत्रागच्छेः सहामात्यो मातृभ्यां सहितो नृप ॥ २४ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्याश्वमेधः परिचैत्रीं भविष्यति ॥ २३ ॥
तत्रागच्छेः सहामात्यो मातृभ्यां सहितो नृप ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! आगामी चैत्रमासकी पूर्णिमाको महाराज युधिष्ठिरके यज्ञका आरम्भ होगा। उसमें तुम अपनी इन दोनों माताओं और मन्त्रियोंके साथ अवश्य आना’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्तः पार्थेन स राजा बभ्रुवाहनः।
उवाच पितरं धीमानिदमस्राविलेक्षणः ॥ २५ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्तः पार्थेन स राजा बभ्रुवाहनः।
उवाच पितरं धीमानिदमस्राविलेक्षणः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके ऐसा कहनेपर बुद्धिमान् राजा बभ्रुवाहनने नेत्रोंमें आँसू भरकर पितासे इस प्रकार कहा—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपयास्यामि धर्मज्ञ भवतः शासनादहम्।
अश्वमेधे महायज्ञे द्विजातिपरिवेषकः ॥ २६ ॥
मूलम्
उपयास्यामि धर्मज्ञ भवतः शासनादहम्।
अश्वमेधे महायज्ञे द्विजातिपरिवेषकः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मज्ञ! आपकी आज्ञासे मैं अश्वमेध महायज्ञमें अवश्य उपस्थित होऊँगा और ब्राह्मणोंको भोजन परोसनेका काम करूँगा॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम त्वनुग्रहार्थाय प्रविशस्व पुरं स्वकम्।
भार्याभ्यां सह धर्मज्ञ मा भूत् तेऽत्र विचारणा ॥ २७ ॥
मूलम्
मम त्वनुग्रहार्थाय प्रविशस्व पुरं स्वकम्।
भार्याभ्यां सह धर्मज्ञ मा भूत् तेऽत्र विचारणा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय आपसे एक प्रार्थना है—धर्मज्ञ! आज मुझपर कृपा करनेके लिये अपनी इन दोनों धर्मपत्नियोंके साथ इस नगरमें प्रवेश कीजिये। इस विषयमें आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उषित्वेह निशामेकां सुखं स्वभवने प्रभो।
पुनरश्वानुगमनं कर्तासि जयतां वर ॥ २८ ॥
मूलम्
उषित्वेह निशामेकां सुखं स्वभवने प्रभो।
पुनरश्वानुगमनं कर्तासि जयतां वर ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ! यहाँ भी आपका ही घर है। अपने उस घरमें एक रात सुखपूर्वक निवास करके कल सबेरे फिर घोड़ेके पीछे-पीछे जाइयेगा’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तु पुत्रेण तदा वानरकेतनः।
स्मयन् प्रोवाच कौन्तेयस्तदा चित्राङ्गदासुतम् ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तु पुत्रेण तदा वानरकेतनः।
स्मयन् प्रोवाच कौन्तेयस्तदा चित्राङ्गदासुतम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन कपिध्वज अर्जुनने मुसकराते हुए चित्राङ्गदाकुमारसे कहा—॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितं ते महाबाहो यथा दीक्षां चराम्यहम्।
न स तावत् प्रवेक्ष्यामि पुरं ते पृथुलोचन ॥ ३० ॥
मूलम्
विदितं ते महाबाहो यथा दीक्षां चराम्यहम्।
न स तावत् प्रवेक्ष्यामि पुरं ते पृथुलोचन ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! यह तो तुम जानते ही हो कि मैं दीक्षा ग्रहण करके विशेष नियमोंके पालनपूर्वक विचर रहा हूँ। अतः विशाललोचन! जबतक यह दीक्षा पूर्ण नहीं हो जाती तबतक मैं तुम्हारे नगरमें प्रवेश नहीं करूँगा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाकामं व्रजत्येष यज्ञियाश्वो नरर्षभ।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि न स्थानं विद्यते मम ॥ ३१ ॥
मूलम्
यथाकामं व्रजत्येष यज्ञियाश्वो नरर्षभ।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि न स्थानं विद्यते मम ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ! यह यज्ञका घोड़ा अपनी इच्छाके अनुसार चलता है (इसे कहीं भी रोकनेका नियम नहीं है); अतः तुम्हारा कल्याण हो। मैं अब जाऊँगा। इस समय मेरे ठहरनेके लिये कोई स्थान नहीं है’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र विधिवत् तेन पूजितः पाकशासनिः।
भार्याभ्यामभ्यनुज्ञातः प्रायाद् भरतसत्तमः ॥ ३२ ॥
मूलम्
स तत्र विधिवत् तेन पूजितः पाकशासनिः।
भार्याभ्यामभ्यनुज्ञातः प्रायाद् भरतसत्तमः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वहाँ बभ्रुवाहनने भरतवंशके श्रेष्ठ पुरुष इन्द्रकुमार अर्जुनकी विधिवत् पूजा की और वे अपनी दोनों भार्याओंकी अनुमति लेकर वहाँसे चल दिये॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अश्वानुसरणे एकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अश्वका अनुसरणविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥