०८० अर्जुनप्रत्युज्जीवने

भागसूचना

अशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

चित्रांगदाका विलाप, मूर्च्छासे जगनेपर बभ्रुवाहनका शोकोद्‌गार और उलूपीके प्रयत्नसे संजीवनीमणिके द्वारा अर्जुनका पुनः जीवित होना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो बहुतरं भीरुर्विलप्य कमलेक्षणा।
मुमोह दुःखसंतप्ता पपात च महीतले ॥ १ ॥

मूलम्

ततो बहुतरं भीरुर्विलप्य कमलेक्षणा।
मुमोह दुःखसंतप्ता पपात च महीतले ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भीरु स्वभाववाली कमलनयनी चित्रांगदा पतिवियोग-दुःखसे संतप्त होकर बहुत विलाप करती हुई मूर्च्छित हो गयी और पृथ्वीपर गिर पड़ी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य च सा संज्ञां देवी दिव्यवपुर्धरा।
उलूपीं पन्नगसुतां दृष्ट्वेदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य च सा संज्ञां देवी दिव्यवपुर्धरा।
उलूपीं पन्नगसुतां दृष्ट्वेदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ देर बाद होशमें आनेपर दिव्यरूपधारिणी देवी चित्रांगदाने नागकन्या उलूपीको सामने खड़ी देख इस प्रकार कहा—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूपि पश्य भर्तारं शयानं निहतं रणे।
त्वत्कृते मम पुत्रेण बाणेन समितिंजयम् ॥ ३ ॥

मूलम्

उलूपि पश्य भर्तारं शयानं निहतं रणे।
त्वत्कृते मम पुत्रेण बाणेन समितिंजयम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उलूपी! देखो, हम दोनोंके स्वामी मारे जाकर रणभूमिमें सो रहे हैं। तुम्हारी प्रेरणासे ही मेरे बेटेने समरविजयी अर्जुनका वध किया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु त्वमार्यधर्मज्ञा ननु चासि पतिव्रता।
यत्त्वस्कृतेऽयं पतितः पतिस्ते निहतो रणे ॥ ४ ॥

मूलम्

ननु त्वमार्यधर्मज्ञा ननु चासि पतिव्रता।
यत्त्वस्कृतेऽयं पतितः पतिस्ते निहतो रणे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहिन! तुम तो आर्यधर्मको जाननेवाली और पतिव्रता हो। तथापि तुम्हारी ही करतूतसे ये तुम्हारे पति इस समय रणभूमिमें मरे पड़े हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंतु सर्वापराधोऽयं यदि तेऽद्य धनंजयः।
क्षमस्व याच्यमाना वै जीवयस्व धनंजयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

किंतु सर्वापराधोऽयं यदि तेऽद्य धनंजयः।
क्षमस्व याच्यमाना वै जीवयस्व धनंजयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु यदि ये अर्जुन सर्वथा तुम्हारे अपराधी हों तो भी आज क्षमा कर दो। मैं तुमसे इनके प्राणोंकी भीख माँगती हूँ। तुम धनंजयको जीवित कर दो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु त्वमार्ये धर्मज्ञा त्रैलोक्यविदिता शुभे।
यद् घातयित्वा पुत्रेण भर्तारं नानुशोचसि ॥ ६ ॥

मूलम्

ननु त्वमार्ये धर्मज्ञा त्रैलोक्यविदिता शुभे।
यद् घातयित्वा पुत्रेण भर्तारं नानुशोचसि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्ये! शुभे! तुम धर्मको जाननेवाली और तीनों लोकोंमें विख्यात हो। तो भी आज पुत्रसे पतिकी हत्या कराकर तुम्हें शोक या पश्चात्ताप नहीं हो रहा है, इसका क्या कारण है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं शोचामि तनयं हतं पन्नगनन्दिनि।
पतिमेव तु शोचामि यस्यातिथ्यमिदं कृतम् ॥ ७ ॥

मूलम्

नाहं शोचामि तनयं हतं पन्नगनन्दिनि।
पतिमेव तु शोचामि यस्यातिथ्यमिदं कृतम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नागकुमारी! मेरा पुत्र भी मरा पड़ा है, तो भी मैं उसके लिये शोक नहीं करती। मुझे केवल पतिके लिये शोक हो रहा है, जिनका मेरे यहाँ इस तरह आतिथ्य-सत्कार किया गया’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा सा तदा देवीमुलूपीं पन्नगात्मजाम्।
भर्तारमभिगम्येदमित्युवाच यशस्विनी ॥ ८ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा सा तदा देवीमुलूपीं पन्नगात्मजाम्।
भर्तारमभिगम्येदमित्युवाच यशस्विनी ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागकन्या उलूपीदेवीसे ऐसा कहकर यशस्विनी चित्राङ्गदा उस समय पतिके निकट गयी और उन्हें सम्बोधित करके इस प्रकार विलाप करने लगी—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ कुरुमुख्यस्य प्रियमुख्य मम प्रिय।
अयमश्वो महाबाहो मया ते परिमोक्षितः ॥ ९ ॥

मूलम्

उत्तिष्ठ कुरुमुख्यस्य प्रियमुख्य मम प्रिय।
अयमश्वो महाबाहो मया ते परिमोक्षितः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुराजके प्रियतम और मेरे प्राणाधार! उठो। महाबाहो! मैंने तुम्हारा यह घोड़ा छुड़वा दिया है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु त्वया नाम विभो धर्मराजस्य यज्ञियः।
अयमश्वोऽनुसर्तव्यः स शेषे किं महीतले ॥ १० ॥

मूलम्

ननु त्वया नाम विभो धर्मराजस्य यज्ञियः।
अयमश्वोऽनुसर्तव्यः स शेषे किं महीतले ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! तुम्हें तो महाराज युधिष्ठिरके यज्ञ-सम्बन्धी अश्वके पीछे-पीछे जाना है; फिर यहाँ पृथ्वीपर कैसे सो रहे हो?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि प्राणा ममायत्ताः कुरूणां कुरुनन्दन।
स कस्मात् प्राणदोऽन्येषां प्राणात् संत्यक्तवानसि ॥ ११ ॥

मूलम्

त्वयि प्राणा ममायत्ताः कुरूणां कुरुनन्दन।
स कस्मात् प्राणदोऽन्येषां प्राणात् संत्यक्तवानसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! मेरे और कौरवोंके प्राण तुम्हारे ही अधीन हैं। तुम तो दूसरोंके प्राणदाता हो, तुमने स्वयं कैसे प्राण त्याग दिये?’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूपि साधु पश्येमं पतिं निपतितं भुवि।
पुत्रं चेमं समुत्साद्य घातयित्वा न शोचसि ॥ १२ ॥

मूलम्

उलूपि साधु पश्येमं पतिं निपतितं भुवि।
पुत्रं चेमं समुत्साद्य घातयित्वा न शोचसि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इतना कहकर वह फिर उलूपीसे बोली—) ‘उलूपी! ये पतिदेव भूतलपर पड़े हैं। तुम इन्हें अच्छी तरह देख लो। तुमने इस बेटेको उकसाकर स्वामीकी हत्या करायी है। क्या इसके लिये तुम्हें शोक नहीं होता?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं स्वपितु बालोऽयं भूमौ मृत्युवशं गतः।
लोहिताक्षो गुडाकेशो विजयः साधु जीवतु ॥ १३ ॥

मूलम्

कामं स्वपितु बालोऽयं भूमौ मृत्युवशं गतः।
लोहिताक्षो गुडाकेशो विजयः साधु जीवतु ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मृत्युके वशमें पड़ा हुआ मेरा यह बालक चाहे सदाके लिये भूमिपर सोता रह जाय, किंतु निद्राके स्वामी, विजय पानेवाले अरुणनयन अर्जुन अवश्य जीवित हों—यही उत्तम है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापराधोऽस्ति सुभगे नराणां बहुभार्यता।
प्रमदानां भवत्येष मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ १४ ॥

मूलम्

नापराधोऽस्ति सुभगे नराणां बहुभार्यता।
प्रमदानां भवत्येष मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुभगे! कोई पुरुष बहुत-सी स्त्रियोंको पत्नी बनाकर रखे, तो उनके लिये यह अपराध या दोषकी बात नहीं होती। स्त्रियाँ यदि ऐसा करें (अनेक पुरुषोंसे सम्बन्ध रखें) तो यह उनके लिये अवश्य दोष या पापकी बात होती है। अतः तुम्हारी बुद्धि ऐसी क्रूर नहीं होनी चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सख्यं चैतत् कृतं धात्रा शश्वदव्ययमेव तु।
सख्यं समभिजानीहि सत्यं सङ्गतमस्तु ते ॥ १५ ॥

मूलम्

सख्यं चैतत् कृतं धात्रा शश्वदव्ययमेव तु।
सख्यं समभिजानीहि सत्यं सङ्गतमस्तु ते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विधाताने पति और पत्नीकी मित्रता सदा रहनेवाली और अटूट बनायी है। (तुम्हारा भी इनके साथ वही सम्बन्ध है।) इस सख्यभावके महत्त्वको समझो और ऐसा उपाय करो जिससे तुम्हारी इनके साथ की हुई मैत्री सत्य एवं सार्थक हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रेण घातयित्वैनं पतिं यदि न मेऽद्य वै।
जीवन्तं दर्शयस्यद्य परित्यक्ष्यामि जीवितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

पुत्रेण घातयित्वैनं पतिं यदि न मेऽद्य वै।
जीवन्तं दर्शयस्यद्य परित्यक्ष्यामि जीवितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हींने बेटेको लड़ाकर उसके द्वारा इन पतिदेवकी हत्या करवायी है। यह सब करके यदि आज तुम पुनः इन्हें जीवित करके न दिखा दोगी तो मैं भी प्राण त्याग दूँगी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं दुःखान्विता देवि पतिपुत्रविनाकृता।
इहैव प्रायमाशिष्ये प्रेक्षन्त्यास्ते न संशयः ॥ १७ ॥

मूलम्

साहं दुःखान्विता देवि पतिपुत्रविनाकृता।
इहैव प्रायमाशिष्ये प्रेक्षन्त्यास्ते न संशयः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! मैं पति और पुत्र दोनोंसे वञ्चित होकर दुःखमें डूब गयी हूँ। अतः अब यहीं तुम्हारे देखते-देखते मैं आमरण उपवास करूँगी, इसमें संशय नहीं है’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पन्नगसुतां सपत्नी चैत्रवाहनी।
ततः प्रायमुपासीना तूष्णीमासीज्जनाधिप ॥ १८ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पन्नगसुतां सपत्नी चैत्रवाहनी।
ततः प्रायमुपासीना तूष्णीमासीज्जनाधिप ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! नागकन्यासे ऐसा कहकर उसकी सौत चित्रवाहनकुमारी चित्रांगदा आमरण उपवासका संकल्प लेकर चुपचाप बैठ गयी॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विलप्य विरता भर्तुः पादौ प्रगृह्य सा।
उपविष्टाभवद् दीना सोच्छ्‌वासं पुत्रमीक्षती ॥ १९ ॥

मूलम्

ततो विलप्य विरता भर्तुः पादौ प्रगृह्य सा।
उपविष्टाभवद् दीना सोच्छ्‌वासं पुत्रमीक्षती ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर विलाप करके उससे विरत हो चित्रांगदा अपने पतिके दोनों चरण पकड़कर दीनभावसे बैठ गयी और लंबी साँस खींच-खींचकर अपने पुत्रकी ओर भी देखने लगी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संज्ञां पुनर्लब्ध्वा स राजा बभ्रुवाहनः।
मातरं तामथालोक्य रणभूमावथाब्रवीत् ॥ २० ॥

मूलम्

ततः संज्ञां पुनर्लब्ध्वा स राजा बभ्रुवाहनः।
मातरं तामथालोक्य रणभूमावथाब्रवीत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी ही देरमें राजा बभ्रुवाहनको पुनः चेत हुआ। वह अपनी माताको रणभूमिमें बैठी देख इस प्रकार विलाप करने लगा—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतो दुःखतरं किं नु यन्मे माता सुखैधिता।
भूमौ निपतितं वीरमनुशेते मृतं पतिम् ॥ २१ ॥

मूलम्

इतो दुःखतरं किं नु यन्मे माता सुखैधिता।
भूमौ निपतितं वीरमनुशेते मृतं पतिम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! जो अबतक सुखोंमें पली थी, वही मेरी माता चित्रांगदा आज मृत्युके अधीन होकर पृथ्वीपर पड़े हुए अपने वीर पतिके साथ मरनेका निश्चय करके बैठी हुई है। इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या हो सकती है?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहन्तारं रणेऽरीणां सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
मया विनिहतं संख्ये प्रेक्षते दुर्मरं बत ॥ २२ ॥

मूलम्

निहन्तारं रणेऽरीणां सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
मया विनिहतं संख्ये प्रेक्षते दुर्मरं बत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संग्राममें जिनका वध करना दूसरेके लिये नितान्त कठिन है, जो युद्धमें शत्रुओंका संहार करनेवाले तथा सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ हैं, उन्हीं मेरे पिता अर्जुनको आज यह मेरे ही हाथों मरकर पड़ा देख रही है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोऽस्या हृदयं देव्या दृढं यन्न विदीर्यते।
व्यूढोरस्कं महाबाहुं प्रेक्षन्त्या निहतं पतिम् । २३ ॥
दुर्मरं पुरुषेणेह मन्ये ह्यध्वन्यनागते।

मूलम्

अहोऽस्या हृदयं देव्या दृढं यन्न विदीर्यते।
व्यूढोरस्कं महाबाहुं प्रेक्षन्त्या निहतं पतिम् । २३ ॥
दुर्मरं पुरुषेणेह मन्ये ह्यध्वन्यनागते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘चौड़ी छाती और विशाल भुजावाले अपने पतिको मारा गया देखकर भी जो मेरी माता चित्रांगदा देवीका दृढ़ हृदय विदीर्ण नहीं हो जाता है। इससे मैं यह मानता हूँ कि अन्तकाल आये बिना मनुष्यका मरना बहुत कठिन है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र नाहं न मे माता विप्रयुज्येत जीवितात् ॥ २४ ॥
हा हा धिक् कुरुवीरस्य संनाहं काञ्चनं भुवि।
अपविद्धं हतस्येह मया पुत्रेण पश्यत ॥ २५ ॥

मूलम्

यत्र नाहं न मे माता विप्रयुज्येत जीवितात् ॥ २४ ॥
हा हा धिक् कुरुवीरस्य संनाहं काञ्चनं भुवि।
अपविद्धं हतस्येह मया पुत्रेण पश्यत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तभी तो इस संकटके समय भी मेरे और मेरी माताके प्राण नहीं निकलते। हाय! हाय! मुझे धिक्कार है, लोगों! देख लो! मुझ पुत्रके द्वारा मारे गये कुरुवीर अर्जुनका सुनहरा कवच यहाँ पृथ्वीपर फेंका पड़ा है’॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो पश्यत मे वीरं पितरं ब्राह्मणा भुवि।
शयानं वीरशयने मया पुत्रेण पातितम् ॥ २६ ॥

मूलम्

भो भो पश्यत मे वीरं पितरं ब्राह्मणा भुवि।
शयानं वीरशयने मया पुत्रेण पातितम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे ब्राह्मणो! देखो, मुझ पुत्रके द्वारा मार गिराये गये मेरे वीर पिता अर्जुन वीरशय्यापर सो रहे हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः कुरुमुख्यस्य ये मुक्ता हयसारिणः।
कुर्वन्ति शान्तिं कामस्य रणे योऽयं मया हतः ॥ २७ ॥

मूलम्

ब्राह्मणाः कुरुमुख्यस्य ये मुक्ता हयसारिणः।
कुर्वन्ति शान्तिं कामस्य रणे योऽयं मया हतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिरके घोड़ेके पीछे-पीछे चलनेवाले जो ब्राह्मणलोग शान्तिकर्म करनेके लिये नियुक्त हुए हैं, वे इनके लिये कौन-सी शान्ति करते थे, जो ये रणभूमिमें मेरेद्वारा मार डाले गये!॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यादिशन्तु च किं विप्राः प्रायश्चित्तमिहाद्य मे।
सुनृशंसस्य पापस्य पितृहन्तू रणाजिरे ॥ २८ ॥

मूलम्

व्यादिशन्तु च किं विप्राः प्रायश्चित्तमिहाद्य मे।
सुनृशंसस्य पापस्य पितृहन्तू रणाजिरे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मणो! मैं अत्यन्त क्रूर, पापी और समरांगणमें पिताकी हत्या करनेवाला हूँ। बताइये, मेरे लिये अब यहाँ कौन-सा प्रायश्चित्त है?॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुश्चरा द्वादशसमा हत्वा पितरमद्य वै।
ममेह सुनृशंसस्य संवीतस्यास्य चर्मणा ॥ २९ ॥
शिरःकपाले चास्यैव युञ्जतः पितुरद्य मे।
प्रायश्चित्तं हि नास्त्यन्यद्धत्वाद्य पितरं मम ॥ ३० ॥

मूलम्

दुश्चरा द्वादशसमा हत्वा पितरमद्य वै।
ममेह सुनृशंसस्य संवीतस्यास्य चर्मणा ॥ २९ ॥
शिरःकपाले चास्यैव युञ्जतः पितुरद्य मे।
प्रायश्चित्तं हि नास्त्यन्यद्धत्वाद्य पितरं मम ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज पिताकी हत्या करके मेरे लिये बारह वर्षोंतक कठोर व्रतका पालन करना अत्यन्त कठिन है। मुझ क्रूर पितृघातीके लिये यहाँ यही प्रायश्चित्त है कि मैं इन्हींके चमड़ेसे अपने शरीरको आच्छादित करके रहूँ और अपने पिताके मस्तक एवं कपालको धारण किये बारह वर्षोंतक विचरता रहूँ। पिताका वध करके अब मेरे लिये दूसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं है॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य नागोत्तमसुते भर्तारं निहतं मया।
कृतं प्रियं मया तेऽद्य निहत्य समरेऽर्जुनम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

पश्य नागोत्तमसुते भर्तारं निहतं मया।
कृतं प्रियं मया तेऽद्य निहत्य समरेऽर्जुनम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नागराजकुमारी! देखो, युद्धमें मैंने तुम्हारे स्वामीका वध किया है। सम्भव है आज समरांगणमें इस तरह अर्जुनकी हत्या करके मैंने तुम्हारा प्रिय कार्य किया हो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमद्य गमिष्यामि गतिं पितृनिषेविताम्।
न शक्नोम्यात्मनाऽऽत्मानमहं धारयितुं शुभे ॥ ३२ ॥

मूलम्

सोऽहमद्य गमिष्यामि गतिं पितृनिषेविताम्।
न शक्नोम्यात्मनाऽऽत्मानमहं धारयितुं शुभे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु शुभे! अब मैं इस शरीरको धारण नहीं कर सकता। आज मैं भी उस मार्गपर जाऊँगा, जहाँ मेरे पिताजी गये हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा त्वं मयि मृते मातस्तथा गाण्डीवधन्वनि।
भव प्रीतिमती देवि सत्येनात्मानमालभे ॥ ३३ ॥

मूलम्

सा त्वं मयि मृते मातस्तथा गाण्डीवधन्वनि।
भव प्रीतिमती देवि सत्येनात्मानमालभे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मातः! देवि! मेरे तथा गाण्डीवधारी अर्जुनके मर जानेपर तुम भलीभाँति प्रसन्न होना। मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ कि पिताजीके बिना मेरा जीवन असम्भव है’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा स ततो राजा दुःखशोकसमाहतः।
उपस्पृश्य महाराज दुःखाद् वचनमब्रवीत् ॥ ३४ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा स ततो राजा दुःखशोकसमाहतः।
उपस्पृश्य महाराज दुःखाद् वचनमब्रवीत् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ऐसा कहकर दुःख और शोकसे पीड़ित हुए राजा बभ्रुवाहनने आचमन किया और बड़े दुःखसे इस प्रकार कहा—॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृण्वन्तु सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च।
त्वं च मातर्यथा सत्यं ब्रवीमि भुजगोत्तमे ॥ ३५ ॥

मूलम्

शृण्वन्तु सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च।
त्वं च मातर्यथा सत्यं ब्रवीमि भुजगोत्तमे ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संसारके समस्त चराचर प्राणियो! आप मेरी बात सुनें। नागराजकुमारी माता उलूपी! तुम भी सुन लो। मैं सच्ची बात बता रहा हूँ॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि नोत्तिष्ठति जयः पिता मे नरसत्तमः।
अस्मिन्नेव रणोद्देशे शोषयिष्ये कलेवरम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

यदि नोत्तिष्ठति जयः पिता मे नरसत्तमः।
अस्मिन्नेव रणोद्देशे शोषयिष्ये कलेवरम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मेरे पिता नरश्रेष्ठ अर्जुन आज जीवित हो पुनः उठकर खड़े नहीं हो जाते तो मैं इस रणभूमिमें ही उपवास करके अपने शरीरको सुखा डालूँगा॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मे पितरं हत्वा निष्कृतिर्विद्यते क्वचित्।
नरकं प्रतिपत्स्यामि ध्रुवं गुरुवधार्दितः ॥ ३७ ॥

मूलम्

न हि मे पितरं हत्वा निष्कृतिर्विद्यते क्वचित्।
नरकं प्रतिपत्स्यामि ध्रुवं गुरुवधार्दितः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पिताकी हत्या करके मेरे लिये कहीं कोई उद्धारका उपाय नहीं है। गुरुजन (पिता)-के वधरूपी पापसे पीड़ित हो मैं निश्चय ही नरकमें पड़ूँगा’॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरं हि क्षत्रियं हत्वा गोशतेन प्रमुच्यते।
पितरं तु निहत्यैवं दुर्लभा निष्कृतिर्मम ॥ ३८ ॥

मूलम्

वीरं हि क्षत्रियं हत्वा गोशतेन प्रमुच्यते।
पितरं तु निहत्यैवं दुर्लभा निष्कृतिर्मम ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसी एक वीर क्षत्रियका वध करके विजेता वीर सौ गोदान करनेसे उस पापसे छुटकारा पाता है; परंतु पिताकी हत्या करके इस प्रकार उस पापसे छुटकारा मिल जाय, यह मेरे लिये सर्वथा दुर्लभ है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष एको महातेजाः पाण्डुपुत्रो धनंजयः।
पिता च मम धर्मात्मा तस्य मे निष्कृतिः कुतः॥३९॥

मूलम्

एष एको महातेजाः पाण्डुपुत्रो धनंजयः।
पिता च मम धर्मात्मा तस्य मे निष्कृतिः कुतः॥३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये पाण्डुपुत्र धनंजय अद्वितीय वीर, महान् तेजस्वी, धर्मात्मा तथा मेरे पिता थे। इनका वध करके मैंने महान् पाप किया है। अब मेरा उद्धार कैसे हो सकता है?’॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा नृपते धनंजयसुतो नृपः।
उपस्पृश्याभवत् तूष्णीं प्रायोपेतो महामतिः ॥ ४० ॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा नृपते धनंजयसुतो नृपः।
उपस्पृश्याभवत् तूष्णीं प्रायोपेतो महामतिः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! ऐसा कहकर धनंजयकुमार परम बुद्धिमान् राजा बभ्रुवाहन पुनः आचमन करके आमरण उपवासका व्रत लेकर चुपचाप बैठ गया॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायोपविष्टे नृपतौ मणिपूरेश्वरे तदा।
पितृशोकसमाविष्टे सह मात्रा परंतप ॥ ४१ ॥
उलूपी चिन्तयामास तदा संजीवनं मणिम्।
स चोपातिष्ठत तदा पन्नगानां परायणम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

प्रायोपविष्टे नृपतौ मणिपूरेश्वरे तदा।
पितृशोकसमाविष्टे सह मात्रा परंतप ॥ ४१ ॥
उलूपी चिन्तयामास तदा संजीवनं मणिम्।
स चोपातिष्ठत तदा पन्नगानां परायणम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— शत्रुओंको संताप देनेवाले जनमेजय! पिताके शोकसे संतप्त हुआ मणिपुरनरेश बभ्रुवाहन जब माताके साथ आमरण उपवासका व्रत लेकर बैठ गया, तब उलूपीने संजीवनमणिका स्मरण किया। नागोंके जीवनकी आधारभूत वह मणि उसके स्मरण करते ही वहाँ आ गयी॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं गृहीत्वा तु कौरव्य नागराजपतेः सुता।
मनःप्रह्लादनीं वाचं सैनिकानामथाब्रवीत् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तं गृहीत्वा तु कौरव्य नागराजपतेः सुता।
मनःप्रह्लादनीं वाचं सैनिकानामथाब्रवीत् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! उस मणिको लेकर नागराजकुमारी उलूपी सैनिकोंके मनको आह्लाद प्रदान करनेवाली बात बोली—॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तिष्ठ मा शुचः पुत्र नैव विष्णुस्त्वया जितः।
अजेयः पुरुषैरेष तथा देवैः सवासवैः ॥ ४४ ॥

मूलम्

उत्तिष्ठ मा शुचः पुत्र नैव विष्णुस्त्वया जितः।
अजेयः पुरुषैरेष तथा देवैः सवासवैः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा बभ्रुवाहन! उठो, शोक न करो! ये अर्जुन तुम्हारे द्वारा परास्त नहीं हुए हैं। ये तो सभी मनुष्यों और इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी अजेय हैं॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया तु मोहनी नाम मायैषा सम्प्रदर्शिता।
प्रियार्थं पुरुषेन्द्रस्य पितुस्तेऽद्य यशस्विनः ॥ ४५ ॥

मूलम्

मया तु मोहनी नाम मायैषा सम्प्रदर्शिता।
प्रियार्थं पुरुषेन्द्रस्य पितुस्तेऽद्य यशस्विनः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह तो मैंने आज तुम्हारे यशस्वी पिता पुरुषप्रवर धनंजयका प्रिय करनेके लिये मोहनी माया दिखलायी है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिज्ञासुर्ह्येष पुत्रस्य बलस्य तव कौरवः।
संग्रामे युद्ध्यतो राजन्नागतः परवीरहा ॥ ४६ ॥
तस्मादसि मया पुत्र युद्धाय परिचोदितः।
मा पापमात्मनः पुत्र शङ्केथा ह्यण्वपि प्रभो ॥ ४७ ॥

मूलम्

जिज्ञासुर्ह्येष पुत्रस्य बलस्य तव कौरवः।
संग्रामे युद्ध्यतो राजन्नागतः परवीरहा ॥ ४६ ॥
तस्मादसि मया पुत्र युद्धाय परिचोदितः।
मा पापमात्मनः पुत्र शङ्केथा ह्यण्वपि प्रभो ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुम इनके पुत्र हो। ये शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कुरुकुलतिलक अर्जुन संग्राममें जूझते हुए तुम-जैसे बेटेका बल-पराक्रम जानना चाहते थे। वत्स! इसीलिये मैंने तुम्हें युद्धके लिये प्रेरित किया है। सामर्थ्यशाली पुत्र! तुम अपनेमें अणुमात्र पापकी भी आशंका न करो॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिरेष महानात्मा पुराणः शाश्वतोऽक्षरः।
नैनं शक्तो हि संग्रामे जेतुं शक्रोऽपि पुत्रक ॥ ४८ ॥

मूलम्

ऋषिरेष महानात्मा पुराणः शाश्वतोऽक्षरः।
नैनं शक्तो हि संग्रामे जेतुं शक्रोऽपि पुत्रक ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये महात्मा नर पुरातन ऋषि, सनातन एवं अविनाशी हैं। बेटा! युद्धमें इन्हें इन्द्र भी नहीं जीत सकते॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं तु मे मणिर्दिव्यः समानीतो विशाम्पते।
मृतान् मृतान् पन्नगेन्द्रान् यो जीवयति नित्यदा ॥ ४९ ॥
एनमस्योरसि त्वं च स्थापयस्व पितुः प्रभो।
संजीवितं तदा पार्थं स त्वं द्रष्टासि पाण्डवम् ॥ ५० ॥

मूलम्

अयं तु मे मणिर्दिव्यः समानीतो विशाम्पते।
मृतान् मृतान् पन्नगेन्द्रान् यो जीवयति नित्यदा ॥ ४९ ॥
एनमस्योरसि त्वं च स्थापयस्व पितुः प्रभो।
संजीवितं तदा पार्थं स त्वं द्रष्टासि पाण्डवम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रजानाथ! मैं यह दिव्यमणि ले आयी हूँ। यह सदा युद्धमें मरे हुए नागराजोंको जीवित किया करती है। प्रभो! तुम इसे लेकर अपने पिताकी छातीपर रख दो। फिर तुम पाण्डुपुत्र कुन्तीकुमार अर्जुनको जीवित हुआ देखोगे’॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स्थापयामास तस्योरसि मणिं तदा।
पार्थस्यामिततेजाः स पितुः स्नेहादपापकृत् ॥ ५१ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स्थापयामास तस्योरसि मणिं तदा।
पार्थस्यामिततेजाः स पितुः स्नेहादपापकृत् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उलूपीके ऐसा कहनेपर निष्पाप कर्म करनेवाले अमित तेजस्वी बभ्रुवाहनने अपने पिता पार्थकी छातीपर स्नेहपूर्वक वह मणि रख दी॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् न्यस्ते मणौ वीरो जिष्णुरुज्जीवितः प्रभुः।
चिरसुप्त इवोत्तस्थौ मृष्टलोहितलोचनः ॥ ५२ ॥

मूलम्

तस्मिन् न्यस्ते मणौ वीरो जिष्णुरुज्जीवितः प्रभुः।
चिरसुप्त इवोत्तस्थौ मृष्टलोहितलोचनः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मणिके रखते ही शक्तिशाली वीर अर्जुन देरतक सोकर जगे हुए मनुष्यकी भाँति अपनी लाल आँखें मलते हुए पुनः जीवित हो उठे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुत्थितं महात्मानं लब्धसंज्ञं मनस्विनम्।
समीक्ष्य पितरं स्वस्थं ववन्दे बभ्रुवाहनः ॥ ५३ ॥

मूलम्

तमुत्थितं महात्मानं लब्धसंज्ञं मनस्विनम्।
समीक्ष्य पितरं स्वस्थं ववन्दे बभ्रुवाहनः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने मनस्वी पिता महात्मा अर्जुनको सचेत एवं स्वस्थ होकर उठा हुआ देख बभ्रुवाहनने उनके चरणोंमें प्रणाम किया॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थिते पुरुषव्याघ्रे पुनर्लक्ष्मीवति प्रभो।
दिव्याः सुमनसः पुण्या ववृषे पाकशासनः ॥ ५४ ॥

मूलम्

उत्थिते पुरुषव्याघ्रे पुनर्लक्ष्मीवति प्रभो।
दिव्याः सुमनसः पुण्या ववृषे पाकशासनः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! पुरुषसिंह श्रीमान् अर्जुनके पुनः उठ जानेपर पाकशासन इन्द्रने उनके ऊपर दिव्य एवं पवित्र फूलोंकी वर्षा की॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाहता दुन्दुभयो विनेदुर्मेघनिःस्वनाः ।
साधु साध्विति चाकाशे बभूव सुमहान् स्वनः ॥ ५५ ॥

मूलम्

अनाहता दुन्दुभयो विनेदुर्मेघनिःस्वनाः ।
साधु साध्विति चाकाशे बभूव सुमहान् स्वनः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाली देव-दुन्दुभियाँ बिना बजाये ही बज उठीं और आकाशमें साधुवादकी महान् ध्वनि गूँजने लगी॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थाय च महाबाहुः पर्याश्वस्तो धनंजयः।
बभ्रुवाहनमालिङ्ग्य समाजिघ्रत मूर्धनि ॥ ५६ ॥

मूलम्

उत्थाय च महाबाहुः पर्याश्वस्तो धनंजयः।
बभ्रुवाहनमालिङ्ग्य समाजिघ्रत मूर्धनि ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु अर्जुन भलीभाँति स्वस्थ होकर उठे और बभ्रुवाहनको हृदयसे लगाकर उसका मस्तक सूँघने लगे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श चापि दूरेऽस्य मातरं शोककर्शिताम्।
उलूप्या सह तिष्ठन्तीं ततोऽपृच्छद् धनंजयः ॥ ५७ ॥

मूलम्

ददर्श चापि दूरेऽस्य मातरं शोककर्शिताम्।
उलूप्या सह तिष्ठन्तीं ततोऽपृच्छद् धनंजयः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे थोड़ी ही दूरपर बभ्रुवाहनकी शोकाकुल माता चित्रांगदा उलूपीके साथ खड़ी थी। अर्जुनने जब उसे देखा, तब बभ्रुवाहनसे पूछा—॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिदं लक्ष्यते सर्वं शोकविस्मयहर्षवत्।
रणाजिरममित्रघ्न यदि जानासि शंस मे ॥ ५८ ॥

मूलम्

किमिदं लक्ष्यते सर्वं शोकविस्मयहर्षवत्।
रणाजिरममित्रघ्न यदि जानासि शंस मे ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंका संहार करनेवाले वीर पुत्र! यह सारा समरांगण शोक, विस्मय और हर्षसे युक्त क्यों दिखायी देता है? यदि जानते हो तो मुझे बताओ॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जननी च किमर्थं ते रणभूमिमुपागता।
नागेन्द्रदुहिता चेयमुलूपी किमिहागता ॥ ५९ ॥

मूलम्

जननी च किमर्थं ते रणभूमिमुपागता।
नागेन्द्रदुहिता चेयमुलूपी किमिहागता ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारी माता किसलिये रणभूमिमें आयी है? तथा इस नागराजकन्या उलूपीका आगमन भी यहाँ किसलिये हुआ है?॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानाम्यहमिदं युद्धं त्वया मद्‌‌वचनात् कृतम्।
स्त्रीणामागमने हेतुमहमिच्छामि वेदितुम् ॥ ६० ॥

मूलम्

जानाम्यहमिदं युद्धं त्वया मद्‌‌वचनात् कृतम्।
स्त्रीणामागमने हेतुमहमिच्छामि वेदितुम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तो इतना ही जानता हूँ कि तुमने मेरे कहनेसे यह युद्ध किया है; परंतु यहाँ स्त्रियोंके आनेका क्या कारण है? यह मैं जानना चाहता हूँ’॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच तथा पृष्टो मणिपूरपतिस्तदा।
प्रसाद्य शिरसा विद्वानुलूपी पृच्छ्यतामियम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

तमुवाच तथा पृष्टो मणिपूरपतिस्तदा।
प्रसाद्य शिरसा विद्वानुलूपी पृच्छ्यतामियम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताके इस प्रकार पूछनेपर विद्वान् मणिपुरनरेशने पिताके चरणोंमें सिर रखकर उन्हें प्रसन्न किया और कहा—‘पिताजी! यह वृत्तान्त आप माता उलूपीसे पूछिये’॥६१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अश्वानुसरणे अर्जुनप्रत्युज्जीवने अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अश्वानुसरणके प्रसंगमें अर्जुनका पुनर्जीवनविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८०॥