०७९ अर्जुनबभ्रुवाहनयुद्धे

भागसूचना

एकोनाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुन और बभ्रुवाहनका युद्ध एवं अर्जुनकी मृत्यु

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु नृपतिः प्राप्तं पितरं बभ्रुवाहनः।
निर्ययौ विनयेनाथ ब्राह्मणार्थपुरःसरः ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तु नृपतिः प्राप्तं पितरं बभ्रुवाहनः।
निर्ययौ विनयेनाथ ब्राह्मणार्थपुरःसरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! मणिपुरनरेश बभ्रुवाहनने जब सुना कि मेरे पिता आये हैं, तब वह ब्राह्मणोंको आगे करके बहुत-सा धन साथमें लेकर बड़ी विनयके साथ उनके दर्शनके लिये नगरसे बाहर निकला॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मणिपूरेश्वरं त्वेवमुपयातं धनंजयः ।
नाभ्यनन्दत् स मेधावी क्षत्रधर्ममनुस्मरन् ॥ २ ॥

मूलम्

मणिपूरेश्वरं त्वेवमुपयातं धनंजयः ।
नाभ्यनन्दत् स मेधावी क्षत्रधर्ममनुस्मरन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मणिपुर-नरेशको इस प्रकार आया देख परम बुद्धिमान् धनंजयने क्षत्रिय-धर्मका आश्रय लेकर उसका आदर नहीं किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच च स धर्मात्मा समन्युः फाल्गुनस्तदा।
प्रक्रियेयं न ते युक्ता बहिस्त्वं क्षत्रधर्मतः ॥ ३ ॥

मूलम्

उवाच च स धर्मात्मा समन्युः फाल्गुनस्तदा।
प्रक्रियेयं न ते युक्ता बहिस्त्वं क्षत्रधर्मतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय धर्मात्मा अर्जुन कुछ कुपित होकर बोले—‘बेटा! तेरा यह ढंग ठीक नहीं है। जान पड़ता है, तू क्षत्रिय-धर्मसे बहिष्कृत हो गया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संरक्ष्यमाणं तुरगं यौधिष्ठिरमुपागतम् ।
यज्ञियं विषयान्ते मां नायौत्सीः किं नु पुत्रक ॥ ४ ॥

मूलम्

संरक्ष्यमाणं तुरगं यौधिष्ठिरमुपागतम् ।
यज्ञियं विषयान्ते मां नायौत्सीः किं नु पुत्रक ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्र! मैं महाराज युधिष्ठिरके यज्ञ-सम्बन्धी अश्वकी रक्षा करता हुआ तेरे राज्यके भीतर आया हूँ। फिर भी तू मुझसे युद्ध क्यों नहीं करता?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिक् त्वामस्तु सुदुर्बुद्धिं क्षत्रधर्मबहिष्कृतम्।
यो मां युद्धाय सम्प्राप्तं साम्नैव प्रत्यगृह्णथाः ॥ ५ ॥

मूलम्

धिक् त्वामस्तु सुदुर्बुद्धिं क्षत्रधर्मबहिष्कृतम्।
यो मां युद्धाय सम्प्राप्तं साम्नैव प्रत्यगृह्णथाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुझ दुर्बुद्धिको धिक्कार है, तू निश्चय ही क्षत्रियधर्मसे भ्रष्ट हो गया है, क्योंकि युद्धके लिये आये हुए मेरा स्वागत-सत्कार तू सामनीतिसे कर रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वया पुरुषार्थो हि कश्चिदस्तीह जीवता।
यस्त्वं स्त्रीवद् यथाप्राप्तं मां साम्ना प्रत्यगृह्णथाः ॥ ६ ॥

मूलम्

न त्वया पुरुषार्थो हि कश्चिदस्तीह जीवता।
यस्त्वं स्त्रीवद् यथाप्राप्तं मां साम्ना प्रत्यगृह्णथाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तूने संसारमें जीवित रहकर भी कोई पुरुषार्थ नहीं किया। तभी तो एक स्त्रीकी भाँति तू यहाँ युद्धके लिये आये हुए मुझे शान्तिपूर्वक साथ लेनेके लिये चेष्टा कर रहा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यहं न्यस्तशस्त्रस्त्वामागच्छेयं सुदुर्मते ।
प्रक्रियेयं भवेद् युक्ता तावत् तव नराधम ॥ ७ ॥

मूलम्

यद्यहं न्यस्तशस्त्रस्त्वामागच्छेयं सुदुर्मते ।
प्रक्रियेयं भवेद् युक्ता तावत् तव नराधम ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्बुद्धे! नराधम! यदि मैं हथियार रखकर खाली हाथ तेरे पास आता तो इस ढंगसे मिलना ठीक हो सकता था’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवमुक्तं भर्त्रा तु विदित्वा पन्नगात्मजा।
अमृष्यमाणा भित्त्वोर्वीमुलूपी समुपागमत् ॥ ८ ॥

मूलम्

तमेवमुक्तं भर्त्रा तु विदित्वा पन्नगात्मजा।
अमृष्यमाणा भित्त्वोर्वीमुलूपी समुपागमत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिदेव अर्जुन जब अपने पुत्र बभ्रुवाहनसे ऐसी बात कह रहे थे, उस समय नागकन्या उलूपी उस बातको सुनकर उनके अभिप्रायको जान गयी और उनके द्वारा किये गये पुत्रके तिरस्कारको सहन न कर सकनेके कारण वह धरती छेदकर वहाँ चली आयी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा ददर्श ततः पुत्रं विमृशन्तमधोमुखम्।
संतर्ज्यमानमसकृत् पित्रा युद्धार्थिना प्रभो ॥ ९ ॥
ततः सा चारुसर्वाङ्गी समुपेत्योरगात्मजा।
उलूपी प्राह वचनं धर्म्यं धर्मविशारदम् ॥ १० ॥

मूलम्

सा ददर्श ततः पुत्रं विमृशन्तमधोमुखम्।
संतर्ज्यमानमसकृत् पित्रा युद्धार्थिना प्रभो ॥ ९ ॥
ततः सा चारुसर्वाङ्गी समुपेत्योरगात्मजा।
उलूपी प्राह वचनं धर्म्यं धर्मविशारदम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! उसने देखा कि पुत्र बभ्रुवाहन नीचे मुँह किये किसी सोच-विचारमें पड़ा हुआ है और युद्धार्थी पिता उसे बारंबार डाँट-फटकार रहे हैं। तब मनोहर अंगोंवाली नागकन्या उलूपी धर्म-निपुण बभ्रुवाहनके पास आकर यह धर्मसम्मत बात बोली—॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूपीं मां निबोध त्वं मातरं पन्नगात्मजाम्।
कुरुष्व वचनं पुत्र धर्मस्ते भविता परः ॥ ११ ॥

मूलम्

उलूपीं मां निबोध त्वं मातरं पन्नगात्मजाम्।
कुरुष्व वचनं पुत्र धर्मस्ते भविता परः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! तुम्हें विदित होना चाहिये कि मैं तुम्हारी विमाता नागकन्या उलूपी हूँ। तुम मेरी आज्ञाका पालन करो। इससे तुम्हें महान् धर्मकी प्राप्ति होगी’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युध्यस्वैनं कुरुश्रेष्ठं पितरं युद्धदुर्मदम्।
एवमेष हि ते प्रीतो भविष्यति न संशयः ॥ १२ ॥

मूलम्

युध्यस्वैनं कुरुश्रेष्ठं पितरं युद्धदुर्मदम्।
एवमेष हि ते प्रीतो भविष्यति न संशयः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे पिता कुरुकुलके श्रेष्ठ वीर और युद्धके मदसे उन्मत्त रहनेवाले हैं। अतः इनके साथ अवश्य युद्ध करो। ऐसा करनेसे ये तुमपर प्रसन्न होंगे। इसमें संशय नहीं है’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दुर्मर्षितो राजा स मात्रा बभ्रुवाहनः।
मनश्चक्रे महातेजा युद्धाय भरतर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

एवं दुर्मर्षितो राजा स मात्रा बभ्रुवाहनः।
मनश्चक्रे महातेजा युद्धाय भरतर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! माताके द्वारा इस प्रकार अमर्ष दिलाये जानेपर महातेजस्वी राजा बभ्रुवाहनने मन-ही-मन युद्ध करनेका निश्चय किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संनह्य काञ्चनं वर्म शिरस्त्राणं च भानुमत्।
तूणीरशतसम्बाधमारुरोह रथोत्तमम् ॥ १४ ॥

मूलम्

संनह्य काञ्चनं वर्म शिरस्त्राणं च भानुमत्।
तूणीरशतसम्बाधमारुरोह रथोत्तमम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णमय कवच पहनकर तेजस्वी शिरस्त्राण (टोप) धारण करके वह सैकड़ों तरकसोंसे भरे हुए उत्तम रथपर आरूढ़ हुआ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वोपकरणोपेतं युक्तमश्वैर्मनोजवैः ।
सचक्रोपस्करं श्रीमान् हेमभाण्डपरिष्कृतम् ॥ १५ ॥
परमार्चितमुच्छ्रित्य ध्वजं सिंहं हिरण्मयम्।
प्रययौ पार्थमुद्दिश्य स राजा बभ्रुवाहनः ॥ १६ ॥

मूलम्

सर्वोपकरणोपेतं युक्तमश्वैर्मनोजवैः ।
सचक्रोपस्करं श्रीमान् हेमभाण्डपरिष्कृतम् ॥ १५ ॥
परमार्चितमुच्छ्रित्य ध्वजं सिंहं हिरण्मयम्।
प्रययौ पार्थमुद्दिश्य स राजा बभ्रुवाहनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रथमें सब प्रकारकी युद्ध-सामग्री सजाकर रखी गयी थी। मनके समान वेगशाली घोड़े जुते हुए थे। चक्र और अन्य आवश्यक सामान भी प्रस्तुत थे। सोनेके भाण्ड उसकी शोभा बढ़ाते थे। सुवर्णसे ही उस रथका निर्माण हुआ था। उसपर सिंहके चिह्नवाली ऊँची ध्वजा फहरा रही थी। उस परम पूजित उत्तम रथपर सवार हो श्रीमान् राजा बभ्रुवाहन अर्जुनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ा॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभ्येत्य हयं वीरो यज्ञियं पार्थरक्षितम्।
ग्राहयामास पुरुषैर्हयशिक्षाविशारदैः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततोऽभ्येत्य हयं वीरो यज्ञियं पार्थरक्षितम्।
ग्राहयामास पुरुषैर्हयशिक्षाविशारदैः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थद्वारा सुरक्षित उस यज्ञसम्बन्धी अश्वके पास जाकर उस वीरने अश्वशिक्षाविशारद पुरुषोंद्वारा उसे पकड़वा लिया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीतं वाजिनं दृष्ट्वा प्रीतात्मा स धनंजयः।
पुत्रं रथस्थं भूमिष्ठः संन्यवारयदाहवे ॥ १८ ॥

मूलम्

गृहीतं वाजिनं दृष्ट्वा प्रीतात्मा स धनंजयः।
पुत्रं रथस्थं भूमिष्ठः संन्यवारयदाहवे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़ेको पकड़ा गया देख अर्जुन मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए। यद्यपि वे भूमिपर खड़े थे तो भी रथपर बैठे हुए अपने पुत्रको युद्धके मैदानमें आगे बढ़नेसे रोकने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र राजा तं वीरं शरसंघैरनेकशः।
अर्दयामास निशितैराशीविषविषोपमैः ॥ १९ ॥

मूलम्

स तत्र राजा तं वीरं शरसंघैरनेकशः।
अर्दयामास निशितैराशीविषविषोपमैः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बभ्रुवाहनने वहाँ अपने वीर पिताको विषैले साँपोंके समान जहरीले और तेज किये हुए सैकड़ों बाण-समूहोंद्वारा बींधकर अनेक बार पीड़ित किया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः समभवद् युद्धं पितुः पुत्रस्य चातुलम्।
देवासुररणप्रख्यमुभयोः प्रीयमाणयोः ॥ २० ॥

मूलम्

तयोः समभवद् युद्धं पितुः पुत्रस्य चातुलम्।
देवासुररणप्रख्यमुभयोः प्रीयमाणयोः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पिता और पुत्र दोनों प्रसन्न होकर लड़ रहे थे। उन दोनोंका वह युद्ध देवासुर-संग्रामके समान भयंकर जान पड़ता था। उसकी इस जगत्‌में कहीं भी तुलना नहीं थी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरीटिनं प्रविव्याध शरेणानतपर्वणा ।
जत्रुदेशे नरव्याघ्रं प्रहसन् बभ्रुवाहनः ॥ २१ ॥

मूलम्

किरीटिनं प्रविव्याध शरेणानतपर्वणा ।
जत्रुदेशे नरव्याघ्रं प्रहसन् बभ्रुवाहनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बभ्रुवाहनने हँसते-हँसते पुरुषसिंह अर्जुनके गलेकी हँसलीमें झुकी हुई गाँठवाले एक बाणद्वारा गहरी चोट पहुँचायी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽभ्यगात् सह पुङ्खेन वल्मीकमिव पन्नगः।
विनिर्भिद्य च कौन्तेयं प्रविवेश महीतलम् ॥ २२ ॥

मूलम्

सोऽभ्यगात् सह पुङ्खेन वल्मीकमिव पन्नगः।
विनिर्भिद्य च कौन्तेयं प्रविवेश महीतलम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे साँप बाँबीमें घुस जाता है, उसी प्रकार वह बाण अर्जुनके शरीरमें पंखसहित घुस गया और उसे छेदकर पृथ्वीमें समा गया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गाढवेदनो धीमानालम्ब्य धनुरुत्तमम्।
दिव्यं तेजः समाविश्य प्रमीत इव सोऽभवत् ॥ २३ ॥

मूलम्

स गाढवेदनो धीमानालम्ब्य धनुरुत्तमम्।
दिव्यं तेजः समाविश्य प्रमीत इव सोऽभवत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे अर्जुनको बड़ी वेदना हुई। बुद्धिमान् अर्जुन अपने उत्तम धनुषका सहारा लेकर दिव्य तेजमें स्थित हो मुर्देके समान हो गये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स संज्ञामुपलभ्याथ प्रशस्य पुरुषर्षभः।
पुत्रं शक्रात्मजो वाक्यमिदमाह महाद्युतिः ॥ २४ ॥

मूलम्

स संज्ञामुपलभ्याथ प्रशस्य पुरुषर्षभः।
पुत्रं शक्रात्मजो वाक्यमिदमाह महाद्युतिः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी देर बाद होशमें आनेपर महातेजस्वी पुरुषप्रवर इन्द्रकुमार अर्जुनने अपने पुत्रकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा—॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु साधु महाबाहो वत्स चित्राङ्गदात्मज।
सदृशं कर्म ते दृष्ट्वा प्रीतिमानस्मि पुत्रक ॥ २५ ॥

मूलम्

साधु साधु महाबाहो वत्स चित्राङ्गदात्मज।
सदृशं कर्म ते दृष्ट्वा प्रीतिमानस्मि पुत्रक ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु चित्रांगदाकुमार! तुम्हें साधुवाद। वत्स! तुम धन्य हो। पुत्र! तुम्हारे योग्य पराक्रम देखकर मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुञ्चाम्येष ते बाणान् पुत्र युद्धे स्थिरो भव।
इत्येवमुक्त्वा नाराचैरभ्यवर्षदमित्रहा ॥ २६ ॥

मूलम्

विमुञ्चाम्येष ते बाणान् पुत्र युद्धे स्थिरो भव।
इत्येवमुक्त्वा नाराचैरभ्यवर्षदमित्रहा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अच्छा बेटा! अब मैं तुमपर बाण छोड़ता हूँ। तुम सावधान एवं स्थिर हो जाओ।’ ऐसा कहकर शत्रुसूदन अर्जुनने बभ्रुवाहनपर नाराचोंकी वर्षा आरम्भ कर दी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् स गाण्डीवनिर्मुक्तान्‌ वज्राशनिसमप्रभान्।
नाराचानच्छिनद् राजा भल्लैःसर्वांस्त्रिधा द्विधा ॥ २७ ॥

मूलम्

तान् स गाण्डीवनिर्मुक्तान्‌ वज्राशनिसमप्रभान्।
नाराचानच्छिनद् राजा भल्लैःसर्वांस्त्रिधा द्विधा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु राजा बभ्रुवाहनने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए वज्र और बिजलीके समान तेजस्वी उन समस्त नाराचोंको अपने भल्लोंद्वारा मारकर प्रत्येकके दो-दो, तीन-तीन टुकड़े कर दिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पार्थः शरैर्दिव्यैर्ध्वजं हेमपरिष्कृतम्।
सुवर्णतालप्रतिमं क्षुरेणापाहरद् रथात् ॥ २८ ॥
हयांश्चास्य महाकायान् महावेगानरिंदम ।
चकार राजन् निर्जीवान् प्रहसन्निव पाण्डवः ॥ २९ ॥

मूलम्

तस्य पार्थः शरैर्दिव्यैर्ध्वजं हेमपरिष्कृतम्।
सुवर्णतालप्रतिमं क्षुरेणापाहरद् रथात् ॥ २८ ॥
हयांश्चास्य महाकायान् महावेगानरिंदम ।
चकार राजन् निर्जीवान् प्रहसन्निव पाण्डवः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब पाण्डुपुत्र अर्जुनने हँसते हुए-से अपने क्षुर नामक दिव्य बाणोंद्वारा बभ्रुवाहनके रथसे सुनहरे तालवृक्षके समान ऊँची सुवर्णभूषित ध्वजा काट गिरायी। शत्रुदमन नरेश! साथ ही उन्होंने उसके महान् वेगशाली विशालकाय घोड़ोंके भी प्राण ले लिये॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रथादवतीर्याथ राजा परमकोपनः।
पदातिः पितरं क्रुद्धो योधयामास पाण्डवम् ॥ ३० ॥

मूलम्

स रथादवतीर्याथ राजा परमकोपनः।
पदातिः पितरं क्रुद्धो योधयामास पाण्डवम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रथसे उतरकर परम क्रोधी राजा बभ्रुवाहन कुपित हो पैदल ही अपने पिता पाण्डुपुत्र अर्जुनके साथ युद्ध करने लगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रीयमाणः पार्थानामृषभः पुत्रविक्रमात् ।
नात्यर्थं पीडयामास पुत्रं वज्रधरात्मजः ॥ ३१ ॥

मूलम्

सम्प्रीयमाणः पार्थानामृषभः पुत्रविक्रमात् ।
नात्यर्थं पीडयामास पुत्रं वज्रधरात्मजः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्रोंमें श्रेष्ठ इन्द्रकुमार अर्जुन अपने बेटेके पराक्रमसे बहुत प्रसन्न हुए थे। इसलिये वे उसे अधिक पीड़ा नहीं देते थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मन्यमानो विमुखं पितरं बभ्रुवाहनः।
शरैराशीविषाकारैः पुनरेवार्दयद् बली ॥ ३२ ॥

मूलम्

स मन्यमानो विमुखं पितरं बभ्रुवाहनः।
शरैराशीविषाकारैः पुनरेवार्दयद् बली ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् बभ्रुवाहन पिताको युद्धसे विरत मानकर विषधर सर्पोंके समान विषैले बाणोंद्वारा उन्हें पुनः पीड़ा देने लगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स बाल्यात् पितरं विव्याध हृदि पत्रिणा।
निशितेन सुपुङ्खेन बलवद् बभ्रुवाहनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततः स बाल्यात् पितरं विव्याध हृदि पत्रिणा।
निशितेन सुपुङ्खेन बलवद् बभ्रुवाहनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने बालोचित अविवेकके कारण परिणामपर विचार किये बिना ही सुन्दर पाँखवाले एक तीखे बाणद्वारा पिताकी छातीमें एक गहरा आघात किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवेश पाण्डवं राजन् मर्म भित्त्वातिदुःखकृत्।
स तेनातिभृशं विद्धः पुत्रेण कुरुनन्दनः ॥ ३४ ॥
महीं जगाम मोहार्तस्ततो राजन् धनंजयः।

मूलम्

विवेश पाण्डवं राजन् मर्म भित्त्वातिदुःखकृत्।
स तेनातिभृशं विद्धः पुत्रेण कुरुनन्दनः ॥ ३४ ॥
महीं जगाम मोहार्तस्ततो राजन् धनंजयः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह अत्यन्त दुःखदायी बाण पाण्डुपुत्र अर्जुनके मर्म-स्थलको विदीर्ण करके भीतर घुस गया। महाराज! पुत्रके चलाये हुए उस बाणसे अत्यन्त घायल होकर कुरुनन्दन अर्जुन मूर्च्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् निपतिते वीरे कौरवाणां धुरंधरे ॥ ३५ ॥
सोऽपि मोहं जगामाथ ततश्चित्राङ्गदासुतः।

मूलम्

तस्मिन् निपतिते वीरे कौरवाणां धुरंधरे ॥ ३५ ॥
सोऽपि मोहं जगामाथ ततश्चित्राङ्गदासुतः।

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव-धुरंधर वीर अर्जुनके धराशायी होनेपर चित्रांगदाकुमार बभ्रुवाहन भी मूर्च्छित हो गया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यायम्य संयुगे राजा दृष्ट्वा च पितरं हतम् ॥ ३६ ॥
पूर्वमेव स बाणौघैर्गाढविद्धोऽर्जुनेन ह।
पपात सोऽपि धरणीमालिङ्ग्य रणमूर्धनि ॥ ३७ ॥

मूलम्

व्यायम्य संयुगे राजा दृष्ट्वा च पितरं हतम् ॥ ३६ ॥
पूर्वमेव स बाणौघैर्गाढविद्धोऽर्जुनेन ह।
पपात सोऽपि धरणीमालिङ्ग्य रणमूर्धनि ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बभ्रुवाहन युद्धस्थलमें बड़ा परिश्रम करके लड़ा था। वह भी अर्जुनके बाणसमूहोंद्वारा पहलेसे ही बहुत घायल हो चुका था। अतः पिताको मारा गया देख वह भी युद्धके मुहानेपर अचेत होकर गिर पड़ा और पृथ्वीका आलिंगन करने लगा॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्तारं निहतं दृष्ट्वा पुत्रं च पतितं भुवि।
चित्राङ्गदा परित्रस्ता प्रविवेश रणाजिरे ॥ ३८ ॥

मूलम्

भर्तारं निहतं दृष्ट्वा पुत्रं च पतितं भुवि।
चित्राङ्गदा परित्रस्ता प्रविवेश रणाजिरे ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिदेव मारे गये और पुत्र भी संज्ञाशून्य होकर पृथ्वीपर पड़ा है। यह देख चित्रांगदाने संतप्त हृदयसे समरांगणमें प्रवेश किया॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकसंतप्तहृदया रुदती वेपती भृशम्।
मणिपूरपतेर्माता ददर्श निहतं पतिम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

शोकसंतप्तहृदया रुदती वेपती भृशम्।
मणिपूरपतेर्माता ददर्श निहतं पतिम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मणिपुर-नरेशकी माताका हृदय शोकसे संतप्त हो उठा था! रोती और काँपती हुई चित्रांगदाने देखा कि पतिदेव मारे गये॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अर्जुनबभ्रुवाहनयुद्धे एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अर्जुन और बभ्रुवाहनका युद्धविषयक उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७९॥