०७७ सैन्धवयुद्धे

भागसूचना

सप्तसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनका सैन्धवोंके साथ युद्ध

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(जित्वा प्रसाद्य राजानं भगदत्तसुतं तदा।
विसृज्य याते तुरगे सैन्धवान् प्रति भारत॥)
सैन्धवैरभवद् युद्धं ततस्तस्य किरीटिनः।
हतशेषैर्महाराज हतानां च सुतैरपि ॥ १ ॥

मूलम्

(जित्वा प्रसाद्य राजानं भगदत्तसुतं तदा।
विसृज्य याते तुरगे सैन्धवान् प्रति भारत॥)
सैन्धवैरभवद् युद्धं ततस्तस्य किरीटिनः।
हतशेषैर्महाराज हतानां च सुतैरपि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भरतनन्दन! महाराज भगदत्तके पुत्र राजा वज्रदत्तको पराजित और प्रसन्न करनेके पश्चात् उसे विदा करके जब अर्जुनका घोड़ा सिंधुदेशमें गया, तब महाभारत-युद्धमें मरनेसे बचे हुए सिंधुदेशीय योद्धाओं तथा मारे गये राजाओंके पुत्रोंके साथ किरीटधारी अर्जुनका घोर संग्राम हुआ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽवतीर्णमुपश्रुत्य विषयं श्वेतवाहनम् ।
प्रत्युद्ययुरमृष्यन्तो राजानः पाण्डवर्षभम् ॥ २ ॥

मूलम्

तेऽवतीर्णमुपश्रुत्य विषयं श्वेतवाहनम् ।
प्रत्युद्ययुरमृष्यन्तो राजानः पाण्डवर्षभम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञके घोड़ेको और श्वेतवाहन अर्जुनको अपने राज्यके भीतर आया हुआ सुनकर वे सिंधुदेशीय क्षत्रिय अमर्षमें भरकर उन पाण्डवप्रवर अर्जुनका सामना करनेके लिये आगे बढ़े॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वं च तं परामृश्य विषयान्ते विषोपमाः।
न भयं चक्रिरे पार्थाद् भीमसेनादनन्तरात् ॥ ३ ॥

मूलम्

अश्वं च तं परामृश्य विषयान्ते विषोपमाः।
न भयं चक्रिरे पार्थाद् भीमसेनादनन्तरात् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे विषके समान भयंकर क्षत्रिय अपने राज्यके भीतर आये हुए उस घोड़ेको पकड़कर भीमसेनके छोटे भाई अर्जुनसे तनिक भी भयभीत नहीं हुए॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽविदूराद् धनुष्पाणिं यज्ञियस्य हयस्य च।
बीभत्सुं प्रत्यपद्यन्त पदातिनमवस्थितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तेऽविदूराद् धनुष्पाणिं यज्ञियस्य हयस्य च।
बीभत्सुं प्रत्यपद्यन्त पदातिनमवस्थितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञसम्बन्धी घोड़ेसे थोड़ी ही दूरपर अर्जुन हाथमें धनुष लिये पैदल ही खड़े थे। वे सभी क्षत्रिय उनके पास जा पहुँचे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते तं महावीर्या राजानः पर्यवारयन्।
जिगीषन्तो नरव्याघ्रं पूर्वं विनिकृता युधि ॥ ५ ॥

मूलम्

ततस्ते तं महावीर्या राजानः पर्यवारयन्।
जिगीषन्तो नरव्याघ्रं पूर्वं विनिकृता युधि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महापराक्रमी क्षत्रिय पहले युद्धमें अर्जुनसे परास्त हो चुके थे और अब उन पुरुषसिंह पार्थको जीतना चाहते थे। अतः उन सबने उन्हें घेर लिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते नामान्यपि गोत्राणि कर्माणि विविधानि च।
कीर्तयन्तस्तदा पार्थं शरवर्षैरवाकिरन् ॥ ६ ॥

मूलम्

ते नामान्यपि गोत्राणि कर्माणि विविधानि च।
कीर्तयन्तस्तदा पार्थं शरवर्षैरवाकिरन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अर्जुनसे अपने नाम, गोत्र और नाना प्रकारके कर्म बताते हुए उनपर बाणोंकी बौछार करने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते किरन्तः शरव्रातान् वारणप्रतिवारणान्।
रणे जयमभीप्सन्तः कौन्तेयं पर्यवारयन् ॥ ७ ॥

मूलम्

ते किरन्तः शरव्रातान् वारणप्रतिवारणान्।
रणे जयमभीप्सन्तः कौन्तेयं पर्यवारयन् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ऐसे बाणसमूहोंकी वर्षा करते थे, जो हाथियोंको भी आगे बढ़नेसे रोक देनेवाले थे। उन्होंने रणभूमिमें विजयकी अभिलाषा रखकर कुन्तीकुमारको घेर लिया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते समीक्ष्य च तं कृष्णमुग्रकर्माणमाहवे।
सर्वे युयुधिरे वीरा रथस्थास्तं पदातिनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

ते समीक्ष्य च तं कृष्णमुग्रकर्माणमाहवे।
सर्वे युयुधिरे वीरा रथस्थास्तं पदातिनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें भयानक कर्म करनेवाले अर्जुनको पैदल देखकर वे सभी वीर रथपर आरूढ़ हो उनके साथ युद्ध करने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तमाजघ्निरे वीरं निवातकवचान्तकम्।
संशप्तकनिहन्तारं हन्तारं सैन्धवस्य च ॥ ९ ॥

मूलम्

ते तमाजघ्निरे वीरं निवातकवचान्तकम्।
संशप्तकनिहन्तारं हन्तारं सैन्धवस्य च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निवातकवचोंका विनाश, संशप्तकोंका संहार और जयद्रथका वध करनेवाले वीर अर्जुनपर स्वैन्धवोंने सब ओरसे प्रहार आरम्भ कर दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथसहस्रेण हयानामयुतेन च।
कोष्ठकीकृत्य बीभत्सुं प्रहृष्टमनसोऽभवन् ॥ १० ॥

मूलम्

ततो रथसहस्रेण हयानामयुतेन च।
कोष्ठकीकृत्य बीभत्सुं प्रहृष्टमनसोऽभवन् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक हजार रथ और दस हजार घोड़ोंसे अर्जुनको घेरकर उन्हें कोष्ठबद्ध-सा करके वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हो रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं स्मरन्तो वधं वीराः सिन्धुराजस्य चाहवे।
जयद्रथस्य कौरव्य समरे सव्यसाचिना ॥ ११ ॥

मूलम्

तं स्मरन्तो वधं वीराः सिन्धुराजस्य चाहवे।
जयद्रथस्य कौरव्य समरे सव्यसाचिना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! कुरुक्षेत्रके समराङ्गणमें सव्यसाची अर्जुनके द्वारा जो सिंधुराज जयद्रथका वध हुआ था, उसकी याद उन वीरोंको कभी भूलती नहीं थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पर्जन्यवत् सर्वे शरवृष्टीरवासृजन्।
तैः कीर्णः शुशुभे पार्थो रविर्मेघान्तरे यथा ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः पर्जन्यवत् सर्वे शरवृष्टीरवासृजन्।
तैः कीर्णः शुशुभे पार्थो रविर्मेघान्तरे यथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब योद्धा मेघके समान अर्जुनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। उन बाणोंसे आच्छादित होकर कुन्ती-नन्दन अर्जुन बादलोंमें छिपे हुए सूर्यकी भाँति शोभा पा रहे थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शरैः समवच्छन्नश्चकाशे पाण्डवर्षभः।
पञ्चरान्तरसंचारी शकुन्त इव भारत ॥ १३ ॥

मूलम्

स शरैः समवच्छन्नश्चकाशे पाण्डवर्षभः।
पञ्चरान्तरसंचारी शकुन्त इव भारत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! बाणोंसे आच्छादित हुए पाण्डवप्रवर अर्जुन पींजड़ेके भीतर फुदकनेवाले पक्षीकी भाँति जान पड़ते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हाहाकृतं सर्वं कौन्तेये शरपीडिते।
त्रैलोक्यमभवद् राजन् रविरासीच्च निष्प्रभः ॥ १४ ॥

मूलम्

ततो हाहाकृतं सर्वं कौन्तेये शरपीडिते।
त्रैलोक्यमभवद् राजन् रविरासीच्च निष्प्रभः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कुन्तीकुमार अर्जुन जब इस प्रकार बाणोंसे पीड़ित हो गये, तब उनकी ऐसी अवस्था देख त्रिलोकी हाहाकार कर उठी और सूर्यदेवकी प्रभा फीकी पड़ गयी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ववौ महाराज मारुतो लोमहर्षणः।
राहुरग्रसदादित्यं युगपत् सोममेव च ॥ १५ ॥

मूलम्

ततो ववौ महाराज मारुतो लोमहर्षणः।
राहुरग्रसदादित्यं युगपत् सोममेव च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय रोंगटे खड़े कर देनेवाली प्रचण्ड वायु चलने लगी। राहुने एक ही समय सूर्य और चन्द्रमा दोनोंको ग्रस लिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उल्काश्च जघ्निरे सूर्यं विकीर्यन्त्यः समन्ततः।
वेपथुश्चाभवद् राजन् कैलासस्य महागिरेः ॥ १६ ॥

मूलम्

उल्काश्च जघ्निरे सूर्यं विकीर्यन्त्यः समन्ततः।
वेपथुश्चाभवद् राजन् कैलासस्य महागिरेः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर बिखरकर गिरती हुई उल्काएँ सूर्यसे टकराने लगीं। राजन्! उस समय महापर्वत कैलास भी काँपने लगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमुचुः श्वासमत्युष्णं दुःखशोकसमन्विताः ।
सप्तर्षयो जातभयास्तथा देवर्षयोऽपि च ॥ १७ ॥

मूलम्

मुमुचुः श्वासमत्युष्णं दुःखशोकसमन्विताः ।
सप्तर्षयो जातभयास्तथा देवर्षयोऽपि च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सप्तर्षियों और देवर्षियोंको भी भय होने लगा। वे दुःख और शोकसे संतप्त हो अत्यन्त गरम-गरम साँस छोड़ने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशं चाशु विनिर्भिद्य मण्डलं शशिनोऽपतत्।
विपरीता दिशश्चापि सर्वा धूमाकुलास्तथा ॥ १८ ॥

मूलम्

शशं चाशु विनिर्भिद्य मण्डलं शशिनोऽपतत्।
विपरीता दिशश्चापि सर्वा धूमाकुलास्तथा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वोक्त उल्काएँ चन्द्रमामें स्थित हुए शश-चिह्नका भेदन करके चन्द्रमण्डलके चारों ओर गिरने लगीं। सम्पूर्ण दिशाएँ धूमाच्छन्न होकर विपरीत प्रतीत होने लगीं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रासभारुणसंकाशा धनुष्मन्तः सविद्युतः ।
आवृत्य गगनं मेघा मुमुचुर्मांसशोणितम् ॥ १९ ॥

मूलम्

रासभारुणसंकाशा धनुष्मन्तः सविद्युतः ।
आवृत्य गगनं मेघा मुमुचुर्मांसशोणितम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गधेके समान रंग और लाल रंगके सम्मिश्रणसे जो रंग हो सकता है, वैसे वर्णवाले मेघ आकाशको घेरकर रक्त और मांसकी वर्षा करने लगे। उनमें इन्द्रधनुषका भी दर्शन होता था और बिजलियाँ भी कौंधती थीं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमासीत् तदा वीरे शरवर्षेण संवृते।
फाल्गुने भरतश्रेष्ठ तदद्‌भुतमिवाभवत् ॥ २० ॥

मूलम्

एवमासीत् तदा वीरे शरवर्षेण संवृते।
फाल्गुने भरतश्रेष्ठ तदद्‌भुतमिवाभवत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वीर अर्जुनके उस समय शत्रुओंकी बाण-वर्षासे आच्छादित हो जानेपर ऐसे-ऐसे उत्पात प्रकट होने लगे। वह अद्‌भुत-सी बात हुई॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तेनावकीर्णस्य शरजालेन सर्वतः।
मोहात् पपात गाण्डीवमावापश्च करादपि ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्य तेनावकीर्णस्य शरजालेन सर्वतः।
मोहात् पपात गाण्डीवमावापश्च करादपि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बाणसमूहके द्वारा सब ओरसे आच्छादित हुए अर्जुनपर मोह छा गया। उस समय उनके हाथसे गाण्डीव धनुष और दस्ताने गिर पड़े॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् मोहमनुप्राप्ते शरजालं महत् तदा।
सैन्धवा मुमुचुस्तूर्णं गतसत्त्वे महारथे ॥ २२ ॥

मूलम्

तस्मिन् मोहमनुप्राप्ते शरजालं महत् तदा।
सैन्धवा मुमुचुस्तूर्णं गतसत्त्वे महारथे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महारथी अर्जुन जब मोहग्रस्त एवं अचेत हो गये, उस समय भी सिंधुदेशीय योद्धा उनपर वेगपूर्वक महान् बाणसमूहकी वर्षा करते रहे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मोहसमापन्नं ज्ञात्वा पार्थं दिवौकसः।
सर्वे वित्रस्तमनसस्तस्य शान्तिकृतोऽभवन् ॥ २३ ॥

मूलम्

ततो मोहसमापन्नं ज्ञात्वा पार्थं दिवौकसः।
सर्वे वित्रस्तमनसस्तस्य शान्तिकृतोऽभवन् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनको मोहके वशीभूत हुआ जान सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन संत्रस्त हो गये और उनके लिये शान्तिका उपाय करने लगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवर्षयः सर्वे तथा सप्तर्षयोऽपि च।
ब्रह्मर्षयश्च विजयं जेपुः पार्थस्य धीमतः ॥ २४ ॥

मूलम्

ततो देवर्षयः सर्वे तथा सप्तर्षयोऽपि च।
ब्रह्मर्षयश्च विजयं जेपुः पार्थस्य धीमतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो समस्त देवर्षि, सप्तर्षि और ब्रह्मर्षि मिलकर बुद्धिमान् अर्जुनकी विजयके लिये मन्त्र-जप करने लगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रदीपिते देवैः पार्थतेजसि पार्थिव।
तस्थावचलवद् धीमान् संग्रामे परमास्त्रवित् ॥ २५ ॥

मूलम्

ततः प्रदीपिते देवैः पार्थतेजसि पार्थिव।
तस्थावचलवद् धीमान् संग्रामे परमास्त्रवित् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! तदनन्तर देवताओंके प्रयत्नसे अर्जुनका तेज पुनः उद्दीप्त हो उठा और उत्तम अस्त्र-विद्याके ज्ञाता परम बुद्धिमान् धनंजय संग्रामभूमिमें पर्वतके समान अविचल भावसे खड़े हो गये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचकर्ष धनुर्दिव्यं ततः कौरवनन्दनः।
यन्त्रस्येवेह शब्दोऽभून्महांस्तस्य पुनः पुनः ॥ २६ ॥

मूलम्

विचकर्ष धनुर्दिव्यं ततः कौरवनन्दनः।
यन्त्रस्येवेह शब्दोऽभून्महांस्तस्य पुनः पुनः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो कौरवनन्दन अर्जुनने अपने दिव्य धनुषकी प्रत्यंचा खींची। उस समय उससे बार-बार मशीनकी तरह बड़े जोर-जोरसे टंकार-ध्वनि होने लगी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स शरवर्षाणि प्रत्यमित्रान् प्रति प्रभुः।
ववर्ष धनुषा पार्थो वर्षाणीव पुरंदरः ॥ २७ ॥

मूलम्

ततः स शरवर्षाणि प्रत्यमित्रान् प्रति प्रभुः।
ववर्ष धनुषा पार्थो वर्षाणीव पुरंदरः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद जैसे इन्द्र पानीकी वर्षा करते हैं, उसी तरह प्रभावशाली पार्थने अपने धनुषद्वारा शत्रुओंपर बाणोंकी झड़ी लगा दी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते सैन्धवा योधाः सर्व एव सराजकाः।
नादृश्यन्त शरैः कीर्णाः शलभैरिव पादपाः ॥ २८ ॥

मूलम्

ततस्ते सैन्धवा योधाः सर्व एव सराजकाः।
नादृश्यन्त शरैः कीर्णाः शलभैरिव पादपाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो पार्थके बाणोंसे आच्छादित हो समस्त सैन्धव योद्धा टिड्डियोंसे ढँके हुए वृक्षोंकी भाँति अपने राजासहित अदृश्य हो गये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शब्देन वित्रेसुर्भयार्ताश्च विदुद्रुवुः।
मुमुचुश्चाश्रु शोकार्ताः शुशुचुश्चापि सैन्धवाः ॥ २९ ॥

मूलम्

तस्य शब्देन वित्रेसुर्भयार्ताश्च विदुद्रुवुः।
मुमुचुश्चाश्रु शोकार्ताः शुशुचुश्चापि सैन्धवाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही गाण्डीवकी टंकार-ध्वनिसे ही थर्रा उठे। बहुतेरे भयसे व्याकुल होकर भाग गये और अनेक सैन्धव योद्धा शोकसे आतुर होकर आँसू बहाने एवं शोक करने लगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु सर्वान् नरव्याघ्रःसैन्धवान् व्यचरद् बली।
अलातचक्रवद् राजन् शरजालैः समार्पयत् ॥ ३० ॥

मूलम्

तांस्तु सर्वान् नरव्याघ्रःसैन्धवान् व्यचरद् बली।
अलातचक्रवद् राजन् शरजालैः समार्पयत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय महाबली पुरुषसिंह अर्जुन अलातचक्रकी भाँति घूम-घूमकर सारे सैन्धवोंपर बाण-समूहोंकी वर्षा करने लगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिन्द्रजालप्रतिमं बाणजालममित्रहा ।
विसृज्य दिक्षु सर्वासु महेन्द्र इव वज्रभृत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

तदिन्द्रजालप्रतिमं बाणजालममित्रहा ।
विसृज्य दिक्षु सर्वासु महेन्द्र इव वज्रभृत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन अर्जुनने वज्रधारी महेन्द्रकी भाँति सम्पूर्ण दिशाओंसे इन्द्रजालके समान बाणोंका जाल-सा फैला दिया॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघजालनिभं सैन्यं विदार्य शरवृष्टिभिः।
विबभौ कौरवश्रेष्ठः शरदीव दिवाकरः ॥ ३२ ॥

मूलम्

मेघजालनिभं सैन्यं विदार्य शरवृष्टिभिः।
विबभौ कौरवश्रेष्ठः शरदीव दिवाकरः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरत्कालके सूर्य मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार कौरवश्रेष्ठ अर्जुन अपने बाणोंकी वृष्टिसे शत्रुसेनाको विदीर्ण करके अत्यन्त शोभा पाने लगे॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि सैन्धवयुद्धे सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें सैन्धवोंके साथ अर्जुनका युद्धविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३३ श्लोक हैं)