भागसूचना
त्रिसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सेनासहित अर्जुनके द्वारा अश्वका अनुसरण
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीक्षाकाले तु सम्प्राप्ते ततस्ते सुमहर्त्विजः।
विधिवद् दीक्षयामासुरश्वमेधाय पार्थिवम् ॥ १ ॥
मूलम्
दीक्षाकाले तु सम्प्राप्ते ततस्ते सुमहर्त्विजः।
विधिवद् दीक्षयामासुरश्वमेधाय पार्थिवम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब दीक्षाका समय आया, तब उन व्यास आदि महान् ऋत्विजोंने राजा युधिष्ठिरको विधिपूर्वक अश्वमेधयज्ञकी दीक्षा दी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा स पशुबन्धांश्च दीक्षितः पाण्डुनन्दनः।
धर्मराजो महातेजाः सहर्त्विग्भिर्व्यरोचत ॥ २ ॥
मूलम्
कृत्वा स पशुबन्धांश्च दीक्षितः पाण्डुनन्दनः।
धर्मराजो महातेजाः सहर्त्विग्भिर्व्यरोचत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पशुबन्ध-कर्म करके यज्ञकी दीक्षा लिये हुए महातेजस्वी पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर ऋत्विजोंके साथ बड़ी शोभा पाने लगे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयश्च हयमेधार्थं स्वयं स ब्रह्मवादिना।
उत्सृष्टः शास्त्रविधिना व्यासेनामिततेजसा ॥ ३ ॥
मूलम्
हयश्च हयमेधार्थं स्वयं स ब्रह्मवादिना।
उत्सृष्टः शास्त्रविधिना व्यासेनामिततेजसा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमिततेजस्वी ब्रह्मवादी व्यासजीने अश्वमेधयज्ञके लिये चुने गये अश्वको स्वयं ही शास्त्रीय विधिके अनुसार छोड़ा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा धर्मराड् राजन् दीक्षितो विबभौ तदा।
हेममाली रुक्मकण्ठः प्रदीप्त इव पावकः ॥ ४ ॥
मूलम्
स राजा धर्मराड् राजन् दीक्षितो विबभौ तदा।
हेममाली रुक्मकण्ठः प्रदीप्त इव पावकः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यज्ञमें दीक्षित हुए धर्मराज राजा युधिष्ठिर सोनेकी माला और कण्ठमें सोनेकी कण्ठी धारण किये प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णाजिनी दण्डपाणिः क्षौमवासाः स धर्मजः।
विबभौ द्युतिमान् भूयः प्रजापतिरिवाध्वरे ॥ ५ ॥
मूलम्
कृष्णाजिनी दण्डपाणिः क्षौमवासाः स धर्मजः।
विबभौ द्युतिमान् भूयः प्रजापतिरिवाध्वरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काला मृगचर्म, हाथमें दण्ड और रेशमी वस्त्र धारण किये धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अधिक कान्तिमान् हो यज्ञमण्डपमें प्रजापतिकी भाँति शोभा पा रहे थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवास्यर्त्विजः सर्वे तुल्यवेषा विशाम्पते।
बभूवुरर्जुनश्चापि प्रदीप्त इव पावकः ॥ ६ ॥
मूलम्
तथैवास्यर्त्विजः सर्वे तुल्यवेषा विशाम्पते।
बभूवुरर्जुनश्चापि प्रदीप्त इव पावकः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! उनके समस्त ऋत्विज् भी उन्हींके समान वेश-भूषा धारण किये सुशोभित होते थे। अर्जुन भी प्रज्वलित अग्निके समान दीप्तिमान् हो रहे थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेताश्वः कृष्णसारं तं ससाराश्वं धनंजयः।
विधिवत् पृथिवीपाल धर्मराजस्य शासनात् ॥ ७ ॥
मूलम्
श्वेताश्वः कृष्णसारं तं ससाराश्वं धनंजयः।
विधिवत् पृथिवीपाल धर्मराजस्य शासनात् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल जनमेजय! श्वेत घोड़ेवाले अर्जुनने धर्मराजकी आज्ञासे उस यज्ञसम्बन्धी अश्वका विधिपूर्वक अनुसरण किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षिपन् गाण्डिवं राजन् बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्।
तमश्वं पृथिवीपाल मुदा युक्तः ससार च ॥ ८ ॥
मूलम्
विक्षिपन् गाण्डिवं राजन् बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्।
तमश्वं पृथिवीपाल मुदा युक्तः ससार च ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथिवीपाल! राजन्! अर्जुनने अपने हाथोंमें गोधाके चमड़ेके बने दस्ताने पहन रखे थे। वे गाण्डीव धनुषकी टंकार करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ अश्वके पीछे-पीछे जा रहे थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकुमारं तदा राजन्नागमत् तत्पुरं विभो।
द्रष्टुकामं कुरुश्रेष्ठं प्रयास्यन्तं धनंजयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
आकुमारं तदा राजन्नागमत् तत्पुरं विभो।
द्रष्टुकामं कुरुश्रेष्ठं प्रयास्यन्तं धनंजयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! प्रभो! उस समय यात्रा करते हुए कुरुश्रेष्ठ अर्जुनको देखनेके लिये बच्चोंसे लेकर बूढ़ोंतक सारा हस्तिनापुर वहाँ उमड़ आया था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामन्योन्यसम्मर्दादूष्मेव समजायत ।
दिदृक्षूणां हयं तं च तं चैव हयसारिणम् ॥ १० ॥
मूलम्
तेषामन्योन्यसम्मर्दादूष्मेव समजायत ।
दिदृक्षूणां हयं तं च तं चैव हयसारिणम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञके घोड़े और उसके पीछे जानेवाले अर्जुनको देखनेकी इच्छासे लोगोंकी इतनी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी कि आपसकी धक्का-मुक्कीसे सबके बदनमें पसीने निकल आये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शब्दो महाराज दिशः खं प्रति पूरयन्।
बभूव प्रेक्षतां नॄणां कुन्तीपुत्रं धनंजयम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ततः शब्दो महाराज दिशः खं प्रति पूरयन्।
बभूव प्रेक्षतां नॄणां कुन्तीपुत्रं धनंजयम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस समय कुन्तीपुत्र धनंजयका दर्शन करनेवाले लोगोंके मुखसे जो शब्द निकलता था, वह सम्पूर्ण दिशाओं और आकाशमें गूँज रहा था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष गच्छति कौन्तेय तुरगश्चैव दीप्तिमान्।
यमन्वेति महाबाहुः संस्पृशन् धनुरुत्तमम् ॥ १२ ॥
मूलम्
एष गच्छति कौन्तेय तुरगश्चैव दीप्तिमान्।
यमन्वेति महाबाहुः संस्पृशन् धनुरुत्तमम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(लोग कहते थे—) ‘ये कुन्तीकुमार अर्जुन जा रहे हैं और वह दीप्तिमान् अश्व जा रहा है, जिसके पीछे महाबाहु अर्जुन उत्तम धनुष धारण किये जा रहे हैं’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शुश्राव वदतां गिरो जिष्णुरुदारधीः।
स्वस्ति तेऽस्तु व्रजारिष्टं पुनश्चैहीति भारत ॥ १३ ॥
मूलम्
एवं शुश्राव वदतां गिरो जिष्णुरुदारधीः।
स्वस्ति तेऽस्तु व्रजारिष्टं पुनश्चैहीति भारत ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदारबुद्धि अर्जुनने परस्पर वार्तालाप करते हुए लोगोंकी बातें इस प्रकार सुनीं—‘भारत! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सुखसे जाओ और पुनः कुशलपूर्वक लौट आओ’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरे मनुष्येन्द्र पुरुषा वाक्यमब्रुवन्।
नैनं पश्याम सम्मर्दे धनुरेतत् प्रदृश्यते ॥ १४ ॥
एतद्धि भीमनिर्ह्रादं विश्रुतं गाण्डिवं धनुः।
स्वस्ति गच्छत्वरिष्टो वै पन्थानमकुतोभयम् ॥ १५ ॥
निवृत्तमेनं द्रक्ष्यामः पुनरेष्यति च ध्रुवम्।
मूलम्
अथापरे मनुष्येन्द्र पुरुषा वाक्यमब्रुवन्।
नैनं पश्याम सम्मर्दे धनुरेतत् प्रदृश्यते ॥ १४ ॥
एतद्धि भीमनिर्ह्रादं विश्रुतं गाण्डिवं धनुः।
स्वस्ति गच्छत्वरिष्टो वै पन्थानमकुतोभयम् ॥ १५ ॥
निवृत्तमेनं द्रक्ष्यामः पुनरेष्यति च ध्रुवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! दूसरे लोग ये बातें कहते थे—‘इस भीड़में हम अर्जुनको तो नहीं देखते हैं; किंतु उनका यह धनुष दिखायी देता है। यही वह भयंकर टंकार करनेवाला विख्यात गाण्डीव धनुष है। अर्जुनकी यात्रा सकुशल हो। उन्हें मार्गमें कोई कष्ट न हो। ये निर्भय मार्गपर आगे बढ़ते रहें। ये निश्चय ही कुशलपूर्वक लौटेंगे और उस समय हम फिर इनका दर्शन करेंगे’॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाद्या मनुष्याणां स्त्रीणां च भरतर्षभ ॥ १६ ॥
शुश्राव मधुरा वाचः पुनः पुनरुदारधीः।
मूलम्
एवमाद्या मनुष्याणां स्त्रीणां च भरतर्षभ ॥ १६ ॥
शुश्राव मधुरा वाचः पुनः पुनरुदारधीः।
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उदारबुद्धि अर्जुन स्त्रियों और पुरुषोंकी कही हुई मीठी-मीठी बातें बारंबार सुनते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
याज्ञवल्क्यस्य शिष्यश्च कुशलो यज्ञकर्मणि ॥ १७ ॥
प्रायात् पार्थेन सहितः शान्त्यर्थं वेदपारगः।
मूलम्
याज्ञवल्क्यस्य शिष्यश्च कुशलो यज्ञकर्मणि ॥ १७ ॥
प्रायात् पार्थेन सहितः शान्त्यर्थं वेदपारगः।
अनुवाद (हिन्दी)
याज्ञवल्क्य मुनिके एक विद्वान् शिष्य, जो यज्ञकर्ममें कुशल तथा वेदोंमें पारंगत थे, विघ्नकी शान्तिके लिये अर्जुनके साथ गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाश्च महीपाल बहवो वेदपारगाः ॥ १८ ॥
अनुजग्मुर्महात्मानं क्षत्रियाश्च विशाम्पते ।
विधिवत् पृथिवीपाल धर्मराजस्य शासनात् ॥ १९ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाश्च महीपाल बहवो वेदपारगाः ॥ १८ ॥
अनुजग्मुर्महात्मानं क्षत्रियाश्च विशाम्पते ।
विधिवत् पृथिवीपाल धर्मराजस्य शासनात् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! प्रजानाथ! उनके सिवा और भी बहुत-से वेदोंमें पारंगत ब्राह्मणों और क्षत्रियोंने धर्मराजकी आज्ञासे विधिपूर्वक महात्मा अर्जुनका अनुसरण किया॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवैः पृथिवीमश्वो निर्जितामस्त्रतेजसा ।
चचार स महाराज यथादेशं च सत्तम ॥ २० ॥
मूलम्
पाण्डवैः पृथिवीमश्वो निर्जितामस्त्रतेजसा ।
चचार स महाराज यथादेशं च सत्तम ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! साधुशिरोमणे! पाण्डवोंने अपने अस्त्रके प्रतापसे जिस पृथ्वीको जीता था, उसके सभी देशोंमें वह अश्व क्रमशः विचरण करने लगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र युद्धानि वृत्तानि यान्यासन् पाण्डवस्य ह।
तानि वक्ष्यामि ते वीर विचित्राणि महान्ति च ॥ २१ ॥
मूलम्
तत्र युद्धानि वृत्तानि यान्यासन् पाण्डवस्य ह।
तानि वक्ष्यामि ते वीर विचित्राणि महान्ति च ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! उन देशोंमें अर्जुनको जो बड़े-बड़े अद्भुत युद्ध करने पड़े, उनकी कथा तुम्हें सुना रहा हूँ॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हयः पृथिवीं राजन् प्रदक्षिणमवर्तत।
ससारोत्तरतः पूर्वं तन्निबोध महीपते ॥ २२ ॥
अवमृद्नन् स राष्ट्राणि पार्थिवानां हयोत्तमः।
शनैस्तदा परिययौ श्वेताश्वश्च महारथः ॥ २३ ॥
मूलम्
स हयः पृथिवीं राजन् प्रदक्षिणमवर्तत।
ससारोत्तरतः पूर्वं तन्निबोध महीपते ॥ २२ ॥
अवमृद्नन् स राष्ट्राणि पार्थिवानां हयोत्तमः।
शनैस्तदा परिययौ श्वेताश्वश्च महारथः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! वह घोड़ा पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करने लगा। सबसे पहले वह उत्तर दिशाकी ओर गया। फिर राजाओंके अनेक राज्योंको रौंदता हुआ वह उत्तम अश्व पूर्वकी ओर मुड़ गया। उस समय श्वेतवाहन महारथी अर्जुन धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे जा रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र संगणना नास्ति राज्ञामयुतशस्तदा।
येऽयुध्यन्त महाराज क्षत्रिया हतबान्धवाः ॥ २४ ॥
मूलम्
तत्र संगणना नास्ति राज्ञामयुतशस्तदा।
येऽयुध्यन्त महाराज क्षत्रिया हतबान्धवाः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! महाभारत-युद्धमें जिनके भाई-बन्धु मारे गये थे, ऐसे जिन-जिन क्षत्रियोंने उस समय अर्जुनके साथ युद्ध किया था, उन हजारों नरेशोंकी कोई गिनती नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किराता यवना राजन् बहवोऽसिधनुर्धराः।
म्लेच्छाश्चान्ये बहुविधाः पूर्वं ये निकृता रणे ॥ २५ ॥
मूलम्
किराता यवना राजन् बहवोऽसिधनुर्धराः।
म्लेच्छाश्चान्ये बहुविधाः पूर्वं ये निकृता रणे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तलवार और धनुष धारण करनेवाले बहुत-से किरात, यवन और म्लेच्छ, जो पहले महाभारत-युद्धमें पाण्डवोंद्वारा परास्त किये गये थे, अर्जुनका सामना करनेके लिये आये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्याश्च पृथिवीपालाः प्रहृष्टनरवाहनाः ।
समीयुः पाण्डुपुत्रेण बहवो युद्धदुर्मदाः ॥ २६ ॥
मूलम्
आर्याश्च पृथिवीपालाः प्रहृष्टनरवाहनाः ।
समीयुः पाण्डुपुत्रेण बहवो युद्धदुर्मदाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों और वाहनोंसे युक्त बहुत-से रणदुर्मद आर्य नरेश भी पाण्डुपुत्र अर्जुनसे भिड़े थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वृत्तानि युद्धानि तत्र तत्र महीपते।
अर्जुनस्य महीपालैर्नानादेशसमागतैः ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं वृत्तानि युद्धानि तत्र तत्र महीपते।
अर्जुनस्य महीपालैर्नानादेशसमागतैः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानोंमें नाना देशोंसे आये हुए राजाओंके साथ अर्जुनको अनेक बार युद्ध करने पड़े॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि तूभयतो राजन् प्रतप्तानि महान्ति च।
तानि युद्धानि वक्ष्यामि कौन्तेयस्य तवानघ ॥ २८ ॥
मूलम्
यानि तूभयतो राजन् प्रतप्तानि महान्ति च।
तानि युद्धानि वक्ष्यामि कौन्तेयस्य तवानघ ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! जो युद्ध दोनों पक्षके योद्धाओंके लिये अधिक कष्टदायक और महान् थे, अर्जुनके उन्हीं युद्धोंका मैं यहाँ तुमसे वर्णन करूँगा॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि अश्वानुसरणे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें अर्जुनके द्वारा अश्वका अनुसरणविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७३॥