भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
उत्तराका विलाप और भगवान् श्रीकृष्णका उसके मृत बालकको जीवन-दान देना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवं विलप्य करुणं सोन्मादेव तपस्विनी।
उत्तरा न्यपतद् भूमौ कृपणा पुत्रगृद्धिनी ॥ १ ॥
मूलम्
सैवं विलप्य करुणं सोन्मादेव तपस्विनी।
उत्तरा न्यपतद् भूमौ कृपणा पुत्रगृद्धिनी ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पुत्रका जीवन चाहनेवाली तपस्विनी उत्तरा उन्मादिनी-सी होकर इस प्रकार दीनभावसे करुण विलाप करके पृथ्वीपर गिर पड़ी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तु दृष्ट्वा निपतितां हतपुत्रपरिच्छदाम्।
चुक्रोश कुन्ती दुःखार्ता सर्वाश्च भरतस्त्रियः ॥ २ ॥
मूलम्
तां तु दृष्ट्वा निपतितां हतपुत्रपरिच्छदाम्।
चुक्रोश कुन्ती दुःखार्ता सर्वाश्च भरतस्त्रियः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका पुत्ररूपी परिवार नष्ट हो गया था, उस उत्तराको पृथ्वीपर पड़ी हुई देख दुःखसे आतुर हुई कुन्तीदेवी तथा भरतवंशकी सारी स्त्रियाँ फूट-फूटकर रोने लगीं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमिव राजेन्द्र पाण्डवानां निवेशनम्।
अप्रेक्षणीयमभवदार्तस्वनविनादितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
मुहूर्तमिव राजेन्द्र पाण्डवानां निवेशनम्।
अप्रेक्षणीयमभवदार्तस्वनविनादितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! दो घड़ीतक पाण्डवोंका वह भवन आर्तनादसे गूँजता रहा। उस समय उसकी ओर देखते नहीं बनता था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा मुहूर्तं च राजेन्द्र पुत्रशोकाभिपीडिता।
कश्मलाभिहता वीर वैराटी त्वभवत् तदा ॥ ४ ॥
मूलम्
सा मुहूर्तं च राजेन्द्र पुत्रशोकाभिपीडिता।
कश्मलाभिहता वीर वैराटी त्वभवत् तदा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर राजेन्द्र! पुत्रशोकसे पीड़ित वह विराटकुमारी उत्तरा उस समय दो घड़ीतक मूर्च्छामें पड़ी रही॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिलभ्य तु सा संज्ञामुत्तरा भरतर्षभ।
अङ्कमारोप्य तं पुत्रमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रतिलभ्य तु सा संज्ञामुत्तरा भरतर्षभ।
अङ्कमारोप्य तं पुत्रमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! थोड़ी देर बाद उत्तरा जब होशमें आयी, तब उस मरे हुए पुत्रको गोदमें लेकर यों कहने लगी—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मज्ञस्य सुतः स त्वमधर्मं नावबुध्यसे।
यस्त्वं वृष्णिप्रवीरस्य कुरुषे नाभिवादनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
धर्मज्ञस्य सुतः स त्वमधर्मं नावबुध्यसे।
यस्त्वं वृष्णिप्रवीरस्य कुरुषे नाभिवादनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तू तो धर्मज्ञ पिताका पुत्र है। फिर तेरे द्वारा जो अधर्म हो रहा है, उसे तू क्यों नहीं समझता? वृष्णिवंशके श्रेष्ठ वीर भगवान् श्रीकृष्ण सामने खड़े हैं तो भी तू इन्हें प्रणाम क्यों नहीं करता?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र गत्वा मम वचो ब्रूयास्त्वं पितरं त्विदम्।
दुर्मरं प्राणिनां वीर कालेऽप्राप्ते कथंचन ॥ ७ ॥
याहं त्वया विनाद्येह पत्या पुत्रेण चैव ह।
मर्तव्ये सति जीवामि हतस्वस्तिरकिंचना ॥ ८ ॥
मूलम्
पुत्र गत्वा मम वचो ब्रूयास्त्वं पितरं त्विदम्।
दुर्मरं प्राणिनां वीर कालेऽप्राप्ते कथंचन ॥ ७ ॥
याहं त्वया विनाद्येह पत्या पुत्रेण चैव ह।
मर्तव्ये सति जीवामि हतस्वस्तिरकिंचना ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! परलोकमें जाकर तू अपने पितासे मेरी यह बात कहना—‘वीर! अन्तकाल आये बिना प्राणियोंके लिये किसी तरह भी मरना बड़ा कठिन होता है। तभी तो मैं यहाँ आप-जैसे पति तथा इस पुत्रसे बिछुड़कर भी जब कि मुझे मर जाना चाहिये, अबतक जी रही हूँ; मेरा सारा मंगल नष्ट हो गया है। मैं अकिंचन हो गयी हूँ’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा धर्मराज्ञाहमनुज्ञाता महाभुज ।
भक्षयिष्ये विषं घोरं प्रवेक्ष्ये वा हुताशनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अथवा धर्मराज्ञाहमनुज्ञाता महाभुज ।
भक्षयिष्ये विषं घोरं प्रवेक्ष्ये वा हुताशनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! अब मैं धर्मराजकी आज्ञा लेकर भयानक विष खा लूँगी अथवा प्रज्वलित अग्निमें समा जाऊँगी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा दुर्मरं तात यदिदं मे सहस्रधा।
पतिपुत्रविहीनाया हृदयं न विदीर्यते ॥ १० ॥
मूलम्
अथवा दुर्मरं तात यदिदं मे सहस्रधा।
पतिपुत्रविहीनाया हृदयं न विदीर्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! जान पड़ता है, मनुष्यके लिये मरना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पति और पुत्रसे हीन होनेपर भी मेरे इस हृदयके हजारों टुकड़े नहीं हो रहे हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठ पुत्र पश्येमं दुःखितां प्रपितामहीम्।
आर्तामुपप्लुतां दीनां निमग्नां शोकसागरे ॥ ११ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठ पुत्र पश्येमं दुःखितां प्रपितामहीम्।
आर्तामुपप्लुतां दीनां निमग्नां शोकसागरे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! उठकर खड़ा हो जा। देख! ये तेरी परदादी (कुन्ती) कितनी दुखी हैं। ये तेरे लिये आर्त, व्यथित एवं दीन होकर शोकके समुद्रमें डूब गयी हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्यां च पश्य पाञ्चालीं सात्वतीं च तपस्विनीम्।
मां च पश्य सुदुःखार्तां व्याधविद्धां मृगीमिव ॥ १२ ॥
मूलम्
आर्यां च पश्य पाञ्चालीं सात्वतीं च तपस्विनीम्।
मां च पश्य सुदुःखार्तां व्याधविद्धां मृगीमिव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्या पांचाली (द्रौपदी)-की ओर देख, अपनी दादी तपस्विनी सुभद्राकी ओर दृष्टिपात कर और व्याधके बाणोंसे बिंधी हुई हरिणीकी भाँति अत्यन्त दुःखसे आर्त हुई मुझ अपनी माँको भी देख ले॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठ पश्य वदनं लोकनाथस्य धीमतः।
पुण्डरीकपलाशाक्षं पुरेव चपलेक्षणम् ॥ १३ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठ पश्य वदनं लोकनाथस्य धीमतः।
पुण्डरीकपलाशाक्षं पुरेव चपलेक्षणम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! उठकर खड़ा हो जा और बुद्धिमान् जगदीश्वर श्रीकृष्णके कमलदलके समान नेत्रोंवाले मुखारविन्दकी शोभा निहार, ठीक उसी तरह जैसे पहले मैं चंचल नेत्रोंवाले तेरे पिताका मुँह निहारा करती थी’॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विप्रलपन्तीं तु दृष्ट्वा निपतितां पुनः।
उत्तरां तां स्त्रियं सर्वाः पुनरुत्थापयंस्ततः ॥ १४ ॥
मूलम्
एवं विप्रलपन्तीं तु दृष्ट्वा निपतितां पुनः।
उत्तरां तां स्त्रियं सर्वाः पुनरुत्थापयंस्ततः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विलाप करती हुई उत्तराको पुनः पृथ्वीपर पड़ी देख सब स्त्रियोंने उसे फिर उठाकर बिठाया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थाय च पुनर्धैर्यात् तदा मत्स्यपतेः सुता।
प्राञ्जलिः पुण्डरीकाक्षं भूमावेवाभ्यवादयत् ॥ १५ ॥
मूलम्
उत्थाय च पुनर्धैर्यात् तदा मत्स्यपतेः सुता।
प्राञ्जलिः पुण्डरीकाक्षं भूमावेवाभ्यवादयत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुनः उठकर धैर्य धारण करके मत्स्यराजकुमारीने पृथ्वीपर ही हाथ जोड़कर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा स तस्या विपुलं विलापं पुरुषर्षभः।
उपस्पृश्य ततः कृष्णो ब्रह्मास्त्रं प्रत्यसंहरत् ॥ १६ ॥
मूलम्
श्रुत्वा स तस्या विपुलं विलापं पुरुषर्षभः।
उपस्पृश्य ततः कृष्णो ब्रह्मास्त्रं प्रत्यसंहरत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका महान् विलाप सुनकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने आचमन करके अश्वत्थामाके चलाये हुए ब्रह्मास्त्रको शान्त कर दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिजज्ञे च दाशार्हस्तस्य जीवितमच्युतः।
अब्रवीच्च विशुद्धात्मा सर्वं विश्रावयन् जगत् ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रतिजज्ञे च दाशार्हस्तस्य जीवितमच्युतः।
अब्रवीच्च विशुद्धात्मा सर्वं विश्रावयन् जगत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् विशुद्ध हृदयवाले और कभी अपनी महिमासे विचलित न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने उस बालकको जीवित करनेकी प्रतिज्ञा की और सम्पूर्ण जगत्को सुनाते हुए इस प्रकार कहा—॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्रवीम्युत्तरे मिथ्या सत्यमेतद् भविष्यति।
एष संजीवयाम्येनं पश्यतां सर्वदेहिनाम् ॥ १८ ॥
मूलम्
न ब्रवीम्युत्तरे मिथ्या सत्यमेतद् भविष्यति।
एष संजीवयाम्येनं पश्यतां सर्वदेहिनाम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटी उत्तरा! मैं झूठ नहीं बोलता। मैंने जो प्रतिज्ञा की है, वह सत्य होकर ही रहेगी। देखो, मैं समस्त देहधारियोंके देखते-देखते अभी इस बालकको जिलाये देता हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोक्तपूर्वं मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
नोक्तपूर्वं मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने खेल-कूदमें भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्धमें पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्तिके प्रभावसे अभिमन्युका यह बालक जीवित हो जाय॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विशेषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा ॥ २० ॥
मूलम्
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विशेषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों तो अभिमन्युका यह पुत्र, जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाय॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाहं नाभिजानामि विजये तु कदाचन।
विरोधं तेन सत्येन मृतो जीवत्वयं शिशुः ॥ २१ ॥
मूलम्
यथाहं नाभिजानामि विजये तु कदाचन।
विरोधं तेन सत्येन मृतो जीवत्वयं शिशुः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने कभी अर्जुनसे विरोध किया हो, इसका स्मरण नहीं है; इस सत्यके प्रभावसे यह मरा हुआ बालक अभी जीवित हो जाय॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृतः शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः ॥ २२ ॥
मूलम्
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृतः शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मुझमें सत्य और धर्मकी निरन्तर स्थिति बनी रहती हो तो अभिमन्युका यह मरा हुआ बालक जी उठे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहतौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहतौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने कंस और केशीका धर्मके अनुसार वध किया है, इस सत्यके प्रभावसे यह बालक फिर जीवित हो जाय’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो वासुदेवेन स बालो भरतर्षभ।
शनैः शनैर्महाराज प्रास्पन्दत सचेतनः ॥ २४ ॥
मूलम्
इत्युक्तो वासुदेवेन स बालो भरतर्षभ।
शनैः शनैर्महाराज प्रास्पन्दत सचेतनः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! महाराज! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर उस बालकमें चेतना आ गयी। वह धीरे-धीरे अंग-संचालन करने लगा॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि परिक्षित्संजीवने एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें परिक्षित्को जीवनदानविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥