०६८ उत्तरावाक्ये

भागसूचना

अष्टषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका प्रसूतिकागृहमें प्रवेश, उत्तराका विलाप और अपने पुत्रको जीवित करनेके लिये प्रार्थना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु राजेन्द्र केशिहा दुःखमूर्च्छितः।
तथेति व्याजहारोच्चैर्ह्लादयन्निव तं जनम् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु राजेन्द्र केशिहा दुःखमूर्च्छितः।
तथेति व्याजहारोच्चैर्ह्लादयन्निव तं जनम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजेन्द्र! सुभद्राके ऐसा कहनेपर केशिहन्ता केशव दुःखसे व्याकुल हो उसे प्रसन्न करते हुए-से उच्च स्वरमें बोले—‘बहिन! ऐसा ही होगा’॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्येनैतेन हि तदा तं जनं पुरुषर्षभः।
ह्लादयामास स विभुर्घर्मार्तं सलिलैरिव ॥ २ ॥

मूलम्

वाक्येनैतेन हि तदा तं जनं पुरुषर्षभः।
ह्लादयामास स विभुर्घर्मार्तं सलिलैरिव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे धूपसे तपे हुए मनुष्यको जलसे नहला देनेपर बड़ी शान्ति मिल जाती है, उसी प्रकार पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने इस अमृतमय वचनके द्वारा सुभद्रा तथा अन्तःपुरकी दूसरी स्त्रियोंको महान् आह्लाद प्रदान किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स प्राविशत् तूर्णं जन्मवेश्म पितुस्तव।
अर्चितं पुरुषव्याघ्र सितैर्माल्यैर्यथाविधि ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः स प्राविशत् तूर्णं जन्मवेश्म पितुस्तव।
अर्चितं पुरुषव्याघ्र सितैर्माल्यैर्यथाविधि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत ही तुम्हारे पिताके जन्मस्थान—सूतिकागारमें गये; जो सफेद फूलोंकी मालाओंसे विधिपूर्वक सजाया गया था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपां कुम्भैः सुपूर्णैश्च विन्यस्तैः सर्वतोदिशम्।
घृतेन तिन्दुकालातैः सर्षपैश्च महाभुज ॥ ४ ॥

मूलम्

अपां कुम्भैः सुपूर्णैश्च विन्यस्तैः सर्वतोदिशम्।
घृतेन तिन्दुकालातैः सर्षपैश्च महाभुज ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! उसके चारों ओर जलसे भरे हुए कलश रखे गये थे। घीसे तर किये हुए तेन्दुक नामक काष्ठके कई टुकड़े जल रहे थे तथा यत्र-तत्र सरसों बिखेरी गयी थी॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रैश्च विमलैर्न्यस्तैः पावकैश्च समन्ततः।
वृद्धाभिश्चापि रामाभिः परिचारार्थमावृतम् ॥ ५ ॥
दक्षैश्च परितो धीर भिषग्भिः कुशलैस्तथा।

मूलम्

अस्त्रैश्च विमलैर्न्यस्तैः पावकैश्च समन्ततः।
वृद्धाभिश्चापि रामाभिः परिचारार्थमावृतम् ॥ ५ ॥
दक्षैश्च परितो धीर भिषग्भिः कुशलैस्तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

धैर्यशाली राजन्! उस घरके चारों ओर चमकते हुए तेज हथियार रखे गये थे और सब ओर आग प्रज्वलित की गयी थी। सेवाके लिये उपस्थित हुई बूढ़ी स्त्रियोंने उस स्थानको घेर रखा था तथा अपने-अपने कार्यमें कुशल चतुर चिकित्सक भी चारों ओर मौजूद थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श च स तेजस्वी रक्षोघ्नान्यपि सर्वशः ॥ ६ ॥
द्रव्याणि स्थापितानि स्म विधिवत् कुशलैर्जनैः।

मूलम्

ददर्श च स तेजस्वी रक्षोघ्नान्यपि सर्वशः ॥ ६ ॥
द्रव्याणि स्थापितानि स्म विधिवत् कुशलैर्जनैः।

अनुवाद (हिन्दी)

तेजस्वी श्रीकृष्णने देखा कि व्यवस्थाकुशल मनुष्योंद्वारा वहाँ सब ओर राक्षसोंका निवारण करनेवाली नाना प्रकारकी वस्तुएँ विधिपूर्वक रखी गयी थीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथायुक्तं च तद् दृष्ट्वा जन्मवेश्म पितुस्तव ॥ ७ ॥
हृष्टोऽभवद् हृषीकेशः साधु साध्विति चाब्रवीत्।

मूलम्

तथायुक्तं च तद् दृष्ट्वा जन्मवेश्म पितुस्तव ॥ ७ ॥
हृष्टोऽभवद् हृषीकेशः साधु साध्विति चाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे पिताके जन्मस्थानको इस प्रकार आवश्यक वस्तुओंसे सुसज्जित देख भगवान् श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस प्रबन्धकी प्रशंसा करने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवति वार्ष्णेये प्रहृष्टवदने तदा ॥ ८ ॥
द्रौपदी त्वरिता गत्वा वैराटीं वाक्यमब्रवीत्।

मूलम्

तथा ब्रुवति वार्ष्णेये प्रहृष्टवदने तदा ॥ ८ ॥
द्रौपदी त्वरिता गत्वा वैराटीं वाक्यमब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्नमुख होकर उसकी सराहना कर रहे थे, उसी समय द्रौपदी बड़ी तेजीके साथ उत्तराके पास गयी और बोली—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमायाति ते भद्रे श्वशुरो मधुसूदनः ॥ ९ ॥
पुराणर्षिरचिन्त्यात्मा समीपमपराजितः ।

मूलम्

अयमायाति ते भद्रे श्वशुरो मधुसूदनः ॥ ९ ॥
पुराणर्षिरचिन्त्यात्मा समीपमपराजितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! यह देखो, तुम्हारे श्वशुरतुल्य, अचिन्त्य-स्वरूप, किसीसे पराजित न होनेवाले, पुरातन ऋषि भगवान् मधुसूदन तुम्हारे पास आ रहे हैं’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सापि बाष्पकलां वाचं निगृह्याश्रूणि चैव ह ॥ १० ॥
सुसंवीताभवद् देवी देववत् कृष्णमीयुषी।
सा तथा दूयमानेन हृदयेन तपस्विनी ॥ ११ ॥
दृष्ट्वा गोविन्दमायान्तं कृपणं पर्यदेवयत्।

मूलम्

सापि बाष्पकलां वाचं निगृह्याश्रूणि चैव ह ॥ १० ॥
सुसंवीताभवद् देवी देववत् कृष्णमीयुषी।
सा तथा दूयमानेन हृदयेन तपस्विनी ॥ ११ ॥
दृष्ट्वा गोविन्दमायान्तं कृपणं पर्यदेवयत्।

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर उत्तराने अपने आँसुओंको रोककर रोना बंद कर दिया और अपने सारे शरीरको वस्त्रोंसे ढक लिया। श्रीकृष्णके प्रति उसकी भगवद्‌बुद्धि थी; इसलिये उन्हें आते देख वह तपस्विनी बाला व्यथित हृदयसे करुणविलाप करती हुई गद्‌गद-कण्ठसे इस प्रकार बोली—॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्डरीकाक्ष पश्यावां बालेन हि विनाकृतौ।
अभिमन्युं च मां चैव हतौ तुल्यं जनार्दन ॥ १२ ॥

मूलम्

पुण्डरीकाक्ष पश्यावां बालेन हि विनाकृतौ।
अभिमन्युं च मां चैव हतौ तुल्यं जनार्दन ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कमलनयन! जनार्दन! देखिये, आज मैं और मेरे पति दोनों ही संतानहीन हो गये। आर्यपुत्र तो युद्धमें वीरगतिको प्राप्त हुए हैं; परंतु मैं पुत्रशोकसे मारी गयी। इस प्रकार हम दोनों समान रूपसे ही कालके ग्रास बन गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वार्ष्णेय मधुहन् वीर शिरसा त्वां प्रसादये।
द्रोणपुत्रास्त्रनिर्दग्धं जीवयैनं ममात्मजम् ॥ १३ ॥

मूलम्

वार्ष्णेय मधुहन् वीर शिरसा त्वां प्रसादये।
द्रोणपुत्रास्त्रनिर्दग्धं जीवयैनं ममात्मजम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृष्णिनन्दन! वीर मधुसूदन! मैं आपके चरणोंमें मस्तक रखकर आपका कृपाप्रसाद प्राप्त करना चाहती हूँ। द्रोणपुत्र अश्वत्थामाके अस्त्रसे दग्ध हुए मेरे इस पुत्रको जीवित कर दीजिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि स्म धर्मराज्ञा वा भीमसेनेन वा पुनः।
त्वया वा पुण्डरीकाक्ष वाक्यमुक्तमिदं भवेत् ॥ १४ ॥
अजानतीमिषीकेयं जनित्रीं हन्त्विति प्रभो।
अहमेव विनष्टा स्यां नैतदेवंगते भवेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

यदि स्म धर्मराज्ञा वा भीमसेनेन वा पुनः।
त्वया वा पुण्डरीकाक्ष वाक्यमुक्तमिदं भवेत् ॥ १४ ॥
अजानतीमिषीकेयं जनित्रीं हन्त्विति प्रभो।
अहमेव विनष्टा स्यां नैतदेवंगते भवेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! पुण्डरीकाक्ष! यदि धर्मराज अथवा आर्य भीमसेन या आपने ही ऐसा कह दिया होता कि यह सींक इस बालकको न मारकर इसकी अनजान माताको ही मार डाले, तब केवल मैं ही नष्ट हुई होती। उस दशामें यह अनर्थ नहीं होता॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्भस्थस्यास्य बालस्य ब्रह्मास्त्रेण निपातनम्।
कृत्वा नृशंसं दुर्बुद्धिर्द्रौणिः किं फलमश्नुते ॥ १६ ॥

मूलम्

गर्भस्थस्यास्य बालस्य ब्रह्मास्त्रेण निपातनम्।
कृत्वा नृशंसं दुर्बुद्धिर्द्रौणिः किं फलमश्नुते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! इस गर्भके बालकको ब्रह्मास्त्रसे मार डालनेका क्रूरतापूर्ण कर्म करके दुर्बुद्धि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा कौन-सा फल पा रहा है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा त्वां प्रसाद्य शिरसा याचे शत्रुनिबर्हणम्।
प्राणांस्त्यक्ष्यामि गोविन्द नायं संजीवते यदि ॥ १७ ॥

मूलम्

सा त्वां प्रसाद्य शिरसा याचे शत्रुनिबर्हणम्।
प्राणांस्त्यक्ष्यामि गोविन्द नायं संजीवते यदि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गोविन्द! आप शत्रुओंका संहार करनेवाले हैं। मैं आपके चरणोंमें मस्तक रखकर आपको प्रसन्न करके आपसे इस बालकके प्राणोंकी भीख माँगती हूँ। यदि यह जीवित नहीं हुआ तो मैं भी अपने प्राण त्याग दूँगी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्‌ हि बहवः साधो ये ममासन् मनोरथाः।
ते द्रोणपुत्रेण हताः किं नु जीवामि केशव ॥ १८ ॥

मूलम्

अस्मिन्‌ हि बहवः साधो ये ममासन् मनोरथाः।
ते द्रोणपुत्रेण हताः किं नु जीवामि केशव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साधुपुरुष केशव! इस बालकपर मैंने जो बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँध रखी थीं, द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने उन सबको नष्ट कर दिया। अब मैं किसलिये जीवित रहूँ?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीन्मम मतिः कृष्ण पुत्रोत्सङ्गा जनार्दन।
अभिवादयिष्ये हृष्टेति तदिदं वितथीकृतम् ॥ १९ ॥

मूलम्

आसीन्मम मतिः कृष्ण पुत्रोत्सङ्गा जनार्दन।
अभिवादयिष्ये हृष्टेति तदिदं वितथीकृतम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! जनार्दन! मेरी बड़ी आशा थी कि अपने इस बच्चेको गोदमें लेकर मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके चरणोंमें अभिवादन करूँगी; किंतु अब वह व्यर्थ हो गयी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चपलाक्षस्य दायादे मृतेऽस्मिन् पुरुषर्षभ।
विफला मे कृताः कृष्ण हृदि सर्वे मनोरथाः ॥ २० ॥

मूलम्

चपलाक्षस्य दायादे मृतेऽस्मिन् पुरुषर्षभ।
विफला मे कृताः कृष्ण हृदि सर्वे मनोरथाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण! चंचल नेत्रोंवाले पतिदेवके इस पुत्रकी मृत्यु हो जानेसे मेरे हृदयके सारे मनोरथ निष्फल हो गये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चपलाक्षः किलातीव प्रियस्ते मधुसूदन।
सुतं पश्य त्वमस्यैनं ब्रह्मास्त्रेण निपातितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

चपलाक्षः किलातीव प्रियस्ते मधुसूदन।
सुतं पश्य त्वमस्यैनं ब्रह्मास्त्रेण निपातितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! सुनती हूँ कि चंचल नेत्रोंवाले अभिमन्यु आपको बहुत ही प्रिय थे। उन्हींका बेटा आज ब्रह्मास्त्रकी मारसे मरा पड़ा है। आप इसे आँख भरकर देख लीजिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतघ्नोऽयं नृशंसोऽयं यथास्य जनकस्तथा।
यः पाण्डवीं श्रियं त्वक्त्वा गतोऽद्य यमसादनम् ॥ २२ ॥

मूलम्

कृतघ्नोऽयं नृशंसोऽयं यथास्य जनकस्तथा।
यः पाण्डवीं श्रियं त्वक्त्वा गतोऽद्य यमसादनम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह बालक भी अपने पिताके ही समान कृतघ्न और नृशंस है, जो पाण्डवोंकी राजलक्ष्मीको छोड़कर आज अकेला ही यमलोक चला गया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया चैतत् प्रतिज्ञातं रणमूर्धनि केशव।
अभिमन्यौ हते वीर त्वामेष्याम्यचिरादिति ॥ २३ ॥

मूलम्

मया चैतत् प्रतिज्ञातं रणमूर्धनि केशव।
अभिमन्यौ हते वीर त्वामेष्याम्यचिरादिति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘केशव! मैंने युद्धके मुहानेपर यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मेरे वीर पतिदेव! यदि आप मारे गये तो मैं शीघ्र ही परलोकमें आपसे आ मिलूँगी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्च नाकरवं कृष्ण नृशंसा जीवितप्रिया।
इदानीं मां गतां तत्र किं नु वक्ष्यति फाल्गुनिः॥२४॥

मूलम्

तच्च नाकरवं कृष्ण नृशंसा जीवितप्रिया।
इदानीं मां गतां तत्र किं नु वक्ष्यति फाल्गुनिः॥२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु श्रीकृष्ण! मैंने उस प्रतिज्ञाका पालन नहीं किया। मैं बड़ी कठोरहृदया हूँ। मुझे पतिदेव नहीं, ये प्राण ही प्यारे हैं। यदि इस समय मैं परलोकमें जाऊँ तो वहाँ अर्जुनकुमार मुझसे क्या कहेंगे?’॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि उत्तरावाक्ये अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तराका वाक्यविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥