०६७ सुभद्रावाक्ये

भागसूचना

सप्तषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

परीक्षित्‌को जिलानेके लिये सुभद्राकी श्रीकृष्णसे प्रार्थना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थितायां पृथायां तु सुभद्रा भ्रातरं तदा।
दृष्ट्वा चुक्रोश दुःखार्ता वचनं चेदमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

उत्थितायां पृथायां तु सुभद्रा भ्रातरं तदा।
दृष्ट्वा चुक्रोश दुःखार्ता वचनं चेदमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीदेवीके बैठ जानेपर सुभद्रा अपने भाई श्रीकृष्णकी ओर देखकर फूट-फूटकर रोने लगी और दुःखसे आर्त होकर यों बोली—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्डरीकाक्ष पश्य त्वं पौत्रं पार्थस्य धीमतः।
परिक्षीणेषु कुरुषु परिक्षीणं गतायुषम् ॥ २ ॥

मूलम्

पुण्डरीकाक्ष पश्य त्वं पौत्रं पार्थस्य धीमतः।
परिक्षीणेषु कुरुषु परिक्षीणं गतायुषम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया कमलनयन! तुम अपने सखा बुद्धिमान् पार्थके इस पौत्रकी दशा तो देखो। कौरवोंके नष्ट हो जानेपर इसका जन्म हुआ; परंतु यह भी गतायु होकर नष्ट हो गया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इषीका द्रोणपुत्रेण भीमसेनार्थमुद्यता ।
सोत्तरायां निपतिता विजये मयि चैव ह ॥ ३ ॥

मूलम्

इषीका द्रोणपुत्रेण भीमसेनार्थमुद्यता ।
सोत्तरायां निपतिता विजये मयि चैव ह ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने भीमसेनको मारनेके लिये जो सींकका बाण उठाया था, वह उत्तरापर, तुम्हारे सखा विजयपर और मुझपर गिरा है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयं विदीर्णे हृदये मयि तिष्ठति केशव।
यन्न पश्यामि दुर्धर्ष सहपुत्रं तु तं प्रभो ॥ ४ ॥

मूलम्

सेयं विदीर्णे हृदये मयि तिष्ठति केशव।
यन्न पश्यामि दुर्धर्ष सहपुत्रं तु तं प्रभो ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्धर्ष वीर केशव! प्रभो! वह सींक मेरे इस विदीर्ण हुए हृदयमें आज भी कसक रही है; क्योंकि इस समय मैं पुत्रसहित अभिमन्युको नहीं देख पाती हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु वक्ष्यति धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चापि माद्रवत्याः सुतौ च तौ ॥ ५ ॥
श्रुत्वाभिमन्योस्तनयं जातं च मृतमेव च।
मुषिता इव वार्ष्णेय द्रोणपुत्रेण पाण्डवाः ॥ ६ ॥

मूलम्

किं नु वक्ष्यति धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चापि माद्रवत्याः सुतौ च तौ ॥ ५ ॥
श्रुत्वाभिमन्योस्तनयं जातं च मृतमेव च।
मुषिता इव वार्ष्णेय द्रोणपुत्रेण पाण्डवाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अभिमन्युका बेटा जन्म लेनेके साथ ही मर गया—इस बातको सुनकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर क्या कहेंगे? भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेव भी क्या सोचेंगे? श्रीकृष्ण! आज द्रोणपुत्रने पाण्डवोंका सर्वस्व लूट लिया॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्युः प्रियः कृष्ण भ्रातॄणां नात्र संशयः।
ते श्रुत्वा किं नु वक्ष्यन्ति द्रोणपुत्रास्त्रनिर्जिताः ॥ ७ ॥

मूलम्

अभिमन्युः प्रियः कृष्ण भ्रातॄणां नात्र संशयः।
ते श्रुत्वा किं नु वक्ष्यन्ति द्रोणपुत्रास्त्रनिर्जिताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! अभिमन्यु पाँचों भाइयोंको अत्यन्त प्रिय था—इसमें संशय नहीं है। उसके पुत्रकी यह दशा सुनकर अश्वत्थामाके अस्त्रसे पराजित हुए पाण्डव क्या कहेंगे?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवितातः परं दुःखं किं तदन्यज्जनार्दन।
अभिमन्योः सुतात् कृष्ण मृताज्जातादरिंदम ॥ ८ ॥

मूलम्

भवितातः परं दुःखं किं तदन्यज्जनार्दन।
अभिमन्योः सुतात् कृष्ण मृताज्जातादरिंदम ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! जनार्दन! श्रीकृष्ण! अभिमन्यु-जैसे वीरका पुत्र मरा हुआ पैदा हो, इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या हो सकती है?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं प्रसादये कृष्ण त्वामद्य शिरसा नता।
पृथेयं द्रौपदी चैव ताः पश्य पुरुषोत्तम ॥ ९ ॥

मूलम्

साहं प्रसादये कृष्ण त्वामद्य शिरसा नता।
पृथेयं द्रौपदी चैव ताः पश्य पुरुषोत्तम ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषोत्तम! श्रीकृष्ण! आज मैं तुम्हारे चरणोंपर मस्तक रखकर तुम्हें प्रसन्न करना चाहती हूँ। बूआ कुन्ती और बहिन द्रौपदी भी तुम्हारे पैरोंपर पड़ी हुई हैं। इन सबकी ओर देखो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा द्रोणसुतो गर्भान् पाण्डूनां हन्ति माधव।
तदा किल त्वया द्रौणिः क्रुद्धेनोक्तोऽरिमर्दन ॥ १० ॥

मूलम्

यदा द्रोणसुतो गर्भान् पाण्डूनां हन्ति माधव।
तदा किल त्वया द्रौणिः क्रुद्धेनोक्तोऽरिमर्दन ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुमर्दन माधव! जब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा पाण्डवोंके गर्भकी भी हत्या करनेका प्रयत्न कर रहा था, उस समय तुमने कुपित होकर उससे कहा था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकामं त्वां करिष्यामि ब्रह्मबन्धो नराधम।
अहं संजीवयिष्यामि किरीटितनयात्मजम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अकामं त्वां करिष्यामि ब्रह्मबन्धो नराधम।
अहं संजीवयिष्यामि किरीटितनयात्मजम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मबन्धो! नराधम! मैं तेरी इच्छा पूर्ण नहीं होने दूँगा। अर्जुनके पौत्रको अपने प्रभावसे जीवित कर दूँगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद् वचनं श्रुत्वा जानानाहं बलं तव।
प्रसादये त्वां दुर्धर्ष जीवतामभिमन्युजः ॥ १२ ॥

मूलम्

इत्येतद् वचनं श्रुत्वा जानानाहं बलं तव।
प्रसादये त्वां दुर्धर्ष जीवतामभिमन्युजः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया! तुम दुर्धर्ष वीर हो। मैं तुम्हारी उस बातको सुनकर तुम्हारे बलको अच्छी तरह जानती हूँ। इसीलिये तुम्हें प्रसन्न करना चाहती हूँ। तुम्हारे कृपा-प्रसादसे अभिमन्युका यह पुत्र जीवित हो जाय॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्येतत् त्वं प्रतिश्रुत्य न करोषि वचः शुभम्।
सकलं वृष्णिशार्दूल मृतां मामवधारय ॥ १३ ॥

मूलम्

यद्येतत् त्वं प्रतिश्रुत्य न करोषि वचः शुभम्।
सकलं वृष्णिशार्दूल मृतां मामवधारय ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृष्णिवंशके सिंह! यदि तुम ऐसी प्रतिज्ञा करके अपने मंगलमय वचनका पूर्णतः पालन नहीं करोगे तो यह समझ लो, सुभद्रा जीवित नहीं रहेगी—मैं अपने प्राण दे दूँगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्योः सुतो वीर न संजीवति यद्ययम्।
जीवति त्वयि दुर्धर्ष किं करिष्याम्यहं त्वया ॥ १४ ॥

मूलम्

अभिमन्योः सुतो वीर न संजीवति यद्ययम्।
जीवति त्वयि दुर्धर्ष किं करिष्याम्यहं त्वया ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्धर्ष वीर! यदि तुम्हारे जीते-जी अभिमन्युके इस बालकको जीवनदान न मिला तो तुम मेरे किस काम आओगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजीवयैनं दुर्धर्ष मृतं त्वमभिमन्युजम्।
सदृशाक्षसुतं वीर सस्यं वर्षन्निवाम्बुदः ॥ १५ ॥

मूलम्

संजीवयैनं दुर्धर्ष मृतं त्वमभिमन्युजम्।
सदृशाक्षसुतं वीर सस्यं वर्षन्निवाम्बुदः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अजेय वीर! जैसे बादल पानी बरसाकर सूखी खेतीको भी हरी-भरी कर देता है, उसी प्रकार तुम अपने ही समान नेत्रवाले अभिमन्युके इस मरे हुए पुत्रको जीवित कर दो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि केशव धर्मात्मा सत्यवान् सत्यविक्रमः।
स तां वाचमृतां कर्तुमर्हसि त्वमरिंदम ॥ १६ ॥

मूलम्

त्वं हि केशव धर्मात्मा सत्यवान् सत्यविक्रमः।
स तां वाचमृतां कर्तुमर्हसि त्वमरिंदम ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन केशव! तुम धर्मात्मा, सत्यवादी और सत्यपराक्रमी हो; अतः तुम्हें अपनी कही हुई बातको सत्य कर दिखाना चाहिये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छन्नपि हि लोकांस्त्रीन् जीवयेथा मृतानिमान्।
किं पुनर्दयितं जातं स्वस्रीयस्यात्मजं मृतम् ॥ १७ ॥

मूलम्

इच्छन्नपि हि लोकांस्त्रीन् जीवयेथा मृतानिमान्।
किं पुनर्दयितं जातं स्वस्रीयस्यात्मजं मृतम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम चाहो तो मृत्युके मुखमें पड़े हुए तीनों लोकोंको जिला सकते हो, फिर अपने भानजेके इस प्यारे पुत्रको, जो मर चुका है, जीवित करना तुम्हारे लिये कौन बड़ी बात है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभावज्ञास्मि ते कृष्ण तस्मात् त्वां याचयाम्यहम्।
कुरुष्व पाण्डुपुत्राणामिमं परमनुग्रहम् ॥ १८ ॥

मूलम्

प्रभावज्ञास्मि ते कृष्ण तस्मात् त्वां याचयाम्यहम्।
कुरुष्व पाण्डुपुत्राणामिमं परमनुग्रहम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! मैं तुम्हारे प्रभावको जानती हूँ। इसीलिये तुमसे याचना करती हूँ। इस बालकको जीवनदान देकर तुम पाण्डवोंपर यह महान् अनुग्रह करो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वसेति वा महाबाहो हतपुत्रेति वा पुनः।
प्रपन्ना मामियं चेति दयां कर्तुमिहार्हसि ॥ १९ ॥

मूलम्

स्वसेति वा महाबाहो हतपुत्रेति वा पुनः।
प्रपन्ना मामियं चेति दयां कर्तुमिहार्हसि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! तुम यह समझकर कि यह मेरी बहिन है अथवा जिसका बेटा मारा गया है, वह दुखिया है अथवा शरणमें आयी हुई एक दयनीय अबला है, मुझपर दया करने योग्य हो’॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि सुभद्रावाक्ये सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें सुभद्राका वचनविषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६७॥