०६६ परीक्षिज्जन्मकथने

भागसूचना

षट्‌षष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका हस्तिनापुरमें आगमन और उत्तराके मृत बालकको जिलानेके लिये कुन्तीकी उनसे प्रार्थना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु वासुदेवोऽपि वीर्यवान्।
उपायाद् वृष्णिभिः सार्धं पुरं वारणसाह्वयम् ॥ १ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु वासुदेवोऽपि वीर्यवान्।
उपायाद् वृष्णिभिः सार्धं पुरं वारणसाह्वयम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इसी बीचमें परम पराक्रमी भगवान् श्रीकृष्ण भी वृष्णिवंशियोंको साथ लेकर हस्तिनापुर आ गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समयं वाजिमेधस्य विदित्वा पुरुषर्षभः।
यथोक्तो धर्मपुत्रेण प्रव्रजन् स्वपुरीं प्रति ॥ २ ॥

मूलम्

समयं वाजिमेधस्य विदित्वा पुरुषर्षभः।
यथोक्तो धर्मपुत्रेण प्रव्रजन् स्वपुरीं प्रति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके द्वारका जाते समय धर्मपुत्र युधिष्ठिरने जैसी बात कही थी, उसके अनुसार अश्वमेध यज्ञका समय निकट जानकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण पहले ही उपस्थित हो गये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रौक्मिणेयेन सहितो युयुधानेन चैव ह।
चारुदेष्णेन साम्बेन गदेन कृतवर्मणा ॥ ३ ॥
सारणेन च वीरेण निशठेनोल्मुकेन च।

मूलम्

रौक्मिणेयेन सहितो युयुधानेन चैव ह।
चारुदेष्णेन साम्बेन गदेन कृतवर्मणा ॥ ३ ॥
सारणेन च वीरेण निशठेनोल्मुकेन च।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके साथ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न, सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, गद, कृतवर्मा, सारण, वीर निशठ और उल्मुक भी थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलदेवं पुरस्कृत्य सुभद्रासहितस्तदा ॥ ४ ॥
द्रौपदीमुत्तरां चैव पृथां चाप्यवलोककः।
समाश्वासयितुं चापि क्षत्रिया निहतेश्वराः ॥ ५ ॥

मूलम्

बलदेवं पुरस्कृत्य सुभद्रासहितस्तदा ॥ ४ ॥
द्रौपदीमुत्तरां चैव पृथां चाप्यवलोककः।
समाश्वासयितुं चापि क्षत्रिया निहतेश्वराः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बलदेवजीको आगे करके सुभद्राके साथ पधारे थे। उनके शुभागमनका उद्देश्य था द्रौपदी, उत्तरा और कुन्तीसे मिलना तथा जिनके पति मारे गये थे, उन सभी क्षत्राणियोंको आश्वासन देना—धीरज बँधाना॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानागतान् समीक्ष्यैव धृतराष्ट्रो महीपतिः।
प्रत्यगृह्णाद् यथान्यायं विदुरश्च महामनाः ॥ ६ ॥

मूलम्

तानागतान् समीक्ष्यैव धृतराष्ट्रो महीपतिः।
प्रत्यगृह्णाद् यथान्यायं विदुरश्च महामनाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके आगमनका समाचार सुनते ही राजा धृतराष्ट्र और महामना विदुरजी खड़े हो गये और आगे बढ़कर उन्होंने उन सबका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैव न्यवसत् कृष्णः स्वर्चितः पुरुषोत्तमः।
विदुरेण महातेजास्तथैव च युयुत्सुना ॥ ७ ॥

मूलम्

तत्रैव न्यवसत् कृष्णः स्वर्चितः पुरुषोत्तमः।
विदुरेण महातेजास्तथैव च युयुत्सुना ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर और युयुत्सुसे भलीभाँति पूजित हो महातेजस्वी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण वहीं रहने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसत्सु वृष्णिवीरेषु तत्राथ जनमेजय।
जज्ञे तव पिता राजन् परिक्षित् परवीरहा ॥ ८ ॥

मूलम्

वसत्सु वृष्णिवीरेषु तत्राथ जनमेजय।
जज्ञे तव पिता राजन् परिक्षित् परवीरहा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उन वृष्णिवीरोंके वहाँ निवास करते समय ही तुम्हारे पिता शत्रुवीरहन्ता परीक्षित्‌का जन्म हुआ था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु राजा महाराज ब्रह्मास्त्रेणावपीडितः।
शवो बभूव निश्चेष्टो हर्षशोकविवर्धनः ॥ ९ ॥

मूलम्

स तु राजा महाराज ब्रह्मास्त्रेणावपीडितः।
शवो बभूव निश्चेष्टो हर्षशोकविवर्धनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वे राजा परीक्षित् ब्रह्मास्त्रसे पीड़ित होनेके कारण चेष्टाहीन मुर्देके रूपमें उत्पन्न हुए, अतः स्वजनोंका हर्ष और शोक बढ़ानेवाले हो गये थे1॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्टानां सिंहनादेन जनानां तत्र निःस्वनः।
प्रविश्य प्रदिशः सर्वाः पुनरेव व्युपारमत् ॥ १० ॥

मूलम्

हृष्टानां सिंहनादेन जनानां तत्र निःस्वनः।
प्रविश्य प्रदिशः सर्वाः पुनरेव व्युपारमत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले पुत्र-जन्मका समाचार सुनकर हर्षमें भरे हुए लोगोंके सिंहनादसे एक महान् कोलाहल सुनायी पड़ा, जो सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रविष्ट हो पुनः शान्त हो गया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सोऽतित्वरः कृष्णो विवेशान्तःपुरं तदा।
युयुधानद्वितीयो वै व्यथितेन्द्रियमानसः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः सोऽतित्वरः कृष्णो विवेशान्तःपुरं तदा।
युयुधानद्वितीयो वै व्यथितेन्द्रियमानसः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे भगवान् श्रीकृष्णके मन और इन्द्रियोंमें व्यथा-सी उत्पन्न हो गयी। वे सात्यकिको साथ ले बड़ी उतावलीसे अन्तःपुरमें जा पहुँचे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वरितमायान्तीं ददर्श स्वां पितृष्वसाम्।
क्रोशन्तीमभिधावेति वासुदेवं पुनः पुनः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततस्त्वरितमायान्तीं ददर्श स्वां पितृष्वसाम्।
क्रोशन्तीमभिधावेति वासुदेवं पुनः पुनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने अपनी बुआ कुन्तीको बड़े वेगसे आती देखा, जो बारंबार उन्हींका नाम लेकर ‘वासुदेव! दौड़ो-दौड़ो’ की पुकार मचा रही थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्ठतो द्रौपदीं चैव सुभद्रां च यशस्विनीम्।
सविक्रोशं सकरुणं बान्धवानां स्त्रियो नृप ॥ १३ ॥

मूलम्

पृष्ठतो द्रौपदीं चैव सुभद्रां च यशस्विनीम्।
सविक्रोशं सकरुणं बान्धवानां स्त्रियो नृप ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनके पीछे द्रौपदी, यशस्विनी सुभद्रा तथा अन्य बन्धु-बान्धवोंकी स्त्रियाँ भी थीं, जो बड़े करुण स्वरसे बिलख-बिलखकर रो रही थीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृष्णं समासाद्य कुन्तिभोजसुता तदा।
प्रोवाच राजशार्दूल बाष्पगद्‌गदया गिरा ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः कृष्णं समासाद्य कुन्तिभोजसुता तदा।
प्रोवाच राजशार्दूल बाष्पगद्‌गदया गिरा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! उस समय श्रीकृष्णके निकट पहुँचकर कुन्तिभोजकुमारी कुन्ती नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई गद्‌गद वाणीमें बोली—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेव महाबाहो सुप्रजा देवकी त्वया।
त्वं नो गतिः प्रतिष्ठा च त्वदायत्तमिदं कुलम् ॥ १५ ॥

मूलम्

वासुदेव महाबाहो सुप्रजा देवकी त्वया।
त्वं नो गतिः प्रतिष्ठा च त्वदायत्तमिदं कुलम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु वसुदेव-नन्दन! तुम्हें पाकर ही तुम्हारी माता देवकी उत्तम पुत्रवाली मानी जाती हैं। तुम्हीं हमारे अवलम्ब और तुम्हीं हमलोगोंके आधार हो। इस कुलकी रक्षा तुम्हारे ही अधीन है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदुप्रवीर योऽयं ते स्वस्रीयस्यात्मजः प्रभो।
अश्वत्थाम्ना हतो जातस्तमुज्जीवय केशव ॥ १६ ॥

मूलम्

यदुप्रवीर योऽयं ते स्वस्रीयस्यात्मजः प्रभो।
अश्वत्थाम्ना हतो जातस्तमुज्जीवय केशव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदुवीर! प्रभो! यह जो तुम्हारे भानजे अभिमन्युका बालक है, अश्वत्थामाके अस्त्रसे मरा हुआ ही उत्पन्न हुआ है। केशव! इसे जीवन-दान दो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया ह्येतत् प्रतिज्ञातमैषीके यदुनन्दन।
अहं संजीवयिष्यामि मृतं जातमिति प्रभो ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वया ह्येतत् प्रतिज्ञातमैषीके यदुनन्दन।
अहं संजीवयिष्यामि मृतं जातमिति प्रभो ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदुनन्दन! प्रभो! अश्वत्थामाने जब सींकके बाणका प्रयोग किया था, उस समय तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं उत्तराके मरे हुए बालकको भी जीवित कर दूँगा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं जातो मृतस्तात पश्यैनं पुरुषर्षभ।
उत्तरां च सुभद्रां च द्रौपदीं मां च माधव॥१८॥

मूलम्

सोऽयं जातो मृतस्तात पश्यैनं पुरुषर्षभ।
उत्तरां च सुभद्रां च द्रौपदीं मां च माधव॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! वही यह बालक है, जो मरा हुआ ही पैदा हुआ है। पुरुषोत्तम! इसपर अपनी कृपादृष्टि डालो। माधव! इसे जीवित करके ही उत्तरा, सुभद्रा और द्रौपदीसहित मेरी रक्षा करो॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मपुत्रं च भीमं च फाल्गुनं नकुलं तथा।
सहदेवं च दुर्धर्ष सर्वान् नस्त्रातुमर्हसि ॥ १९ ॥

मूलम्

धर्मपुत्रं च भीमं च फाल्गुनं नकुलं तथा।
सहदेवं च दुर्धर्ष सर्वान् नस्त्रातुमर्हसि ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्धर्ष वीर! धर्मपुत्र युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवकी भी रक्षा करो। तुम हम सब लोगोंका इस संकटसे उद्धार करनेयोग्य हो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् प्राणाःसमायत्ताः पाण्डवानां ममैव च।
पाण्डोश्च पिण्डो दाशार्ह तथैव श्वशुरस्य मे ॥ २० ॥

मूलम्

अस्मिन् प्राणाःसमायत्ताः पाण्डवानां ममैव च।
पाण्डोश्च पिण्डो दाशार्ह तथैव श्वशुरस्य मे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे और पाण्डवोंके प्राण इस बालकके ही अधीन हैं। दशार्हकुलनन्दन! मेरे पति पाण्डु तथा श्वशुर विचित्रवीर्यके पिण्डका भी यही सहारा है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमन्योश्च भद्रं ते प्रियस्य सदृशस्य च।
प्रियमुत्पादयाद्य त्वं प्रेतस्यापि जनार्दन ॥ २१ ॥

मूलम्

अभिमन्योश्च भद्रं ते प्रियस्य सदृशस्य च।
प्रियमुत्पादयाद्य त्वं प्रेतस्यापि जनार्दन ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! तुम्हारा कल्याण हो। जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय और तुम्हारे ही समान परम सुन्दर था, उस परलोकवासी अभिमन्युका भी प्रिय करो—उसके इस बालकको जिला दो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरा हि पुरोक्तं वै कथयत्यरिसूदन।
अभिमन्योर्वचः कृष्ण प्रियत्वात् तन्न संशयः ॥ २२ ॥

मूलम्

उत्तरा हि पुरोक्तं वै कथयत्यरिसूदन।
अभिमन्योर्वचः कृष्ण प्रियत्वात् तन्न संशयः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन श्रीकृष्ण! मेरी बहूरानी उत्तरा अभिमन्युकी पहलेकी कही हुई एक बात अत्यन्त प्रिय होनेके कारण बार-बार दुहराया करती है। उस बातकी यथार्थतामें तनिक भी संदेह नहीं है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीत् किल दाशार्ह वैराटीमार्जुनिस्तदा।
मातुलस्य कुलं भद्रे तव पुत्रो गमिष्यति ॥ २३ ॥
गत्वा वृष्ण्यन्धककुलं धनुर्वेदं ग्रहीष्यति।
अस्त्राणि च विचित्राणि नीतिशास्त्रं च केवलम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अब्रवीत् किल दाशार्ह वैराटीमार्जुनिस्तदा।
मातुलस्य कुलं भद्रे तव पुत्रो गमिष्यति ॥ २३ ॥
गत्वा वृष्ण्यन्धककुलं धनुर्वेदं ग्रहीष्यति।
अस्त्राणि च विचित्राणि नीतिशास्त्रं च केवलम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दाशार्ह! अभिमन्युने उत्तरासे कभी स्नेहवश कहा था—“कल्याणी! तुम्हारा पुत्र मेरे मामाके यहाँ जायगा-वृष्णि एवं अन्धकोंके कुलमें जाकर धनुर्वेद, नाना प्रकारके विचित्र अस्त्र-शस्त्र तथा विशुद्ध नीतिशास्त्रकी शिक्षा प्राप्त करेगा”॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतत् प्रणयात् तात सौभद्रः परवीरहा।
कथयामास दुर्धर्षस्तथा चैतन्न संशयः ॥ २५ ॥

मूलम्

इत्येतत् प्रणयात् तात सौभद्रः परवीरहा।
कथयामास दुर्धर्षस्तथा चैतन्न संशयः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले दुर्धर्ष वीर सुभद्राकुमारने जो प्रेमपूर्वक यह बात कही थी, यह निस्संदेह सत्य होनी चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्त्वां वयं प्रणम्येह याचामो मधुसूदन।
कुलस्यास्य हितार्थं तं कुरु कल्याणमुत्तमम् ॥ २६ ॥

मूलम्

तास्त्वां वयं प्रणम्येह याचामो मधुसूदन।
कुलस्यास्य हितार्थं तं कुरु कल्याणमुत्तमम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! इस कुलकी भलाईके लिये हम सब लोग तुम्हारे पैरों पड़कर भीख माँगती हैं, इस बालकको जिलाकर तुम कुरुकुलका सर्वोत्तम कल्याण करो’॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु वार्ष्णेयं पृथा पृथुललोचना।
उच्छ्रित्य बाहू दुःखार्ता ताश्चान्याः प्रापतन् भुवि ॥ २७ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु वार्ष्णेयं पृथा पृथुललोचना।
उच्छ्रित्य बाहू दुःखार्ता ताश्चान्याः प्रापतन् भुवि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर विशाललोचना कुन्ती दोनों बाँहें ऊपर उठाकर दुःखसे आर्त हो पृथ्वीपर गिर पड़ी। दूसरी स्त्रियोंकी भी यही दशा हुई॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रुवंश्च महाराज सर्वाः सास्राविलेक्षणाः।
स्वस्रीयो वासुदेवस्य मृतो जात इति प्रभो ॥ २८ ॥

मूलम्

अब्रुवंश्च महाराज सर्वाः सास्राविलेक्षणाः।
स्वस्रीयो वासुदेवस्य मृतो जात इति प्रभो ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समर्थ महाराज! उन सबकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह रही थी और वे सभी रो-रोकर कह रही थीं कि ‘हाय! श्रीकृष्णके भानजेका बालक मरा हुआ पैदा हुआ’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते ततः कुन्तीं पर्यगृह्णाज्जनार्दनः।
भूमौ निपतितां चैनां सान्त्वयामास भारत ॥ २९ ॥

मूलम्

एवमुक्ते ततः कुन्तीं पर्यगृह्णाज्जनार्दनः।
भूमौ निपतितां चैनां सान्त्वयामास भारत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! उन सबके ऐसा कहनेपर जनार्दन श्रीकृष्णने कुन्तीदेवीको सहारा देकर बैठाया और पृथ्वीपर पड़ी हुई अपनी बुआको वे सान्त्वना देने लगे॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि परीक्षिज्जन्मकथने षट्‌षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें परीक्षित्‌के जन्मका वर्णनविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६६॥


  1. पहले तो पुत्र-जन्मके समाचारसे सबको अपार हर्ष हुआ; किंतु उनमें जीवनका कोई चिह्न न देखकर तत्काल शोकका समुद्र उमड़ पड़ा। ↩︎