भागसूचना
एकषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णका सुभद्राके कहनेसे वसुदेवजीको अभिमन्युवधका वृत्तान्त सुनाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथयन्नेव तु तदा वासुदेवः प्रतापवान्।
महाभारतयुद्धं तत्कथान्ते पितुरग्रतः ॥ १ ॥
अभिमन्योर्वधं वीरः सोऽत्यक्रामन्महामतिः ।
अप्रियं वसुदेवस्य मा भूदिति महामतिः ॥ २ ॥
मा दौहित्रवधं श्रुत्वा वसुदेवो महात्ययम्।
दुःखशोकाभिसंतप्तो भवेदिति महामतिः ॥ ३ ॥
मूलम्
कथयन्नेव तु तदा वासुदेवः प्रतापवान्।
महाभारतयुद्धं तत्कथान्ते पितुरग्रतः ॥ १ ॥
अभिमन्योर्वधं वीरः सोऽत्यक्रामन्महामतिः ।
अप्रियं वसुदेवस्य मा भूदिति महामतिः ॥ २ ॥
मा दौहित्रवधं श्रुत्वा वसुदेवो महात्ययम्।
दुःखशोकाभिसंतप्तो भवेदिति महामतिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! प्रतापी वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण जब पिताके सामने महाभारतयुद्धका वृत्तान्त सुना रहे थे, उस समय उन्होंने उस कथाके बीचमें जान-बूझकर अभिमन्युवधका वृत्तान्त छोड़ दिया। परम बुद्धिमान् वीर श्रीकृष्णने सोचा, पिताजी अपने नातीकी मृत्युका महान् अमंगलजनक समाचार सुनकर कहीं दुःख-शोकसे संतप्त न हो उठें। इनका अप्रिय न हो जाय। इसीसे वह प्रसंग नहीं सुनाया॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभद्रा तु तमुत्क्रान्तमात्मजस्य वधं रणे।
आचक्ष्व कृष्ण सौभद्रवधमित्यपतद् भुवि ॥ ४ ॥
मूलम्
सुभद्रा तु तमुत्क्रान्तमात्मजस्य वधं रणे।
आचक्ष्व कृष्ण सौभद्रवधमित्यपतद् भुवि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु सुभद्राने जब देखा कि मेरे पुत्रके निधनका समाचार इन्होंने नहीं सुनाया, तब उसने याद दिलाते हुए कहा—‘भैया! मेरे अभिमन्युके वधकी बात भी तो बता दो।’ इतना कहकर वह मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामपश्यन्निपतितां वसुदेवः क्षितौ तदा।
दृष्ट्वैव च पपातोर्व्यां सोऽपि दुःखेन मूर्च्छितः ॥ ५ ॥
मूलम्
तामपश्यन्निपतितां वसुदेवः क्षितौ तदा।
दृष्ट्वैव च पपातोर्व्यां सोऽपि दुःखेन मूर्च्छितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजीने बेटी सुभद्राको पृथ्वीपर गिरी हुई देखा। देखते ही वे भी दुःखसे मूर्च्छित हो धरतीपर गिर पड़े॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स दौहित्रवधदुःखशोकसमाहतः ।
वसुदेवो महाराज कृष्णं वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ६ ॥
मूलम्
ततः स दौहित्रवधदुःखशोकसमाहतः ।
वसुदेवो महाराज कृष्णं वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर दौहित्रवधके दुःख-शोकसे आहत हो वसुदेवजीने श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु त्वं पुण्डरीकाक्ष सत्यवाग् भुवि विश्रुतः ॥ ७ ॥
यद् दौहित्रवधं मेऽद्य न ख्यापयसि शत्रुहन्।
तद् भागिनेयनिधनं तत्त्वेनाचक्ष्व मे प्रभो ॥ ८ ॥
मूलम्
ननु त्वं पुण्डरीकाक्ष सत्यवाग् भुवि विश्रुतः ॥ ७ ॥
यद् दौहित्रवधं मेऽद्य न ख्यापयसि शत्रुहन्।
तद् भागिनेयनिधनं तत्त्वेनाचक्ष्व मे प्रभो ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा कमलनयन! तुम तो इस भूतलपर सत्यवादीके रूपमें प्रसिद्ध हो। शत्रुसूदन! फिर क्या कारण है कि आज तुम मुझे मेरे नातीके मारे जानेका समाचार नहीं बता रहे हो। प्रभो! अपने भानजेके वधका वृत्तान्त तुम मुझे ठीक-ठीक बताओ॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदृशाक्षस्तव कथं शत्रुभिर्निहतो रणे।
दुर्मरं बत वार्ष्णेय कालेऽप्राप्ते नृभिः सह ॥ ९ ॥
यत्र मे हृदयं दुःखाच्छतधा न विदीर्यते।
मूलम्
सदृशाक्षस्तव कथं शत्रुभिर्निहतो रणे।
दुर्मरं बत वार्ष्णेय कालेऽप्राप्ते नृभिः सह ॥ ९ ॥
यत्र मे हृदयं दुःखाच्छतधा न विदीर्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वृष्णिनन्दन! अभिमन्युकी आँखें ठीक तुम्हारे ही समान सुन्दर थीं। हाय! वह रणभूमिमें शत्रुओंद्वारा कैसे मारा गया? जान पड़ता है, समय पूरा होनेके पहले मनुष्यके लिये मरना अत्यन्त कठिन होता है, तभी तो यह दारुण समाचार सुनकर भी दुःखसे मेरे हृदयके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमब्रवीत् त्वां संग्रामे सुभद्रां मातरं प्रति ॥ १० ॥
मां चापि पुण्डरीकाक्ष चपलाक्षः प्रियो मम।
आहवं पृष्ठतः कृत्वा कच्चिन्न निहतः परैः ॥ ११ ॥
कच्चिन्मुखं न गोविन्द तेनाजौ विकृतं कृतम्।
मूलम्
किमब्रवीत् त्वां संग्रामे सुभद्रां मातरं प्रति ॥ १० ॥
मां चापि पुण्डरीकाक्ष चपलाक्षः प्रियो मम।
आहवं पृष्ठतः कृत्वा कच्चिन्न निहतः परैः ॥ ११ ॥
कच्चिन्मुखं न गोविन्द तेनाजौ विकृतं कृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुण्डरीकाक्ष! संग्राममें अभिमन्युने तुमको और अपनी माता सुभद्राको क्या संदेश दिया था? चंचल नेत्रोंवाला वह मेरा प्यारा नाती मेरे लिये क्या संदेश देकर मरा था? कहीं वह युद्धमें पीठ दिखाकर तो शत्रुओंके हाथसे नहीं मारा गया? गोविन्द! उसने युद्धमें भयके कारण अपना मुख विकृत तो नहीं कर लिया था॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि कृष्ण महातेजाः श्लाघन्निव ममाग्रतः ॥ १२ ॥
बालभावेन विनयमात्मनोऽकथयत् प्रभुः ।
मूलम्
स हि कृष्ण महातेजाः श्लाघन्निव ममाग्रतः ॥ १२ ॥
बालभावेन विनयमात्मनोऽकथयत् प्रभुः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! वह महातेजस्वी और प्रभावशाली बालक अपने बालस्वभावके कारण मेरे सामने विनीतभावसे अपनी वीरताकी प्रशंसा किया करता था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चिन्न निकृतो बालो द्रोणकर्णकृपादिभिः ॥ १३ ॥
धरण्यां निहतः शेते तन्ममाचक्ष्व केशव।
स हि द्रोणं च भीष्मं च कर्णं च बलिनां वरम्॥१४॥
स्पर्धते स्म रणे नित्यं दुहितुः पुत्रको मम।
मूलम्
कच्चिन्न निकृतो बालो द्रोणकर्णकृपादिभिः ॥ १३ ॥
धरण्यां निहतः शेते तन्ममाचक्ष्व केशव।
स हि द्रोणं च भीष्मं च कर्णं च बलिनां वरम्॥१४॥
स्पर्धते स्म रणे नित्यं दुहितुः पुत्रको मम।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी बेटीका वह लाड़ला अभिमन्यु रणभूमिमें सदा द्रोणाचार्य, भीष्म तथा बलवानोंमें श्रेष्ठ कर्णके साथ भी लोहा लेनेका हौसला रखता था। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य आदिने मिलकर उस बालकको कपटपूर्वक मार डाला हो और इस प्रकार धोखेसे मारा जाकर धरतीपर सो रहा हो। केशव! यह सब मुझे बताओ’॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधं बहु तदा विलपन्तं सुदुःखितम् ॥ १५ ॥
पितरं दुःखिततरो गोविन्दो वाक्यमब्रवीत्।
मूलम्
एवंविधं बहु तदा विलपन्तं सुदुःखितम् ॥ १५ ॥
पितरं दुःखिततरो गोविन्दो वाक्यमब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पिताको अत्यन्त दुःखित होकर बहुत विलाप करते देख श्रीकृष्ण स्वयं भी बहुत दुःखी हो गये और उन्हें सान्त्वना देते हुए इस प्रकार बोले—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तेन विकृतं वक्त्रं कृतं संग्राममूर्धनि ॥ १६ ॥
न पृष्ठतः कृतश्चापि संग्रामस्तेन दुस्तरः।
मूलम्
न तेन विकृतं वक्त्रं कृतं संग्राममूर्धनि ॥ १६ ॥
न पृष्ठतः कृतश्चापि संग्रामस्तेन दुस्तरः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! अभिमन्युने संग्राममें आगे रहकर शत्रुओंका सामना किया। उसने कभी भी अपना मुख विकृत नहीं किया। उस दुस्तर युद्धमें उसने कभी पीठ नहीं दिखायी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य पृथिवीपालान् सहस्रशतसंघशः ॥ १७ ॥
खेदितो द्रोणकर्णाभ्यां दौःशासनिवशं गतः।
मूलम्
निहत्य पृथिवीपालान् सहस्रशतसंघशः ॥ १७ ॥
खेदितो द्रोणकर्णाभ्यां दौःशासनिवशं गतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘लाखों राजाओंके समूहोंको मारकर द्रोण और कर्णके साथ युद्ध करते-करते जब वह बहुत थक गया, उस समय दुःशासनके पुत्रके द्वारा मारा गया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको ह्येकेन सततं युध्यमाने यदि प्रभो ॥ १८ ॥
न स शक्येत संग्रामे निहन्तुमपि वज्रिणा।
मूलम्
एको ह्येकेन सततं युध्यमाने यदि प्रभो ॥ १८ ॥
न स शक्येत संग्रामे निहन्तुमपि वज्रिणा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! यदि निरन्तर उसे एक-एक वीरके साथ ही युद्ध करना पड़ता तो रणभूमिमें वज्रधारी इन्द्र भी उसे नहीं मार सकते थे (परन्तु वहाँ तो बात ही दूसरी हो गयी)॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाहृते च संग्रामात् पार्थे संशप्तकैस्तदा ॥ १९ ॥
पर्यवार्यत संक्रुद्धैः स द्रोणादिभिराहवे।
मूलम्
समाहृते च संग्रामात् पार्थे संशप्तकैस्तदा ॥ १९ ॥
पर्यवार्यत संक्रुद्धैः स द्रोणादिभिराहवे।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अर्जुन संशप्तकोंके साथ युद्ध करते हुए संग्राम-भूमिसे बहुत दूर हट गये थे। इस अवसरसे लाभ उठाकर क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्य आदि कई वीरोंने मिलकर उस बालकको चारों ओरसे घेर लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शत्रुवधं कृत्वा सुमहान्तं रणे पितः ॥ २० ॥
दौहित्रस्तव वार्ष्णेय दौःशासनिवशं गतः।
मूलम्
ततः शत्रुवधं कृत्वा सुमहान्तं रणे पितः ॥ २० ॥
दौहित्रस्तव वार्ष्णेय दौःशासनिवशं गतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वृष्णिकुल भूषण पिताजी! तो भी शत्रुओंका बड़ा भारी संहार करके आपका वह दौहित्र युद्धमें दुःशासन-कुमारके अधीन हुआ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं च स गतः स्वर्गं जहि शोकं महामते॥२१॥
न हि व्यसनमासाद्य सीदन्ति कृतबुद्धयः।
मूलम्
नूनं च स गतः स्वर्गं जहि शोकं महामते॥२१॥
न हि व्यसनमासाद्य सीदन्ति कृतबुद्धयः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामते! अभिमन्यु निश्चय ही स्वर्गलोकमें गया है; अतः आप उसके लिये शोक न कीजिये। पवित्र बुद्धिवाले साधु पुरुष संकटमें पड़नेपर भी इतने खिन्न नहीं होते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणकर्णप्रभृतयो येन प्रतिसमासिताः ॥ २२ ॥
रणे महेन्द्रप्रतिमाः स कथं नाप्नुयाद् दिवम्।
मूलम्
द्रोणकर्णप्रभृतयो येन प्रतिसमासिताः ॥ २२ ॥
रणे महेन्द्रप्रतिमाः स कथं नाप्नुयाद् दिवम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसने इन्द्रके समान पराक्रमी द्रोण, कर्ण आदि वीरोंका युद्धमें डटकर सामना किया है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति कैसे नहीं होगी?॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शोकं जहि दुर्धर्ष मा च मन्युवशं गमः॥२३॥
शस्त्रपूतां हि स गतिं गतः परपुरंजयः।
मूलम्
स शोकं जहि दुर्धर्ष मा च मन्युवशं गमः॥२३॥
शस्त्रपूतां हि स गतिं गतः परपुरंजयः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्धर्ष वीर पिताजी! इसलिये आप शोक त्याग दीजिये! शोकके वशीभूत न होइये। शत्रुओंके नगरपर विजय पानेवाला वीरवर अभिमन्यु शस्त्राघातसे पवित्र हो उत्तम गतिको प्राप्त हुआ है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तु निहते वीरे सुभद्रेयं स्वसा मम ॥ २४ ॥
दुःखार्ताथो सुतं प्राप्य कुररीव ननाद ह।
द्रौपदीं च समासाद्य पर्यपृच्छत दुःखिता ॥ २५ ॥
आर्ये क्व दारकाः सर्वे द्रष्टुमिच्छामि तानहम्।
मूलम्
तस्मिंस्तु निहते वीरे सुभद्रेयं स्वसा मम ॥ २४ ॥
दुःखार्ताथो सुतं प्राप्य कुररीव ननाद ह।
द्रौपदीं च समासाद्य पर्यपृच्छत दुःखिता ॥ २५ ॥
आर्ये क्व दारकाः सर्वे द्रष्टुमिच्छामि तानहम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस वीरके मारे जानेपर मेरी यह बहिन सुभद्रा दुःखसे आतुर हो पुत्रके पास जाकर कुररीकी भाँति विलाप करने लगी और द्रौपदीके पास जाकर दुःखमग्न हो पूछने लगी—‘आर्ये! सब बच्चे कहाँ हैं? मैं उन सबको देखना चाहती हूँ’॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यास्तु वचनं श्रुत्वा सर्वास्ताः कुरुयोषितः ॥ २६ ॥
भुजाभ्यां परिगृह्यैनां चुक्रुशुः परमार्तवत् ॥ २७ ॥
मूलम्
अस्यास्तु वचनं श्रुत्वा सर्वास्ताः कुरुयोषितः ॥ २६ ॥
भुजाभ्यां परिगृह्यैनां चुक्रुशुः परमार्तवत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसकी बात सुनकर कुरुकुलकी सारी स्त्रियाँ इसे दोनों हाथोंसे पकड़कर अत्यन्त आर्त-सी होकर करुण विलाप करने लगीं॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरां चाब्रवीद् भद्रे भर्ता स क्व नु ते गतः।
क्षिप्रमागमनं मह्यं तस्य त्वं वेदयस्व ह ॥ २८ ॥
मूलम्
उत्तरां चाब्रवीद् भद्रे भर्ता स क्व नु ते गतः।
क्षिप्रमागमनं मह्यं तस्य त्वं वेदयस्व ह ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुभद्राने उत्तरासे भी पूछा—‘भद्रे! तुम्हारा पति वह अभिमन्यु कहाँ चला गया? तुम शीघ्र उसे मेरे आगमनकी सूचना दो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु नामाद्य वैराटि श्रुत्वा मम गिरं सदा।
भवनान्निष्पतत्याशु कस्मान्नाभ्येति ते पतिः ॥ २९ ॥
मूलम्
ननु नामाद्य वैराटि श्रुत्वा मम गिरं सदा।
भवनान्निष्पतत्याशु कस्मान्नाभ्येति ते पतिः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विराटकुमारी! जो सदा मेरी आवाज सुनकर शीघ्र घरसे निकल पड़ता था, वही तुम्हारा पति आज मेरे पास क्यों नहीं आता है?॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमन्यो कुशलिनो मातुलास्ते महारथाः।
कुशलं चाब्रुवन् सर्वे त्वां युयुत्सुमिहागतम् ॥ ३० ॥
मूलम्
अभिमन्यो कुशलिनो मातुलास्ते महारथाः।
कुशलं चाब्रुवन् सर्वे त्वां युयुत्सुमिहागतम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अभिमन्यो! तुम्हारे सभी महारथी मामा सकुशल हैं और युद्धकी इच्छासे यहाँ आये हुए तुमसे उन सबने तुम्हारा कुशल-समाचार पूछा है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचक्ष्व मेऽद्य संग्रामं यथापूर्वमरिंदम।
कस्मादेवं विलपतीं नाद्येह प्रतिभाषसे ॥ ३१ ॥
मूलम्
आचक्ष्व मेऽद्य संग्रामं यथापूर्वमरिंदम।
कस्मादेवं विलपतीं नाद्येह प्रतिभाषसे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुदमन! पहलेकी भाँति आज भी तुम मुझे युद्धकी बात बताओ। मैं इस प्रकार विलाप करती हूँ तो भी आज यहाँ तुम मुझसे बात क्यों नहीं करते हो?’॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादि तु वार्ष्णेय्यास्तस्यास्तत्परिदेवितम् ।
श्रुत्वा पृथा सुदुःखार्ता शनैर्वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ३२ ॥
सुभद्रे वासुदेवेन तथा सात्यकिना रणे।
पित्रा च लालितो बालः स हतः कालधर्मणा ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवमादि तु वार्ष्णेय्यास्तस्यास्तत्परिदेवितम् ।
श्रुत्वा पृथा सुदुःखार्ता शनैर्वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ३२ ॥
सुभद्रे वासुदेवेन तथा सात्यकिना रणे।
पित्रा च लालितो बालः स हतः कालधर्मणा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुभद्राका इस प्रकार विलाप सुनकर अत्यन्त दुःखसे आतुर हुई बुआ कुन्तीने शनैः-शनैः उसे समझाते हुए कहा—‘सुभद्रे! वासुदेव, सात्यकि और पिता अर्जुन—तीनों जिसका बहुत लाड़-प्यार करते थे, वह बालक अभिमन्यु कालधर्मसे मारा गया है (उसकी आयु पूरी हो गयी, इसलिये मृत्युके अधीन हुआ है)॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईदृशो मर्त्यधर्मोऽयं मा शुचो यदुनन्दिनि।
पुत्रो हि तव दुर्धर्षः सम्प्राप्तः परमां गतिम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
ईदृशो मर्त्यधर्मोऽयं मा शुचो यदुनन्दिनि।
पुत्रो हि तव दुर्धर्षः सम्प्राप्तः परमां गतिम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदुनन्दिनि! मृत्युलोकमें जन्म लेनेवाले मनुष्योंका धर्म ही ऐसा है—उन्हें एक-न-एक दिन मृत्युके वशमें होना ही पड़ता है, इसलिये शोक न करो। तुम्हारा दुर्जय पुत्र परम गतिको प्राप्त हुआ है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुले महति जातासि क्षत्रियाणां महात्मनाम्।
मा शुचश्चपलाक्षं त्वं पद्मपत्रनिभेक्षणे ॥ ३५ ॥
मूलम्
कुले महति जातासि क्षत्रियाणां महात्मनाम्।
मा शुचश्चपलाक्षं त्वं पद्मपत्रनिभेक्षणे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
“बेटी! कमलदललोचने! तुम महात्मा क्षत्रियोंके महान् कुलमें उत्पन्न हुई हो; अतः तुम अपने चंचल नेत्रोंवाले पुत्रके लिये शोक न करो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरां त्वमवेक्षस्व गुर्विणीं मा शुचः शुभे।
पुत्रमेषा हि तस्याशु जनयिष्यति भाविनी ॥ ३६ ॥
मूलम्
उत्तरां त्वमवेक्षस्व गुर्विणीं मा शुचः शुभे।
पुत्रमेषा हि तस्याशु जनयिष्यति भाविनी ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
“शुभे! तुम्हारी बहू उत्तरा गर्भवती है, तुम उसीकी ओर देखो, शोक न करो। वह भाविनी उत्तरा शीघ्र ही अभिमन्युके पुत्रको जन्म देगी”॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाश्वासयित्वैनां कुन्ती यदुकुलोद्वह ।
विहाय शोकं दुर्धर्षं श्राद्धमस्य ह्यकल्पयत् ॥ ३७ ॥
मूलम्
एवमाश्वासयित्वैनां कुन्ती यदुकुलोद्वह ।
विहाय शोकं दुर्धर्षं श्राद्धमस्य ह्यकल्पयत् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदुकुलभूषण पिताजी! इस प्रकार सुभद्राको समझा-बुझाकर दुस्तर शोकको त्यागकर कुन्तीने उसके श्राद्धकी तैयारी करायी॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समनुज्ञाप्य धर्मज्ञं राजानं भीममेव च।
यमौ यमोपमौ चैव ददौ दानान्यनेकशः ॥ ३८ ॥
मूलम्
समनुज्ञाप्य धर्मज्ञं राजानं भीममेव च।
यमौ यमोपमौ चैव ददौ दानान्यनेकशः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिर और भीमसेनको आदेश देकर तथा यमके समान पराक्रमी नकुल-सहदेवको भी आज्ञा देकर कुन्तीदेवीने अभिमन्युके उद्देश्यसे अनेक प्रकारके दान दिलाये॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रदाय बह्वीर्गा ब्राह्मणाय यदूद्वह।
समाहृष्य तु वार्ष्णेयी वैराटीमब्रवीदिदम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः प्रदाय बह्वीर्गा ब्राह्मणाय यदूद्वह।
समाहृष्य तु वार्ष्णेयी वैराटीमब्रवीदिदम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदुकुलभूषण! तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको बहुत-सी गौएँ दान देकर कुन्तीने विराटकुमारी उत्तरासे कहा—॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैराटि नेह संतापस्त्वया कार्यो ह्यनिन्दिते।
भर्तारं प्रति सुश्रोणि गर्भस्थं रक्ष वै शिशुम् ॥ ४० ॥
मूलम्
वैराटि नेह संतापस्त्वया कार्यो ह्यनिन्दिते।
भर्तारं प्रति सुश्रोणि गर्भस्थं रक्ष वै शिशुम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनिन्द्य गुणोंवाली विराटराजकुमारी! अब तुम्हें यहाँ पतिके लिये संताप नहीं करना चाहिये। सुन्दरि! तुम्हारे गर्भमें जो अभिमन्युका बालक है, उसकी रक्षा करो’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततः कुन्ती विरराम महाद्युते।
तामनुज्ञाप्य चैवेमां सुभद्रां समुपानयम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततः कुन्ती विरराम महाद्युते।
तामनुज्ञाप्य चैवेमां सुभद्रां समुपानयम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाद्युते! ऐसा कहकर कुन्तीदेवी चुप हो गयीं। उन्हींकी आज्ञासे मैं इस सुभद्रा देवीको साथ लाया हूँ॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स निधनं प्राप्तो दौहित्रस्तव मानद।
संतापं त्यज दुर्धर्ष मा च शोके मनः कृथाः॥४२॥
मूलम्
एवं स निधनं प्राप्तो दौहित्रस्तव मानद।
संतापं त्यज दुर्धर्ष मा च शोके मनः कृथाः॥४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मानद! इस प्रकार आपका दौहित्र अभिमन्यु मृत्युको प्राप्त हुआ है। दुर्धर्ष वीर! आप संताप छोड़ दें और मनको शोकमग्न न करें’॥४२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि वसुदेवसान्त्वने एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें वसुदेवको सान्त्वनाविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६१॥