०५९ द्वारकाप्रवेशे

भागसूचना

एकोनषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका द्वारकामें जाकर रैवतक पर्वतपर महोत्सवमें सम्मिलित होना और सबसे मिलना

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तङ्कस्य वरं दत्त्वा गोविन्दो द्विजसत्तम।
अत ऊर्ध्वं महाबाहुः किं चकार महायशाः ॥ १ ॥

मूलम्

उत्तङ्कस्य वरं दत्त्वा गोविन्दो द्विजसत्तम।
अत ऊर्ध्वं महाबाहुः किं चकार महायशाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— द्विजश्रेष्ठ! महायशस्वी महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णने उत्तंकको वरदान देनेके पश्चात् क्या किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तङ्काय वरं दत्त्वा प्रायात् सात्यकिना सह।
द्वारकामेव गोविन्दः शीघ्रवेगैर्महाहयैः ॥ २ ॥

मूलम्

उत्तङ्काय वरं दत्त्वा प्रायात् सात्यकिना सह।
द्वारकामेव गोविन्दः शीघ्रवेगैर्महाहयैः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— उत्तंकको वर देकर भगवान् श्रीकृष्ण महान् वेगशाली शीघ्रगामी घोड़ोंद्वारा सात्यकि (और सुभद्रा)-के साथ पुनः द्वारकाकी ओर ही चल दिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरांसि सरितश्चैव वनानि च गिरींस्तथा।
अतिक्रम्याससादाथ रम्यां द्वारवतीं पुरीम् ॥ ३ ॥
वर्तमाने महाराज महे रैवतकस्य च।
उपायात् पुण्डरीकाक्षो युयुधानानुगस्तदा ॥ ४ ॥

मूलम्

सरांसि सरितश्चैव वनानि च गिरींस्तथा।
अतिक्रम्याससादाथ रम्यां द्वारवतीं पुरीम् ॥ ३ ॥
वर्तमाने महाराज महे रैवतकस्य च।
उपायात् पुण्डरीकाक्षो युयुधानानुगस्तदा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें अनेकानेक सरोवरों, सरिताओं, वनों और पर्वतोंको लाँघकर वे परम रमणीय द्वारका नगरीमें जा पहुँचे। महाराज! उस समय वहाँ रैवतक पर्वतपर कोई बड़ा भारी उत्सव मनाया जा रहा था। सात्यकिको साथ लिये कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण भी उस समय उस महोत्सवमें पधारे॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलंकृतस्तु स गिरिर्नानारूपैर्विचित्रितैः ।
बभौ रत्नमयैः कोशैः संवृतः पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥

मूलम्

अलंकृतस्तु स गिरिर्नानारूपैर्विचित्रितैः ।
बभौ रत्नमयैः कोशैः संवृतः पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! वह पर्वत नाना प्रकारके विचित्र रत्नमय ढेरोंद्वारा सजाया गया था, उस समय उसकी अद्‌भुत शोभा हो रही थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चनस्रग्भिरग्र्याभिः सुमनोभिस्तथैव च ।
वासोभिश्च महाशैलः कल्पवृक्षैस्तथैव च ॥ ६ ॥

मूलम्

काञ्चनस्रग्भिरग्र्याभिः सुमनोभिस्तथैव च ।
वासोभिश्च महाशैलः कल्पवृक्षैस्तथैव च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेकी सुन्दर मालाओं, भाँति-भाँतिके पुष्पों, वस्त्रों और कल्पवृक्षोंसे घिरे हुए उस महान् शैलकी अपूर्व शोभा हो रही थी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीपवृक्षैश्च सौवर्णैरभीक्ष्णमुपशोभितः ।
गुहानिर्झरदेशेषु दिवाभूतो बभूव ह ॥ ७ ॥

मूलम्

दीपवृक्षैश्च सौवर्णैरभीक्ष्णमुपशोभितः ।
गुहानिर्झरदेशेषु दिवाभूतो बभूव ह ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृक्षके आकारमें सजाये हुए सोनेके दीप उस स्थानकी शोभाको और भी उद्दीप्त कर रहे थे। वहाँकी गुफाओं और झरनोंके स्थानोंमें दिनके समान प्रकाश हो रहा था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पताकाभिर्विचित्राभिः सघण्टाभिः समन्ततः ।
पुम्भिः स्त्रीभिश्च संघुष्टः प्रगीत इव चाभवत् ॥ ८ ॥

मूलम्

पताकाभिर्विचित्राभिः सघण्टाभिः समन्ततः ।
पुम्भिः स्त्रीभिश्च संघुष्टः प्रगीत इव चाभवत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर विचित्र पताकाएँ फहरा रही थीं, उनमें बँधी हुई घण्टियाँ बज रही थीं और स्त्रियों तथा पुरुषोंके सुमधुर शब्द वहाँ व्याप्त हो रहे थे। इससे वह पर्वत संगीतमय-सा प्रतीत हो रहा था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव प्रेक्षणीयोऽभून्मेरुर्मुनिगणैरिव ।
मत्तानां हृष्टरूपाणां स्त्रीणां पुंसां च भारत ॥ ९ ॥
गायतां पर्वतेन्द्रस्य दिवस्पृगिव निःस्वनः।

मूलम्

अतीव प्रेक्षणीयोऽभून्मेरुर्मुनिगणैरिव ।
मत्तानां हृष्टरूपाणां स्त्रीणां पुंसां च भारत ॥ ९ ॥
गायतां पर्वतेन्द्रस्य दिवस्पृगिव निःस्वनः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मुनिगणोंसे मेरुकी शोभा होती है, उसी प्रकार द्वारकावासियोंके समागमसे वह पर्वत अत्यन्त दर्शनीय हो गया था। भरतनन्दन! उस पर्वतराजके शिखरपर हर्षोन्मत्त होकर गाते हुए स्त्री-पुरुषोंका सुमधुर शब्द मानो स्वर्गलोकतक व्याप्त हो रहा था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमत्तमत्तसम्मत्तक्ष्वेडितोत्क्रुष्टसंकुलः ॥ १० ॥
तथा किलकिलाशब्दैर्भूधरोऽभून्मनोहरः ।

मूलम्

प्रमत्तमत्तसम्मत्तक्ष्वेडितोत्क्रुष्टसंकुलः ॥ १० ॥
तथा किलकिलाशब्दैर्भूधरोऽभून्मनोहरः ।

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग क्रीडा आदिमें आसक्त होकर दूसरे कार्योंकी ओर ध्यान नहीं देते थे, कितने ही हर्षसे मतवाले हो रहे थे, कुछ लोग कूदते-फाँदते, उच्च स्वरसे कोलाहल करते और किलकारियाँ भरते थे। इन सभी शब्दोंसे गूँजता हुआ पर्वत परम मनोहर जान पड़ता था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपणापणवान् रम्यो भक्ष्यभोज्यविहारवान् ॥ ११ ॥
वस्त्रमाल्योत्करयुतो वीणावेणुमृदङ्गवान् ।
सुरामैरेयमिश्रेण भक्ष्यभोज्येन चैव ह ॥ १२ ॥
दीनान्धकृपणादिभ्यो दीयमानेन चानिशम् ।
बभौ परमकल्याणो महस्तस्य महागिरेः ॥ १३ ॥

मूलम्

विपणापणवान् रम्यो भक्ष्यभोज्यविहारवान् ॥ ११ ॥
वस्त्रमाल्योत्करयुतो वीणावेणुमृदङ्गवान् ।
सुरामैरेयमिश्रेण भक्ष्यभोज्येन चैव ह ॥ १२ ॥
दीनान्धकृपणादिभ्यो दीयमानेन चानिशम् ।
बभौ परमकल्याणो महस्तस्य महागिरेः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् पर्वतपर होनेवाला वह महोत्सव परम मंगलमय प्रतीत होता था। वहाँ दूकानें और बाजार लगी थीं। भक्ष्य-भोज्य पदार्थ यथेष्ट रूपसे प्राप्त होते थे। सब ओर घूमने-फिरनेकी सुविधा थी। वस्त्रों और मालाओंके ढेर लगे थे। वीणा, वेणु और मृदंग बज रहे थे। इन सबके कारण वहाँकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। वहाँ दीनों, अन्धों और अनाथोंके लिये निरन्तर सुरा-मैरेयमिश्रित भक्ष्य-भोज्य पदार्थ दिये जाते थे॥११—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यावसथवान् वीर पुण्यकृद्भिर्निषेवितः ।
विहारो वृष्णिवीराणां महे रैवतकस्य ह ॥ १४ ॥
स नगो वेश्मसंकीर्णो देवलोक इवाबभौ।

मूलम्

पुण्यावसथवान् वीर पुण्यकृद्भिर्निषेवितः ।
विहारो वृष्णिवीराणां महे रैवतकस्य ह ॥ १४ ॥
स नगो वेश्मसंकीर्णो देवलोक इवाबभौ।

अनुवाद (हिन्दी)

वीरवर! उस पर्वतपर प्रण्यानुष्ठानके लिये बहुत-से गृह और आश्रम बने थे, जिनमें पुण्यात्मा पुरुष निवास करते थे। रैवतक पर्वतके उस महोत्सवमें वृष्णिवंशी वीरोंका विहार-स्थल बना हुआ था। वह गिरिप्रदेश बहुसंख्यक गृहोंसे व्याप्त होनेके कारण देवलोकके समान शोभा पाता था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा च कृष्णसांनिध्यमासाद्य भरतर्षभ ॥ १५ ॥
(स्तुवन्त्यन्तर्हिता देवा गन्धर्वाश्च सहर्षिभिः।

मूलम्

तदा च कृष्णसांनिध्यमासाद्य भरतर्षभ ॥ १५ ॥
(स्तुवन्त्यन्तर्हिता देवा गन्धर्वाश्च सहर्षिभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उस समय देवता, गन्धर्व और ऋषि अदृश्यरूपसे श्रीकृष्णके निकट आकर उनकी स्तुति करने लगे॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

देवगन्धर्वा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधकः सर्वधर्माणामसुराणां विनाशकः ।
त्वं स्रष्टा सृज्यमाधारं कारणं धर्मवेदवित्॥
त्वया यत् क्रियते देव न जानीमोऽत्र मायया।
केवलं त्वाभिजानीमः शरणं परमेश्वरम्॥
ब्रह्मादीनां च गोविन्द सांनिध्यं शरणं नमः॥

मूलम्

साधकः सर्वधर्माणामसुराणां विनाशकः ।
त्वं स्रष्टा सृज्यमाधारं कारणं धर्मवेदवित्॥
त्वया यत् क्रियते देव न जानीमोऽत्र मायया।
केवलं त्वाभिजानीमः शरणं परमेश्वरम्॥
ब्रह्मादीनां च गोविन्द सांनिध्यं शरणं नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता और गन्धर्व बोले— भगवन्! आप समस्त धर्मोंके साधक और असुरोंके विनाशक हैं। आप ही स्रष्टा, आप ही सृज्य जगत् और आप ही उसके आधार हैं। आप ही सबके कारण तथा धर्म और वेदके ज्ञाता हैं। देव! आप अपनी मायासे जो कुछ करते हैं, हमलोग उसे नहीं जान पाते हैं। हम केवल आपको जानते हैं। आप ही सबके शरणदाता और परमेश्वर हैं। गोविन्द! आप ब्रह्मा आदिको भी सामीप्य और शरण प्रदान करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति स्तुतेऽमानुषैश्च पूजिते देवकीसुते।)
शक्रसद्मप्रतीकाशो बभूव स हि शैलराट्।

मूलम्

इति स्तुतेऽमानुषैश्च पूजिते देवकीसुते।)
शक्रसद्मप्रतीकाशो बभूव स हि शैलराट्।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— इस प्रकार मानवेतर प्राणियों—देवताओं और गन्धर्वोंद्वारा जब देवकीनन्दन श्रीकृष्णकी स्तुति और पूजा की जा रही थी, उस समय वह पर्वतराज रैवतक इन्द्रभवनके समान जान पड़ता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्पूज्यमानः स विवेश भवनं शुभम् ॥ १६ ॥
गोविन्दः सात्यकिश्चैव जगाम भवनं स्वकम्।

मूलम्

ततः सम्पूज्यमानः स विवेश भवनं शुभम् ॥ १६ ॥
गोविन्दः सात्यकिश्चैव जगाम भवनं स्वकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सबसे सम्मानित हो भगवान् श्रीकृष्णने अपने सुन्दर भवनमें प्रवेश किया और सात्यकि भी अपने घरमें गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विवेश च प्रहृष्टात्मा चिरकालप्रवासतः ॥ १७ ॥
कृत्वा नसुकरं कर्म दानवेष्विव वासवः।

मूलम्

विवेश च प्रहृष्टात्मा चिरकालप्रवासतः ॥ १७ ॥
कृत्वा नसुकरं कर्म दानवेष्विव वासवः।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे इन्द्र दानवोंपर महान् पराक्रम प्रकट करके आये हों, उसी प्रकार दुष्कर कर्म करके दीर्घकालके प्रवाससे प्रसन्नचित्त होकर लौटे हुए भगवान् श्रीकृष्णने अपने भवनमें प्रवेश किया॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायान्तं तु वार्ष्णेयं भोजवृष्ण्यन्धकास्तथा ॥ १८ ॥
अभ्यगच्छन् महात्मानं देवा इव शतक्रतुम्।

मूलम्

उपायान्तं तु वार्ष्णेयं भोजवृष्ण्यन्धकास्तथा ॥ १८ ॥
अभ्यगच्छन् महात्मानं देवा इव शतक्रतुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे देवता देवराज इन्द्रकी अगवानी करते हैं, उसी प्रकार भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके यादवोंने अपने निकट आते हुए महात्मा श्रीकृष्णका आगे बढ़कर स्वागत किया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तानभ्यर्च्य मेधावी पृष्ट्वा च कुशलं तदा।
अभ्यवादयत प्रीतः पितरं मातरं तदा ॥ १९ ॥

मूलम्

स तानभ्यर्च्य मेधावी पृष्ट्वा च कुशलं तदा।
अभ्यवादयत प्रीतः पितरं मातरं तदा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेधावी श्रीकृष्णने उन सबका आदर करके उनका कुशल-समाचार पूछा और प्रसन्नतापूर्वक अपने माता-पिताके चरणोंमें प्रणाम किया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताभ्यां स सम्परिष्वक्तः सान्त्वितश्च महाभुजः।
उपोपविष्टैः सर्वैस्तैर्वृष्णिभिः परिवारितः ॥ २० ॥

मूलम्

ताभ्यां स सम्परिष्वक्तः सान्त्वितश्च महाभुजः।
उपोपविष्टैः सर्वैस्तैर्वृष्णिभिः परिवारितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंने उन महाबाहु श्रीकृष्णको अपनी छातीसे लगा लिया और मीठे वचनोंद्वारा उन्हें सान्त्वना दी। इसके बाद सभी वृष्णिवंशी उनको घेरकर आस-पास बैठ गये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विश्रान्तो महातेजाः कृतपादावनेजनः।
कथयामास तत्सर्वं पृष्टः पित्रा महाहवम् ॥ २१ ॥

मूलम्

स विश्रान्तो महातेजाः कृतपादावनेजनः।
कथयामास तत्सर्वं पृष्टः पित्रा महाहवम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी श्रीकृष्ण जब हाथ-पैर धोकर विश्राम कर चुके, तब पिताके पूछनेपर उन्होंने उस महायुद्धकी सारी घटना कह सुनायी॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि कृष्णस्य द्वारकाप्रवेशे एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें श्रीकृष्णका द्वारकाप्रवेशविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)