०५८ उत्तङ्कोपाख्याने

भागसूचना

अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुण्डल लेकर उत्तंकका लौटना, मार्गमें उन कुण्डलोंका अपहरण होना तथा इन्द्र और अग्निदेवकी कृपासे फिर उन्हें पाकर गुरुपत्नीको देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मित्रसहमासाद्य अभिज्ञानमयाचत ।
तस्मै ददावभिज्ञानं स चेक्ष्वाकुवरस्तदा ॥ १ ॥

मूलम्

स मित्रसहमासाद्य अभिज्ञानमयाचत ।
तस्मै ददावभिज्ञानं स चेक्ष्वाकुवरस्तदा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! रानी मदयन्तीकी बात सुनकर उत्तंकने महाराज मित्रसह (सौदास)-के पास जाकर उनसे कोई पहचान माँगी। तब इक्ष्वाकुवंशियोंमें श्रेष्ठ उन नरेशने पहचानके रूपमें रानीको सुनानेके लिये निम्नांकित सन्देश दिया॥१॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैवैषा गतिः क्षेम्या न चान्या विद्यते गतिः।
एतन्मे मतमाज्ञाय प्रयच्छ मणिकुण्डले ॥ २ ॥

मूलम्

न चैवैषा गतिः क्षेम्या न चान्या विद्यते गतिः।
एतन्मे मतमाज्ञाय प्रयच्छ मणिकुण्डले ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदास बोले— प्रिये! मैं जिस दुर्गतिमें पड़ा हूँ, यह मेरे लिये कल्याण करनेवाली नहीं है तथा इसके सिवा अब दूसरी कोई भी गति नहीं है। मेरे इस विचारको जानकर तुम अपने दोनों मणिमय कुण्डल इन ब्राह्मणदेवताको दे डालो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्तामुत्तङ्कस्तु भर्तुर्वाक्यमथाब्रवीत् ।
श्रुत्वा च सा तदा प्रादात् ततस्ते मणिकुण्डले ॥ ३ ॥

मूलम्

इत्युक्तस्तामुत्तङ्कस्तु भर्तुर्वाक्यमथाब्रवीत् ।
श्रुत्वा च सा तदा प्रादात् ततस्ते मणिकुण्डले ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके ऐसा कहनेपर उत्तंकने रानीके पास जाकर पतिकी कही हुई बात ज्यों-की-त्यों दुहरा दी। महारानी मदयन्तीने स्वामीका वचन सुनकर उसी समय अपने मणिमय कुण्डल उत्तंक मुनिको दे दिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाप्य कुण्डले ते तु राजानं पुनरब्रवीत्।
किमेतद् गुह्यवचनं श्रोतुमिच्छामि पार्थिव ॥ ४ ॥

मूलम्

अवाप्य कुण्डले ते तु राजानं पुनरब्रवीत्।
किमेतद् गुह्यवचनं श्रोतुमिच्छामि पार्थिव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन कुण्डलोंको पाकर उत्तंक मुनि पुनः राजाके पास आये और इस प्रकार बोले—‘पृथ्वीनाथ! आपके गूढ़ वचनका क्या अभिप्राय था, यह मैं सुनना चाहता हूँ’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजानिसर्गाद् विप्रान् वै क्षत्रियाः पूजयन्ति ह।
विप्रेभ्यश्चापि बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति वै ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रजानिसर्गाद् विप्रान् वै क्षत्रियाः पूजयन्ति ह।
विप्रेभ्यश्चापि बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति वै ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदास बोले— ब्रह्मन्! क्षत्रियलोग सृष्टिके प्रारम्भकालसे ब्राह्मणोंकी पूजा करते आ रहे हैं तथापि ब्राह्मणोंकी ओरसे भी क्षत्रियोंके लिये बहुत-से दोष प्रकट हो जाते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं द्विजेभ्यः प्रणतो विप्राद् दोषमवाप्तवान्।
गतिमन्यां न पश्यामि मदयन्तीसहायवान् ॥ ६ ॥

मूलम्

सोऽहं द्विजेभ्यः प्रणतो विप्राद् दोषमवाप्तवान्।
गतिमन्यां न पश्यामि मदयन्तीसहायवान् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं सदा ही ब्राह्मणोंको प्रणाम किया करता था, किंतु एक ब्राह्मणके ही शापसे मुझे यह दोष—यह दुर्गति प्राप्त हुई है। मैं मदयन्तीके साथ यहाँ रहता हूँ, मुझे इस दुर्गतिसे छुटकारा पानेका कोई उपाय नहीं दिखायी देता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चान्यामपि पश्यामि गतिं गतिमतां वर।
स्वर्गद्वारस्य गमने स्थाने चेह द्विजोत्तम ॥ ७ ॥

मूलम्

न चान्यामपि पश्यामि गतिं गतिमतां वर।
स्वर्गद्वारस्य गमने स्थाने चेह द्विजोत्तम ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जंगम प्राणियोंमें श्रेष्ठ विप्रवर! अब इस लोकमें रहकर सुख पाना और परलोकमें स्वर्गीय सुख भोगनेके लिये मुझे दूसरी कोई गति नहीं दीख पड़ती॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि राज्ञा विशेषेण विरुद्धेन द्विजातिभिः।
शक्यं हि लोके स्थातुं वै प्रेत्य वा सुखमेधितुम्॥८॥

मूलम्

न हि राज्ञा विशेषेण विरुद्धेन द्विजातिभिः।
शक्यं हि लोके स्थातुं वै प्रेत्य वा सुखमेधितुम्॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई भी राजा विशेषरूपसे ब्राह्मणोंके साथ विरोध करके न तो इसी लोकमें चैनसे रह सकता है और न परलोकमें ही सुख पा सकता है। यही मेरे गूढ़ संदेशका तात्पर्य है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिष्टे ते मया दत्ते एते स्वे मणिकुण्डले।
यः कृतस्तेऽद्य समयः सफलं तं कुरुष्व मे ॥ ९ ॥

मूलम्

तदिष्टे ते मया दत्ते एते स्वे मणिकुण्डले।
यः कृतस्तेऽद्य समयः सफलं तं कुरुष्व मे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छा अब आपकी इच्छाके अनुसार ये अपने मणिमय कुण्डल मैंने आपको दे दिये। अब आपने जो प्रतिज्ञा की है, वह सफल कीजिये॥९॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजंस्तथेह कर्तास्मि पुनरेष्यामि ते वशम्।
प्रश्नं च कंचित् प्रष्टुं त्वां निवृत्तोऽस्मि परंतप ॥ १० ॥

मूलम्

राजंस्तथेह कर्तास्मि पुनरेष्यामि ते वशम्।
प्रश्नं च कंचित् प्रष्टुं त्वां निवृत्तोऽस्मि परंतप ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— राजन्! शत्रुसंतापी नरेश! मैं अपनी प्रतिज्ञाका पालन करूँगा, पुनः आपके अधीन हो जाऊँगा; किंतु इस समय एक प्रश्न पूछनेके लिये आपके पास लौटकर आया हूँ॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूहि विप्र यथाकामं प्रतिवक्तास्मि ते वचः।
छेत्तास्मि संशयं तेऽद्य न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ ११ ॥

मूलम्

ब्रूहि विप्र यथाकामं प्रतिवक्तास्मि ते वचः।
छेत्तास्मि संशयं तेऽद्य न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदासने कहा— विप्रवर! आप इच्छानुसार प्रश्न कीजिये। मैं आपकी बातका उत्तर दूँगा। आपके मनमें जो भी संदेह होगा अभी उसका निवारण करूँगा। इसमें मुझे कुछ भी विचार करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी॥११॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राहुर्वाक्‌संयतं विप्रं धर्मनैपुणदर्शिनः ।
मित्रेषु यश्च विषमः स्तेन इत्येव तं विदुः ॥ १२ ॥

मूलम्

प्राहुर्वाक्‌संयतं विप्रं धर्मनैपुणदर्शिनः ।
मित्रेषु यश्च विषमः स्तेन इत्येव तं विदुः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— राजन्! धर्मनिपुण विद्वानोंने उसीको ब्राह्मण कहा है, जो अपनी वाणीका संयम करता हो—सत्यवादी हो। जो मित्रोंके साथ विषमताका व्यवहार करता है, उसे चोर माना गया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् मित्रतामद्य सम्प्राप्तो मम पार्थिव।
स मे बुद्धिं प्रयच्छस्व सम्मतां पुरुषर्षभ ॥ १३ ॥

मूलम्

स भवान् मित्रतामद्य सम्प्राप्तो मम पार्थिव।
स मे बुद्धिं प्रयच्छस्व सम्मतां पुरुषर्षभ ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! पुरुषप्रवर! आज आपके साथ मेरी मित्रता हो गयी है, इसलिये आप मुझे अच्छी सलाह दीजिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाप्तार्थोऽहमद्येह भवांश्च पुरुषादकः ।
भवत्सकाशमागन्तुं क्षमं मम न वेति वै ॥ १४ ॥

मूलम्

अवाप्तार्थोऽहमद्येह भवांश्च पुरुषादकः ।
भवत्सकाशमागन्तुं क्षमं मम न वेति वै ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज यहाँ मेरा मनोरथ सफल हो गया है और आप नरभक्षी राक्षस हो गये हैं। ऐसी दशामें आपके पास मेरा फिर लौटकर आना उचित है या नहीं॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमं चेदिह वक्तव्यं तव द्विजवरोत्तम।
मत्समीपं द्विजश्रेष्ठ नागन्तव्यं कथंचन ॥ १५ ॥

मूलम्

क्षमं चेदिह वक्तव्यं तव द्विजवरोत्तम।
मत्समीपं द्विजश्रेष्ठ नागन्तव्यं कथंचन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदासने कहा— द्विजश्रेष्ठ! यदि यहाँ मुझे उचित बात कहनी है, तब तो मैं यही कहूँगा कि ब्राह्मणोत्तम! आपको मेरे पास किसी तरह नहीं आना चाहिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तव प्रपश्यामि श्रेयो भृगुकुलोद्वह।
आगच्छतो हि ते विप्र भवेन्मृत्युर्न संशयः ॥ १६ ॥

मूलम्

एवं तव प्रपश्यामि श्रेयो भृगुकुलोद्वह।
आगच्छतो हि ते विप्र भवेन्मृत्युर्न संशयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुकुलभूषण विप्र! ऐसा करनेमें ही मैं आपकी भलाई देखता हूँ। यदि आयेंगे तो आपकी मृत्यु हो जायगी। इसमें संशय नहीं है॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तदा राज्ञा क्षमं बुद्धिमता हितम्।
अनुज्ञाप्य स राजानमहल्यां प्रतिजग्मिवान् ॥ १७ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तदा राज्ञा क्षमं बुद्धिमता हितम्।
अनुज्ञाप्य स राजानमहल्यां प्रतिजग्मिवान् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार बुद्धिमान् राजा सौदासके मुखसे उचित और हितकी बात सुनकर उनकी आज्ञा ले उत्तंक मुनि अहल्याके पास चल दिये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत्वा कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्याः प्रियंकरः।
जवेन महता प्रायाद् गौतमस्याश्रमं प्रति ॥ १८ ॥

मूलम्

गृहीत्वा कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्याः प्रियंकरः।
जवेन महता प्रायाद् गौतमस्याश्रमं प्रति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुपत्नीका प्रिय करनेवाले उत्तंक दोनों दिव्य कुण्डल लेकर बड़े वेगसे गौतमके आश्रमकी ओर बढ़े॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तयो रक्षणं च मदयन्त्याभिभाषितम्।
तथा ते कुण्डले बद्ध्वा तदा कृष्णाजिनेऽनयत् ॥ १९ ॥

मूलम्

यथा तयो रक्षणं च मदयन्त्याभिभाषितम्।
तथा ते कुण्डले बद्ध्वा तदा कृष्णाजिनेऽनयत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रानी मदयन्तीने उन कुण्डलोंकी रक्षाके लिये जैसी विधि बतायी थी, उसी प्रकार उन्हें काले मृगचर्ममें बाँधकर वे ले जा रहे थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कस्मिंश्चित् क्षुधाविष्टः फलभारसमन्वितम्।
बिल्वं ददर्श विप्रर्षिरारुरोह च तं ततः ॥ २० ॥
शाखामासज्य तस्यैव कृष्णाजिनमरिंदम ।
पातयामास बिल्वानि तदा स द्विजपुङ्गवः ॥ २१ ॥

मूलम्

स कस्मिंश्चित् क्षुधाविष्टः फलभारसमन्वितम्।
बिल्वं ददर्श विप्रर्षिरारुरोह च तं ततः ॥ २० ॥
शाखामासज्य तस्यैव कृष्णाजिनमरिंदम ।
पातयामास बिल्वानि तदा स द्विजपुङ्गवः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन! रास्तेमें एक स्थानमें उन्हें बड़े जोरकी भूख लगी। वहाँ पास ही फलोंके भारसे झुका हुआ एक बेलका वृक्ष दिखायी दिया। ब्रह्मर्षि उत्तंक उस वृक्षपर चढ़ गये और उस काले मृगचर्मको उन्होंने उसकी एक शाखामें बाँध दिया। फिर वे ब्राह्मणपुंगव उस समय वहाँ बेल तोड़-तोड़कर गिराने लगे॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पातयमानस्य बिल्वापहृतचक्षुषः ।
न्यपतंस्तानि बिल्वानि तस्मिन्नेवाजिने विभो ॥ २२ ॥
यस्मिंस्ते कुण्डले बद्धे तदा द्विजवरेण वै।

मूलम्

अथ पातयमानस्य बिल्वापहृतचक्षुषः ।
न्यपतंस्तानि बिल्वानि तस्मिन्नेवाजिने विभो ॥ २२ ॥
यस्मिंस्ते कुण्डले बद्धे तदा द्विजवरेण वै।

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उनकी दृष्टि बेलोंपर ही लगी हुई थी (वे कहाँ गिरते हैं, इसकी ओर उनका ध्यान नहीं था)। प्रभो! उनके तोड़े हुए प्रायः सभी बेल उस मृगछालापर ही, जिसमें उन विप्रवरने वे दोनों कुण्डल बाँध रखे थे, गिरे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिल्वप्रहारैस्तस्याथ व्यशीर्यद् बन्धनं ततः ॥ २३ ॥
सकुण्डलं तदजिनं पपात सहसा तरोः।

मूलम्

बिल्वप्रहारैस्तस्याथ व्यशीर्यद् बन्धनं ततः ॥ २३ ॥
सकुण्डलं तदजिनं पपात सहसा तरोः।

अनुवाद (हिन्दी)

उन बेलोंकी चोटसे बन्धन टूट गया और कुण्डलसहित वह मृगचर्म सहसा वृक्षसे नीचे जा गिरा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशीर्णबन्धने तस्मिन् गते कृष्णाजिने महीम् ॥ २४ ॥
अपश्यद् भुजगः कश्चित्‌ ते तत्र मणिकुण्डले।
ऐरावतकुलोद्भूतः शीघ्रो भूत्वा तदा हि सः ॥ २५ ॥
विदश्यास्येन वल्मीकं विवेशाथ स कुण्डले।

मूलम्

विशीर्णबन्धने तस्मिन् गते कृष्णाजिने महीम् ॥ २४ ॥
अपश्यद् भुजगः कश्चित्‌ ते तत्र मणिकुण्डले।
ऐरावतकुलोद्भूतः शीघ्रो भूत्वा तदा हि सः ॥ २५ ॥
विदश्यास्येन वल्मीकं विवेशाथ स कुण्डले।

अनुवाद (हिन्दी)

बन्धन टूट जानेपर उस काले मृगछालेके पृथ्वीपर गिरते ही किसी सर्पकी दृष्टि उसपर पड़ी। वह ऐरावतके कुलमें उत्पन्न हुआ तक्षक था। उसने मृगछालाके भीतर रखे हुए उस मणिमय कुण्डलोंको देखा। फिर तो बड़ी शीघ्रता करके वह उन कुण्डलोंको दाँतोंमें दबाकर एक बाँबीमें घुस गया॥२४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रियमाणे तु दृष्ट्वा स कुण्डले भुजगेन ह ॥ २६ ॥
पपात वृक्षात् सोद्वेगो दुःखात् परमकोपनः।
स दण्डकाष्ठमादाय वल्मीकमखनत् तदा ॥ २७ ॥

मूलम्

ह्रियमाणे तु दृष्ट्वा स कुण्डले भुजगेन ह ॥ २६ ॥
पपात वृक्षात् सोद्वेगो दुःखात् परमकोपनः।
स दण्डकाष्ठमादाय वल्मीकमखनत् तदा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पके द्वारा कुण्डलोंका अपहरण होता देख उत्तंक मुनि उद्विग्न हो उठे और अत्यन्त क्रोधमें भरकर वृक्षसे कूद पड़े। आकर एक काठका डंडा हाथमें ले उसीसे उस बाँबीको खोदने लगे॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहानि त्रिंशदव्यग्रः पञ्च चान्यानि भारत।
क्रोधामर्षाभिसंतप्तस्तदा ब्राह्मणसत्तमः ॥ २८ ॥

मूलम्

अहानि त्रिंशदव्यग्रः पञ्च चान्यानि भारत।
क्रोधामर्षाभिसंतप्तस्तदा ब्राह्मणसत्तमः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! ब्राह्मणशिरोमणि उत्तंक क्रोध और अमर्षसे संतप्त हो लगातार पैंतीस दिनोंतक बिना किसी घबराहटके बिल खोदनेके कार्यमें जुटे रहे॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वेगमसह्यं तमसहन्ती वसुन्धरा।
दण्डकाष्ठाभिनुन्नाङ्गी चचाल भृशमाकुला ॥ २९ ॥

मूलम्

तस्य वेगमसह्यं तमसहन्ती वसुन्धरा।
दण्डकाष्ठाभिनुन्नाङ्गी चचाल भृशमाकुला ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके उस असह्य वेगको पृथ्वी भी नहीं सह सकी। वह डंडेकी चोटसे घायल एवं अत्यन्त व्याकुल होकर डगमगाने लगी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः खनत एवाथ विप्रर्षेर्धरणीतलम्।
नागलोकस्य पन्थानं कर्तुकामस्य निश्चयात् ॥ ३० ॥
रथेन हरियुक्तेन तं देशमुपजग्मिवान्।
वज्रपाणिर्महातेजास्तं ददर्श द्विजोत्तमम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततः खनत एवाथ विप्रर्षेर्धरणीतलम्।
नागलोकस्य पन्थानं कर्तुकामस्य निश्चयात् ॥ ३० ॥
रथेन हरियुक्तेन तं देशमुपजग्मिवान्।
वज्रपाणिर्महातेजास्तं ददर्श द्विजोत्तमम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंक नागलोकमें जानेका मार्ग बनानेके लिये निश्चय करके धरती खोदते ही जा रहे थे कि महातेजस्वी वज्रधारी इन्द्र घोड़े जुते हुए रथपर बैठकर उस स्थानपर आ पहुँचे और विप्रवर उत्तंकसे मिले॥३०-३१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु तं ब्राह्मणो भूत्वा तस्य दुःखेन दुःखितः।
उत्तङ्कमब्रवीत् वाक्यं नैतच्छक्यं त्वयेति वै ॥ ३२ ॥
इतो हि नागलोको वै योजनानि सहस्रशः।
न दण्डकाष्ठसाध्यं च मन्ये कार्यमिदं तव ॥ ३३ ॥

मूलम्

स तु तं ब्राह्मणो भूत्वा तस्य दुःखेन दुःखितः।
उत्तङ्कमब्रवीत् वाक्यं नैतच्छक्यं त्वयेति वै ॥ ३२ ॥
इतो हि नागलोको वै योजनानि सहस्रशः।
न दण्डकाष्ठसाध्यं च मन्ये कार्यमिदं तव ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! इन्द्र उत्तंकके दुःखसे दुःखी थे। अतः ब्राह्मणका वेष बनाकर उनसे बोले—‘ब्रह्मन्! यह काम तुम्हारे वशका नहीं है। नागलोक यहाँसे हजारों योजन दूर है। इस काठके डंडेसे वहाँका रास्ता बने, यह कार्य सधनेवाला नहीं जान पड़ता’॥३२-३३॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागलोके यदि ब्रह्मन् न शक्ये कुण्डले मया।
प्राप्तुं प्राणान्‌ विमोक्ष्यामि पश्यतस्तु द्विजोत्तम ॥ ३४ ॥

मूलम्

नागलोके यदि ब्रह्मन् न शक्ये कुण्डले मया।
प्राप्तुं प्राणान्‌ विमोक्ष्यामि पश्यतस्तु द्विजोत्तम ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— ब्रह्मन्! द्विजश्रेष्ठ! यदि नागलोकमें जाकर उन कुण्डलोंको प्राप्त करना मेरे लिये असम्भव है तो मैं आपके सामने ही अपने प्राणोंका परित्याग कर दूँगा॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा स नाशकत् तस्य निश्चयं कर्तुमन्यथा।
वज्रपाणिस्तदा दण्डं वज्रास्त्रेण युयोज ह ॥ ३५ ॥

मूलम्

यदा स नाशकत् तस्य निश्चयं कर्तुमन्यथा।
वज्रपाणिस्तदा दण्डं वज्रास्त्रेण युयोज ह ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! वज्रधारी इन्द्र जब किसी तरह उत्तंकको अपने निश्चयसे न हटा सके, तब उन्होंने उनके डंडेके अग्रभागमें अपने वज्रास्त्रका संयोग कर दिया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वज्रप्रहारैस्तैर्दार्यमाणा वसुन्धरा ।
नागलोकस्य पन्थानमकरोज्जनमेजय ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततो वज्रप्रहारैस्तैर्दार्यमाणा वसुन्धरा ।
नागलोकस्य पन्थानमकरोज्जनमेजय ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उस वज्रके प्रहारसे विदीर्ण होकर पृथ्वीने नागलोकका रास्ता प्रकट कर दिया॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेन मार्गेण तदा नागलोकं विवेश ह।
ददर्श नागलोकं च योजनानि सहस्रशः ॥ ३७ ॥

मूलम्

स तेन मार्गेण तदा नागलोकं विवेश ह।
ददर्श नागलोकं च योजनानि सहस्रशः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी मार्गसे उन्होंने नागलोकमें प्रवेश किया और देखा कि नागोंका लोक सहस्रों योजन विस्तृत है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राकारनिचयैर्दिव्यैर्मणिमुक्तास्वलंकृतैः ।
उपपन्नं महाभाग शातकुम्भमयैस्तथा ॥ ३८ ॥

मूलम्

प्राकारनिचयैर्दिव्यैर्मणिमुक्तास्वलंकृतैः ।
उपपन्नं महाभाग शातकुम्भमयैस्तथा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! उसके चारों ओर दिव्य परकोटे बने हुए हैं; जो सोनेकी ईंटोंसे बने हुए हैं और मणि-मुक्ताओंसे अलंकृत हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वापीः स्फटिकसोपाना नदीश्च विमलोदकाः।
ददर्श वृक्षांश्च बहून् नानाद्विजगणायुतान् ॥ ३९ ॥

मूलम्

वापीः स्फटिकसोपाना नदीश्च विमलोदकाः।
ददर्श वृक्षांश्च बहून् नानाद्विजगणायुतान् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ स्फटिक मणिकी बनी हुई सीढ़ियोंसे सुशोभित बहुत-सी बावड़ियों, निर्मल जलवाली अनेकानेक नदियों और विहगवृन्दसे विभूषित बहुत-से मनोहर वृक्षोंको भी उन्होंने देखा॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य लोकस्य च द्वारं स ददर्श भृगूद्वहः।
पञ्चयोजनविस्तारमायतं शतयोजनम् ॥ ४० ॥

मूलम्

तस्य लोकस्य च द्वारं स ददर्श भृगूद्वहः।
पञ्चयोजनविस्तारमायतं शतयोजनम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुकुलतिलक उत्तंकने नागलोकका बाहरी दरवाजा देखा, जो सौ योजन लंबा और पाँच योजन चौड़ा था॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागलोकमुत्तङ्कस्तु प्रेक्ष्य दीनोऽभवत् तदा।
निराशश्चाभवत् तत्र कुण्डलाहरणे पुनः ॥ ४१ ॥

मूलम्

नागलोकमुत्तङ्कस्तु प्रेक्ष्य दीनोऽभवत् तदा।
निराशश्चाभवत् तत्र कुण्डलाहरणे पुनः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागलोककी वह विशालता देखकर उत्तंक मुनि उस समय दीन—हतोत्साह हो गये। अब उन्हें फिर कुण्डल पानेकी आशा नहीं रही॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र प्रोवाच तुरगस्तं कृष्णश्वेतवालधिः।
ताम्रास्यनेत्रः कौरव्य प्रज्वलन्निव तेजसा ॥ ४२ ॥

मूलम्

तत्र प्रोवाच तुरगस्तं कृष्णश्वेतवालधिः।
ताम्रास्यनेत्रः कौरव्य प्रज्वलन्निव तेजसा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय उनके पास एक घोड़ा आया, जिसकी पूँछके बाल काले और सफेद थे। उसके नेत्र और मुँह लाल रंगके थे। कुरुनन्दन! वह अपने तेजसे प्रज्वलित-सा हो रहा था॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धमस्वापानमेतन्मे ततस्त्वं विप्र लप्स्यसे।
ऐरावतसुतेनेह तवानीते हि कुण्डले ॥ ४३ ॥

मूलम्

धमस्वापानमेतन्मे ततस्त्वं विप्र लप्स्यसे।
ऐरावतसुतेनेह तवानीते हि कुण्डले ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने उत्तंकसे कहा—विप्रवर! तुम मेरे इस अपान मार्गमें फूँक मारो। ऐसा करनेसे ऐरावतके पुत्रने जो तुम्हारे दोनों कुण्डल लाये हैं, वे तुम्हें मिल जायँगे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा जुगुप्सां कृथाः पुत्र त्वमत्रार्थे कथंचन।
त्वयैतद्धि समाचीर्णं गौतमस्याश्रमे तदा ॥ ४४ ॥

मूलम्

मा जुगुप्सां कृथाः पुत्र त्वमत्रार्थे कथंचन।
त्वयैतद्धि समाचीर्णं गौतमस्याश्रमे तदा ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! इस कार्यमें तुम किसी तरह घृणा न करो; क्योंकि गौतमके आश्रममें रहते समय तुमने अनेक बार ऐसा किया है’॥४४॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं भवन्तं जानीयामुपाध्यायाश्रमं प्रति।
यन्मया चीर्णपूर्वं हि श्रोतुमिच्छामि तद्‌ध्यहम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

कथं भवन्तं जानीयामुपाध्यायाश्रमं प्रति।
यन्मया चीर्णपूर्वं हि श्रोतुमिच्छामि तद्‌ध्यहम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने पूछा— गुरुदेवके आश्रमपर मैंने कभी आपका दर्शन किया है, इसका ज्ञान मुझे कैसे हो? और आपके कथनानुसार वहाँ रहते समय पहले जो कार्य मैं अनेक बार कर चुका हूँ, वह क्या है? यह मैं सुनना चाहता हूँ॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

अश्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरोर्गुरुं मां जानीहि ज्वलनं जातवेदसम्।
त्वया ह्यहं सदा विप्र गुरोरर्थेऽभिपूजितः ॥ ४६ ॥
विधिवत् सततं विप्र शुचिना भृगुनन्दन।
तस्माच्छ्रेयो विधास्यामि तवैवं कुरु मा चिरम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

गुरोर्गुरुं मां जानीहि ज्वलनं जातवेदसम्।
त्वया ह्यहं सदा विप्र गुरोरर्थेऽभिपूजितः ॥ ४६ ॥
विधिवत् सततं विप्र शुचिना भृगुनन्दन।
तस्माच्छ्रेयो विधास्यामि तवैवं कुरु मा चिरम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़ेने कहा— ब्रह्मन्! मैं तुम्हारे गुरुका भी गुरु जातवेदा अग्नि हूँ, यह तुम अच्छी तरह जान लो। भृगुनन्दन! तुमने अपने गुरुके लिये सदा पवित्र रहकर विधिपूर्वक मेरी पूजा की है। इसलिये मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा। अब तुम मेरे बताये अनुसार कार्य करो, विलम्ब न करो॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्तु तथाकार्षीदुत्तङ्कश्चित्रभानुना ।
घृतार्चिः प्रीतिमांश्चापि प्रजज्वाल दिधक्षया ॥ ४८ ॥

मूलम्

इत्युक्तस्तु तथाकार्षीदुत्तङ्कश्चित्रभानुना ।
घृतार्चिः प्रीतिमांश्चापि प्रजज्वाल दिधक्षया ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेवके ऐसा कहनेपर उत्तंकने उनकी आज्ञाका पालन किया। तब घृतमयी अर्चिवाले अग्निदेव प्रसन्न होकर नागलोकको जला डालनेकी इच्छासे प्रज्वलित हो उठे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य रोमकूपेभ्यो धम्यतस्तत्र भारत।
घनः प्रादुरभूद् धूमो नागलोकभयावहः ॥ ४९ ॥

मूलम्

ततोऽस्य रोमकूपेभ्यो धम्यतस्तत्र भारत।
घनः प्रादुरभूद् धूमो नागलोकभयावहः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जिस समय उत्तंकने फूँक मारना आरम्भ किया, उसी समय उस अश्वरूपधारी अग्निके रोम-रोमसे घनीभूत धूम उठने लगा; जो नागलोकको भयभीत करनेवाला था॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन धूमेन महता वर्धमानेन भारत।
नागलोके महाराज न प्राज्ञायत किंचन ॥ ५० ॥

मूलम्

तेन धूमेन महता वर्धमानेन भारत।
नागलोके महाराज न प्राज्ञायत किंचन ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज भरतनन्दन! बढ़ते हुए उस महान् धूमसे आच्छन्न हुए नागलोकमें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकृतमभूत् सर्वमैरावतनिवेशनम् ।
वासुकिप्रमुखानां च नागानां जनमेजय ॥ ५१ ॥
न प्राकाशन्त वेश्मानि धूमरुद्धानि भारत।
नीहारसंवृतानीव वनानि गिरयस्तथा ॥ ५२ ॥

मूलम्

हाहाकृतमभूत् सर्वमैरावतनिवेशनम् ।
वासुकिप्रमुखानां च नागानां जनमेजय ॥ ५१ ॥
न प्राकाशन्त वेश्मानि धूमरुद्धानि भारत।
नीहारसंवृतानीव वनानि गिरयस्तथा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! ऐरावतके सारे घरमें हाहाकार मच गया। भारत! वासुकि आदि नागोंके घर धूमसे आच्छादित हो गये। उनमें अँधेरा छा गया। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो कुहासासे ढके हुए वन और पर्वत हों॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते धूमरक्तनयना वह्नितेजोऽभितापिताः ।
आजग्मुर्निश्चयं ज्ञातुं भार्गवस्य महात्मनः ॥ ५३ ॥

मूलम्

ते धूमरक्तनयना वह्नितेजोऽभितापिताः ।
आजग्मुर्निश्चयं ज्ञातुं भार्गवस्य महात्मनः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धुआँ लगनेसे नागोंकी आँखें लाल हो गयी थीं। वे आगकी आँचसे तप रहे थे। महात्मा भार्गव (उत्तंक)-का क्या निश्चय है, यह जाननेके लिये सभी एकत्र होकर उनके पास आये॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा च निश्चयं तस्य महर्षेरतितेजसः।
सम्भ्रान्तनयनाः सर्वे पूजां चक्रुर्यथाविधि ॥ ५४ ॥

मूलम्

श्रुत्वा च निश्चयं तस्य महर्षेरतितेजसः।
सम्भ्रान्तनयनाः सर्वे पूजां चक्रुर्यथाविधि ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उन अत्यन्त तेजस्वी महर्षिका निश्चय सुनकर सबकी आँखें भयसे कातर हो गयीं तथा सबने उनका विधिवत् पूजन किया॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे प्राञ्जलयो नागा वृद्धबालपुरोगमाः।
शिरोभिः प्रणिपत्योचुः प्रसीद भगवन्निति ॥ ५५ ॥

मूलम्

सर्वे प्राञ्जलयो नागा वृद्धबालपुरोगमाः।
शिरोभिः प्रणिपत्योचुः प्रसीद भगवन्निति ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें सभी नाग बूढ़े और बालकोंको आगे करके हाथ जोड़, मस्तक झुका प्रणाम करके बोले—‘भगवन्! हमपर प्रसन्न हो जाइये’॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसाद्य ब्राह्मणं ते तु पाद्यमर्घ्यं निवेद्य च।
प्रायच्छन् कुण्डले दिव्ये पन्नगाः परमार्चिते ॥ ५६ ॥

मूलम्

प्रसाद्य ब्राह्मणं ते तु पाद्यमर्घ्यं निवेद्य च।
प्रायच्छन् कुण्डले दिव्ये पन्नगाः परमार्चिते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ब्राह्मण देवताको प्रसन्न करके नागोंने उन्हें पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया और वे दोनों परम पूजित दिव्य कुण्डल भी वापस कर दिये॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स पूजितो नागैस्तदोत्तङ्कः प्रतापवान्।
अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा जगाम गुरुसद्म तत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

ततः स पूजितो नागैस्तदोत्तङ्कः प्रतापवान्।
अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा जगाम गुरुसद्म तत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर नागोंसे सम्मानित होकर प्रतापी उत्तंक मुनि अग्निदेवकी प्रदक्षिणा करके गुरुके आश्रमकी ओर चल दिये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा त्वरितो राजन् गौतमस्य निवेशनम्।
प्रायच्छत् कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्यास्तदानघ ॥ ५८ ॥

मूलम्

स गत्वा त्वरितो राजन् गौतमस्य निवेशनम्।
प्रायच्छत् कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्यास्तदानघ ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! वहाँ गौतमके घरमें शीघ्रतापूर्वक पहुँचकर उन्होंने गुरुपत्नीको वे दोनों दिव्य कुण्डल दे दिये॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुकिप्रमुखानां च नागानां जनमेजय।
सर्वं शशंस गुरवे यथावद् द्विजसत्तमः ॥ ५९ ॥

मूलम्

वासुकिप्रमुखानां च नागानां जनमेजय।
सर्वं शशंस गुरवे यथावद् द्विजसत्तमः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! वासुकि आदि नागोंके यहाँ जो घटना घटी थी, उसका सारा समाचार द्विजश्रेष्ठ उत्तंकने अपने गुरु महर्षि गौतमसे ठीक-ठीक कह सुनाया॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं महात्मना तेन त्रील्लोँकान् जनमेजय।
परिक्रम्याहृते दिव्ये ततस्ते मणिकुण्डले ॥ ६० ॥

मूलम्

एवं महात्मना तेन त्रील्लोँकान् जनमेजय।
परिक्रम्याहृते दिव्ये ततस्ते मणिकुण्डले ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! इस प्रकार महात्मा उत्तंकने तीनों लोकोंमें घूमकर वे मणिमय दिव्य कुण्डल प्राप्त किये थे॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंप्रभावः स मुनिरुत्तङ्को भरतर्षभ।
परेण तपसा युक्तो यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ६१ ॥

मूलम्

एवंप्रभावः स मुनिरुत्तङ्को भरतर्षभ।
परेण तपसा युक्तो यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! उत्तंक मुनि, जिनके विषयमें तुम मुझसे पूछ रहे थे, ऐसे ही प्रभावशाली और महान् तपस्वी थे॥६१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि उत्तङ्कोपाख्याने अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तंकका उपाख्यानविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५८॥