०५७ उत्तङ्कोपाख्याने

भागसूचना

सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उत्तंकका सौदाससे उनकी रानीके कुण्डल माँगना और सौदासके कहनेसे रानी मदयन्तीके पास जाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं दृष्ट्वा तथाभूतं राजानं घोरदर्शनम्।
दीर्घश्मश्रुधरं नॄणां शोणितेन समुक्षितम् ॥ १ ॥

मूलम्

स तं दृष्ट्वा तथाभूतं राजानं घोरदर्शनम्।
दीर्घश्मश्रुधरं नॄणां शोणितेन समुक्षितम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा सौदास राक्षस होकर बड़े भयानक दिखायी देते थे। उनकी मूँछ और दाढ़ी बहुत बड़ी थी। वे मनुष्योंके रक्तसे रँगे हुए थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चकार न व्यथां विप्रो राजा त्वेनमथाब्रवीत्।
प्रत्युत्थाय महातेजा भयकर्ता यमोपमः ॥ २ ॥

मूलम्

चकार न व्यथां विप्रो राजा त्वेनमथाब्रवीत्।
प्रत्युत्थाय महातेजा भयकर्ता यमोपमः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखकर विप्रवर उत्तंकको तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्हें देखते ही महातेजस्वी राजा सौदास, जो यमराजके समान भयंकर थे, उठकर खड़े हो गये और उनके पास जाकर बोले—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्‌या त्वमसि कल्याण षष्ठे काले ममान्तिकम्।
भक्ष्यं मृगयमाणस्य सम्प्राप्तो द्विजसत्तम ॥ ३ ॥

मूलम्

दिष्ट्‌या त्वमसि कल्याण षष्ठे काले ममान्तिकम्।
भक्ष्यं मृगयमाणस्य सम्प्राप्तो द्विजसत्तम ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणस्वरूप द्विजश्रेष्ठ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि दिनके छठे भागमें आप स्वयं ही मेरे पास चले आये। मैं इस समय आहार ही ढूँढ़ रहा था’॥३॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् गुर्वर्थिनं विद्धि चरन्तं मामिहागतम्।
न च गुर्वर्थमुद्युक्तं हिंस्यमाहुर्मनीषिणः ॥ ४ ॥

मूलम्

राजन् गुर्वर्थिनं विद्धि चरन्तं मामिहागतम्।
न च गुर्वर्थमुद्युक्तं हिंस्यमाहुर्मनीषिणः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंक बोले— राजन्! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं गुरुदक्षिणाके लिये घूमता-फिरता यहाँ आया हूँ। जो गुरुदक्षिणा जुटानेके लिये उद्योगशील हो, उसकी हिंसा नहीं करनी चाहिये, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है॥४॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्ठे काले ममाहारो विहितो द्विजसत्तम।
न शक्यस्त्वं समुत्स्रष्टुं क्षुधितेन मयाद्य वै ॥ ५ ॥

मूलम्

षष्ठे काले ममाहारो विहितो द्विजसत्तम।
न शक्यस्त्वं समुत्स्रष्टुं क्षुधितेन मयाद्य वै ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— द्विजश्रेष्ठ! दिनके छठे भागमें मेरे लिये आहारका विधान किया गया है। यह वही समय है। मैं भूखसे पीड़ित हो रहा हूँ। इसलिये मेरे हाथोंसे तुम छूट नहीं सकते॥५॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमस्तु महाराज समयः क्रियतां तु मे।
गुर्वर्थमभिनिर्वर्त्य पुनरेष्यामि ते वशम् ॥ ६ ॥

मूलम्

एवमस्तु महाराज समयः क्रियतां तु मे।
गुर्वर्थमभिनिर्वर्त्य पुनरेष्यामि ते वशम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— महाराज! ऐसा ही सही, किंतु मेरे साथ एक शर्त कर लीजिये। मैं गुरुदक्षिणा चुकाकर फिर आपके वशमें आ जाऊँगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संश्रुतश्च मया योऽर्थो गुरवे राजसत्तम।
त्वदधीनः स राजेन्द्र तं त्वां भिक्षे नरेश्वर ॥ ७ ॥

मूलम्

संश्रुतश्च मया योऽर्थो गुरवे राजसत्तम।
त्वदधीनः स राजेन्द्र तं त्वां भिक्षे नरेश्वर ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! नृपश्रेष्ठ! मैंने गुरुको जो वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा की है, वह आपके ही अधीन है; अतः नरेश्वर! मैं आपसे उसकी भीख माँगता हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददासि विप्रमुख्येभ्यस्त्वं हि रत्नानि नित्यदा।
दाता च त्वं नरव्याघ्र पात्रभूतः क्षिताविह।
पात्रं प्रतिग्रहे चापि विद्धि मां नृपसत्तम ॥ ८ ॥

मूलम्

ददासि विप्रमुख्येभ्यस्त्वं हि रत्नानि नित्यदा।
दाता च त्वं नरव्याघ्र पात्रभूतः क्षिताविह।
पात्रं प्रतिग्रहे चापि विद्धि मां नृपसत्तम ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! आप प्रतिदिन बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको रत्न प्रदान करते हैं। इस पृथ्वीपर आप एक श्रेष्ठ दानीके रूपमें प्रसिद्ध हैं और मैं भी दान लेनेका पात्र हूँ। नृपश्रेष्ठ! आप मुझे प्रतिग्रहका अधिकारी समझें॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाहृत्य गुरोरर्थं त्वदायत्तमरिंदम ।
समयेनेह राजेन्द्र पुनरेष्यामि ते वशम् ॥ ९ ॥

मूलम्

उपाहृत्य गुरोरर्थं त्वदायत्तमरिंदम ।
समयेनेह राजेन्द्र पुनरेष्यामि ते वशम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन राजेन्द्र! गुरुका धन जो आपके ही अधीन है, उन्हें अर्पित करके मैं अपनी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार फिर आपके अधीन हो जाऊँगा॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं ते प्रतिजानामि नात्र मिथ्या कथंचन।
अनृतं नोक्तपूर्वं मे स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा ॥ १० ॥

मूलम्

सत्यं ते प्रतिजानामि नात्र मिथ्या कथंचन।
अनृतं नोक्तपूर्वं मे स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ, इसमें किसी तरह मिथ्याके लिये स्थान नहीं है। मैं पहले कभी परिहासमें भी झूठ नहीं बोला हूँ, फिर अन्य अवसरोंपर तो बोल ही कैसे सकता हूँ॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मत्तस्तवायत्तो गुर्वर्थः कृत एव सः।
यदि चास्मि प्रतिग्राह्यः साम्प्रतं तद् वदस्व मे ॥ ११ ॥

मूलम्

यदि मत्तस्तवायत्तो गुर्वर्थः कृत एव सः।
यदि चास्मि प्रतिग्राह्यः साम्प्रतं तद् वदस्व मे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदासने कहा— ब्रह्मन्! यदि आपकी गुरुदक्षिणा मेरे अधीन है तो उसे मिली हुई ही समझिये। यदि आप मेरी कोई वस्तु लेनेके योग्य मानते हैं तो बताइये, इस समय मैं आपको क्या दूँ?॥११॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिग्राह्यो मतो मे त्वं सदैव पुरुषर्षभ।
सोऽहं त्वामनुसम्प्राप्तो भिक्षितुं मणिकुण्डले ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रतिग्राह्यो मतो मे त्वं सदैव पुरुषर्षभ।
सोऽहं त्वामनुसम्प्राप्तो भिक्षितुं मणिकुण्डले ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— पुरुषप्रवर! आपका दिया हुआ दान मैं सदा ही ग्रहण करनेके योग्य मानता हूँ। इस समय मैं आपकी रानीके दोनों मणिमय कुण्डल माँगनेके लिये यहाँ आया हूँ॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्न्यास्ते मम विप्रर्षे उचिते मणिकुण्डले।
वरयार्थं त्वमन्यं वै तं ते दास्यामि सुव्रत ॥ १३ ॥

मूलम्

पत्न्यास्ते मम विप्रर्षे उचिते मणिकुण्डले।
वरयार्थं त्वमन्यं वै तं ते दास्यामि सुव्रत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदासने कहा— ब्रह्मर्षे! वे मणिमय कुण्डल तो मेरी रानीके ही योग्य हैं। सुव्रत! आप और कोई वस्तु माँगिये, उसे मैं आपको अवश्य दे दूँगा॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलं ते व्यपदेशेन प्रमाणा यदि ते वयम्।
प्रयच्छ कुण्डले मह्यं सत्यवाग् भव पार्थिव ॥ १४ ॥

मूलम्

अलं ते व्यपदेशेन प्रमाणा यदि ते वयम्।
प्रयच्छ कुण्डले मह्यं सत्यवाग् भव पार्थिव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंकने कहा— पृथ्वीनाथ! अब बहाना करना व्यर्थ है। यदि आप मुझपर विश्वास करते हैं तो वे दोनों मणिमय कुण्डल आप मुझे दे दें और सत्यवादी बनें॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्त्वब्रवीद् राजा तमुत्तङ्कं पुनर्वचः।
गच्छ मद्वचनाद् देवीं ब्रूहि देहीति सत्तम ॥ १५ ॥

मूलम्

इत्युक्तस्त्वब्रवीद् राजा तमुत्तङ्कं पुनर्वचः।
गच्छ मद्वचनाद् देवीं ब्रूहि देहीति सत्तम ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! उनके ऐसा कहनेपर राजा फिर उत्तंकसे बोले—‘साधुशिरोमणे! आप रानीके पास जाइये और मेरी आज्ञा सुनाकर कहिये। आप मुझे कुण्डल दे दें॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवमुक्ता त्वया नूनं मद्वाक्येन शुचिव्रता।
प्रदास्यति द्विजश्रेष्ठ कुण्डले ते न संशयः ॥ १६ ॥

मूलम्

सैवमुक्ता त्वया नूनं मद्वाक्येन शुचिव्रता।
प्रदास्यति द्विजश्रेष्ठ कुण्डले ते न संशयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजश्रेष्ठ! रानी उत्तम व्रतका पालन करनेवाली हैं। जब आप उनसे इस प्रकार कहेंगे, तब वे मेरी आज्ञा मानकर दोनों कुण्डल आपको दे देंगी, इसमें संशय नहीं है’॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व पत्नी भवतः शक्या मया द्रष्टुं नरेश्वर।
स्वयं वापि भवान् पत्नीं किमर्थं नोपसर्पति ॥ १७ ॥

मूलम्

क्व पत्नी भवतः शक्या मया द्रष्टुं नरेश्वर।
स्वयं वापि भवान् पत्नीं किमर्थं नोपसर्पति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तंक बोले— नरेश्वर! मैं कहाँ आपकी पत्नीको ढूँढ़ता फिरूँगा? मुझे क्योंकर उनका दर्शन हो सकेगा? आप स्वयं ही अपनी पत्नीके पास क्यों नहीं चलते?॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां द्रक्ष्यति भवानद्य कस्मिंश्चिद् वननिर्झरे।
षष्ठे काले न हि मया सा शक्या द्रष्टुमद्य वै॥१८॥

मूलम्

तां द्रक्ष्यति भवानद्य कस्मिंश्चिद् वननिर्झरे।
षष्ठे काले न हि मया सा शक्या द्रष्टुमद्य वै॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदासने कहा— ब्रह्मन्! उन्हें आज आप वनमें किसी झरनेके पास देखेंगे। यह दिनका छठा भाग है (मैं आहारकी खोजमें हूँ), अतः इस समय मैं उनसे नहीं मिल सकता॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तङ्कस्तु तथोक्तः स जगाम भरतर्षभ।
मदयन्तीं च दृष्ट्वा स ज्ञापयत् स्वप्रयोजनम् ॥ १९ ॥

मूलम्

उत्तङ्कस्तु तथोक्तः स जगाम भरतर्षभ।
मदयन्तीं च दृष्ट्वा स ज्ञापयत् स्वप्रयोजनम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भरतभूषण! राजाके ऐसा कहनेपर उत्तंक मुनि महारानी मदयन्तीके पास गये और उनसे अपने आनेका प्रयोजन बतलाया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौदासवचनं श्रुत्वा ततः सा पृथुलोचना।
प्रत्युवाच महाबुद्धिमुत्तङ्कं जनमेजय ॥ २० ॥

मूलम्

सौदासवचनं श्रुत्वा ततः सा पृथुलोचना।
प्रत्युवाच महाबुद्धिमुत्तङ्कं जनमेजय ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! राजा सौदासका संदेश सुनकर विशाललोचना रानीने महाबुद्धिमान् उत्तंक मुनिको इस प्रकार उत्तर दिया—॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतद् वद ब्रह्मन् नानृतं वदसेऽनघ।
अभिज्ञानं तु किंचित् त्वं समानयितुमर्हसि ॥ २१ ॥

मूलम्

एवमेतद् वद ब्रह्मन् नानृतं वदसेऽनघ।
अभिज्ञानं तु किंचित् त्वं समानयितुमर्हसि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! आप जो कहते हैं, वह ठीक है। अनघ! यद्यपि आप असत्य नहीं बोलते हैं, तथापि आप महाराजके ही पाससे उन्हींका संदेश लेकर आये हैं, इस बातका कोई प्रमाण आपको लाना चाहिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे हि दिव्ये मणिकुण्डले मे
देवाश्च यक्षाश्च महर्षयश्च ।
तैस्तैरुपायैरपहर्तुकामा-
श्छिद्रेषु नित्यं परितर्कयन्ति ॥ २२ ॥

मूलम्

इमे हि दिव्ये मणिकुण्डले मे
देवाश्च यक्षाश्च महर्षयश्च ।
तैस्तैरुपायैरपहर्तुकामा-
श्छिद्रेषु नित्यं परितर्कयन्ति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे ये दोनों मणिमय कुण्डल दिव्य हैं। देवता, यक्ष और महर्षि लोग नाना प्रकारके उपायोंद्वारा इसे चुरा ले जानेकी इच्छा रखते हैं और इसके लिये सदा छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निक्षिप्तमेतद् भुवि पन्नगास्तु
रत्नं समासाद्य परामृशेयुः ।
यक्षास्तथोच्छिष्टधृतं सुराश्च
निद्रावशाद् वा परिधर्षयेयुः ॥ २३ ॥

मूलम्

निक्षिप्तमेतद् भुवि पन्नगास्तु
रत्नं समासाद्य परामृशेयुः ।
यक्षास्तथोच्छिष्टधृतं सुराश्च
निद्रावशाद् वा परिधर्षयेयुः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि इन कुण्डलोंको पृथ्वीपर रख दिया जाय तो नाग लोग इसे हड़प लेंगे। अपवित्र अवस्थामें इन्हें धारण करनेपर यक्ष उड़ा ले जायँगे और यदि इन्हें पहनकर नींद लेने लग जाय तो देवतालोग बलात् छीन ले जायँगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिद्रेष्वेतेष्विमे नित्यं ह्रियेते द्विजसत्तम।
देवराक्षसनागानामप्रमत्तेन धार्यते ॥ २४ ॥

मूलम्

छिद्रेष्वेतेष्विमे नित्यं ह्रियेते द्विजसत्तम।
देवराक्षसनागानामप्रमत्तेन धार्यते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजश्रेष्ठ! इन छिद्रोंमें इन दोनों कुण्डलोंके खो जानेका भय सदा बना रहता है। जो देवता, राक्षस और नागोंकी ओरसे सावधान होता है, वही इन्हें धारण कर सकता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्यन्देते हि दिवा रुक्मं रात्रौ च द्विजसत्तम।
नक्तं नक्षत्रताराणां प्रभामाक्षिप्य वर्ततः ॥ २५ ॥

मूलम्

स्यन्देते हि दिवा रुक्मं रात्रौ च द्विजसत्तम।
नक्तं नक्षत्रताराणां प्रभामाक्षिप्य वर्ततः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजश्रेष्ठ! ये दोनों कुण्डल रात-दिन सोना टपकाते रहते हैं। इतना ही नहीं, रातमें ये नक्षत्रों और तारोंकी प्रभाको भी छीन लेते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते ह्यामुच्य भगवन् क्षुत्पिपासाभयं कुतः।
विषाग्निश्वापदेभ्यश्च भयं जातु न विद्यते ॥ २६ ॥

मूलम्

एते ह्यामुच्य भगवन् क्षुत्पिपासाभयं कुतः।
विषाग्निश्वापदेभ्यश्च भयं जातु न विद्यते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! इन्हें धारण कर लेनेपर भूख-प्यासका भय कहाँ रह जाता है? विष, अग्नि और हिंसक जन्तुओंसे भी कभी भय नहीं होता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ह्रस्वेन चैते आमुक्ते भवतो ह्रस्वके तदा।
अनुरूपेण चामुक्ते जायेते तत्प्रमाणके ॥ २७ ॥

मूलम्

ह्रस्वेन चैते आमुक्ते भवतो ह्रस्वके तदा।
अनुरूपेण चामुक्ते जायेते तत्प्रमाणके ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘छोटे कदका मनुष्य इन कुण्डलोंको पहने तो छोटे हो जाते हैं और बड़ी डील-डौलवाले मनुष्यके पहननेपर उसीके अनुरूप बड़े हो जाते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंविधे ममैते वै कुण्डले परमार्चिते।
त्रिषु लोकेषु विज्ञाते तदभिज्ञानमानय ॥ २८ ॥

मूलम्

एवंविधे ममैते वै कुण्डले परमार्चिते।
त्रिषु लोकेषु विज्ञाते तदभिज्ञानमानय ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसे गुणोंसे युक्त होनेके कारण मेरे ये दोनों कुण्डल तीनों लोकोंमें परम प्रशंसित एवं प्रसिद्ध हैं। अतः आप महाराजकी आज्ञासे इन्हें लेने आये हैं, इसका कोई पहचान या प्रमाण लाइये’॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि उत्तङ्कोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्वके अन्तर्गत अनुगीतापर्वमें उत्तंक मुनिका उपाख्यानविषयक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५७॥